मानस के राम
भाग 17
पंचवटी में निवास
ऋषि अगस्त्य की आज्ञा मानकर राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ पंचवटी की ओर प्रस्थान किया। पंचवटी की तरफ बढ़ते हुए उन लोगों को कई मनोहारी दृश्य दिखाई पड़े। मार्ग में जब कोई स्थान उनका मन मोह लेता तो तीनों वहाँ पर रुक जाते। शीतल जल धाराओं में स्नान करके तरोताजा होते। वहाँ उपलब्ध कंद मूल फल खाते। विश्राम करने के बाद पुनः अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते।
चलते हुए मार्ग में उन्हें एक विशालकाय पक्षी मिला। उस विशालकाय पक्षी को देखकर राम ने उससे पूँछा,
"आप कौन हैं ?"
उस पक्षी ने जवाब दिया,
"पुत्र मेरा नाम जटायु है। मैं अरुण देव का पुत्र और संपाति का भाई हूँ। मैं तुम्हारे पिता महाराज दशरथ का मित्र हूँ। तुम पंचवटी में अपने अनुज और पत्नी सीता के साथ सुखपूर्वक रहो। मैं तुम लोगों की सेवा करूँगा। जब सीता अकेली होंगी में उनका ध्यान रखूँगा।"
पंचवटी बहुत ही सुंदर स्थान था। उसकी सुंदरता पर राम मोहित हो गए। गोदावरी का शीतल निर्मल जल उस भूमि को सींच कर उपजाऊ बना रहा था। वहाँ अनेक प्रकार के फलों व फूलों के वृक्ष थे। उन्होंने मन ही मन ऋषि अगस्त्य का आभार व्यक्त किया कि उन्होंने वनवास के बचे हुए दिन बिताने के लिए ऐसे सुंदर स्थान के बारे में बताया। राम और लक्ष्मण ने गोदावरी नदी के तट पर एक सुंदर कुटी बनाई। तीनों वहाँ तीनों सुख से रहने लगे।
सूर्पणखा का आना
पंचवटी में निवास करते हुए अक्सर राम सीता व लक्ष्मण अयोध्या को याद करते थे। भरत राजा होते हुए भी तपस्वी सा जीवन व्यतीत कर रहें हैं यह सोंच कर लक्ष्मण का ह्रदय भी द्रवित हो जाता था। राम भी भरत के इस त्याग से प्रभावित थे। लेकिन उनके मन में माता कैकेई के लिए तनिक भी कड़वाहट नही थी।
तीनों पंचवटी के मनोरम वातावरण में शांति से रह रहे थे। एक दिन राम तथा लक्ष्मण गोदावरी के निर्मल शीतल जल में स्नान करने के बाद अपनी कुटी में वापस आए। जलपान के बाद वह अपने दैनिक कार्य में लग गए। तभी रावण की बहन सूर्पणखा विचरण करती वहाँ आ पहुँची। उसकी दृष्टि राम और लक्ष्मण पर पड़ी। दोनों की सुंदरता और सुडौल शरीर देख वह उन पर मोहित हो गई। सूर्पणखा एक राक्षसी थी अतः वह अपना रूप बदलने में दक्ष थी। उसने एक रमणीय स्त्री का रूप बनाया और राम के पास जाकर बोली,
"तुम कौन हो ? देखने में राजकुमार जैसे हो किंतु भेष तपस्वी का बनाया है। मैं लंका नरेश रावण की बहन हूँ और तुम्हारी तरफ आकर्षित हूँ। मुझसे विवाह कर लो। हम दोनों सुखपूर्वक रहेंगे।"
राम ने अपना परिचय देते हुए कहा,
"देवी मैं दशरथ पुत्र राम हूँ। अपने पिता के वचन का पालन करने हेतु पत्नी और अनुज के साथ वन में रहने आया हूँ। मेरी पत्नी मेरे साथ है। अतः आपका प्रस्ताव मैं स्वीकार नहीं कर सकता।"
राम के मना करने पर सूर्पणखा लक्ष्मण के पास गई और वही निवेदन किया। लक्ष्मण ने शालीनता से कहा,
"हे देवी, मैं तो राम और सीता का सेवक हूँ। एक सेवक आपको क्या सुख देगा। मैं आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता।"
लक्ष्मण द्वारा मना करने पर सूर्पणखा पुनः राम के पास गई और बोली,
"अपनी पत्नी के साथ रह कर तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? मेरे पति बन जाओ। मैं अपने भाई रावण से कह कर तुम्हें समस्त सुख दिला सकती हूँ। अपनी पत्नी की चिंता ना करो उसे मैं खा जाऊँगी।"
राम ने पुनः कहा
"मैं अपनी वर्तमान स्तिथि से संतुष्ट हूँ। मुझे क्षमा करें। मैं अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करता हूँ।"
राम के मन में विनोद उत्पन्न हुआ। वह बोले,
"परंतु यदि आप चाहें तो लक्ष्मण से पुनः पूँछ सकती हैं। उसकी पत्नी अयोध्या में ही है। हो सकता है वह आपका प्रस्ताव स्वीकार कर ले।"
राम की बात सुनकर सूर्पणखा लक्ष्मण के पास आकर बोली,
"तुम एक सुदर्शन युवक हो। तुम्हारे मुख पर राजसी तेज है। तुम्हारी पत्नी भी साथ नहीं है फिर क्यों सेवक बन कर अपना जीवन व्यर्थ कर रहे हो। मुझसे विवाह कर लो। मैं तुम्हें राजसी सुख दिलाऊँगी।"
लक्ष्मण ने कठोर शब्दों में कहा,
"यह कदापि नहीं हो सकता है। राम और सीता की सेवा ही मेरा जीवन लक्ष्य है। जाओ यहाँ से। मुझे मेरे कर्तव्य से विचलित करने का प्रयास ना करो।"
इस तिरिस्कार से सूर्पणखा क्रोधित हो गई। अपने वास्तविक रूप में में वह उन्हें मारने दौड़ी। लक्ष्मण ने उसे समझाने का प्रयास किया। पर वह नहीं मानी। आत्म रक्षा में लक्ष्मण ने उसके नाक कान काट दिए।
यह क्षेत्र जनस्थान के नाम से जाना जाता था। यहाँ लंका के राजा रावण के भाई खर का राज्य था। इस क्षेत्र में राक्षसों का आतंक था। अपमानित होने के बाद सूर्पणखा अपने भाई खर के पास गई। उसे अपनी दुर्दशा दिखाई। वह विलाप करते हुए बोली,
"इतने वीर भाई के होते हुए भी उन तुच्छ मनुष्यों ने मेरा अपमान किया है। मेरे नाक कान काट दिए। क्या यह सब देखकर तुम्हारा रक्त नहीं खौला। क्या मेरा यह अपमान चुपचाप सहन कर लोगे ? जाओ और मेरे इस अपमान का बदला लो।"
सुर्पणखा की बात सुनकर खर को क्रोध आया। उसने कहा,
"इस प्रकार विलाप मत करो। ठीक से विस्तार पूर्वक बताओ कि क्या हुआ ? वह दो मनुष्य कौन हैं ? क्यों उन्होंने तुम्हारा यह हाल किया ?"
सूर्पणखा ने रोते हुए कहा,
"वह तपस्वियों का भेष धारण किए हुए दो राजकुमार हैं। बड़े का नाम राम है। छोटे का नाम लक्ष्मण है। उसी दुष्ट ने मेरे साथ यह किया है।"
खर ने अपने गुप्तचर अकंपन से पूँछा,
"मेरी बहन का अपमान करने का साहस करने वाले यह दो राजकुमार कौन हैं ? जिन्होंने तपस्वी वेष धारण कर रखा है।"
अकंपन ने कहा,
"राजन यदाकदा दंडकारण्य में यह बात उठती रही है कि अयोध्या के महाराज दशरथ के दो पुत्र वनवास पर आए हुए हैं। वह ऋषियों की रक्षा के लिए राक्षसों का संहार कर रहे हैं। यह दो मनुष्य वही दो राजकुमार राम और लक्ष्मण होंगे। सुनने में आया है कि इन्होंने ही विराध का वध किया है।"
खर ने क्रोधित होकर कहा,
"तुमने मुझे इस बात की सूचना क्यों नहीं दी ?"
"राजन अभी तक तो यह सारी घटनाएं जनस्थान के बाहर हो रही थीं। इसलिए इनके बारे में कोई सूचना नहीं दी गई।
राम तथा लक्ष्मण की बहादुरी के बारे में सुनकर खर बहुत क्रोधित हुआ। उसका छोटा भाई दूषण भी सब सुन रहा था। उसने शूर्पणखा से पूँछा,
"पर स्मरण ने ऐसी धृष्टता दिखाई उसका कोई तो कारण होगा ? तुम उस प्रदेश में क्या करने गई थी ?"
शूर्पणखा ने फिर विलाप करते हुए कहा,
"उसके बड़े भाई राम की पत्नी बहुत सुंदर है। उसके जैसी रूपवती को इस तरह वन में भटकने की जगह हमारे बड़े भाई लंकेश के महल में होना चाहिए। यह सोचकर मैं उनके पास गई थी। मैंने उनसे महाराज खर के बारे में भी बताया। पर वह दुष्ट कहने लगे कि वह किसी से नहीं डरते हैं। उसके बाद छोटे भाई लक्ष्मण ने मेरी यह दशा कर दी। यदि महराज खर अपनी बहन के अपमान का बदला नहीं लेंगे तो उनकी हिम्मत और अधिक बढ़ जाएगी।"
शूर्पणखा की बात सुनकर खर ने तुरंत अपने सेनापति को आदेश दिया,
"मेरा रथ तैयार किया जाए। मैं उन दो मनुष्यों को उनके किए का दंड देना चाहता हूंँ।"
हर की बात सुनकर सेनापति ने कहा,
"आप उन दो मनुष्यों को मारने जाने का कष्ट क्यों कर रहे हैं। भला कभी हाथी भी चींटियों को मारने जाता है। मैं अभी अपने चौदह राक्षसों को भेज कर उन दोनों को उनके किए की सजा दिलाता हूँ।"
खर के चौदह राक्षसों के साथ सूर्पणखा राम के निवास पर आई। राम ने लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार सौंपा और स्वयं उनसे युद्ध करने लगे। राम के पौरुष के समक्ष राक्षस टिक नहीं सके और सभी मारे गए।
खर दूषण वध
रोती हुई सूर्पणखा खर के पास पहुँची। उसे सारा किस्सा सुनाया। सब सुनकर खर को बहुत धक्का लगा। उसने अपने परम शक्तिशाली योद्धाओं को भेजा था। उनकी पराजय से वह तिलमिला गया। उसने आदेश दिया,
"उन दो मानवों को उनकी उद्दंडता का सबक सिखाने के लिए अब मुझे ही जाना होगा। सेना तैयार करो।"
विशाल सेना के साथ वह स्वयं राम के पास गया। उसका भाई दूषण भी साथ गया। विशाल राक्षस सेना को आया देख राम और लक्ष्मण ने सीता को एक सुरक्षित गुफा में छिपा दिया और युद्ध के लिए तैयार हो गए। उन्होंने राक्षसों को ललकारा। उनकी ललकार सुनकर खर ने कहा,
"तुम दोनों तुच्छ मनुष्यों का यह साहस। मेरे राज्य में आकर तुम लोग उत्पात मचा रहे हो। यदि प्राण प्यारे हैं तो यह धनुष बाण रखकर हमारी शरण में आ जाओ। तुम्हारे साथ जो सुंदर स्त्री है उसे हमारे हवाले कर दो।"
राम ने खर से कहा,
"हे दुष्ट राक्षस मैंने तुम लोगों के अत्याचार से ऋषियों की रक्षा करने का प्रण लिया है। मैं एक क्षत्रिय हूँ। एक क्षत्रिय रण में पीठ नहीं दिखाता है। तुम चाहो जान बचाकर भाग जाओ। अन्यथा मेरे हाथों से नहीं बचोगे।"
खर ने कहा,
"साधारण मनुष्य होकर इतना दुस्साहस। मेरी इतनी बड़ी सेना का सामना करना चाहते हो। अभी तुम्हें मजा चखाता हूँ।"
उसके बाद अपने भाई को आदेश दिया,
"दूषण अपनी सेना से कहो कि इस दुष्ट को चारों तरफ से घेर लो।"
आदेश पाकर सेना राम की तरफ बढ़ी। राम ने अपने बाणों की बौछार से कई राक्षसों को मार दिया। सबसे पहले दूषण सामने आया। राम ने अपने बाणों से उसका रथ ध्वस्त कर दिया। वह भूमि पर गिर गया। क्रोध में वह राम की ओर लपका। राम ने अपने तीरों से उसकी भुजाएं काट कर उसे मार दिया। बाकी बचे राक्षस भी शीघ्र मारे गए। तत्पश्चात त्रिसिरा आगे आया। किंतु शीघ्र ही वह भी मारा गया।
अंत में खर स्वयं सामने आया। उसने डट कर मुकाबला किया। दोनों तरफ से बाणों की बौछार होने लगी। किंतु राम के तीक्ष्ण बाणों के आगे वह अधिक देर टिक नहीं पाया और मारा गया।