कहानी
मौजी
रामगोपाल भावुक
सूर्य डूबने को हो रहा था। चरवाहे पशु लेकर घर लौ पड़े थे। गाँव के लोग अपने पशुओं को लेने, गाँव के बाहर हनुमान जी के मन्दिर पर प्रतिदिन इकट्ठे हो जाते हैं। मन्दिर के चबूतरे से, जो छः-सात फीट ऊंचा होगा, उस पर खड़े होकर पशुओं के आने की दिशा खोज लेते हैं।
मौजी ऐसे वक्त पर जब-जब इस जगह से निकलता है उसे वर्शों पुरानी घटना ताजा हो जाती है, जब वह पहले पहल इस गाँव में आया था। पत्नी गंगो उर्फ पचरायवारी उसके साथ थी, भाई रन्धीरा तथा दो बच्चों को लेकर वह इस गाँव की शरण में आया था। मन्दिर पर उस दिन भी पशुओं को लेने वालों की ऐसी ही भीड़ थी।
भीड़ देखकर वह यहीं रूक गया था। मन्दिर के नीचे कौने की दीवार के सहारे सटकर बैठ गया था। परिवार के लोग भी पास ही बैठ गए थे। भीड़ चिथड़ों में लिपटे पुतलों को देखने झिमिट आई थी, एक ने पूछा-‘कहां के रहने वाले हो ?‘ मौजी ने उत्तर दिया-‘खोड़ के हैं महाराज। आफत के मारे-धारे हैं।‘ पण्डित दीनानाथ ने बात जानने के लिए पूछ लिया था-‘कहा बात हो गई ?‘
मौजी ने उत्तर दिया-‘खोड़ के राजा हैं ना, बिन्ने मार डारे होतये व तो भजि परै।‘ पण्डित जी ने पुनः प्रश्न कर दिया-‘तेरो नाम कहा है ?‘ ‘मौजी, लोग मोसे मुजिया चमार कहतये।‘ पुनः प्रश्न सुन पड़ा था-‘और तेरे संग जेको-को हैं ?‘ मौजी ने उत्तर दियाा-‘ज भइया है रन्धीरा, ज मेरी जनी है मोड़ी रधिया और मोड़ा कौ नाम मुल्ला है।‘
एक ने फिर प्रश्न कर दिया-‘तेरी जनी को का नाम है ?‘ पत्नी का नाम बताने में वह नवादा जोड़े की तरह शर्माया, बोला- ‘ज पंचरायवारी है, महाराज जाको नाम गंगो है।‘
इसी समय गायें आ गई थीं। लोग उसके दुःख की सुने बिना ही चले गए थे। वह उनकी ओर देखता रहा। जब सब चले गए। डरते-डरते मुल्ला ने कहा था-‘दादा अब तो मरौ जातों बेजा जोर की भूख लगी है। का आजहू भूखों पन्नों परैगो।‘ यह सुनकर पचरायवारी का हृदय द्रवित हो गया। आंखों में से एक रस बह निकला जिसे लोग करूणा कहते हैं, मन धीरज धारण नहीं कर पा रहा था, वह बोली-‘नहीं बिटूना, न होयगो तो आज दादा ते काजें चार रोटी गाँव में से मांग लायैंगे।
बात सुनकर मौजी उठ खड़ा हुआ, बोला-‘ न होय तो ज हवेली वारिन के झां जातों। कहां चार रोटी मांगे न दैंगे।‘
बात सुनकर रन्धीरा बोला-‘भज्जा भैं तो मेन्त-मजूरी करके पेट भत्तु रहतो। झें आकें भीख मांगनों पर रही है।‘
बात के उत्तर में मौजी को जवाब न सूझ रहा था, पर बोला-‘चल ठीक है, महावीर बब्बा जैसे राखेंगे, तैसें रहेंगै।‘ यह कहते हुए वह रोटियों की आशा में चला गया।
हवेली गाँव के मेम्बर तिवारी सुन्दरलाल की थी। मौजी दरवाजे पर पहुंच गया। तिवारी सुन्दरलाल दरवाजे पर ही बैठे थे। मौजी ने दूर से ही धरती छूकर उनका पालागन किया। और बोला-‘महाराज राम-राम।‘
उत्तर मिला-‘राम-राम।‘
मौजी ने अपनी वेदना उड़ेली-‘महाराज ज गाँव की सरन में आओ हों। बाल-बच्चा तीन दिना के भूखे हैं। अब तो ज गाँव की देहरो पै आके प्राण निकरे जातयें।‘
बात सुन्दरलाल के चुभ गई। वे चुपचार घर के अन्दर चले गए। दस-पन्द्रह रोटियां लिये वापिस लौटे।
रोटियां देखकर मौजी बोला-‘महाराज जौनों मैं ज गाँव में रहोंगो ज अहसान नहीं भूलोंगो।‘
यह बात सुनकर सुन्दरलाल को लगा-ये चार-पांच लोग हैं, इतनी रोटियों से इन्हें क्या होगा ? वे उसे रोटियां देते हुए बोले-‘देख, और चहिये तौ आटा ले जा, बना लेना।‘ मौजी बोला-‘नहीं महाराज, हमतो इतेकई खा कैं परैंगे। तीन दिना चलत-चलत हो गये बेज थके हैं।‘ यह कहते हुए वह रोटियां लेकर चला गया।
सभी रोटियों को देखकर इतने खुश हो गए मानो स्वर्ग से साक्षात्कार कर रहे हों। सभी सुख इसी गाँव में साकार होते दिखने लगे। बच्चे रोटियों पर टूट पड़े। आज तक उन्होंने ज्वार और बाजरा की रोटियां ही खाई थीं। गेहूं की रोटियों के दर्शन पहली बार हो रहे थे। पेट का मन समझाने के बाद सभी जमीन झाड़-फूंककर वहीं पसर गए। सभी को लग रहा था सभी स्वर्ग के दरवाजे पर ठहरे हुए हों, कल से स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा।
सुबह जल्दी ही सब जाग गए थे। ग्वाले आकर खड़े हो गए थे। गाँव के लोग अपने पशुओं को लेकर ग्वालों को सम्हलाने आने लगे। शाम की तरह फिर भीड़ लग गई। मौजी से जिसके मन में जैसा आता, वैसा प्रश्न कर देता। मौजी अपनी पूरी अक्ल से उत्तर चुकाने लगा। सभी जान गए यह परिवार गाँव की शरण चाहता है, क्या व्यवस्था की जाए ?
खरगा चौपिया सभी बातें सुन रहा था। वह समझ गया-‘बड़े-बड़े उसकी कुछ भी व्यवस्था करने वाले नहीं हैं।‘ यह सोचकर बोला-‘मौजी तैं चिन्ता मत करे, चल उ ठमेय खेत में टपरिया डार ले। भेहीं बनौ रहियो।‘ यह सुनकर मौजी उठ पड़ा था, खरगा उसे जगह बताने चलागया था।
अभावों से पला एक व्यक्तित्व, जो गाँव के बड़े-बड़े लोगों की परवाह किए बगैर जीता था। अमीरों से टकराने की उसमें पूरी सामर्थ्य थी, वह गरीबों की पीड़ा देखकर पिघल जाता था। सभी में चर्चा का विशय बन गया था। अकेले में राजा को डांटने का खरगा को अच्छा अभ्यास हो गया था। गाँव के बड़े-बड़े इस बात का इसलिए बुरा नहीं मानते थे क्योंकि वह मूख हैं, आधा पागल है। तभी तो सभी को गालियाँ देता रहता है।
तीसरे दिन नहर के किनारे मौजी की टपरिया दिखने लगी। लोगों के पशु मर जाते उसे ठगाने मौजी का पूरा परिवार पहुंच जाता। उससे जो कुछ मिलता पेट पाल रहा था। मजदूरी चल निकली थी। गाँव के अमीरों ने उसे बंधुआ मजदूर बना लिया।
कितने ही कानून बने। सुधारवादी आए, पर वह सभी से अछूता बना रहा। महाते दीनानाथ के यहां रन्धीरा व मौजी को नौकरी करते जिन्दगी कट गई थी। सुबह ही काम पर पहुंच जाता, गोबर डालता। चौंपे-ढोर की करता, उसके बाद महाते के घर की छांछ में कलेऊ की बंधी-बंधाई दो रोटी डालता और पेट को भरा हुआ महसूस करता। खेतों पर काम करने निकल जाता। दोपहर घर की तरफ देखने कट जाती। जब कोई रोटी लेकर न पहुंचता तो मन को चिलम पीकर समझाता। सोचता-घर में आटे की चुकटिया ही नहीं होयगी, रोटी कहां से आ जाएगी।
इसके बाद तो मौजी का जी दिन भर रोटियों पै धरा रहता। मोड़ी-मोड़ा भूखिन के मारें तड़प रहे होंगे। मुंह से जोर से शब्द निकले-‘हे बैल मज्जा कूंड़ में चल। कूंड़ में, नहीं मालिक सौ सुनांगे। कंगे आज नेकऊ काम नहीं भयो, अरे पेटें पांव सबके लगे हैं। अब बात को अन्दर-ही-अन्दर फिर से गुनने लगा। आज संझा के व्यारू कैसे होयगी ? मालिक नाज दे दैंगे तव पिसेगो।
रात ग्यारह-बारह से पहिले व्यारू नहीं मिलनो, कहा पतो भूखो ही पन्नें परे। कभी दम लेने चिलम से अपना कलेजा गर्म करता। एक दिन की बात हो तो सह ले, जीवन भर से यही ढर्रा चला आ रहा था। कभी-कभार मालिक चक्कर लगाने आ जाते। आज भी महाते आ धमके। बे-मन के काम को देखकर बोले-‘मौजी तोय नेकऊ हल हांकिवे को सहूर नानें देख कितैक आंतरे भये हैं।’ मौजी ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
आगे की भूमिका के लिए घर के लोगों को गरियाने लगा। यह सुनकर वे बोले-‘मौजी तेरे घर के तेरी नेकऊ नहीं सोचत। और तै बिन के काजे करि-करि के मरौ जातो।‘
मौजी ने बात को महाते के सामने धीरे-से सरका दी-‘म्हाते कहा हतो घरे। चून की चुकटिया हू नाने। नाज होता तो रोटी जरूर आ जाती।‘ महाते ने मोजी को लताड़ा-‘तें हमेशा नाज के काज ही रोत रहतो।‘ बात का मौजी क्या उत्तर दे ? मजबूरी को व्यक्त करने वाले शब्द ही उसे नहीं मिल रहे थे।
यों ही होली का वक्त आ गया। मौजी और पत्नी गंगो होली के खेल में जुटे थे। गंगो इस चक्कर में थी कब पति को गोबर से लतपथ करै और मौजी दस पइसा की रंग की पुड़िया ले आया था। उसने गंगो को सरावोर कर दिया।
बड़ी लड़की रधिया को बुढ़ापे की होली रास नहीं आई। बोली-‘दादा बूढ़ो होगओ तोऊ बाकी जे बातें नहीं गईं।‘ गंगो को लड़की की यह दखलन्दाजी पसन्द नहीं आई। बोली-‘बूढ़ो आदमी है, रोज तो सबकी चिन्ता में सूखिवे कत्तो। मत्त से कहतओं कै अब जे बातें छोड़।‘ लड़की मां की ये बातें सुनकर तिलमिला गई थी। गुस्से के मारे अन्दर चली गई।
दोनों ने इसकी परवाह नहीं की। दोनों बातें करने लगे। मौजी बोला-‘री ज होरी न होती तो तें में संग काये कों लगती।‘
गंगो की बातें ताजा हो गई, बोली-‘बा साल सरीकी होरी तुम पै फिर कबहूं नहीं चढ़ी।‘
मौजी अपने प्यार के बीच में खोड़ के राजा को ले आया, बोला-‘खोड़ के राजा सोऊ तो पै ऐसें रीझे कै माये तो जों लगती कै तें रानी बन्ते।’
गंगो ने अपने भाग्य की सराहना की, बोली-‘अभै कहा रानी नाने। तुम और लाला दो-दो आदमी सेवा में लगे हो।‘
उसी समय महाते दीनानाथ लठिया पटकते-पटकते दरवाजे पर आ गए थे। बोले-‘मौजी तुम्हें होरी चढ़ी है। खेत में मसूर कुर रयी है। अरे वाय दानास की बेर नों बीन लातये।‘
उनकी ये बात सुनकर मौजी की होली ढीली पड़ गई। अपराधी की भांति सामने खड़े होकर बोला-‘महाते खेतनों पहुंचत में दानास की बेर हो जायगो।‘
वे बोले-‘तुम्हें दानास की परी है। सब जयी से अच्छे लगतयें।‘
मौजी समझ गया, ये काम पर पहुंचाकर रहेंगे। बोला-‘महाते आज चाहें कछू कह लेऊ। आज तो नहीं चल सकत।‘
यह सुन महाते गुस्सा में आ गए, बोले-‘तो हमाओ हिसाव कर देऊ। जो होय सो देऊ लेऊ। जब तुम हमाओ हानि-लाभ नहीं देख सकत तो फिर तुम काये के हमाये आदमी।‘
आदेश देकर महाते चले गए। बड़ी देर तक वह दरवाजे पर खड़ा-खड़ा सोचता रहा। गंगो ने आकर समझाया-‘अरे ऐसी चिन्ता काये कत्तओ। तुमने चिन्ता तो राजन् की नहीं करी। अर तिहार अच्छे मनालेऊ। फिर चिन्ता करिवे तो सब जिन्दगी डरी है।‘ यह सुन मौजी में कई गुना स्फूर्ति आ गई थी।
00000000