Benzir - the dream of the shore - 2 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 2

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 2

भाग -२

अम्मी ने यह पता चलते ही कोहराम खड़ा कर दिया। लेकिन तब वह पांच छोटे-छोटे बच्चों के साथ अब्बू की ज्यादतियों के सामने कमजोर पड़ गईं। अब्बू के झांसें में आकर वह अपना जमा-जमाया काम-धंधा पहले ही छोड़ चुकी थीं। उन्होंने अब्बू से सारे रिश्ते-नाते खत्म कर घर छोड़ने के लिए कहा। 'खुला' देने की भी धमकी दी। लेकिन अब्बू टस से मस ना हुए, जमे रहे मकान में। अम्मी, बच्चों को बस जीने भर का खाना-पीना देते थे। लाज ढकने भर को कपड़े। अम्मी के लिए अपने वालिद को खोने के बाद यह सबसे बड़ा सदमा था, जिसने उन्हें बीमार बना दिया।

उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। लीवर की गंभीर समस्या से पीड़ित हो गईं। फिर उनका जीवन पूरी तरह अब्बू की दया पर निर्भर हो गया। वह कुछ भी ज्यादती करते रहते लेकिन अम्मी उफ तक नहीं कर पाती थीं। अब्बू ने उनको वर्षों तक खूब प्रताड़ित किया। बीमारी की हालत में भी उन पर हाथ उठाते रहते थे, कि वह मकान अब्बू के नाम लिख दें। लेकिन अम्मी लाख मार खातीं, मगर जवाब हर बार एक ही देतीं, कि जो तलाक आप बार-बार मांगने पर भी नहीं दे रहे हैं, मकान अपने नाम लिखवाते ही मुझे तलाक देकर बच्चों सहित सड़क पर मारकर फेंक देंगें। हमें सड़कों पर भीख मांगने के लिए छोड़ देंगे। हमें अपनी देह तक बेचने को मजबूर कर देंगे।

इतना ही नहीं अम्मी हर मौके पर पास-पड़ोस से लेकर, हर मिलने वाले से सारी बातें बताकर यह जरूर कहतीं थीं कि मेरी, मेरे बच्चों की जान खतरे में है। मुझे कुछ हो जाए तो पुलिस को खबर कर देना। इन बातों से अब्बू बहुत दबाव में आ जाते थे। जिससे अम्मी की दुश्वारियां और बढ़तीं । घर का आँगन जंग का मैदान बन जाता। यह जंग तब और बड़ी, डरावनी हो गई जब अब्बू मेरी सौतेली अम्मी को भी घर लेते आए। अब रोज ही घर में जो हंगामा होता, उससे पास-पड़ोस के लोग भी ना चाहते हुए भी अतंतः बीच-बचाव कराने को विवश हो जाते।

अम्मी बार-बार यही कहतीं, यह झूठे दगाबाज हैं, मक्कार हैं। मेरी संपत्ति हथियाने के लिए मुझसे दगाबाजी की, और दगा देकर ही निकाह भी किया। यह मुझे तलाक दें और मुझे, मेरा मकान व बच्चों को छोड़ कर जाएं। मुझे मेरा मेहर भी नहीं चाहिए। रख लें उसे। उन्होंने गुनाह किया है मैं एक गुनाहगार के साथ नहीं रह सकती। अम्मी 'खुला; देने की धमकी तो बार-बार देतीं, लेकिन दे नहीं पाईं। अम्मी, बड़ी अम्मी को भी जलील करतीं। कहतीं तुम एक गुनाहगार का साथ दे रही हो। एक सताई औरत को परेशान कर रही हो। इस जुल्म की सजा तुम्हें अल्लाहताला जरूर देंगे। इस आदमी ने तुम्हें, मुझे एक साथ धोखा दिया है। जो तुम्हारा नहीं हुआ, वह मेरा कहां से हो जाएगा । इसने हमें धोखा दिया और ना जाने कितनों को देगा । ऐसे गुनाहगार को छोड़ देना ही सही है।

कई रिश्तेदार, दूसरे लोग झगड़ों और अम्मी के रुख को देखकर कहते, 'रोज-रोज के झगड़े से अच्छा है तलाक देकर शांति से क्यों नहीं रहते। मगर सबकी बातों का अब्बू एक ही जवाब देते, 'मैं गुनाहगार नहीं हूं। मैंने कोई धोखा नहीं दिया है। मैंने दोनों से निकाह किया है। दोनों को बेपनाह चाहता हूं। इसलिए किसी को तलाक नहीं दूंगा। उनकी बातों से बड़ी अम्मी भी सहमत नहीं होतीं। उन्हें मेरी अम्मी की बातें सही लगतीं । जब वह बोलतीं तो अब्बू बच्चों के सामने ही उन्हें बुरी तरह पीट-पीटकर अधमरा कर देते।

चीखते-चिल्लाते, कहते, 'इसके बहकावे में आकर मुझे गुनहगार कह रही है। दोनों मिलकर मेरे खिलाफ साजिश कर रही हो।' इसी बात को लेकर एक दिन विवाद इतना बढ़ा कि, अब्बू ने बड़ी अम्मी को तीन सेकेंड में तलाक.ए.बिद्दत दे दिया। तलाक देकर बच्चों सहित बड़ी अम्मी को आधी रात को घर से धक्के देकर बाहर निकाल दिया। जाड़े का दिन था। वह घर के बाहर मारपीट से बुरी तरह चोट खाई दीवार के सहारे बैठी रोती रहीं। बच्चे भी, जो आठ से बारह साल तक के थे।'

मैंने देखा कि बेनज़ीर बड़ी अम्मी के बाहर निकाले जाने की बात बताते हुए बहुत भावुक हो गईं। उस पर नियंत्रण के लिए उन्होंने टेबिल पर रखे एक वायरलेस स्विच को उठाकर उसके बीच में बने एक बटन को दो बार दबाया। फिर वापस रखते हुए कहा, 'आप मुझे अगर, इतना गौर से देखते रहेंगे तो जो बताना है मैं वही भूल जाऊँगी।' यह कह कर वह हंस दीं । उनकी इस बात से न मैं सकपकाया, ना ही मन में कोई संकोच हुआ।

मैंने छूटते ही कहा, 'बेनज़ीर जी मैं गौर से देख नहीं रहा हूं। बल्कि आप जो दास्तान बता रही हैं, उसकी गहराई में उतरकर, उसे आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूं। जिससे मैं उपन्यास में प्राण-प्रतिष्ठा कर, उसे जीवन्त बनाने में सफल रहूं। वरना आपकी हमारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। '

'ठीक है, उतरिए आप गहराई में। ये लेखन की बातें आप लेखक ही जानें। लेकिन जब आप देखते हैं, तो मुझे लगता है कि जैसे आपकी आंखें जादू करके वह सब भी जान लेना चाहती हैं, जो मैंने आज तक किसी को नहीं बताया और बताना भी नहीं चाहती।' यह कहकर वह पुनः हंस दीं। फिर अतीत में डूबती हुई सी बोलीं, 

'उनकी हालत पर तरस खा कर मोहल्ले के लोगों ने कंबल, खाने-पीने की चीजें तो दीं, लेकिन अब्बू की हरकतों के कारण किसी ने उन्हें अपने घर में शरण नहीं दी। मेरी अम्मी से नहीं रहा गया, तो जब अब्बू सो गए तो चुपचाप बड़ी अम्मी को समझा-बुझाकर घर के अंदर ले आईं कि, 'रात यहीं बिताओ। इतनी ठंड में बाहर तुम पर जान पर बन आएगी। जो भी हो मैं अपनी इंसानियत का फर्ज निभाने की कोशिश करुँगी। सवेरे तुम चली जाना अपने घर, क्योंकि हम दोनों की भलाई इसी में है। बड़ी अम्मी बड़ी मान-मनौवल के बाद अंदर आईं। लेकिन लाख मिन्नतों के बाद भी खाने-पीने का एक निवाला भी मंजूर नहीं किया। बच्चों ने भी नहीं।

दिन भर से घर में जो हंगामा बरपाया था अब्बू ने उससे घर में चूल्हा नहीं जला था। अब्बू बाहर से खाकर आए और तानकर सो गए थे। वह जब सुबह उठे तब-तक बड़ी अम्मी अपने बच्चों के साथ अपने मायके चली गईं थीं। कोई उन्हें देख ना ले, मोहल्ले के लोगों के सामने उन्हें शर्मिंदा ना होना पड़े, इसलिए कड़ाके की ठंड, घना कोहरा और अम्मी के बार-बार कहने के बावजूद सवेरा होने से कुछ ही पहले वह चली गईं। तब सड़क पर अंधेरा ही था। इक्का-दुक्का गाड़ियां दिख रही थीं। अम्मी ने उनसे जाते वक्तअपनी हर गलती के लिए माफी मांगते हुए, जरूरत भर के पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने नहीं लिये।

अम्मी ने कहा कम से कम किराए भर के तो रख लो। तब उन्होंने पैरों से पायल उतार कर अम्मी को देते हुए कहा, 'इनके बदले दोगी तभी लूंगी, नहीं तो नहीं।' अम्मी की सारी कोशिशें बेकार गईं। पायल उन्हें लेनी ही पड़ी। वह जाते समय रो रही थीं। मगर आंखों में गुस्सा चेहरे पर कठोरता साफ दिख रही थी।

वह दूर तक एकदम सीधी चली जाती सड़क पर अपने बच्चों को लिए चली गईं जल्दी-जल्दी। हम दरवाजे पर खड़े उन्हें देखते रहे, मगर वह ज्यादा दूर तक दिखाई नहीं दीं। बमुश्किल पचास-साठ कदम चली होंगी कि कोहरे में ओझल हो गईं। उनके ओझल होने के बाद भी अम्मी बड़ी देर तक बाहर ही खड़ी रहीं। बड़ी अम्मी ने जाते वक्त अम्मी को नसीहत दी थी कि, 'जो भी हो जाए इस जल्लाद के नाम मकान मत लिखना। अपने हाथ कभी ना कटाना, नहीं तो यह जल्लाद तुम्हारी मुझसे भी बुरी हालत करेगा ।'

इस तरह बड़ी अम्मी घर से हमेशा के लिए चली गईं। अम्मी अंदर आकर अपने बिस्तर पर बैठ गईं। बड़ी अम्मी की बातें दोहरा-दोहरा कर बार-बार रोती और चुप होती रहीं। हम सभी बच्चे डरे-सहमे इधर-उधर कोनों में दुबके हुए थे। देखते-देखते नौ बज गए, लेकिन चाय तक नहीं बनी थी।

अब्बू नौ बजे उठे। उनके उठने की आहट से हम सब एकदम सिहर उठे। उठते ही उन्होंने बाहर जाकर देखा कि बड़ी अम्मी तो नहीं हैं। उन्हें बाहर अंदर कहीं भी ना देखकर कहा, 'खुदा का शुक्र है शैतान की खाला से निजात मिली।' फिर अम्मी से बोले, 'तू भी रास्ते पर आ जा तो अच्छा है। जो कहता हूं वो कर नहीं तो तेरा हश्र और भी बुरा होगा। '

पहले से ही खफा अम्मी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने छूटते ही बड़ी अम्मी का नाम लेते हुए कहा, ' कान खोल कर सुन लो, मैं वह नहीं हूं और ना ही वह शैतान की खाला थीं और ना मैं हूं। शैतान कौन है कहने की जरूरत नहीं। मैं तो कहती हूं कि पलक झपकने की भी देर ना करो, अभी का अभी मुझे तलाक दो और जाओ यहां से, पीछा छोड़ो मेरा, छोड़ो मेरा पीछा। मुझे कोई जरूरत नहीं है तुम्हारी। इस मुगालते में न रहो कि तुम्हारे बिना मैं जी ना पाऊँगी, अपने बच्चों को जिला ना पाऊँगी.'

इन्हीं बातों के साथ अब्बू-अम्मी के बीच जोरदार झगड़े का एक और दौर सुबह-सुबह ही शुरू हो गया। पड़ोसियों की आंख उस कड़कड़ती ठंड में हमारे घर की चीख-चिल्लाहट से खुली। यह चीख-चिल्लाहट और भी भयानक होने लगी, जब एक दिन अचानक ही अब्बू दूसरी तीसरी अम्मी को लेकर, आ धमके और फिर लगातार कई दिन तक बवाल चलता रहा।

मेरी यह दोनों ही सौतेली अम्मियां आपस में ममेरी बहनें थीं और तलाकशुदा भी। लेकिन अब्बू निकाह करके ले आए। हफ्ते भर के अंदर दोनों से निकाह किया था। दोनों ही बेहद गरीबी और मुफलिसी में जीवन जी रही थीं। बाद में पता चला कि अब्बू ने वहां भी झूठ-फरेब का सहारा लिया था। दोनों ही जगह अलग -अलग बातें की थीं। जैसे-जैसे उनके झूठ सामने आते गए वैसे-वैसे झगड़े बढते गए। फिर एक दिन खूब मारपीट हुई और बात पुलिस तक पहुंच गई। मेरी अम्मी सहित दोनों सौतेली अम्मियों को भी चोटें आई थीं।

कई दिन की चख-चख के बाद पुलिस ने मामला रफा-दफा कराया। मगर झगड़े की सारी जड़ें घर में मौजूद थीं, तो वह चलता रहा। फिर वह दिन भी आया जब जिन दो अम्मियों को अब्बू लाए थे झूठ ही झूठ बोल कर, जिनके लिए मेरी अम्मी को भयानक यातनाएं देते थे, परेशान करते थे, साथ ही उन दोनों को भी मारते थे, मेरी उन दोनों अम्मियों को भी तलाक दे दिया। घर से निकाल दिया। बच्चों को भी उन्हीं के हवाले कर दिया।

तब अम्मी ने एक बार फिर अपने जीवन से अब्बू को निकालने का पुरजोर प्रयास किया। लेकिन अब्बू ने मेरी अम्मी को तलाक नहीं दिया। बार-बार मांगने, भीषण फसाद होने पर भी नहीं दिया। घर पर जमे रहे। मगर सौतेली अम्मियों के जाने के बाद झगड़े-फसाद कुछ कम हुए। समय के साथ और कम होते गए। इसी बीच एक दिन पता चला कि बड़ी अम्मी को उनके मायके वालों ने भी डेढ़ महीने बाद ही घर से निकाल दिया था।

कहने को कई भाई, मां-बाप सभी थे। उसके बाद उनका, उनके बच्चों का आज-तक कुछ पता नहीं चला । पता नहीं जीवित भी हैं या नहीं। यदि नहीं हैं तो उनकी मौत का जिम्मेदार किसे कहूं ?केवल अब्बू को, या अम्मी-अब्बू दोनों को। मकान अम्मी का था, वह चाहतीं तों रोक सकती थीं। यदि जीवित हैं तो उनकी तकलीफों का जिम्मेदार कौन ?'

बेनज़ीर यह कहते हुए बहुत गंभीर हो गईं । अतीत में बहुत गहरे उतर गईं तो मैं भी शांति से उन्हें देखता रहा। थोड़ी ही देर में वह जैसे जागीं, मुझ पर एक नज़र डाली, फिर हलके से मुस्कुराती हुईं बोलीं, 

'जल्दी ही अम्मी, अब्बू के बीच रिश्ते सामान्य हो गए और हम भाई-बहनों की संख्या कुल सात पर जाकर रुकी। मैं उनकी सबसे छोटी संतान हूं। इसलिए मैं ही घर में अम्मी-अब्बू के साथ आखिर तक रही। बाकी तीन भाई, तीन बहनें अपने-अपने परिवार के साथ अपने घरों को चले गए। कोई दे या ना दे, अम्मी-अब्बू भले ही बड़ी वाली दोनों बहनों को रात-दिन कोसते रहे, लेकिन मैं कहूँगी कि उन बहनों के कारण घर जंग के मैदान से शांति का मैदान या घर बना। नहीं तो अम्मियों के जाने के बाद हम बच्चों के कारण घर में हरदम धूम-धड़ाम होता रहता था। बहनों ने किया बस इतना कि अब्बू की बेइंतिहा पाबंदियों हद दर्जे की पर्देदारी के खिलाफ आवाज उठाई और खुली हवा में सांस लेने के लिए अब्बू के बनाए सारे बाड़ों को तोड़कर बिखरा दिया।

हम पर पाबंदियों की इतनी तहें या पाबंदियां इतने स्तर की थीं कि जेड प्लस सिक्योरिटी पाए लोगों की सुरक्षा भी उतने स्तर की नहीं होगी।आलम यह था कि घर के छोटे से आंगन में भी हम बिना सिर ढके नहीं रह सकते थे। सूरज की रोशनी भी हमें छू ले, देख ले, यह भी अब्बू को गवारा नहीं था। पाबंदियां आयद करने की उनकी ताकत को दोनों बहनों ने कतरा-कतरा कर बिखेर दिया था। इसके बावजूद वह अपनी कोशिश करते रहते थे।

हम सारे बच्चे टीवी देखने के लिए तरस गए, मोबाइल क्या होता है यह हम केवल सुनते थे। पढ़ने-लिखने से हमारा सामना इतना ही रहा कि एक खातून को अब्बू ने उर्दू पढानें के लिए रखा था। वही आकर हम बहनों को लिखने-पढ़ने लायक उर्दू पढ़ा-सिखा सकीं।

खातून उर्दू भाषा, कुरान की अच्छी जानकार होने के साथ-साथ उर्दू साहित्य की भी अच्छी जानकार थीं। फिराक गोरखपुरी, इस्मत चुगताई, कुर्तउलएन हैदर उनके प्रिय लेखक-लेखिकाएं थीं । वह चाहती थीं कि हम बहनों को ठीक से पढाई-लिखाई में आगे बढ़ाया जाए। हमारा दाखिला स्कूल में करा दिया जाए। वह अब्बू से बार-बार कहतीं कि, 'आपकी बच्चियां पढ़ने में तेज हैं, उन्हें अच्छी तालीम दीजिए।' मगर अब्बू की नजरों में या गलत था। भाईयों को तो उन्होंने मदरसों में डाल रखा था। मगर हमारे लिए मदरसा जाने पर भी उनको सख्त ऐतराज था।

उनके हिसाब से हम लड़कियां लड़कों की बराबरी कत्तई नहीं कर सकतीं। ऊपर वाले ने ही हमें दूसरे पायदान पर खड़ा करके भेजा है, तो वह कैसे लड़कियों को लड़कों के बराबर खड़ा कर दें। एक बार उन खातून ने उनसे इस बारे में थोड़ी बात कर ली, समझाने का प्रयास किया कि, 'बच्चों के अच्छे मुस्तक़बिल के लिए, उनको तालीम देना आवश्यक है। मजहब की किताबों में लिखी बातों का यह मतलब कत्तई नहीं है, कि बच्चियों को तालीम कत्तई ना दी जाए। यह किताबों में लिखी बातों को गलत ढंग से समझना है।'

उनकी यह बातें अब्बू को इतनी नागवार लगीं कि उन्होंने उनसे साफ कह दिया कि, 'आप हमारे बच्चों को गलत रास्ते पर भेज रही हैं। आज से आप पढ़ाना बंद कर दीजिए।' खातून ने खुशी-खुशी उनकी बातें मानते हुए कहा, 'अगर आप यह सोच रहे थे, कि मैं आपके पैसों के लिए इन बच्चियों को पढ़ा रही थी, तो आप बड़ी गलतफहमी में हैं। बच्चियों को पढ़ाना मैं अपना कर्तव्य मानती रही हूं। मेरी नजर में बच्चे-बच्चियों में कोई भेद करना गुनाह है। पैसा कमाना मेरा मकसद होता तो मैं यहां आने के बजाय किसी अन्य स्कूल के बच्चों को ट्यूशन दे रही होती। आप जितना देते हैं उसका छः.सात गुना पैसा मिलता।'

खातून ने लगे हाथ कई और बातें कह दीं। जो सीधे-सीधे अब्बू की जाहिलियत की तरफ संकेत कर रही थीं। इसका अहसास होते ही अब्बू को अपना आपा खोते देर नहीं लगी । उन्होंने छूटते ही खातून पर काफिर होने का आरोप लगाते हुए कह दिया, 'मेरे यहां काफिरों को आने की कोई जरूरत नहीं है।'

खातून भी गुस्सा हो कर चली गईं हमेशा के लिए। जाते-जाते इतना जरूर कह गईं, 'ऐसी सोच ही हमारे दुखों, हमारी जाहिलियत का मुख्य कारण है।' उस दिन और उसके बाद भी कई दिन तक घर का माहौल अब्बू की बातों से गर्म होता रहा। पढाई से इस तरह दूर होना हम बच्चों को बहुत खला। लेकिन हम सभी के हाथ-पैर बंधे थे। जल्दी ही हमें छत पर भी जाने की मनाही हो गई। हम तभी जा सकते थे, जब साथ में अम्मी भी हों। घर के कामकाज निपटाने के अलावा हमारा सारा वक्त चिकनकारी में बीतने लगा ।

अम्मी ने ही हम सारी बहनों को चिकनकारी का हुनर सिखाया था। मेरी तीनों बड़ी बहनों ने कम उमर में ही इतनी काबिलियत हासिल कर ली थी कि उनके काम की माँग बढ गई थी। थोक का धंधा करने वाला जो डिज़ाइन देता, वे उनके अलावा भी नई-नई डिजाइनें पेश करतीं। यह डिज़ाइन इतनी खूबसूरत होती थीं, कि ग्राहक हाथों-हाथ लेता। थोक वाले ने जल्दी ही अपनी डिज़ाइनें देना बंद कर दिया। यह कह दिया कि आप अपने हिसाब से डिज़ाइन बनाएं।

हम बहनों की काम की स्पीड माशाल्लाह बिजली से हाथ चलते थे।हमारे हुनर से धंधा खूब चल निकला। आमदनी कई गुना बढ़ गई। साथ ही उम्र भी हो चली तो अम्मी निकाह के लिए परेशान होने लगीं । लेकिन अब्बू के कानों में जूं नहीं रेंग रही थी।