Trikhandita - 6 in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | त्रिखंडिता - 6

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त्रिखंडिता - 6

त्रिखंडिता

6

खूबसूरत गुनाह

अनामा को ऐसा लग रहा था जैसे उसके प्राण निकल जायेंगे। जैसे वह चिता पर लेटी हुई है या फिर नरक की आग में जल रही है। इतनी जलन- इतनी तड़प- इतनी बेचैनी......उफ, रह-रहकर सीने में ऐसी तकलीफ होती जैसे वहाँ आग का गोला अटक गया हो। वह बार-बार तड़पकर रोने लगती। उसके हाथ दुआ के लिए ऊपर उठ जाते- ’हे ईश्वर, रहम कर....रहम ! मुझे इस तकलीफ से निजात दिला।’ पर दर्द था कि बढ़ता ही जा रहा था। वह सोच रही थी तो क्या यह उसके पापों का दण्ड है ? पाप ! पर उसने तो कोई पाप नहीं किया है-हाँ प्रेम जरूर किया है....प्रेम ! पर कौन मानेगा इसे प्रेम ! पर पुरूष से स्त्री का प्रेम हमेशा कठघरे में खड़ा रहा है !

क्यों हो गया था उसे प्रेम।उसे याद है जब पहली बार अनवर ने प्रेम का नाम लिया था, उसने बुरी तरह डाँटा था उसे। वह विवाहिता थी। उससे मजाक का रिश्ता था, इसलिए सबके सामने भी मजाक करता रहता। सब उसकी उम्र देखकर बात हँसी में टाल देते। कम से कम उम्र में उससे पाँच साल छोटा तो था ही वह। वह उसके पति की मित्रमंडली में था और जब सब लोग सपरिवार किसी महफ़िल में उपस्थित होते, वह उसके इर्द-गिर्द रहता दूसरी औरतों का मज़ाक बनाता, उसकी तारीफ के पुल बाँधता रहता। अपनी दूसरी भाभियों से भी वह उसकी प्रशंसा करता। उसके बाल उसकी आँखें, उसके होंठ, उसका भोला चेहरा और उसकी योग्यता अनवर की बातचीत के प्रिय विषय थे । वह उसका प्रशंसक है यह बात सभी जानते थे। वह कभी भी उसे फ़ोन कर सकता था, उससे मिलने आ सकता था। उसके पति को भी इस पर ऐतराज, न था क्योंकि ऐसी-वैसी कोई बात ही न थी। पूरे तीन वर्ष तक ऐसे ही चलता रहा। वह उसका ध्यान रखता, उसकी परेशानियों को उसके पति से ज़्यादा समझता। फोन के माध्यम से जैसे हर पल उसके पास ही होता था ।वह उसके पति को मजाक में कौआ कहता और उसे ’हंस’। पार्टियों में उसके पति को किनारे करके खुद उसके पास बैठ जाता और कहता-’अब हुई न जोड़ी, आप भी गोरी मैं भी गोरा । काले भईया को छोड़िए, मेरे पास रहिए। उनसे कम नहीं कमाता हूँ।’ बात मजाक में उड़ जाती। उसने देवर का पूरा स्नेह उसकी झोली में डाला था। उसके अपने देवर उससे बात करना तो दूर उसे भाभी तक न कहते इसलिए वह उसे और भी प्यारा लगता।उसके पति आनंद को भी सिर्फ उसकी देह से मतलब था। वे कभी उसकी भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं करते थे। वह एक कल्पनाशील, भावुक स्त्री थी जिसे जीवन में किसी ने प्यार नहीं किया था। न माँ-बाप ने, न किसी भाई-बन्धु ने। न कोई हितैषी रिश्तेदार था, न हमदर्द दोस्त। कड़ा संघर्ष करके उसने अपना एक मुकाम हासिल किया था और आत्मनिर्भर हुई थी पर बहुत अकेली थी वह। इसी अकेलेपन से उबकर उसने निहायत शरीफ लगने वाले दिखने मे बिल्कुल ही साधारण व बेरोजगार दलित युवक आनंद से विवाह कर लिया था। इस विवाह ने उसे रहे-सहे रिश्तों से भी काट दिया पर उसने यह सोचकर सब्र कर लिया कि विवाह के बाद तो वैसे ही लड़की को माँ से जुड़े रिश्तों को छोड़ना पड़ता है।उसने सोचा था कि पति का परिवार उसे अपना लेगा। प्यार व सम्मान देगा। पर उसका यह सपना भी टूट गया। वह पारम्परिक बहू की भूमिका में रही तो उन्होंने उसे गरीब और गंवार समझा। उसे हर कदम पर उपेक्षित किया । ससुराल में उसे तमाम तरह की मानसिक यंत्रणाओं के दौर से गुजरना पड़ा।

ससुराल पक्ष सिर्फ जाति से दलित था| परिवार में आनंद को छोड़ सभी अच्छी नौकरियों में थे| नव धनाढ्य थे सारी सुख-सुविधाओं से लैस| पर सब कुछ उनके अपने लिए था| वह तो खैर पराई थी पर घर के सबसे | आनंद ने जब वस्तुस्थिति को भाँप लिया कि उनके घर वाले इस रिश्ते को मन से स्वीकार नहीं कर पा रहे है तो उसे लेकर सड़क पर आ गये, जबकि उसने इसका विरोध किया था। उसने कभी-भी वह घर छोड़ना नहीं चाहा था। पर निर्णय लेने के मामले में वह हमेशा ही कमजोर रही थी। वह आर्थिक रूप से सक्षम थी, नौकरी करती थी इसलिए कुछ वर्ष किराये के मकान में गुजारने के बाद एक छोटा सा घर बना लिया। अपना घर । अपनी सारी पूंजी उसने इसमें लगा दी पर आनंद को यह अच्छा न लगा। जमीन उसने विवाह पूर्व लिया था इसलिए उसके ही नाम था, जिसे उसने बदला नहीं। आनंद को इस बात का हमेशा मलाल रहता। इधर वे एक आफिस में पन्द्रह-सौ की नौकरी करने लगे थे। नौकरी और घर दोनो जगह खटते हुए उसने आनंद से मानसिक सहयोग चाहा। आर्थिक रूप से वे कमजोर थे इसलिए खर्च से उन्हें मुक्त ही रखा पर वह साथ देने को तैयार न थे। परिवार और समाज के लोग उसके इस विवाह को स्वीकृति नहीं दे रहे थे। क्योंकि यह वह पारम्परिक विवाह न था जिसमें जाति, खानदान और अर्थ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लोगों की इस मानसिकता के कारण कभी- कभी वह तमाम तरह की उलझनों में गिरफ़्त हो जाती और चाहती कि वे उसकी तकलीफ़ बाँटें। वे उसका दुःख समझते, पर उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। उसकी तकलीफ़ उन्हें हल्की और फालतू लगती। वह अपने मकान को घर जैसा बनाने में उनका साथ चाहती, उनका कुछ समय और ध्यान चाहती पर वे निरर्थक कार्यो में अपना सारा समय, सारी ऊर्जा खर्च कर कराहते हुए घर में प्रवेश करते। वह झुंझला जाती । लड़ती-झगड़ती थी पर उनपर कोई असर नहीं होता था। वह उन्हें प्यार करना चाहती थी पर उनमें प्यार करने लायक कुछ भी नहीं मिलता था। वह हताश-निराश होकर दूसरे कामों में लग जाती। वे उसे प्राप्त की जा चुकी निरर्थक वस्तु समझते। उसके विचार उन्हें दोयम दर्जे के लगते। वे अपने मित्रों में उसे मूर्ख, पागल, स्वार्थी, अवसरवादी, महत्वाकांक्षी और जाने क्या-क्या कहते थे । वह खूब रोती-तड़पती। अक्सर डिप्रेशन का शिकार हो जाती। फिर खुद को समझाकर उन्हें माफ कर देती। आखिर करती भी क्या ! विवाह का निर्णय भी तो उसका अपना था। उनके मित्र भी उनके पक्ष में रहते। उसका कोई न था कभी-कभी तो उनके मित्र भी उसका अपमान कर देते और वे मुस्कुरा कर आनन्द लेते। अपने घर-वालों से भी उन्होंने चोरी-छिपे रिश्ता जोड़ लिया था। उसके न रहने पर उन्हें घर बुलाते और उनको ज्यादा समय देते। उसे इस बात से शिकायत न थी। शिकायत थी तो बस इस बात की कि यह सब उससे छिपकर करते थे। उसने कभी उनको घर जाने से रोका नहीं था। और ना मना करने पर मान जाने वाले जीव थे वे। उनके घर वाले चारो तरफ उसकी शिकायत करते। इस बात की जानकारी होने पर भी वे चुप ही रहते जैसे वह सचमुच गुनहगार हो। उसे उनके इस रवैये स बड़ा कष्ट होता था। बड़ा ही शुष्क, नीरस स्वभाव था उनका। दिन-रात शारीरिक, मानसिक श्रम करने के बाद वह थोड़ी खुशी चाहती थी। कम से कम पति का मुस्कुराता चेहरा ही दीखे पर वे चेहरा गिराये मुँह सिले, तनाव बढ़ाते रहते थे। कुछ कहने पर जहर उगलते। घर छोड़ कर चले जाने की धमकी देते। वह हार रही थी, टूट रही थी। जीवन के सारे रंग उदास हो गये थे। बस अपने काम में इतना व्यस्त रहती कि बाकी चीजें भूल जाये पर उसका मन घुट रहा था। वह धीरे-धीरे खत्म हो रही थी। अकेलापन बढ़ता जा रहा था। मानसिक अकेलापन। वह सोचती, काश ! कोई ऐसा होता जिससे वह मन की बात कर सकती। यूॅ तो कहने को सब कुछ था उसके पास पर प्यार न था। कभी-कभी वह उन्हें पास बिठाकर समझाती कि उनकी किस-किस बात से उसे तकलीफ़ होती है। और उनसे क्या चाहती है ? अपने बीते हुए कल की बातें, वर्तमान की बातें व भविष्य की बातें और ढ़ेर-सारी प्यार की बातें करती। पर वे इधर उसकी बात सुनते जाते उधर उनका हाथ उसके शरीर पर फिसलने लगता। उसकी भावना को इससे चोट लगती। उसका तन-मन घृणा से भर उठता। कितना स्वार्थी है यह आदमी ! और ज्यों ही उनकी इच्छा पूरी होती वे वैसे ही रूखे और मनहूस सी शक्ल वाले शख्स में तब्दील हो जाते। वे रात-दिन सेक्स में डूबे रहना चाहते जैसे जल्द से जल्द सब कुछ खत्म करके निकल लेना है। धीरे-धीरे उनका यह लक्ष्य भी सामने आने लगा। बिना प्रेम का सेक्स उसकी समझ से बाहर था। वह सोचती इस आदमी को उससे जरा सा भी लगाव नहीं है। उसकी बीमारी के क्षणों में भी वे उसकी देह नोंचने में लग जाते। उसे बड़ी वितृष्णा होती। वह सेक्स को भावना पूर्ण अहसास के साथ जीना चाहती थी पर वे मशीनी अंदाज में सब चाहते थे। वह कब तक रिमोट बनी रहती। काम-काज में भी और काम भावना में भी। आश्चर्य तो यह था कि बाहर ये सबके थे, मित्रों, रिश्तेदारों सबके.........बस उसके न थे। वह अकेले ही घर-बाहर सब जगह जूझती। वे वही सब कुछ करते जो उसे पसंद न था। नशा करते, सूरती-मसाला खाते। गन्दगी से रहते। वह अक्सर उन्हें समझाती-’मेरा मन खाली मत छोड़ो।’ पर उनके लिए तो वह धीरे-धीरे प्रौढ़ होती स्त्री थी, जिसका कोई महत्व न था। वैसे वे अन्य बातों में प्रगतिशील थे...........उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाते। पर वह स्वयं ही अपने घर-गृहस्थी की मर्यादा से बँधी हुई थी। वह सौन्दर्य-प्रेमी थी। हर काम को सुरूचि पूर्ण ढ़ग से करने में विश्वास करती थी। पर उन्होंने कभी उसकी प्रशंसा न की थी। उसके हर काम को वे जनाना व फालतू समझते।

जीवन ऐसे ही गुजर रहा था उदास.........बेरंग कि जाने कैसे उस दिन अनवर खुशबू के झोंके की तरह मन में समा गया। और फिर उसके जीवन में यौवन के नवोल्लास की आभा........मधुरिमा भर गई। खुशियां ही खुशियाँ, रंग ही रंग। उसके मन का आकाश जो गर्मी के कारण बदरंग और मटमैला हो गया था। वर्षा से घुलकर स्वच्छ नीला हो गया और उस पर वह बादल बनकर मॅडराने लगा। अब वह कभी हंस की तरह तालाब में तैरती, कभी पतंग की तरह ऊंचाई पर उड़ती। संगीत उसे फिर से भाने लगा।

जबकि यह उसकी ज़िंदगी का तीसरा दशक था| उसके दुखी जीवन में खुशियों का संकेत लेकर, पतझर को बसंत में बदलने के हठ के साथ अनवर आया था| उसने उसे एहसास कराया कि जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है| एक नया जीवन शुरू करने का वक्त अभी चुका नहीं है कि फिर से नयी शुरूवात की जा सकती है कि वनवृक्ष वर्षा आतप शिशिर सह कर और निखर आया है और वह साथ है| इस एहसास से सूख रहे वृक्ष पर न जाने कहाँ से कोंपले निकल आयीं| सुप्त कामनाओं ने अंगड़ाई ली| प्रीत ने पायल बजाई और उसकी आँखों में इंद्र्धनुष उभर आया| अतृप्त इच्छाएँ खिलखिला उठीं और नव वृक्ष के सदृश्य वह भ्रमर-गुंजार से मदमस्त हो गयी |

फिर वही हुआ जो सदियों से होता आ रहा है| इस असमय की बहार प्रकृति की उपेक्षा और ठूंठ की खिलखिलाहट से जगत जल-भुन गया और उसने वृक्ष पर ओलों की बौछार कर दी | पर वृक्ष के अंतर में जो नवीन गंध बस चुकी थी वह सदा उसके साथ रह कर उसका हौसला बढ़ती रही और उस पर ओलों का कुछ भी असर नहीं हुआ | वृक्ष को जो सुख पाना था उसने पा लिया था | फिर उसका जो भी हो उसे इसकी परवाह नहीं थी |

पर अनामा पेड़ नहीं एक स्त्री थी| उसके जीवन में अनवर की वजह से जो तूफान आया उसने सब कुछ बदल डाला | पति आनंद जीवन से चले गए| उनके जाने का कारण सिर्फ वही जानती थी| उसने उनसे यह सच बता दिया था कि उसके मन ने किसी और को स्वीकार कर लिया है| उनका पुरूष अहं यह स्वीकार न कर सका| उन्हें एक बार भी नहीं लगा कि इसके जिम्मेदार वे भी थे| उन्होंने उसके प्रेम को लस्ट बताया| शरीर की भूख बताया| वे भूल गए कि जब वे खुद जीते जागते शरीर के रूप में उसके पास मौजूद थे फिर वह कौन सी रिक्ति थी भूख-प्यास थी जिसने उसे अनवर से बांध दिया था ?वह खुद हैरान थी परेशान थी | कैसे, कब, क्योंकर यह सब हो गया ?और उसे पता ही नहीं चला | पर हो गया तो वह उन्हें कैसे धोखा देती ?वह उन स्त्रियॉं में नहीं थी, जो एक साथ दो नावों में सवार होकर जीवन गुजार लेती हैं| उसका प्रेम अगर गुनाह कहा जा रहा था, तो वह उसकी सजा भी भुगतने को तैयार थी| सजा मिली भी| जब आनंद के जाने से पहले ही अनवर एक झटके से उससे दूर हो गया | फिर उसके जीवन के दोनों पुरूषों ने अपनी अलग दुनिया बसा ली और वह अहल्या बनकर रह गयी|

करीब आठ वर्ष बाद अनवर का फोन आया था| नंबर बदला हुआ था इसलिए अनामा ने फोन उठा लिया| अनवर की आवाज सुनकर वह चौक पड़ी| जी चाहा फोन काट दे, पर काट न सकी| उसने कहा –‘मेरी याद नहीं आती ..भूल गयी क्या ?मैं तो एक पल के लिए भी नहीं भूल पाया तुम्हें| अनामा को आश्चर्य हुआ कि इतने वर्षों बाद भी अनवर ऐसे बात कर रहा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो| उसके कारण कितना कुछ बदल गया | वह कितनी अकेली हो गयी ..क्या-क्या नहीं झेलती रही? उसने एक बार भी उसकी कोई खोज-खबर नहीं ली| आज एकाएक उसका प्रेम कैसे जाग गया? अनवर के बारे में उसे बराबर खबर मिलती रही थी | उसकी शादी..फिर बच्चे..और उसके बाद भी एक लड़की से उसके खास ताल्लुकात.. !पर इन खबरों को पाकर भी वह विचलित नहीं हुई थी, जबकि उसे होना चाहिए था| तब उसे लगा था कि वह उसके जीवन से ही नहीं निकला था, बल्कि दिल से भी निकल चुका था| फिर क्या फर्क पड़ता था कि वह क्या कर रहा है?हाँ कभी-कभी कसक जरूर होती थी कि ऐसे आदमी के लिए उसने सब कुछ दांव पर लगा दिया था| वह भी एक दिन था जब वह उसके इतने करीब था कि उसके बिना उसे अपना जीवन असंभव लगता था| उसने भी तो उससे जीवन भर साथ निभाने का वादा किया था| कहा था कि कहीं और विवाह नहीं करेगा| उसी के कारण तो वह अपने आनंद से अलग हुई थी| पर अनवर उससे इसलिए नाराज हो गया था कि उसने आनंद से उससे लगाव की बात बता दी थी| वह उससे गुनाह के रिश्ते रखना चाहता था|

आनंद भी उनके रिश्ते को गुनाह समझते थे, पर उसने तो गुनाह नहीं प्रेम किया था| आज तक वह नहीं समझ पाई है कि वह उससे क्यों प्रेम करने लगी थी ?वह प्रेम था कि देह की भूख! बरसों से खाली पड़े मन को भरने की चाह थी कि एकरस जीवन की ऊब| दुखों से निजात का उपाय था कि पति के प्रति क्रोध| भाग्य से लड़ने की कोशिश थी या फिर इन सबका मिला-जुला कोलाज !पता नहीं पर यह तो सच ही था कि वह प्रेम में पड़ गयी थी| कितनी मुहताज हो गयी थी उन दिनों वह अनवर की| एक दिन भी उसका फोन नहीं आता तो वह जल बिन मछली की तरह तड़पने लगती थी | पूरी रात जागती रह जाती| आनंद का स्पर्श उसे सर्प-दंश के समान लगता| एक ही बिस्तर पर दोनों अलग रहते| वह अनवर के ख्यालों में खोई रहती और आनंद भी न जाने क्या सोचते जागते रहते| उन्हें शक तो बहुत पहले ही हो गया था, पर जाने क्यों चुप थे ? पर एक दिन उसे करवटें बदलते देख पूछ पड़े –क्या तुम किसी से प्रेम करने लगी हो ?वह उठकर बैठ गयी तो उन्होंने उसे कंधों से पकड़कर झकझोर डाला –बताओ, वह अनवर है न ! जरूर वही होगा| ये साले मुसलमान गद्दार होते ही हैं | अपने मित्र की पत्नी पर ही हाथ साफ कर गया साला !मैं उसे छोडूँगा नहीं| सारे मीडिया के सामने उसे नंगा कर दूँगा| तुम्हें गवाही देनी होगी| बताना होगा कि उसने किस तरह तुम्हें मेरे खिलाफ भड़काया, तुम्हारा इस्तेमाल किया! वह कुछ नहीं बोली तो कहने लगे –तुम्हें उसने स्पर्श तो जरूर किया होगा| बोलो, कहाँ-कहाँ कैसे स्पर्श किया था ?वह रोने लगी तो वे थोड़े नम्र हुए, फिर कहने लगे –देखो मैं समझ रहा हूँ कि तुम्हारे मन में उसके लिए कोमल भावनाएँ हैं पर वह अच्छा आदमी नहीं है| उसका उद्देश्य बस एक बार तुम्हें प्राप्त करना मात्र है ताकि वह खुद अपनी पीठ ठोक सके | मैं उसके साथ काम करता हूँ उसके नस-नस से वाकिफ हूँ | वह आफिस में मेरी बराबरी नहीं कर पाया तो तुम्हें गुमराह कर दिया ताकि मुझे नीचा दिखा सके| तुम्हें उसने मुहरा बनाया है सिर्फ मुहरा | वह मेरी प्रतिभा से जलता है| आनंद की बात में हो सकता है कोई सच्चाई रही हो, पर उसे उस वक्त अनवर से कोई शिकायत नहीं थी| वह खुद उसके साथ रहना चाहती थी| अपना धर्म तक बदलने को तैयार थी | जाने कैसा दीवानापन था वह ? आनंद से उसे सहानुभूति थी, पर वह यह भी जानती थी कि दोनों के बीच अनवर के आने का कारण वही खाली जगह थी, जिसे आनंद ने खुद बनाई थी| उसे मादा से अधिक उन्होंने समझा ही कहाँ था?अनवर ने तो बस उस खाली जगह को भरा था| उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था| उन्हें क्या कहे ?बस रोती रही| वे फिर समझाने लगे –तुम समझती क्यों नहीं ?तुम लोगों के बीच नज़दीकियाँ बढ़ भी गयी हों तो मुझे बताओ !मैं कुछ नहीं कहूँगा, पर जान लो वह मेरी तरह उदार नहीं है| अगर तुम लोगों का संबंध खुला तो वह तुरत पल्ला झाड लेगा| तुम ज़ोर दोगी तो तुम्हें ही बदचलन कह देगा| वह गंदा आदमी है| कुछ दिन पहले वह एक बदनाम नेताईन के घर रात-भर रहा और सुबह आफिस में नेताइन के ढीले पड़ गए अंगों का उपहास उड़ाता रहा| अपने एक करीबी मुस्लिम मित्र की पत्नी के भी वह करीब है | वह जहाँ भी फांक देखता है, वहीं घुस जाता है| वह अविवाहित है सुंदर है युवा है | ऊपर से उसे लच्छेदार बातें करनी आती है | बेवकूफ औरतें उसके चक्कर में फंस जाती हैं, पर वह किसी का नहीं| बस मुफ्त में मजे लेता है, टाईम पास करता है| तुम क्यों ऐसे आदमी को लेकर गंभीर हो? क्यों उसको अपने हृदय का रक्त पिला रही हो ?भूल जाओ उसे, झटक दो झटके से| फोन आए तो मत उठाओ या डांट दो कसकर | अनवर के बारे में ये बातें अनामा को अच्छी नहीं लग रही थीं| वह सोच रही थी -अनवर कैसा भी हो वह उससे प्यार करती है| वह इतना बुरा नहीं हो सकता, जितना ये बता रहे हैं| अनवर से उसका रिश्ता यूं ही एक दिन में नहीं शुरू हो गया था | वर्षों लगे थे इसे जड़ जमाने में | इस रिश्ते की जड़ों में अपनापन था, सहानुभूति थी | वासना का नामोनिशान न था| फिर अनवर के बारे में ये अब क्यों बता रहे हैं ?पहले तो वह इनके लिए बहुत अच्छा था| उसकी प्रशंसा सुनकर ही वह उसे देखने को लालायित हो गयी थी| वे उसे लेकर घर आए थे फिर धीरे-धीरे वह उनके हर दुख-सुख में शामिल हो गया था, विशेषकर उसके| अनवर को बुरा लगता था कि वे आफिस में उसके बारें में सम्मानजनक ढंग से बात नहीं करते हैं| कहीं भी उसका अपमान कर देते हैं| वह उसकी सुंदरता से ज्यादा उसके मासूम भोलेपन से प्रभावित था| उससे बच्ची समझकर लाड़ करता| उसका ध्यान रखता|