Hansta kyon hai pagal - 7 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | हंसता क्यों है पागल - 7

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हंसता क्यों है पागल - 7

दोपहर को मैं अचानक बैठे - बैठे समीर के उठाए हुए उस मुद्दे के बाबत सोचने लगा कि आख़िर उसे एकाएक लड़कियों की गिरफ़्तारी और रिहाई में इस तरह की दिलचस्पी क्यों पैदा हो गई? वह इस सारे मामले से किस तरह जुड़ा है।
ज़ाहिर है कि मीडिया की एक सामान्य न्यूज़ और एक छात्र की जनरल नॉलेज का मामला तो ये दिख नहीं रहा था। आधी रात को मुझे वीडियो कॉल लगाकर इस तरह की शंका उठाना कोई साधारण सी बात तो हो नहीं सकती थी।
क्या था? क्यों था? जानने की इच्छा जागी।
लेकिन अब मैं फ़ोन लगा कर उससे इस बारे में कुछ पूछूं तो ये ठीक नहीं लगेगा। कहीं वो ये न सोचने लगे कि इस सब में मेरी इतनी दिलचस्पी क्यों?
मुझे इंतज़ार ही करना चाहिए। अगर वास्तव में कोई बात होगी तो वो खुद -ब - खुद बतायेगा। और अगर ये वैसे ही उसकी कोई जिज्ञासा थी तो बात खत्म।
वैसे भी वो कुछ दिन बाद तो यहां आने वाला ही है।
लेकिन ये बात सौ प्रतिशत सही थी कि अठारह साल की आयु पूरी कर लेने वाली किसी लड़की या लड़के को आपस में एक दूसरे की सहमति से शरीर संपर्क बनाने से रोका नहीं जा सकता। यदि किसी होटल, पार्क, गेस्ट हाउस आदि में कुछ लोगों की शिकायत या मुखबिरी पर पुलिस ने लड़कियों को तात्कालिक रूप से पकड़ा भी होगा तो केवल इसलिए कि इस घटना में अन्य कई आशंकाएं जुड़ी हुई होती हैं।
हो सकता है कि कोई मानव तस्करी से जुड़ा गिरोह काम कर रहा हो।
हो सकता है कि किसी को ब्लैक मेल करके शादी का दबाव बनाया जा रहा हो।
हो सकता है कि ये ड्रग्स लेने या बेचने से जुड़ा कोई मामला हो।
इसलिए पुलिस ने कुछ लोगों को पकड़ लिया होगा और ऐसे में लड़कों को हिरासत में तथा लड़कियों को किसी महिला सुधार गृह में फ़ौरी तौर पर रख दिया होगा।
अब मुकदमा चलने पर ये बात सामने आई होगी कि लड़कियों को अपराध साबित न होने की दशा में सुधार गृह में हमेशा के लिए तो नहीं रखा जा सकता। यदि वो बालिग हैं तो ख़ुद तय करें कि कहां रहेंगी। मानवता के नाते कचहरी कह सकती है कि जिन माता- पिता ने अपनी मर्जी से लड़कियों को देह बेचने की सहमति या अनुमति दे दी, उनके पास मत भेजो। चाहे ये उनकी जाति या समुदाय में वर्षों से मान्य रिवाज़ ही क्यों न हो।
मैंने सिर खुजाया और सहसा मेरे दिमाग़ की बत्ती जली। अरे, मेरे गीज़र का क्या हुआ? वह मैकेनिक इसे ठीक नहीं कर पा रहा तो ले क्यों गया? देश में बेरोजगारी कहां है? अगर सच में बेरोजगारी होती तो आदमी तुरंत काम करके देता, ताकि उसे पैसा मिले। यहां तो एक दिन के काम को चार दिन से लेकर बैठे हैं लोग। किसी बात की परवाह ही नहीं।
मैं एकदम से ज़ोर से हंस पड़ा।
लेकिन तुरंत ही मुझे ये एहसास हो गया कि यहां कोई नहीं है, मैं अकेला ही हूं। फ़िर भी मैं हंस पड़ा?
ओह, क्या है ये। अब दिन दोपहरी में तो आसमान में कोई चांद सितारा भी नहीं है जिसका असर मेरे दिमाग़ पर पड़ा हो।
क्या मुसीबत है।
मुझे अपना कौल याद आ गया कि अब जब भी बेबात के हंसी आयेगी तो मैं हंसी का कारण ढूंढ कर ही रहूंगा। मैं दिमाग़ के घोड़े दौड़ाने लगा।
मुझे याद आया कि लगभग चालीस साल पहले मैं एक सरकारी दफ़्तर में काम करता था। बड़ा सा कमरा था, चारों तरफ़ फैले- बिखरे हम सब बैठते थे और हमारे पीछे एक बड़ी सी मेज पर हमारा अफ़सर। अफ़सर क्या, यूं समझिए कि अफ़सर तो अब रिटायरमेंट से दो चार पहले बन गया था बाकी सालों से बड़ा बाबू ही रहा था। सरकार में बाबू! सोच लीजिए।
तो एक दिन दफ़्तर में एक युवक आया। उसने आते ही सीधे अफ़सर उर्फ़ भूतपूर्व बड़े बाबू के पास जाकर पूछा - बाबूजी, गजबराम जी यहीं काम करते हैं न?
अफ़सर बोले - हां हां।
- मुझे उनसे मिलना है। उसने कहा।
अफ़सर ने इधर - उधर देखा फ़िर आगंतुक से कहा - बेटा, वो अभी आए नहीं हैं, आने वाले होंगे!
लड़का घड़ी देखता हुआ बाहर निकल गया। जाते - जाते बोला - तो मैं थोड़ी देर में आ जाता हूं।
लड़का साढ़े ग्यारह बजे के करीब फ़िर आया और बोला - गजब राम जी आ गए?
बड़े बाबू ने इधर - उधर देखा फ़िर लड़के से बोले - बेटा, वो शायद चाय पीने बाहर चले गए, आते ही होंगे।
लड़का कुछ अधीर होकर बोला - तो मैं थोड़ी देर में आ जाता हूं।
अब लड़का लगभग दो बजे आया।
आने के बाद बड़े बाबू से पूछते ही उन्होंने इधर - उधर देखा और प्यार से बोले - बेटा, लंच टाइम है न, वो खाना खाने गए होंगे।
लड़के को भी बाज़ार के कई काम थे। वो फ़िर बाद में आने के लिए कह कर चला गया।
इस बार लड़का पांच बजने में पांच दस मिनट पहले दाखिल हुआ।
उसे देखते ही अफ़सर यानी बड़े बाबू ने फिर इधर - उधर देखा,एक नज़र घड़ी पर दौड़ाई फिर आगंतुक लड़के पर ही झुंझला गए, बोले - अरे वो क्या तुम्हारे लिए इधर ही बैठे रहेंगे, पांच बजने को है, गए होंगे घर!
लड़का सोच में डूबा बाहर निकल गया।
लो, खोदा पहाड़ निकली चुहिया! ज़रा सी हंसी आई थी मुझे। और बात इतनी लंबी निकली, वो भी चालीस साल पुरानी।
मैं सोचने लगा कि चांद, समन्दर, दिमाग़, असायलम बेचारे क्या करें!
मुझे लगा कि ये टाइम तो चाय का है। मैं चाय बनाने के लिए उठ गया।
मैं शाम को बहुत लंबी सैर करके वापस आया। जब मैं खाना खाने बैठा तो मेरे पास प्लेट में कटी हुई सलाद नहीं थी, बल्कि एक प्याज़, एक टमाटर और एक छोटा सा खीरा रखा था।
मुझे अकस्मात बादशाह अकबर की याद आने लगी। उनके दरबार के नवरत्नों में अब्दुल रहीम ख़ानखाना भी थे। जिन्होंने बेशकीमती दोहे लिख कर अपने समूचे ज़माने को ही भविष्य के गर्भ में रख दिया था।
रहीम कहते हैं :
खीरा कौ मुख काट के, मलिए नौन लगाय
कड़वे मुख वालेन की, रहिमन यही सजाय !
मुझे यही सोच कर हंसी आई थी कि हमारे दफ़्तर के अफ़सर यानी बड़े बाबू ने शायद खीरे का हश्र देख कर ही कभी अपने मुख से कड़वे बोल नहीं निकाले। वो अंत तक गजबराम जी का पक्ष ही लेते रहे।