Mukhbir upnyas samiksha -radha raman vaidy in Hindi Book Reviews by राज बोहरे books and stories PDF | ‘मुखबिर‘ उपन्यास समीक्षा -राधा रमण वैद्य

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‘मुखबिर‘ उपन्यास समीक्षा -राधा रमण वैद्य

व्यवस्था की बखिया उधेड़ता उपन्यास - मुखविर

ई0एम0फास्टर अपनी किताब ‘पैसेज टू इंडिया‘में कहते हैं कि जब आप दुनिया के साथ जुड़ते हैं तो उसे समझ पाते हैं ।

ग्वालियर चंबल संभाग डाकू आक्रांत था और अभी कुछ दिनों पहले तक भी रहा है। विनोबा के सर्वादय समाज सेवकों ने मुरेना जिले के जौरा में अपना आश्रम बना दिन-रात डाकुओं में विश्वास जगा सामूहिक डाकू समर्पण करवाया था। उससे पूर्व भी 1971 में विनोवा और जयप्रकाश नारायण के साथ प्रयत्न से तत्कालीन नामी और खूंखार डाकू ने सामूहिक समर्पण कर किया था और जिन्हें मुंगावली में खुली जेल बनाकर रखा गया था। जिससे प्रेरणा ग्रहण कर व्ही शांताराम ने अपनी प्रसिद्ध फिल्म “दो आंखें बारह हाथ “ बनाई थी पर “मरघट की ज्वाला “ की तरह डाकू समस्या इस क्षेत्र में अनवरत व्यक्ति सदैव बहती रहती है । यह भरको बीहड़ों का क्षेत्र, यहां के जंगल खार कछार का फैलाव सदैव बागियों, डाकुओं की सरगर्मी और अपराध की अपार संभावना से भरा रहता है । मुखबिर उपन्यास का लेखक अपने उपन्यास की समाप्ति पर एक पात्र रघुवंशी से कहलाता है कि जनता के मन का कोई ना कोई बागी जरूर है ,चंबल घाटी में जनता इसीलिए कृपाराम के अध्याय को खोले बैठी है, उसे इंतजार है किसी नए डाकू का ,जो खाली हो चुके इस सिंहासन पर आकर बैठे और लोग पुराना भूलें, यही चंबल की परंपरा है ।

जब यहां डाकुओं की एक निरंतरता है तो पुलिस और अधिकारियों की सक्रियता भी उसी अनुपात में घटती बढ़ती है। दोनों ओर से पिरता है सामान्य निरीह जन, डाकू अब डकैती की उलझन में नहीं पड़ते और सुविधाजनक पकड़ का धंधा अपनाया गया है । इसमें बिचौलिए का कार्य महत्वपूर्ण हो गया है। हर क्षेत्र में बिचौलिए, मध्यस्थ , दलाल, मिडिल मेंन, कमीशन एजेंट, फैसिलिटेटर, मीडिया कर्मी ,कारपोरेट लॉबिस्ट जैसा कोई ना कोई शब्द चलन में है। जैसी सोसायटी वैसा शब्द । इस डकैती या पकड़ के धंधे में मुखबिर शब्द चलता है, इसे लेखक ने अपने उपन्यास का शीर्षक बनाया है । वैसे वह डाकू का खबरिया है । इस वर्ग की गति तलवार की धार पर चलने जैसी होती है । कब शक हो जाए और कब मार डाला जाए । जैसे बागी बन जाना परिस्थिति वश है, वैसे मुखबिर बना लिया जाना पात्र की इच्छा पर निर्भर नहीं , उसकी विवशता है ।सबकी अपनी मजबूरियां, लेखक ने अपने एक पात्र से एक जगह कहलवाया है कि ” हर ताकतवर आदमी के लिए मुखबिरों की फौज चाहिए होती है तो वह हर कीमत पर मुखबिर ढूंढता है, कभी पैसे के लालच से तो कभी डरा धमकाकर । अच्छे भले आदमी को मुखबिर बना लेता है । वह यही मुखबिर तो असली लड़ाई होते हैं जीते कोई मरता मुखबिर है । यहां तक कि पूरे गांव के गांव मुखबिरी कर रहे हैं, पुलिस या डाकुओं में से किसी न किेसी की जो मुखबिर नही वह पिसता है दोनों के बीच।

राजनारायण बोहरे के दो कहानी संग्रह “इज्जत आबरू” तथा “ गोस्टा तथा अन्य कहानियां “ की रचनात्मक व्यापकता और परिपक्वता के बाद इस क्षेत्र की ज्वलंत डाकू समस्या के समग्र सामाजिक संदर्भ पर आधारित यह मुखबिर उपन्यास प्रकाश में आया । इसमें बुने कथानक के सहारे समय और समाज का यथार्थ इस क्षेत्र की अंतः तलहटी और इसके निवासियों की थाह रखने वाले सीता किशोर की कृति “ पानी पानी दार है “ के दोहों और जनमानस में व्याप्त लोक गीत और लोक कथाओं से संप़ृष्ठ हुआ कथानक पाठक की उत्सुकता को बरकरार रखते हुए उसे बांधे रखता है तथा आज के ग्वालियर चंबल क्षेत्र की त्रासदी और समाज की व्यापक विडंबना का अर्थ दर पर उद्घाटन करता चलता है । लेखक अपनी गहरी जानकारी और लेखकीय संवेदना के साथ अपने पात्रों को गढ़ता है ताकि कथानक की विश्वसनीयता संदिग्ध ना रह सके । वैसे आए दिन घटने वाली वारदातों की चर्चा दैनिक अखबार करते ही रहते हैं जिनसे लेखक को अपने कथानक का विन्यास रखने में सहायता अवश्य मिलती रही होगी ।

कहानी के गिरिराज पटवारी और लल्ला पंडित ही मुख्य आधार हैं । पहले जिनकी पकड़ कृपाराम गिरोह करता है और लंबे समय तक डाकुओं के साथ रहने को विवश बाहर तकलीफ सहने को मजबूर रहे , तबअ वे ही भारी सामान लादते, जैसे डाकू चलाते चलते, जो खिलाते वही खाते,तब उनकी अपनी मर्जी समाप्त थी। जहां जितनी देर वे चाहते, रुकना, खाना और सोना पड़ता । जब जैसे अपना दुर्भाग्य भोग कर लौटते ही पुलिस अपने मतलब के आदमी समझ अपने साथ घसीट रही है, क्योंकि पुलिस जानती है कि यह डाकुओं के हर ठिकाने और सहायकों से परिचित हैं । डाकुओं में सियाराम रावत और कृपाराम कोसी के अपने-अपने दल हैं ,जिनके अपने आपसी व्यवहार और जातिगत ठिकाने हैं ।उनकी प्रीति और बैर लेखक ने कथानक की आवश्यकता अनुसार उभारे हैं । डाकुओं की दिनचर्या उनका कुछ परिवारों पर पूरा भरोसा है जहां भी सुरक्षित आवास और भोजन पाएंगे । कुछ ऐसे व्यक्ति जिनके द्वारा पुलिस की गतिविधि का पता चलता रहे । वे पुलिस के संपर्क वाले या पुलिस के कर्मचारी होते हैं ,उन्हें खबरिया की संज्ञा देते हैं । आतंक और जुल्म के पर्याय डाकू भी भयाक्रांत और सशंकित रहते हैं , उसकी झलक भी लेखक ने दिखाई है । उनके जीवन की क्षणभंगुर ता है। कब कौन भरोसे का व्यक्ति ही काल बन जाए इस आशंका से ग्रसित रहते हैं । कब हाथ का कौर और रात की नींद त्याग ना पड़े , इसका कोई निश्चय नहीं रहता । इन सभी को बड़े स्वाभाविक ढंग से उपन्यास में यथा स्थान वर्णित किया गया है । इसी प्रकार क्रूरता आतंक , जातीय नफरत और जातीय ऊंच नीचं संघर्ष कथानक के अंग हैं, इन्हीं सब से उपन्यास पल्लवित और बहुत हुआ है ।

उपन्यास तो कृपाराम घोसी और उसकी गैंग पर केंद्रित है । उसने बस की जिन सवारियों को पकड़ बनाया था उनमें से एक केतकी नाम की एक जैनी लड़की अपनी शादी के बाद पहली बार अपने भाई के साथ विदा होकर मायके लौट रही थी ,अभी वह लड़की ही थी, अतः दुनियादारी की चतुराई भी नहीं समझती थी ,शहर में अपनी पढ़ाई के दौरान जूडो कराटे में कुशलता प्राप्त की थी, लड़कपन में डाकुओं से हाथापाई कर बैठी । बनिए की लड़की अच्छी फिरौती की आशा नई उम्र के कारण पकड़ बनाई गई और भाई को घर तक पहुंचाने के लिए छोड़ा गया । इसके जी की कथा उपन्यास की सबसे द्रवित और कारूनिक है । शुरू में डरी सहमी केतकी कृपाराम एक अन्य के द्वारा होगी जाकर दुर्गति प्राप्त होती है और फिर घर वापसी की आशा टूटने पर अपनी उपस्थिति के अनुकूल ढाल लेती है । एक रात पुलिस द्वारा बुरी तरह घिर जाने पर नदी के रास्ते भागने में उसे असमर्थ पा डाकू से गोली मारकर भाग निकलते हैं । डाकू तो पकड़ को अच्छी फिरौती की आशा या किसी अन्य स्वार्थ के मोहब्बत तब तक धोते हैं , जब तक उनके प्राण संकट में नहीं पड़ते । बुरी स्थिति आने पर फिर चाहे केतकी जैसी प्रिया बना ली गई नवयौवना सुंदरी हो या अधिक फिरौती की संभावना वाला कोई व्यक्ति अपने प्राणों की रक्षा में अड़ंगा लगने पर एक क्षण में निर्माेही हो उसे मारकर मुक्त होते हैं ।

आज के बदले हुए समाज की तरह नैतिकता के उसूलों में हो चुके पतन और बदले हुए दृष्टिकोण की झलक भी बौहरे ने अपने इस उपन्यास में दी है । जिसका स्पष्ट असर इस डाकू वर्ग में भी है क्योंकि वे भी इसी समाज की उत्पत्ति हैं तथा वहीं मानसिकता से संचालित हैं । पहले के डाकू बहू बेटी को छूते तक नहीं थे । दूर से गहने देने का दबाव बनाते थे । डाके के लिए धनवान घरों को ही निशाना बनाया जाता था । डाकू भी अधिकांश स्वर्ण क्षत्रिय होते थे, आज केवट, घोसी, गडरिया रावत हर कोई डाकू है और उनका आतंक है । उनमें जातिगत द्वेष की प्रबलता और नैतिकता का नितांत अभाव है । कृपाराम बस की सवारियों में से सिकरवार ठाकुर, राजपूत ,पण्डित, लाला पटवारी, का एक और जैनी लड़की जैसे उच्च वरणों के छह व्यक्तियों को अलग छांटकर पकड़ बनाता है और रायकवार, बुनकर, गडरिया आदि दलित जाति से सवारियों को छोड़ दिया जाता है । इस तरह जातीय घृणा का बदलता दायरा और रूप लेखक ने सफलता से अभिव्यक्त किया है । परिवार से अनिश्चितकाल तक दूर रहने के कारण इन असंयमित डाकुओं से व्याप्त नारी शोषण की नृशंसता केतकी प्रकरण में लेखक ने भली प्रकार प्रकट की है । वैसे भी यह उपन्यास शोषण के जटिल और बहु स्तरीय तस्वीर को भी उजागर करता है ।

आजकल इस भूभाग में बैर भरने की प्रवृति अर्थात रंजिश को पीढ़ी दर पीढ़ी पालने और मौका मिलते ही बुहारने तथा मौके की घात में रहने का स्वभाव बन हुआ है । इस ओर भी लेखक की सावधान दृष्टि रही है। कुछ बातें खटकती भी हैं ! शासकीय सेवा में स्वयं अधिकारी होने के बाद भी राजनारायण से गिरिराज पटवारी के विषय में यह चूक कैसे हो गई कि रेवेन्यू विभाग डाकुओं द्वारा पकड़ की अवधि तो किसी तरह ‘‘डयू नॉट डयू छुटटी या लीव विदाउट पे‘‘ के रूप में एडजस्ट करके नौकरी में बनाए रखेगी, पर पुलिस किस नियम के अंतर्गत उसे अपने साथ जंगल जंगल घुमाती रही ? अभी तो विभागों में सहयोगात्मक रवैया का कोई वैधानिक प्रावधान भी नहीं होता ? गडरिया, घोसी, गुर्जर आदि पशु पालक जातियों में किए गए घालमेल से समाजशास्त्र को एक गलत संदेश भी पहुंचने का खतरा सा लगा। तीसरे सीता किशोर के दोहे और अन्य लोकोक्तियां प्रसंगवश कथानक की गति और पुष्टि में सहायक प्रतीत होती हैं, पर कारस देव की कथा का फैलाव अनावश्यक लगता है ।

भाषा की दृष्टि से यह संपूर्ण उपन्यास बहुत सुगठित है । पात्रानुकूल भाषा संजोयी गई है। कुछ विशेष शब्दावली जो जंगल में भटकते डाकुओं की अपनी भाषा की है,ं लेखक ने जहां से भी एकत्र की हो प्रशंसनीय हैं ,और उपन्यास को सहज स्वाभाविक बनाती है। लेखक ने अपने इस एक सौ तिरासी पृश्ठों में फैले उपन्यास को सुराग, गुस्सा और भूख, पकड़, कचोंदा, मेहमान, दास्तान, बहस ,विवाद, हिकमत, चिट्ठी, मुठभेड़, बंटवारा, गलतफहमी जैसे शीर्ष लेकर पच्चीस अध्यायों में बंाटा है जिससे पाठक कहानी जैसी उत्सुकता से पढ़ता चलता है और कथानक में गहरे उतरता जाता है। लेखक ने जनपदीय शब्दों और शब्द समूह का भी भरपूर प्रयोग किया है- जैसे गोलियां अर्रा उठी, यकायक, आटा उसनकर, देहली उलांघना, जल्दी करो सिगलोग, पता नहीं किससे रिसा जाएं, डोेरिआए हुए, बड़ौआ जाति आदि आदि शब्द।

इस प्रकार राजनारायण बोहरे का यह उपन्यास बड़ी कुशलता से इसके आतंक के पर्याय बन चुके केवल डाकुओं के एक गिरोह की उन्मूलन की मात्र कथा नहीं कहता, बल्कि उससे व्यक्तियों, घरों, गांव और पुलिस की उलझन, संवेदनशील दुख दर्द का भी बयान करता है । पात्रों की पूरी आत्मकथा ही मुखर होती है। यह केवल ‘मुखबिर‘ की त्रासदी नहीं है, बल्कि पकड़ की दुर्दशा भी बड़े प्रभावी ढंग से फूट पड़ी है। यह केवल दहशत का रोचक रोमांचक नहीं रचाता, बल्कि ग्रामीण जीवन का भय, दो पाटों के बीच आए दिन पिसते रहने की आशंका नहीं वरन यथार्थ प्रस्तुत किया गया है । यह उपन्यास पाठकों के साथ इसलिए जुड़ाव कायम कर पाएगा, क्योंकि इस क्षेत्र के देहात का आम आदमी इन तथ्यों से आए दिन तो चार होता रहता है, इसे लेखक ने पकड़ा है।

राधा रमण वैद्य

65 हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी

दतिया मध्य प्रदेश