Manas Ke Ram - 18 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मानस के राम (रामकथा) - 18

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मानस के राम (रामकथा) - 18







मानस के राम
भाग 18



लंकापति रावण


त्रिकूट पर्वत के ऊपर बसी थी सुंदर और वैभवशाली नगरी जिसका नाम था लंका। लंका पर रावण नामक राक्षस का राज था। रावण बहुत ही शक्तिशाली और विद्वान था। वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता था। शिव का परम भक्त था। ऋषि विशर्वा और राक्षस कन्या कैकसी का पुत्र रावण अत्यंत प्रतिभाशाली था। अपने पिता से उसने वेदों और शास्त्रों का अध्यन किया। उसने शस्त्र विद्या में भी निपुणता प्राप्त की। वीणा वादन में भी वह दक्ष था।
अध्यन पूर्ण करने के बाद रावण ने ब्रह्मा जी की तपस्या की। कई वर्षों के कठोर तप के बाद ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने उससे वरदान मांगने को कहा। रावण ने अमर होने का वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने अमरता का वरदान देने से मना कर दिया। किंतु उन्होंने उसे अमृत प्रदान किया। जो कि उसकी नाभि में सुरक्षित था। उसके बाद उसने देवताओं से भी अधिक शक्तिशाली होने का वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दे दिया।
ब्रह्मा जी से वरदान मिल जाने के बाद रावण ने अपने नाना सुमाली से उनका राज्य छीन कर उनकी समस्त सेना पर कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद उसने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया।
लंका विश्वकर्मा द्वारा निर्मित भव्य नगरी थी। यह नगरी सोने की बनी थी। इसका निर्माण भगवान शिव के लिए किया गया था। किंतु ऋषि विसर्वा ने गृह प्रवेश के अनुष्ठान में उसे दक्षिणा के रूप में प्राप्त कर लिया। इसे उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र कुबेर को दे दिया। कुबेर देवताओं के कोषाध्यक्ष थे।
रावण ने जब स्वर्ण निर्मित लंका के बारे में सुना तो उसने जबरन कुबेर से लंका छीन कर उस पर अधिपत्य प्राप्त कर लिया। उनके पास पुष्पक नामक एक विमान था। रावण ने उसे भी अपने अधिकार में ले लिया।
उसके बाद रावण ने अपना प्रभुत्व बढ़ाना आरंभ किया। अपने बाहुबल से उसने देवताओं, मानवों और अन्य दैत्यों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। जैसे जैसे उसका राज्य बढ़ता गया उसका अहंकार बढ़ने लगा। वह बहुत ही निर्दयी और निरंकुश हो गया। उसके राक्षस वन में रहने वाले ऋषियों के आश्रमों पर हमला कर उनके यज्ञ आदि में बाधा उत्पन्न करते थे। आश्रमवासियों का रहना मुश्किल हो गया था।
रावण के दो भाई थे। एक का नाम था कुम्भकर्ण और दूसरा विभीषण। कुम्भकर्ण बहुत बलशाली और बुद्धिमान था। उसकी शक्ति और बुद्धिबल से देवराज इंद्र भी भयभीत थे। एक बार कुम्भकर्ण ने तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। जब ब्रह्मा जी ने उससे वरदान माँगने को कहा तो देवराज इंद्र के कहने पर देवी सरस्वती ने उसकी बुद्धि भ्रमित कर दी। जिसके कारण उसने निद्रा का वरदान मांग लिया। किंतु रावण ने जब आपत्ति जताई तो ब्रह्माजी कहा की वह वर्ष में छह माह निद्रालीन रहेगा और छह माह जागेगा।
विभीषण राक्षस होते हुए भी सात्विक विचारों वाला था। वह सदैव रावण को सही मार्ग पर चलने की सलाह देता था। उसने भी अपने तप से ब्रह्माजी को प्रसन्न किया था। किंतु उसने वरदान माँगा कि उसका ह्रदय सदैव ईश्वर के चरणो में रमा रहे।
रावण की तीन पत्नियां थी जिनमें सबसे बड़ी मंदोदरी अत्यंत सुंदर, पवित्र और पतिव्रता स्त्री थी। वह भी रावण को सन्मार्ग पर चलने की सलाह देती थी।
रावण का सबसे बड़ा पुत्र मेघनाद था। वह परम शक्तिशाली था। देवराज इंद्र को परास्त करने के कारण उसका नाम इंद्रजित पड़ा। उसने देवराज इंद्र को हरा कर बंदी बना लिया। तब ब्रह्मा जी ने उससे कहा कि वह इंद्र को छोड़ दे और उसके बदले कोई वर मांग ले। मेघनाद ने अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने कहा कि यह सृष्टि के नियमों के विरुद्ध है। अतः उन्होंने वरदान दिया कि प्रत्येक युद्ध से पूर्व यदि वह यज्ञ करेगा तो उसे एक दिव्य रथ प्राप्त होगा। जिस पर आसीन होते ही वह अदृश्य हो जाएगा। इस प्रकार उसे कोई युद्ध में मार नहीं पायेगा। किन्तु यदि उसके यज्ञ में बाधा उत्पन्न हुई तो यज्ञ ध्वंस करने वाले के हाथों ही उसकी मृत्यु होगी।


खर दूषन की मृत्यु का समाचार मिलना

खर और दूषन की विशाल सेना के साथ अकंपन भी था। किंतु जब उसने राम तथा लक्ष्मण के शौर्य को देखा तो समझ गया कि यह कोई साधारण मानव नहीं हैं। अतः अपने प्राण बचाने के लिए वह वहीं छिप कर युद्ध देखने लगा। राम तथा लक्ष्मण ने अपनी वीरता से चौदह हजार राक्षसों को मौत के घाट उतार दिया। वहाँ से अपने प्राण बचा कर वह इस बात की सूचना देने के लिए रावण के पास पहुँचा। उसने रावण को सारी बात बताते हुए कहा,
"लंकापति दो तपस्वी वेष धारी एक स्त्री के साथ पंचवटी में रहने आए हैं। वह अयोध्या के राजकुमार राम और लक्ष्मण हैं। साथ में राम की पत्नी सीता है‌। उनमें से राम ने आपके भाइयों खर दूषन जैसे वीरों का वध कर दिया। उनकी विशाल सेना का सफाया कर दिया। संपूर्ण जनस्थान को तबाह कर दिया। राम के बाण इस तरह हर तरफ राक्षसों का सफाया कर रहे थे जैसे आग चारों ओर फैलकर सबकुछ लील जाती है।"
सारी बात सुन कर रावण क्रोध से उबल पड़ा। वह गरजते हुए बोला,
"उन साधारण तपस्वियों में इतनी हिम्मत कहाँ से आई ? क्या इंद्र आदि कोई देवता उनकी सहायता के लिए आया था ?"
"नहीं लंकापति यह सब उस राम ने अकेले ही कर दिखाया।"
यह सुनकर रावण और भी अधिक कुपित हो गया। वह बोला,
"उस मानव की इतनी हिम्मत कि उसने खर दूषन जैसे वीरों को मार दिया। जनस्थान को नष्टभ्रष्ट कर दिया। मैं उन दुष्टों को उचित दंड दूंगा।"
रावण को इस तरह क्रोधित होते देख कर अकंपन ने उसे राम के शौर्य के बारे में सावधान करना चाहा। किंतु वह रावण के क्रोध से भलीभांति परिचित था। वह जानता था कि रावण को कुछ भी समझाने का प्रयास उसके क्रोध को भड़का सकता है। अतः कुछ भी कहने से पहले उसने रावण से अपने प्राणों की रक्षा का वचन ले लिया। रावण से आश्वासन पाकर वह बोला,
"लंकापति राम कोई साधारण नर नहीं है। वह एक कुशल धनुर्धर है। राम अयोध्या के राजा दशरथ का बड़ा पुत्र है। अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छोटे भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीता के साथ वन में आया है। उसरे पराक्रम का सामना करना किसी के भी बस की बात नहीं।"
यह सुनते ही रावण क्रोधित हो गया। अपनी तलवार लेकर वह अकंपन पर झपटा। अकंपन उसके वार से बचते हुए बोला,
"महाराज मैंने पहले ही आप से प्राण रक्षा का वचन लिया है। मैं जो भी कह रहा हूँ वह एकदम सही व आपके हित में है।"
उसकी बात सुन कर रावण का क्रोध शांत हुआ। अपने प्राणों पर से संकट हटा देख कर अकंपन आगे बोला,
"महाराज राम के शौर्य का सामना करना असंभव है किंतु उसकी मृत्यु का एक उपाय है।"
रावण ने आश्चर्य से पूँछा,
"वह क्या है ?"
अकंपन ने कहा,
"महाराज राम अपनी पत्नी रूपवती सीता से बहुत प्रेम करता है। यदि आप उसे उसकी स्त्री से अलग कर दें तो उसके वियोग में वह स्वतः ही प्राण त्याग देगा।"
उसकी बात रावण की समझ में आ गई। अपनी बात कह कर अकंपन वहाँ से चला गया।


सूर्पणखा का रावण के पास जाना

लंकापति रावण अपने राजसिंहासन पर आसीन था। वह अपने मंत्रियों के साथ कुछ विचार विमर्श कर रहा था। तभी रोती बिलखती सूर्पणखा ने राजसभा में प्रवेश किया। रावण के सम्मुख जाकर वह बोली,
"धिक्कार है। जिसके बाहुबल से तीनों लोक कांपते हैं उसकी बहन का दो साधारण मनुष्यों ने इस प्रकार घोर अपमान किया है। तुम हो कि यहाँ राजसुख भोग रहे हो।"
अपनी बहन के तीखे वचन सुन कर व उसकी दुर्दशा देख कर रावण ने पूंँछा,
"किसका इतना दुस्साहस हुआ कि मेरी प्यारी बहन का इस तरह अपमान करे।"
सूर्पणखा ने रावण को बताया,
"भइया जब मैं पंचवटी नामक स्थान पर भ्रमण कर रही थी तो मेरी दृष्टि एक अप्रतिम सुंदरी पर पड़ी। उस सुंदरी का रूप अप्सराओं को भी लज्जित करने वाला था। उसका नाम सीता था। उसके साथ दो तपस्वी पुरुष थे। दोनों तपस्वियों के भेष में थे। लेकिन उनका व्यक्तित्व राजकुमारों जैसा था। सीता उनमें से एक राम की पत्नी थी। उसके रूप को देख कर मुझे लगा कि इसे तो मेरे बलशाली भाई लंकापति रावण की पत्नी होना चाहिए। जब मैं यह बात करने गई तो राम के भाई लक्ष्मण ने मेरी यह दुर्दशा कर दी। जब खर और दूषन मेरे अपमान का प्रतिशोध लेने गए तो उन दुष्टों ने उनका भी वध कर दिया। जनस्थान को नष्टभ्रष्ट कर दिया।"
अपनी बहन सूर्पनखा की दुर्दशा देख कर रावण और भी क्रोधित हो गया। उसने तय कर लिया कि वह राम से इस बात का प्रतिशोध अवश्य लेगा। उसने सूर्पणखा को दिलासा देते हुए कहा,
"मेरी बहन का अपमान करने वाला अब अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहेगा। मैं उसे उसकी उद्दंडता का दंड अवश्य दूँगा। उसकी पत्नी को अपनी पटरानी बनाऊँगा। तुम परेशान ना हो।"
रावण ने सूर्पणखा को समझा बुझा कर लौटा दिया। उसने राजसभा स्थगित कर दी। अपने महल के एकांत में बैठ कर वह सीता के विषय में सोचने लगा। जब से सूर्पणखा ने सीता के सौंदर्य का बखान किया था वह मन ही मन सीता पर मोहित हो गया था। वह किसी भी तरह सीता को अपनी पत्नी बनाने के बारे में विचार करने लगा।
रावण को अकंपन द्वारा दिया गया सुझाव याद आया। वह सोचने लगा कि यदि वह सीता का हरण कर उसे अपने महल ले आए तो उसकी भी इच्छा पूरी हो जाएगी और राम सीता के वियोग में तड़प तड़प कर प्राण त्याग देगा।
रावण बलशाली होने के साथ साथ चालाक भी था। वह बल के साथ छल करना भी जानता था। वह सीता के हरण की योजना के विषय में सोचने लगा।