Mangat Pahalwan in Hindi Moral Stories by Deepak sharma books and stories PDF | मंगत पहलवान

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मंगत पहलवान

मंगत पहलवान

‘कुत्ता बँधा है क्या?’ एक अजनबी ने बंद फाटक की सलाखों के आर-पार पूछा|

फाटक के बाहर एक बोर्ड टंगा रहा- कुत्ते से सावधान!

ड्योढ़ी के चक्कर लगा रही मेरी बाइक रुक ली| बाइक मुझे उसी सुबह मिली थी| इस शर्त के साथ कि अकेले उस पर सवार होकर मैं घर का फाटक पार नहीं करूँगा| हालाँकि उस दिन मैंने आठ साल पूरे किए थे|

‘उसे पीछे आँगन में नहलाया जा रहा है|’ मैंने कहा|

इतवार के इतवार माँ और बाबा एक दूसरे की मदद लेकर उसे ज़रूर नहलाया करते| उसे साबुन लगाने का जिम्मा बाबा का रहता और गुनगुने पानी से उस साबुन को छुड़ाने का जिम्मा माँ का|

‘आज तुम्हारा जन्मदिन है?’ अजनबी हँसा- ‘यह लोगे?’

अपने बटुए से बीस रुपए का नोट उसने निकाला और फाटक की सलाखों में से मेरी ओर बढ़ा दिया|

‘आप कौन हो?’ चकितवंत मैं उसका मुँह ताकने लगा|

अपनी गरदन खूब ऊँची उठानी पड़ी मुझे|

अजनबी ऊँचे कद का रहा|

‘कहीं नहीं देखा मुझे?’ वह फिर हँसने लगा|

‘देखा है|’ –मैंने कहा|

‘कहाँ?’

ज़रूर देख रखा था मैंने उसे, लेकिन याद नहीं आया मुझे, कहाँ|

टेलीफोन की घंटी ने मुझे जवाब देने से बचा लिया|

‘कौन है?’ टेलीफोन की घंटी सुनकर इधर आ रही माँ हमारी ओर बढ़ आयीं| टेलीफोन के कमरे से फाटक दिखाई देता था|

‘मुझे नहीं पहचाना?’ आगन्तुक हँसा|

‘नहीं| नहीं पहचाना|’

माँ मुझे घसीटने लगीं| फाटक से दूर| मैं चिल्लाया, ‘मेरा बाइक| मेरा बाइक.....’

आँगन में पहुँच लेने के बाद ही माँ खड़ी हुईं|

‘हिम्मत देखो उसकी| यहाँ चला आया.....|’

‘कौन?’ बाबा वुल्फ़ के कान थपथपा रहे थे| जो सींग के समान हमेशा ऊपर की दिशा में खड़े रहते|

वुल्फ़ को उसका नाम छोटे भैया ने दिया था- ‘भेड़िए और कुत्ते एक साझे पुरखे से पैदा हुए हैं|’ तीन साल पहले वही इसे यहाँ लाए रहे- ‘जब तक अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई करने हेतु मैं यह शहर छोडूँगा, मेरा वुल्फ़ आपकी रखवाली के लिए तैयार हो जाएगा|’ और सच ही में डेढ़ साल के अन्दर वुल्फ़ ने अपने विकास का पूर्णोत्कर्ष प्राप्त कर लिया था| चालीस किलो वजन, दो फुट ऊँचाई, लम्बी माँस-पेशियाँ, फानाकर सिर, मजबूत जबड़े, गुफ़्फ़ेदार दुम और चितकबरे अपने लोमचर्म के भूरे और काले आभाभेद|

‘हर बात समझने में तुम्हें इतनी देर क्यों लग जाती है?’ माँ झाल्लायीं- ‘अब क्या बताऊँ कौन है? ख़ुद क्यों नहीं देख आते कौन आया है? वुल्फ़ को मैं नहला लूँगी.....|’

“कौन है?’ बाबा बाहर आए तो मैं भी उनके पीछे हो लिया|

‘आज कुणाल का जनमदिन है’- अजनबी के हाथ में उसका बीस का नोट ज्यों का त्यों लहरा रहा था|

‘याद रख कचहरी में धरे तेरे बाज़दावे की कापी मेरे पास रखी है| उसका पालन न करने पर तुझे सज़ा मिल सकती है.....’

‘यह तुम्हारे लिए है’-अजनबी ने बाबा की बात पर तार्किक ध्यान न दिया और बेखटके फाटक की सलाखों में से अपना नोट मेरी ओर बढ़ाने लगा|

‘चुपचाप यहाँ से फुट ले’-बाबा ने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया- ‘वरना अपने अलसेशियन से तुझे नुचवा दूँगा.....|’

वह गायब हो गया|

‘बाज़दावा क्या होता है?’ मैंने बाबा के कंधे अपनी बाँहों में भर लिए|

‘एक ऐसा वादा जिसे तोड़ने पर कचहरी सज़ा सुनाती है.....|’

‘उसने क्या वादा किया?’

‘अपनी सूरत वह हमसे छिपाकर रखेगा.....|’

‘क्यों?’

‘क्योंकि वह हमारा दुश्मन है|’

इस बीच टेलीफोन की घंटी बजनी बंद हो गयी और बाबा आँगन में लौट लिए|

दोपहर में जीजी आयीं| एक पैकेट के साथ|

‘इधर आ’-आते ही उन्होंने मुझे पुकारा, ‘आज तेरा जन्म दिन है|’

मैं दूसरे कोने में भाग लिया|

‘वह नहीं आया?’ माँ ने पूछा|

‘नहीं’-जीजी हँसी- ‘उसे नहीं मालूम मैं यहाँ आई हूँ| यही मालूम है मैं बाल कटवा रही हूँ.....|’

‘दूसरा आया था’-माँ ने कहा- ‘जन्मदिन का इसे बीस रूपया दे रहा था, हमने भगा दिया.....|’

‘इसे मिला था?’ जीजी की हँसी गायब ही गयी|

‘बस| पल, दो पल|’

‘कुछ बोला क्या? इससे?’

‘इधर आ’-जीजी ने फिर मुझे पुकारा- ‘देख, तेरे लिए एक बहुत बढ़िया ड्रेस लायी हूँ.....|’

मैं दूसरे कोने में भाग लिया|

वे मेरे पीछे भागीं|

‘क्या करती है?’ माँ ने उन्हें टोका- ‘आठवाँ महीना है तेरा| पागल है तू?’

‘कुछ नहीं बिगड़ता’-जीजी बेपरवाही से हँसी- ‘याद नहीं, पिछली बार कितनी भाग-दौड़ रही थी फिर भी कुछ बिगड़ा था क्या?’

‘अपना ध्यान रखना अब तेरी अपनी ज़िम्मेदारी है’-माँ नाराज़ हो ली- ‘इस बार मैं तेरी कोई ज़िम्मेदारी न लूँगी.....|’

‘अच्छा’-जीजी माँ के पास जा बैठीं- ‘आप बुलाइए इसे| आपका कहा बेकहा नहीं जाता.....|’

‘इधर आ तो’-माँ ने मेरी तरफ़ देखा|

अगले पल मैं उनके पास जा पहुँचा|

‘अपना यह नया ड्रेस देख तो|’ जीजी ने अपने पैकेट की ओर अपने हाथ बढ़ाए|

‘नहीं|’ –जीजी की लायी हुई हर चीज़ से मुझे चिढ़ रही| तभी से जब से मेरे मना करने के बावजूद वे अपना घर छोड़कर उस परिवार के साथ रहने लगी थीं, जिसका प्रत्येक सदस्य मुझे घूर-घूर कर घबरा दिया करता|

‘तू इसे नहीं पहनेगा?’ –माँ ने पैकेट की नयी कमीज और नयी नीकर मेरे सामने रख दी- ‘देख तो, कितनी सुंदर है|’

बाहर फाटक पर वुल्फ़ भौंका|

‘कौन है बाहर?’ बाबा दूसरे कमरे में टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहे थे- ‘कौन देखेगा?’

‘मैं देखूँगी?’ –माँ हमारे पास से उठ गयीं- ‘और कौन देखेगा?’

मैं भी उनके पीछे जाने के लिए उठ खड़ा हुआ|

‘वह आदमी कैसा था, जो सुबह आया रहा?’ जीजी धीरे से फुसफुसायीं|

अकेले में मेरे साथ वे अकसर फुसफुसाहटों में बात करतीं|

अपने क़दम मैंने वहीं रोक लिए और जीजी के निकट चला आया| उस अजनबी के प्रति मेरी जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई थी|

‘वह कौन है?’ मैंने पूछा|

‘एक ज़माने का एक बड़ा कुश्तीबाज़’-जीजी फिर फुसफुसायीं- ‘इधर, मेरे पास आकर बैठ| मैं तुझे सब बताती हूँ.....|’

‘क्या नाम है?’

‘मंगत पहलवान.....|’

‘फ्री-स्टाइल वाला?’ कुश्ती के बारे में मेरी जानकारी अच्छी रही| बड़े भैया की वजह से जिनके बचपन के सामान में उस समय के बड़े कुश्तीबाज़ों की तस्वीरें तो रहीं ही, उनकी किशोरा’वस्था के ज़माने की डायरियों में उनके दंगलों के ब्यौरे भी दर्ज रहे| बेशक बड़े भैया अब दूसरे शहर में रहते थे, जहाँ उनकी नौकरी थी, पत्नी थी, दो बेटे थे लेकिन जब भी वे इधर हमारे पास आते मेरे साथ अपनी उन डायरियों और तस्वीरों को ज़रूर कई-कई बार अपनी निगाह में उतारते और उन दक्ष कुश्तीबाज़ों के होल्ड (पकड़), ट्रिप (अड़ंगा) और थ्रो (पछाड़) की देर तक बातें करते|

‘हाँ| फ्री-स्टाइल’-जीजी मेरी पुरानी कमीज के बटन खोलने लगीं- ‘और वेट क्लास में सुपर हैवी-वेट.....|’

‘सौ के.जी. से ऊपर?’ मुझे याद आ गया| अजनबी मंगत पहलवान ही था| उसकी तस्वीर मैंने देख रखी थी| दस साल पहले, जो भी और जितनी भी कुश्तियाँ उसने लड़ी थीं, हर मुकाबले में खड़े सभी पहलवानों को हमेशा हराया था उसने| बड़े भैया की वे डायरियाँ दस साल पुरानी थीं, इसीलिए इधर बीते दस सालों में लड़ी गयी उसकी लड़ाइयों के बारे में मैं कुछ न जानता था|

‘हाँ एक सौ सात.....|’

‘एक सौ सात के.जी.?’ मैंने अचम्भे से अपने हाथ फैलाए|

‘हाँ| एक सौ सात के.जी.’, हँस कर जीजी न मेरी गाल चूम ली और अपनी लायी हुई नयी कमीज़ मुझे पहनाने लगीं|

‘वह हमारा दुश्मन कैसे बना?’

‘किसने कहा वह हमारा दुश्मन है?’

‘बाबा ने.....’

‘वह फिर आ धमका है’ –माँ कमरे के अंदर चली आयी- ‘वुल्फ़ की भौंक देखी? अब तुम इसे लेकर इधर ही रहना| उसी तरफ़ बिल्कुल मत आना.....|’

माँ फ़ौरन बाहर चली गयीं|

वुल्फ़ की गरज ने जीजी का ध्यान बाँट दिया| नयी कमीज़ के बटन बंद कर रहे उनके हाथ अपनी फुरती खोने लगे| चेहरा भी उनका फीका और पीला पड़ने लगा|

अपने आपको जीजी के हाथों से छुड़ाकर मैंने बाहर भाग लेना चाहा|

‘नीकर नहीं बदलोगे?’ जीजी की फुसफुसाहट और धीमी हो ली- ‘पहले इधर चलोगे?’

‘हाँ|’ मैंने अपना सिर हिलाया|

दबे क़दमों से हम टेलीफोन वाले कमरे में जा पहुँचे|

फाटक खुला था और ड्योढ़ी में मंगत पहलवान वुल्फ़ के साथ गुत्थमगुत्था हो रहा था| उसके एक हाथ में वुल्फ़ की दुम थी और दूसरे हाथ में वुल्फ़ के कान| वुल्फ़ की लपलपाती जीभ लम्बी लार टपका रही थी और कुदक कर वह मंगत पहलवान को काट खाने की ताक में था|

‘अपने गनर के साथ फ़ौरन मेरे गहर चले आओ’-हमारी तरफ पीठ किए बाबा फोन पर बात कर रहे थे- ‘तलाक ले चुका मेरा पहला दामाद इधर उत्पात मचाए है.....|’

दामाद? बाबा ने मंगत पहलवान को अपना दामाद कहा क्या? मतलब, जीजी की एक शादी पहले भी हो चुकी थी? और वह भी मंगत पहलवान के संग?

मैंने जीजी की ओर देखा|

वह बुरी तरह काँप रही थीं|

‘माँ’ –घबराकर मैंने दरवाज़े की ओट में, ड्योढ़ी की दिशा में आँखें गड़ाए खड़ी माँ को पुकारा|

जीजी लड़खड़ाने लगीं|

माँ ने लपक कर उन्हें अपनी बाँहों का सहारा दिया और उन्हें अंदर सोने वाले कमरे की ओर ले जाना चाहा|

लेकिन जीजी वहीं फ़र्श पर बीच रास्ते गिर गयीं और लहू गिराने लगीं टाँगों के रास्ते|

‘पहले डॉक्टर बुलाइए जल्दी’ –माँ बाबा की दिशा में चिल्लायीं- ‘बच्चा गिर रहा है.....’

बाबा टेलीफोन पर नए अंक घुमाने लगे|

जब तक बाबा के गनर वाले दोस्त पहुँचे वुल्फ़ निष्प्राण हो चुका था और मंगत पहलवान ढीला और मंद|

और जब तक डॉक्टर पहुँचे जीजी का आधा शरीर लहू से नहा चुका था|

अगले दिन बाबा ने मुझे स्कूल न भेजा| बाद में मुझे पता चला उस दिन की अखबार में मंगत पहलवान की गिरफ्तारी के समाचार के साथ हमारे बारे में भी एक सूचना छपी थी-माँ और बाबा मेरे नाना-नानी थे और मेरी असली माँ जीजी रहीं और असली पिता, मंगत पहलवान|