कहानी
पलुआ
रामगोपाल भावुक
चौधरी रामनाथ ने किसी तरह पलुआ को झांसा देकर दस बीघा जमीन अपने नाम लिखवा ली थी। पलुआ कुम्हार इसे किस्मत का खेल समझकर रह गया था।
जब पीड़ा को व्यक्त करने का हमारा साहस दब जाता है, तब पीड़ा हमारे मन में घुमड़ने लगती है। घुमड़ाव प्रक्रिया में वेग बढ़ता है, वेग की तपन, पीड़ा व्यक्त करने को विवश करती है, जब उसकी वाश्प निकल जाती है, तभी दबाव कम हो पाता है। एक दिन पलुआ अपनी पत्नी शान्ति से बोला- ‘बल्लू की बाई एक बात मैं जाने कितैक दिनन से सोच रहोहों, कै कहॅं, पर रह जातों।’
यह सुनकर शान्ति बोली- ‘एसें काये कहतओ, बताओ मैं तुम्हाये विरू़़द्ध कबै चली हौं।’
यह सुनकर वह बोला- ‘ऐसो है बल्लू की बाई जा जायदाद पै तेरो हक है फिर जों सोचतों जाय बेचिबो ठीक नाने।’
यह सुनकर उसने प्रश्न कर दिया - ‘ज बात तुम्हारे मन में काये आ रही है?’
प्रश्न सुनकर बात को गुनते हुए पलुआ बोला- ‘देख, ता दिना मैं तैं झां, तेई जायदात पै आओ। तेरो जापे पूरो हक है वैसें तो मोमें और तोमें का फरक है।’
यह बात सुनकर उसने फिर प्रश्न किया- ‘फरक की बातें तो कछू नानें पर ज बात मन में काये आई ज बताऊ ?’
उसका दुबारा प्रश्न सुनकर पलुआ ने अपने मन की व्यथा उडेली-‘अरे जे चौधरी साव है ना। वे जबसे चुनाव में हारे हैं, चैंट पकरें हैं। सो जों लगते सब बेचवाच कें शहर में जा रहंे भेंई मजूरी करि खागें। काऊ की दाव- धौस तो न रहेगी।’
यह सुनकर शान्ति ने उसे समझाया - ‘अरे चौधरी बड़े आदमी हैं। चुनाव एन हारि गये तोऊ कहा है। अपुन तो बिनके मजूर हैं चाकरन नें दो बातें सुन्नों ही पत्तें। तुम हो कै विनिको चुनाव में विरोध कर बैठे।’
यह सुनकर पलुआ क्रोध व्यक्त करते हुए बोला- ‘देख कल्लू की बाई, तें और काऊये राखे चाहे तो राख ले।’
यह सुनकर शान्ति फूट-फूटकर रोने लगी अपनी किस्मत को कोसते हुए बोली-‘ व तो किस्मत की बात है कै, वे नहीं रहे। आगे-पीछे कोऊ न रहो, तईं तुम्हाये ढमचें लगी। अब तुम धौंस देवै कत्तऔ, और काऊये का राखत फित्तओं ? का रन्डी हों ? आज राखो कल छोड़ दओ। सब भाग्य की बातें हैं न वे मत्तयें। न तुम आतये।’
बात पलुआ ने शान्त करना चाही। बोला-‘ व तो मैं मजाक मैं कह रहो हतो। तें है के नैक-नैक बात पै रो पड़तै। ते संग रहत-रहत इतैक दिना हो गये। बल्लू होगओ। मैं कहा जान्त नाने कै तैं अब कहॉं जायेगी।’
जब से चौधरी ने जमीन हड़पी थी। पलुआ का जीवन बर्तन बनाने के काम पर ही निर्भर रह गया था। उसकी दुकान में, कोई न कोई ग्राहक आता-जाता रहता था। अन्दर दुकान में पति पत्नि आपस में बातें कर रहे थे। बाहर से रन्धीरा की आवाज पड़ी- ‘पलुआ भज्जा का बात है, अरे काये लड़ रहे हो। भौजी कौं जादां मत सताओ। एक की एक ।’
यह बात पलुआ के चुभी। बोला- ‘एक की एक बात साफ काये नहीं कहत।’
यह सुनते हुए रन्धीरा अन्दर आ गया। पलुआ पुनः बोला- ‘भज्जा ज गॉव तो बिगरि गऔ। मै। जासे कह रहौं हौं, क ैचल शहर चलें। मजूरी कहूॅं कन्नौ। सो जाको झेंई नरा गड़ो है। झें ते देखे ते दवा कें रखैं चाहतो। पेट की मजदूरी ही नहीं दयें चाहत। जब से मेरो खेत पटवारी से मिलके चौध्री ने हड़पौ है मेरो तो झेंसे तन निकरि गओ।’
बात सुनकर रन्धीरा बोला- ‘पटवारी बिनके झां डरो रहतो। रोटिन की तो वाय वजानों ही परैगी। विनकी वनक बन रही हती। तुम्हैं फसालये। कर्ज में खेत लिखा लओ। तुम पढ़े-लिखे हो नानें।’
शान्ति बोली- ‘अरे जे पढ़-लिख लेतये तो आज ज नोवत न आती।’’
थोड़ी देर रूककर मन को समझाते हुए बोली- ‘‘ चलो वे अपये पेटये भल्लें। क ज मजूरी छुड़ायें लेतये।’’
पलुआ बात काटते हुए बोला-‘मजूरी दयें कहॉं चाहतयें। वासन ले जांगे और सालिन फिरांगे।’’
रन्धीरा ने भी पहली बार के बर्तनों का कुछ भी न दिया था। दुबारा बर्तन लेने आ गया था। यह सोचकर वह बोला-‘‘ भज्जा हमने तो तुम्हाओ कबहॅूं राखो नाने, व तो आज मोड़ी ने पूरी खेप पटक दई। प्यासिन मरे जातयें। फसल पै पूूूूरो नाजचूकतो कर देंगे।’’
यह सुनकर पलुआबोल -‘‘ तेरी बात नाने। अरे बड़े-बड़े सालिन फिरातयें। शहर में नगद तो मिल जातो। कहूं धरिकें बैठ जाऊॅ संझा को आराम से सोऊ। न काऊ की खटपट न सोच।’’
रन्धीरा ने निर्णय दिया-‘‘ अरे अब कितैक पै जातओ इतैक कटि गई।’’
शान्ति बोली-‘‘अपयीं तो कछू नाने, लीला ज मोड़ा की चिन्ता है, हमने तो झेल लयी जे काये कों झेलन लगे।’’
रन्धीरा बोला-‘‘नहीं झेलेंगे तो पिटेंगे। अरे दीवार से मूड़ पटकोगे तो दीवार को कहा बिगरने है। अरे ताके गॉंव में रहनों ताकी हांजू-हांजू कन्नो ही परैगी।’’
यह सुनकर पलुआ ने निर्णय सुना दिया। बोला-‘‘ ज मोपे नहीं होत। वैसेऊ कछू डाकुअन के डर से झेंसे चले गए और कछुअन ने जे नहीं टिकन दे रहे।’’
रन्धीरा ने उत्तर दिया-‘‘तो ऐन चले जाओ शहर। मेय काजे सोऊ कछू काम-धन्धो तलाश लिओ। मैंऊं भेंईं आजांगों।‘
उसकी बात सुनकर पलुआ ने उसे समझाया-‘हमाओ काम तो लगो-लगाओ है। रहिबे और बर्तन बनावे जगह मिल जाय फिर सब रामडोर लगादेतयें।‘
अब तक शान्ति एक घेला उठा लाई थी, उसे देते हुए बोली-‘बासन हेंऊ सोऊ नाने। अवा के काजे ईंधन नहीं मिल रहो अवा लगे तब वासन मिलेंगे। एक ज डरो, मैं तुम्हें खाली हाथ नहीं लौटायें चाहत। लेऊ ले जाऊ।‘
रन्धीरा बर्तन लेकर चला गया। सांझ होने को हो गई, चौधरी रामनाथ जी बन्दूक टांगे पलुआ के घर आ धमके, आवाज दी-‘ओ पलुआऽऽ।‘
पलुआ घर पर ही था। आवाज सुनकर घर से बाहर निकल आया। उसे देखकर बोले-‘क्योंरे पलुआ इधर-उधर क्या भिड़ाता रहता है ? मरना तो नहीं है ?‘
पलुआ समझ गया-‘आज तो बात रन्धीरा से हुई है। इन दिनों रन्धीरा चौधरी की खुशामद में रहता है। इस पर कुछ जायदात बची है।‘ जिस दिन चौधरी ने हड़प ली, उसी दिन रन्धीरा भी अपनी खैरियत न समझे।‘
यह सोचकर बोला-‘महाराज मारने की धौंस काये देतओ ? कहो तो गाँव ही छोड़ जातों।‘
यह सुनकर वे बोले-‘ऐन छोड़ जाओ। यहां रहो तो इधर-उधर की बातें मत करो। अरे कोई दिला जाये तो जरूर कहो। उस दिन नहीं सोची। हमारा खुलेआम विरोध करने बैठ गये। अब गड़बड़ की, तो ठीक न होयगी।‘
शान्ति जोर-जोर की बातें सुनकर अन्दर से निकल आई, बोली-‘महाराज तुम अपयें घरें जाऊ वे खुदी झां नहीं रहें चाहत। अरे कुन कोऊ मजूरी छुडांय ले तो। शहर चले जांगें। भेंई गधन से माटी डार खांगे। काये मारिवे की धौंस देतओ।‘
अब तक जोर-जोर की बातें सुनकर चार-छह लोग और आ गये। यह देखकर चौधरी बात को शान्त करने के भाव में आ गया। बोला-‘एक की एक सब गाँव में चुगली कत्त फित्तओ। पलुआ को यहां कौन लाया, बताओ ? अब यह मेरा विरोध करता है। क्या यह अच्छी बात है बताओ ? यह कहते हुए चौधरी ने सभी तमाशावीनों की तरफ देखा। सभी को समर्थन में सिर हिलाना पड़ा। अब बड़बड़ाते हुए चौधरी वहां से चले गए।
एक बोला-‘भैंसें की भैंसे गई भड़ियन सों काये बैर और बांध रहे हो।‘
दूसरा बोला-‘हां पलुआ भज्जा अब तो चुप रहने में ही फायदा है। हम जानतयें कै तुम्हाओ खेत बरवट छुड़ाओ है। अब वे तो तुम्हें मारिवे बैठे हैं। तुम्हें जबरन मरनों है तो पहुंच जाओ।‘
तीसरा बोला-‘भज्जा विनिकी ऊपर तक पहुंच है। सरकारहू विनिकी तरफ है।‘ पलुआ बोला-‘रन्धीरा है बानें भिड़ादईं। गरीब हूं गरीबन को संग नहीं दे सकत, बस मोय तो ज सोच है ?‘
यह सुनकर शान्ति बोली-‘अब मैं झैं ऐसें रत नाने। तुम इतैक दुःखी मत होऊ। मैं सोऊ कच्ची माटी की नहीं बनी।‘
यह कहते हुए वह अन्दर चली गई। सभी दुखित मन से वहां से ऐसे जाने लगे जैसे ‘मातम फुरसी से जाते हैं।‘
यह देखकर पलुआ बोला-‘बड़िन को पेट बड़ो हो गओ है। वे नहीं काऊ कों टिकन दयें चाहत। ते विनकी खुशामद में रहे, ते बनो रहे पर हम पै अब खुशामद नहीं बन्त।
हमने तो अब सोच लई कै हम अब हई गाँव में रंगे चीलरम के मांय कथूला नहीं छोड़ सकत। पण्डित जी सरपंच एन बन गये तोऊ सब जोईं हैं। हमें अब बिन्कीऊ जरूरत नाने यह कहकर वह तनकर खड़ा हो गया। यह देखकर एक बोला-‘भज्जा ऐसें जीवे से तो एक दिना लरिके मरिवो अच्छो।
दूसरा बोला-‘देखें वे अब कौन्ने-कौन्ने मारें डारतयें।‘ यह सुनकर सभी में स्फूर्ति आ गई थी।
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