मानस के राम
भाग 20
जटायु का बलिदान
सीता को पुष्पक विमान में बैठा कर रावण लंका ले जा रहा था। सीता सहायता के लिए पुकार रही थीं। उनकी करुण पुकार जटायु को सुनाई दी। वह तुरंत सीता की सहायता के लिए पहुँचा। उसे देख कर सीता ने सहायता के लिए पुकारा,
"यह दुष्ट मुझे हरण कर ले जा रहा है। मेरी सहायता करो।"
सीता की यह दशा देख कर जटायु का रक्त खौल उठा। वह गिद्धों का राजा था। पुष्पक विमान के सामने आकर उसने रावण को ललकारा,
"हे लंकापति रावण। एक वीर होकर यूं कायरों की तरह एक स्त्री का अपहरण करते तुम्हें लाज नहीं आती है। तू जो कर रहा है वह अधर्म है। सीता को छोड़ दे।"
जटायु की ललकार सुन कर रावण अट्टहास कर बोला,
"मूर्ख पक्षी तुझे अपने प्राण प्यारे नहीं हैं जो मुझसे उलझ रहा है। मेरी राह छोड़ दे। अन्यथा प्राण गंवाने पड़ेंगे।"
जटायु ने कहा,
"मुझे अपने प्राणों की परवाह नहीं हैं। किंतु मेरे जीवित रहते तुम पुत्री सीता को नहीं ले जा सकते हो।"
जटायु की बात सुन कर रावण क्रोध में बोला,
"यदि तू मेरे हाथों मरना चाहता है तो यही सही।"
यह कह कर उसने अपनी तलवार से जटायु पर वार किया। जटायु भी अपनी पूरी शक्ति से उस पर टूट पड़ा। रावण अपनी तलवार से जटायु पर वार कर रहा था। उसके वार से बचते हुए जटायु भी अपनी चोंच व पंजों से उस पर प्रहार कर रहा था। जटायु अपनी सामर्थ्य भर रावण का सामना करता रहा। उसने अपने पंजों से झपट्टा मार कर रावण के सर पर रखा रत्नजड़ित मुकुट गिरा दिया। जटायु के वार से रावण के हाथ से उसका धनुष छूट गया। अपनी चोंच के वार से जटायु ने रावण को घायल भी कर दिया। किंतु जटायु की आयु हो चुकी थी। धीरे धीरे उसकी शक्ति क्षीण होने लगी। अंततः उसकी शक्ति जवाब दे गई। रावण ने तलवार से उसके पंख कतर दिए। असहाय जटायु भूमि पर गिर पड़ा। उसकी यह दशा देख कर सीता ने द्रवित हो कर कहा,
"हे पिता तुल्य आपने मेरी रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। आप धन्य हैं। संसार सदा आपको याद रखेगा।"
रावण सीता को लेकर लंका की तरफ बढ़ने लगा। बचाव की कोई राह ना देख कर सीता ने संकेत के तौर पर अपने आभूषण मार्ग में गिराने शुरू कर दिए।
सीता के वियोग में राम का विलाप
स्वर्ण मृग बने मारीचि का पीछा करते हुए जब राम ने उस पर बाण चलाया तो उसने करुण स्वर में पुकारा,
"हे सीता.....हे लक्ष्मण..... सहायता करो।"
इस पुकार को सुन परेशान सीता ने लक्ष्मण को राम की सहायता के लिए भेज दिया। राम को यही डर था कि कहीं इस पुकार को सुन कर लक्ष्मण सीता को अकेला छोड़ कर उनके पास यहाँ ना आ जाएं। वह तुरंत अपने सुरक्षित होने की सूचना देने के लिए कुटिया की तरफ लौटने लगे। किंतु लक्ष्मण उन्हें मार्ग में ही मिल गए। उन्हें देखते ही राम बोले,
"लक्ष्मण मैंने तुम्हें आदेश दिया थी कि किसी भी परिस्थिति में सीता को अकेला मत छोड़ना। फिर तुम यहांँ क्यों आए। क्या तुम्हें अपने भ्राता के पराक्रम पर भरोसा नहीं हैं।"
राम की बात सुन कर लक्ष्मण ने कहा,
"आपके शौर्य पर मैं कैसे संदेह कर सकता हूँ। किंतु भाभीश्री ने जब वह करुण पुकार सुनी तो वह व्याकुल हो उठीं। मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि भ्राता राम का अहित कोई नहीं कर सकता। किंतु वह नहीं मानीं। मुझ पर कायरता का आरोप लगाने लगीं। उन्होंने मुझ पर आपका अहित सोंचने का आरोप लगाया। दुखी मन से मुझे उनके आदेश पर यहाँ आना पड़ा।"
राम लक्ष्मण के इस तर्क से सहमत नहीं हुए,
"माना कि मेरे प्राणों पर संकट जान कर सीता घबरा कर अपना विवेक खो बैठी। किंतु तुम तो जानते हो कि संसार की कोई माया मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। तुम्हें अपने विवेक से काम लेना चाहिए था। मैंने तुम्हें किसी भी स्थिति में सीता को अकेला ना छोड़ने का आदेश दिया था। तुमने मेरे आदेश की भी अनदेखी की है।"
राम की बात सुन कर लक्ष्मण लज्जित हुए। वह दृष्टि नीचे किए राम की उलाहना सुन रहे थे,
"सीता अवश्य संकट में होगी। मेरा ह्रदय कह रहा है कि जब हम वापस जाएंगे तो सीता हमें वहाँ नहीं मिलेगी। यदि ऐसा हुआ तो मैं सीता के बिना जीवित नहीं रह पाऊंँगा।"
राम तथा लक्ष्मण दोनों कुटिया की तरफ भागे। वहाँ उन्हें सीता कहीं भी नहीं दिखाई दीं। कुटिया के द्वार पर कुछ कंद मूल व भोजन सामग्री गिरे हुए थे। राम समझ गए कि जिस अनहोनी की आशंका उन्हें थी वह हो गई। अवश्य ही सीता को कोई राक्षस ले गया है। ना जाने सीता किस हाल में होगी। यह सोंच कर राम का ह्रदय वेदना से फटा जा रहा था। वह सीता को पुकारते हुए इधर उधर खोजने लगे।
राम सीता के वियोग में व्याकुल वन में भटक रहे थे। कभी वह वृक्षों से सीता के बारे में पूंछते तो कभी पक्षियों से। उन्हें इस प्रकार व्याकुल देख कर लक्ष्मण ने उन्हें संभालने का प्रयास किया,
"भ्राताश्री आप इस तरह व्यथित ना हों। हमें धीरज रख कर भाभीश्री को खोजना होगा।"
लक्ष्मण के समझाने पर राम उनके साथ सीता को खोजने लगे। जहाँ कहीं भी सीता के मिलने की संभावना थी वहाँ उन्होंने सीता को खोजा। किंतु सीता कहीं भी नहीं मिलीं। सब तरफ देखने के बाद राम थक कर बैठ गए।
"लक्ष्मण हमनें सब तरफ देख लिया। सीता कहीं भी नहीं मिली। अवश्य ही कोई राक्षस उसे ले गया है। उसने हमें सहायता के लिए पुकारा होगा। किंतु हमने नहीं सुना। हाय अपनी पत्नी की रक्षा करने का धर्म भी मैं नहीं निभा सका।"
लक्ष्मण राम को सांत्वना देने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन राम सीता के ना मिलने से व्यथित हुए जा रहे थे। अपना पति धर्म ना निभा पाने के कारण वह बहुत दुखी थे।
"लक्ष्मण अब मैं अयोध्या जाकर सबको क्या उत्तर दूंँगा। जो अपनी पत्नी को संकट से नहीं बचा सका वह अयोध्या की रक्षा कैसे करेगा। जब महाराज जनक मुझसे अपनी पुत्री के बारे में पूंँछेंगे तो मैं क्या कहूंँगा। सीता मेरा साथ निभाने के लिए वन के कष्ट सहने चली आई। मैं उसे संकट से भी नहीं बचा सका।"
लक्ष्मण राम की पीड़ा को समझ रहे थे। किंतु वह जानते थे कि इस तरह धैर्य खो देने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने राम को पुनः समझाया।
"भ्राताश्री मैं भी भाभीश्री के ना मिलने से व्यथित हूँ। किंतु फिर भी धैर्य रखे हूँ। आप भी इस प्रकार विलाप ना करें। आइए हम दोनों मिल कर पुनः उन्हें खोजने का प्रयास करते हैं।"
राम और लक्ष्मण पुनः सीता को खोजने लगे। खोजते हुए वह उस स्थान पर पहुँचे जहाँ जटायु घायल पड़ा था। राम तथा लक्ष्मण उसके पास गए। घायल जटायु पीड़ा से कराह रहा था। राम को देख कर वह बोला,
"हे राम मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने पुत्री सीता को दुष्ट रावण के चंगुल से बचाने का पूरा प्रयास किया। किंतु अपनी वृद्धावस्था के कारण अधिक समय तक उसका सामना नहीं कर सका। वह सीता को हर कर अपने पुष्पक विमान में दक्षिण दिशा की ओर ले गया है।"
जटायु की बात सुन कर राम के नेत्रों से आंसू आ गए। वह भाव विह्वल होकर बोले,
"हे जटायु आप हमारे पिता समान हैं। जिस प्रकार एक पिता अपनी पुत्री को संकट से बचाने का प्रयास करता है। आपने भी सीता की रक्षा का प्रयास किया। मैं आपका ऋणी हूँ। किंतु अब मैं अपनी सीता को किस तरह खोज पाऊंँगा।"
राम की बात सुन कर जटायु ने कहा,
"हे राम वह दुष्ट रावण सीता जैसी सती का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। मेरे जैसे वृद्ध पक्षी ने अपने पंजों तथा चोंच से उसका सामना किया। उसके चिन्ह यहाँ चारों तरफ बिखरे हैं। फिर आपके शौर्य व पराक्रम के आगे वह कहाँ टिक पाएगा। शोक ना करें। क्षत्रिय होने के नाते अपने बाहुबल पर विश्वास रखें।"
यह कह कर जटायु ने प्राण त्याग दिए। राम तथा लक्ष्मण ने मिल कर जटायु का अंतिम संस्कार कर दिया।
पहरे में सीता
जटायु को घायल करने के बाद रावण पुष्पक विमान को आकाश मार्ग द्वारा लंका ले जा रहा था। सीता रावण की इस धृष्टता के लिए उसे अपने भयंकर परिणाम को भुगतने की चेतावनी दे रही थीं। उनके नेत्र क्रोध के कारण लाल हो गए थे।
"नीच दुष्कर्मी तू अपनी शक्ति की डींगें हांकता है। निर्लज्ज तू तो एक चोर है जो पति की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी को हर कर ले जा रहा है। पर याद रख। मेरे पति राम एक पराक्रमी क्षत्रिय हैं। जब उन्हें तेरी इस नीचता का पता चलेगा तो वह तुझे तेरे किए का दंड अवश्य देंगे। तू अब अपने और अपने कुल का अंत निकट समझ।"
रावण सीता के इन वचनों को सुन कर भी अनसुना कर रहा था। कई पर्वतों, नदियों, घाटियों को पार करता पुष्पक विमान दक्षिण दिशा मे अपने लक्ष्य की तरफ बढ रहा था।
पंपा सरोवर तथा विशाल समुद्र को पार कर विमान लंका पहुँच गया। लंका बहुत ही सुंदर नगरी थी किंतु सीता को वहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। वह बस राम के विषय में ही सोंच रही थीं। उनके वियोग में राम का ना जाने क्या हाल होगा यह सोंच कर वह और दुखी हो रही थीं।
रावण सीता को अपने राजमहल में ले गया। वह सोंच रहा था कि जब सीता उसका वैभव देखेंगी तो राम से बिछुड़ने का दुख भूल जाएंगी। रत्नजड़ित आभूषण तथा सुंदर वस्त्र उनके ह्रदय से राम की स्मृति को मिटा देंगे। किंतु यह उसका भ्रम था।
राक्षसों के पहरे में उसने सीता को महल के अंदर रखा। परिचारकों को आदेश दिया कि सीता जिस वस्तु की इच्छा जताएं वह बिना विलंब के उन्हें दी जाए। उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखा जाए। कोई भी ऐसी बात ना हो जो सीता को कष्ट पहुँचाए।