मानव में हिंसक प्रवृत्ति क्यों?
हमारा देश विविधता में एकता का संदेश देता है। यहां के लोग सहिष्णुता का गुण रखते हैं, जियो और जीने दो को बढ़ावा देना ही हम भारतीयों का संदेश होता है। फिर समाज में ऐसी गतिविधियां क्यों नजर आती हैं जो हमारे हृदय को भेद देती हैं। हाथरस उत्तर प्रदेश, अलवर राजस्थान या कोई भी अन्य क्षेत्र हो जहां से हमें बेटियों के साथ विभत्स घटनाएं सुनने को मिलती हैं। प्रशासन का दायित्व है कि अपराध के रोकथाम व अपराधियों को दंडित करने पर विचार करे, किन्तु हम मानव में हिंसक प्रवृत्ति क्यों जन्म ले रही है? मानवता हमारे अंदर से समाप्त क्यों होती जा रही है? युवा वर्ग अपनी शक्ति का प्रदर्शन एक अबोध बच्ची व महिला पर ही क्यों? युवा वर्ग दिग्भ्रमित क्यों होता जा रहा है? दंगे फसाद कर राज्य की सम्पति को तहस-नहस करना? ऐसे न जाने कितने प्रश्न दिलों दिमाग में उठते हैं। यही शक्ति प्रदर्शन यदि युवा अपने देश की भूमि को उपजाऊ बनाने व देश की सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी को निभाने में प्रयोग करेगा तो समाज का भी भला होगा। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव लाते हुए बाल मानसिकता को समझते हुए , सद्गति ,परोपकार, सद्भावना जैसे आदि गुणों को विकसित करना होगा। पुरानी शिक्षा व्यवस्था से कुछ अच्छी कहानियों का चयन कर, आज में शामिल करें ताकि नैतिक मूल्यों को बरकरार रखा जा सके।
सभी पार्टियों के नेताओं को अपनी-अपनी रोटी सेंकने की प्रवृत्ति को बंद करके एक जुट होकर इस समस्या से निजात पाने के विषय में गंभीरता से विचार विमर्श करने की आवश्यकता है। इस तरह हम नागरिकों का मनोबल भी बढ़ेगा, युवाओं व मनोविशेषज्ञों को शामिल कर अपराध को रोकने के लिए नए सुझाव के साथ अग्रसर होना होगा। पुलिस अधिकारियों को अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने की आवश्यकता है, उन्हें किसी के दबाव से परे होकर निष्पक्ष रूप से अपने दायित्वों को निभाने की जरूरत है। साथ ही ऐसी व्यवस्था जहां मनचलों के लिए कोई स्थान न हो और प्रशासन का भय हो। समाज कल्याण मानव के आचरण पर ही निर्भर करता है, आने वाली पीढ़ी को संस्कारवान बनाने व कर्तव्य बोध कराने की कोशिश कर एक उज्जवल भविष्य की ओर कदम बढ़ा सकते हैं।
दरअसल हम भी इसी समाज का ही हिस्सा हैं तो इससे हमारा दायित्व कहीं अधिक हो जाता है। हम सब भी जिम्मेदार हैं जो अपने बच्चों, खासकर बेटों को उचित संस्कार व शिक्षा देने में चूक रहे हैं। यूं तो हमारे देश में देवियों की पूजा सर्वाधिक होती है हर घर में देवी की प्रतिमा विद्यमान होती है। फिर ऐसे में बेटियों व महिलाओं का तिरस्कार, प्रताड़ना व अपराध आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिल ही जाते हैं । इस तरह की घटनाएं सिर्फ निम्न तबके में ही नहीं बल्कि शिक्षित वर्ग में भी देखने, सुनने को मिल ही जाता है। उच्च शिक्षित वर्ग में डी एस पी , आई एस पी जैसे अधिकारी भी महिलाओं पर हाथ उठा देते हैं। आखिरकार शिक्षा हमारी जीवनशैली को किस प्रकार बदल रहा है जबकि हमें शिक्षित होकर विनम्र, संवेदनशील होने की जरूरत है।
हां, जीवन की एक वास्तविकता यह भी है कि सुख की परिभाषा ही बदलती जा रही है। हमारी जीवनशैली सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है अत्यधिक धन दौलत को ही सुख समझ बैठे हैं। गर हम बनावटीपन से जीवन को बचा सकें तो जीवन आनंदमय हो जाएगा। अपने बच्चों में दया, परोपकार, प्रेम ,आस्था जैसे सद्गुणों का विस्तार करें तो मानवता धर्म की रक्षा संभव हो सकती है। मानवता धर्म सर्वोपरि है अन्य किसी भी धर्म से। इंसानियत शर्मशार हो रही है, केरल में पशुओं तक को भी मानव ने नहीं बकक्षा। ये कैसी मानसिकता विकसित हो रही है? अब हमारे आत्मचिंतन करने का समय आ गया है ताकि स्वयं से ही प्रश्न करें कि बहन व मां समान बेटियों को हम सम्मान की दृष्टि से देखें। स्वयं के बुद्धि व बल का प्रयोग सही दिशा में करें ताकि कुछ रचनात्मक कार्य किया जा सके। हमारे अंदर के रावण को अंदर ही दफ़न कर सकें और अंदर व्याप्त सद्गुणों को विकसित करें उसे लुप्त होने से बचाएं। ईश्वर ने सभी के अंदर लुप्त कुछ गुणों को दे रखा है उसे पहचानने और उजागर करने की आवश्यकता है। अंगुलीमाल और खड्गसिंह डाकू जैसी कहानियों से हमें सीख लेने की आवश्यकता है कि आखिरकार तन-मन को सुख और शांति उसके कर्म से ही प्राप्त होता है। यानि युवा वर्ग को दिग्भ्रमित होने से बचने के लिए कुछ प्रेरित करने वाली जिंदगी की साक्षात् सच्ची घटनाओं को उजागर करने की जरूरत है। अब कोविड १९ जैसी जैविक महामारी के वर्ष में ही हमारे ही देश में सिख, मुस्लिम व अन्य समुदायों के लोगों ने किस प्रकार कोविड से हुई मृत्यु व लावारिस लाशों का दाह संस्कार कर मानवता का परिचय दिया है। यानि इंसानियत सद्भावना जैसी चिंगारी हमारे अंदर दबी है बस उसे महसूस कर जीवित करने की आवश्यकता है।
इसी धरती पर कुछ ऐसे इंसान भी हैं जिन्होंने लाकडाउन के वक्त लोगों को अनाज, पानी, कपड़े आदि देकर असहायों की सहायता की। कई लोगों को उनके गांव,घर तक पहुंचने का कार्य भी किया तो क्यों न हम ऐसे लोगों को अपनी प्रेरणा बनाकर युवा वर्ग अपनी शक्ति का सदुपयोग करना सीखें। हमारे व्यवहार में सद्गुणों को विकसित करने की जरूरत है। परिवार व समाज के मध्य रहने वाले लोग मां या बहन की गालियां कैसे दे सकते हैं। ये कैसी मानसिकता है , प्रश्र चिन्ह बना हुआ है।'भारत' को माता कहते हैं तो उसी की बेटी को सम्मानित करने से पीछे क्यों हटते हैं? नारी को शक्ति व लक्ष्मी का रूप मानने से पूर्व मात्र इंसान समझ कर मान व आदर के योग्य ही समझ लें तो नारी जाति पर उपकार ही समझा जाएगा। रूढ़ि और कुंठित मानसिकता ही समाज की सबसे बड़ी विकलांगता को दर्शाता है। बेटे-बेटियों के मध्य के फर्क को दूर कर घर परिवार में ही समानता लाने की कोशिश हमें करनी होगी ताकि समाज में कथनी व करनी में समानता बनी रहे। किसी पर अपना बल दिखाने वाला दबंग वहशीपन की मानसिकता नकारात्मक सोच को दर्शाता है। जबकि निर्बल से निर्बल जीव भी हर क्षण संघर्ष कर अपना जीवन निर्वाह करना जानता है तो हम मानव परिश्रम व संघर्ष से क्यों भागते हैं? बुद्धिजीवियों की श्रेणी में स्वयं को समझने वाला हीन भावना से ग्रसित हो रहा है। जानवरों के अनेक गुण प्रेरणा दायक होते हैं अगर समझने का प्रयास करें तो। क्या हम जानवर से भी बद्तर होते जा रहे हैं? यह एक विचार का विषय बनता जा रहा है। दरअसल लोभ, स्वार्थ, ईर्ष्या, घृणा एवं क्रोध इंसान को सदैव अपराध के लिए उकसाते हैं, आवश्यकता है कि मानव, बुद्धिजीवि का परिचय देते हुए इन सब पर नियंत्रण करना सीखें।
---------- अर्चना सिंह जया