Kamnao ke Nasheman - 16 in Hindi Love Stories by Husn Tabassum nihan books and stories PDF | कामनाओं के नशेमन - 16

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कामनाओं के नशेमन - 16

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

16

रात को जब दूध का गिलास मोहिनी केशव नाथ जी के कमरे में लेकर गयी तो केशव नाथ जी ने उससे कहा- ‘‘थोड़ी देर मेरे पास बैठो। कुछ बात करनी है तुमसे।‘‘

वह एक कुतुहल के साथ उनके पास कुर्सी पर उनका चेहरा निहारती बैठ गई। केशव नाथ जीने उसे कहीं टटोलते हुए पूछा- ‘‘जानती हो मैने यहाँ तुम्हें क्यों बुलाया है?‘‘

‘‘हाँ..आपके कॉलेज में कोई जगह खाली है उसी के लिए।‘‘

‘‘लेकिन यहाँ कैसे रहोगी...तुम्हारा अपना परिवार है अब तो।‘‘ मोहिनी ने कुछ क्षण चुप रह कर कहा- ‘‘उससे क्या होता है। जैसे लखनऊ छोड़ कर पचमढ़ी रहती हूँ, वैसे ही यहाँ रहूँगी।‘‘

फिर केशव नाथ जी ने बड़े ही थके स्वर में कहा- ‘‘तुम्हें यहाँ बुलाने में मेरा एक स्वार्थ है। बेला बेचारी अपाहिज बन कर बेड पर पड़ी हुई है। ऐसे में कोई भी बहुत अपना उसके पास रहना चाहिए। इस घर में भी चाहिए। अमल को एक शिष्ट मंडल की ओर से अमेरिका जाना है। लेकिन वह बेला को अकेली छोड़ कर जाने का मन नहीं बना पा रहा है। बेला तो जो है सो तो है ही बेचारी। मैने महसूस किया है कि साथ-साथ अमल भी टूटता जा रहा है। उसकी सारी प्रतिभा नष्ट होती जा रही है। बेला को भी अपनी व्यथा से कहीं ज्यादा अमल के टूटते रहने से या नष्ट होते रहने से गहरी व्यथा है।‘‘ इतना कहकर केशव नाथ जी मोहिनी का चेहरा शायद किसी संभावित उत्तर की प्रतीक्षा में ताकने लगे थे। तभी एक झटके से मोहिनी उन्हें दूध का गिलास थमाते हुए हँस कर बोली- ‘‘मैं अमल को यूंही नष्ट नहीं होने दूंगी। बेला के पास मैं रहूँगी। चाहे आप अपने कॉलेज में जगह दिलाएं या न दिलाएं। मैं यही रहूँगी जब तक मेरी जरूरत इस घर के लिए रहेगी।

केशव नाथ जी के चेहरे पर एक कृतज्ञता का भाव मोहिनी के लिए तैर गया था। वे बहुत आर्द्रता के साथ मोहिनी को निहारते रह गए थे। शायद उतनी गहरी आत्मीयता मोहिनी सह नहीं पायी और उनके कमरे से जाते-जाते बोली-‘‘बेला को अभी खाना खिलाना है।‘‘

बेला के पास वह खाने की प्लेट ले कर बैठी तो बेला ने मुस्कुरा कर कहा- ‘‘इस घर में अब तो कोई मेहमान ही नहीं रह जाता। आप भी थक कर आयी हैं और चली गईं चाय बनाने खाना बनाने।‘‘

‘‘जिस दिन मैं अपने आपको मेहमान समझ लूंगी चली जाऊँगी यहाँ से। इस बंगले के कोने मुझे पहचनते हैं। किचन में पड़े सारे बर्तन मेरे स्पर्श से परिचित हैं। ये सब मुझे मेहमान कभी नहीं समझेंगे। बस तुम भी मुझे मेहमान समझना जल्दी ही बंद कर दो‘‘ मोहिनी ने बहुत ही आत्मीय भाव से तुनकते हुए कहा तभी बेला के बाजू में बैठे अमल से कहा- ‘‘कल रविवार है। मेरे साथ ढेर सारे रूपिए लेकर निकलिए, किचेन में तो नमक तक का तो पता नहीं है। पर्दे सभी लीर-लीर हो चुके हैं। सारी खरीदारी करनी है कल। बेला जी को और इस घर को संभालने का जिम्मा मेरा।‘‘

अमल ने बहुत ही गंभीर लहजा ओढ़ते हुए कहा- ‘‘यह हुक्म तुम्हारे लिए बाबू जी का है क्या?‘‘ मोहिनी ने एक गहरे मर्म को छू कर कहा- ‘‘किसी का हुक्म मिले तभी?...मैं भी तो कहीं न कहीं इस घर से जुड़ी हुई हूँ। आप अपनी फिक्र कीजिए कि आपको अमेरिका जाने का चांस मिस नहीं करना है। जितने दिन आप नहीं रहेंगे...आपसे ज्यादा ख्याल बेला का मैं रखूंगी।‘‘ अमल उसकी बातों में कहीं गहरे डूबने उतराने लगे थे। पचमढ़ी में जिस मादकता को मोहिनी में महकते हुए पाया था अभी इस क्षण उसकी मादकता में एक गहरी आत्मीयता जुड़ जाने से वह ज्यादह मादक महसूस होने लगी थी। किसी खुली धूप की तरह उष्ण और एक मोहक उजास से भरी हुयी। किन्हीं-किन्हीं क्षणों में कृतज्ञता जैसे बोध को जताने के लिए शब्द ही नहीं मिलते। और व्यक्ति चुपचाप एक कृतज्ञ भाव से निहारता भर रह जाता है। शायद बेला भी इस क्षण मोहिनी के उस आत्मीय तेवर को चुपचाप निहारती भर रह गयी थी।

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जब वे मार्केट पहुँचे तो एक चौराहे पर ठहरते हुए मोहिनी ने अमल से कहा- ‘‘पिछले सात सालों में मैने तुमसे कितनी बार कहा था कि मेरे संग गांधी मार्केट चल कर मुझे एक बार गोलगप्पा खिला लाओ। लेकिन तुम हर बार टाल गए थे। आज तो खाऊँगी तुम्हारे साथ।‘‘

अमल मोहिनी को देख कर मुस्कुरा पड़े। मोहिनी की इतनी छोटी सी चाह थी लेकिन उसमें टोकरी भर फूलों की ढेर सारे अतीत की गर्माहट थी। कुछ बहुत छोटी इच्छाएं...कभी-कभी बहुत बड़ी आकांक्षाओं का एहसास दे जाती हैं। अमल ने गांधी मार्केट में ही टैक्सी रूकवा ली और मोहिनी के साथ सामने मैदान की ओर बढ़ गए। आगे चल कर एक गोलगप्पे वाले के खोमचे वाले के पास खड़े हो गए।

‘‘बहुत सहज हो गए हो अमल...? ‘‘मोहिनी ने एक बहुत ही दयनीयता के भाव में कहा।- ‘‘तुम्हारी कठोरता तब मुझे बहुत अच्छी लगती थी। अब तो एकदम सरल गणित के प्रश्न की तरह ही सरल हो गए हो। क्या ये तकलीफदेह नहीं है?‘‘

‘‘जो तकलीफदेह है उसे मैं नहीं जानता और जो तकलीफदेह नहीं है उसे सभी तकलीफदेह समझते हैं।‘‘ अमल ने मुस्कुरा कर कहा। इन बातों का अर्थ लगाती मोहिनी चुप सी रह गई। फिर उसने कहा- ‘‘तुमने एक बार भी नहीं बताया बेला के बारे में जब तुम पचमढ़ी आए थे।‘‘

‘‘जान कर तुम क्या कर लेतीं और यहाँ आकर तुम जान भी गईं तो तुम्हारे वश में क्या है? यही कि तुम बेला की देखभाल कर लोगी। घर एक व्यवस्थित ढंग से संभाल लोगी बस।‘‘ अमल ने एक लंबी सांस खींचते हुए कहा।

‘‘...और बहुत कुछ गिनाने में छूटा जा रहा है तुमसे कि मैं और क्या कर सकती हूँ‘‘ मोहिनी ने हँस कर कहा। अमल ने इस बात पर मोहिनी की आँखों में देखा, जैसे ढेर सारे सम्बल पड़े झलक रहे हों। वह जिस तरह एक गमगमाते वृक्ष की तरह घनी और छांवदार लगती थी, इस क्षण भी वह वही छांव लिए खड़ी मुस्कुरा रही थी। फिर अमल ने उससे पूछा- ‘‘..वहाँ, घर में तुमसे कुछ पूछ ही न पाया।‘‘

उसने पल भर रूक कर कहा- ‘‘यही पूछने वाले हो न कि शिखर कैसे हैं? वह मोती कैसा है?...मैं अब कितनी पचमढ़ी की कामसूत्र वाली हस्थिनी राजदान रह गई हूँ...कितनी मोती चुगने वाली मैना रह गई हूँ...यही सब न..?‘‘

अमल ने जो उसकी आँखों में पाना चाहा था, उसे वह बहुत ही खूबसूरती से यह सब कह कर छिपा ले गई थी। तब अमल ने बहुत ही आत्मीय भाव से कहा था- ‘‘यह सब नहीं पूछना चाहा था। तुम अपने में कितनी तुम रह गई हो यह जानना चाहा था। वैसे न भी बताओ तो भी महसूस कर ही लूंगा।‘‘

मोहिनी ने तब आँखें नचाते हुए कहा था जैसे ‘‘पचमढ़ी एक ही रात रहे मेरे पास मेरी पूरी महक लिए हुए और उतने में ही सारा कुछ महसूस कर लिया..? मुझे अच्छी तरह महसूस करने के लिए उतनी ही पहचान काफी नहीं है। जब यहाँ थी...तुम्हारे पास तब क्यों नहीं पहचान पाए...और अब भी रहूं तो भी शायद ही मेरी पहचान बना पाओ...इसमें मुझे संदेह है...‘‘

मोहिनी की इन बातों से कटते हुए जैसे एक ही बिंदु पर टिकते हुए अमल ने पूछा- ‘‘तुम्हारे शिखर बाबू को यह मालूम है कि तुम मेरे पास यहाँ मुंबई आई हो...?‘‘

उसने एक सहम जैसी चीज अमल की आँखों में देख कर कहा- ‘‘ बिल्कुल मालूम है। मैं उनसे कह कर आयी हूँ और यही कहने मैं लखनऊ गई थी।‘‘ फिर वह एक कृतज्ञता के भाव से बोली- ‘‘शिखर जैसा भी है, बहुत बड़े मन का मालिक है। उसने पुरूष के एकाधिकार की भावनाओं को पार कर या चुपचाप एक त्रासदी झेलकर मुझे तुम्हारे पास आने की इजाजत दे दी है।...क्या पता उनके मन में यहाँ आने की स्वीकृति देने में क्या था।‘‘

तभी खोमचे वाले ने पास बुलाया। शायद उसने गोलगप्पे के लिए पानी तैयार कर लिया था। बात कट सी गई थी। पास जाकर दोनों खाने लगे। तभी अमल ने पूछा- ‘‘मोती कहाँ है, क्या हुआ उसका?‘‘

‘‘अरे, वह तो मुकदमें से बरी हुआ तो अपने गांव चला गया।‘‘ मोहिनी ने किसी गुम हुई चीज को जैसे गैर जरूरी समझते हुए कहा- ‘‘...वह मासूम, कुछ जान नहीं पाया कि स्त्री भी कोई चीज होती है। बस, उसे जेल जाने का ही डर था। वैसे वह मुझे कभी याद नहीं करेगा लेकिन मैं उसे कभी भूल नहीं पाऊँगी। ढेर सारी यादें जूड़ी हैं उसकी मेरे साथ।‘‘

तभी बेले के फूलों की वेणी बेचने वाला उधर से गुजरा। मोहिनी ने लपक कर उसे बुला लिया और एक वेणी खरीद ली। अमल ने कहा- ‘‘...अभी यह कहोगी कि इसे अपने हाथों से मेरे जूड़े में लगा दो।‘‘ खोमचे वाले ने अमल की ये बात शायद सुन ली थी। उसने मोहिनी की मांग में सिंदूर देख कर मुस्कुरा कर कहा- ‘‘...साहब, यहीं लगा देंगे तो क्या हुआ किसी गैर के जूड़े में थोड़े ही लगा रहे हैं।‘‘

अमल और मोहिनी उसकी बात पर चुप लगा गए। फिर मोहिनी ने अमल से कहा- ‘‘ये वेणी मैं बेला के लिए लिये चलती हूँ...आप अपने हाथ से उसे मेरे सामने लगाएंगे उसे बहुत अच्छा लगेगा। वह एक जुड़ाव महसूस करेगी।‘‘

‘‘वह महसूस करे या न करे...मैं तो पूरी तरह जुड़ा हुआ हूँ। एक पल के लिए भी बेला से अलग रह पाना मुश्किल होता है मेरे लिए।‘‘ अमल ने बहुत ही विश्वसनीयता के साथ कहा। इस बात पर मोहिनी ने थोड़ा रूक कर कहा-‘‘...मैं यहीं बाबू जी वाले कॉलेज में ज्वाईन करने जा रही हूँ और तुम्हारे पास रहूँगी। तुम्हें बेला की चिंता छोड़ कर अमेरिका जाना है। तुम्हें नष्ट नहीं होने दूंगी। समझे।‘‘

अमल मोहिनी का चेहरा तकते रह गए चुपचाप। फिर दोनों सामान खरीदने चले गए। ढेर सारा सामान खरीदा मोहिनी ने। जब वह वापस लौटने लगी तो ने रास्ते में उसने अमल से कहा-‘‘..जितना समान मैंने खरीदा है...वही बेला कभी तुम्हारे साथ आकर खरीदती होगी।‘‘

अमल कुछ नहीं बोले। जैसे वो कुछ सोच रहे हों। फिर कुछ गंभीर लहजे में कहा- ‘‘मोहिनी, तुम पचमढ़ी लौट जाओ यहाँ कुछ दिन रह के। यहाँ पिछले दिनों एक रजिया बेग़म आयी थीं। एक रात रूकीं और मैं अपने पुरूष को रोक न पाया।...मैं बहुत ही कमजोर मन का पुरूष बन गया हूँ। तुमने पचमढ़ी में यह एहसास कर ही लिया होगा।‘‘

मोहिनी ने मुड़ कर अमल का चेहरा देखा। वे सचमुच एक निरीह व्यक्ति लग रहे थे। फिर उसने हँस कर कहा- ‘‘मैंने कब कहा..मैने कब कहा कि आप अपने को बहुत मजबूत बनाए रखिए। कमजोर बने रहने में उतनी यातना नहीं होती जितनी यातना अपने को मजबूत बनाने में होती है।...समझे। एक बात सुन लो। मैं यहाँ से जाने वाली नहीं हूँ। यह मेरा पक्का इरादा है।‘‘

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मोहिनी बेला के पास बैठ कर फूलों को उसके जूड़े में बांधने लगी। बेला ने एक फीकी मुस्कुराहट के साथ पास बैठे अमल की ओर निहारते हुए कहा- ‘‘मेरे इस श्रंगार का कुछ अर्थ भी है या फिर ऐसे ही सिर्फ एक स्त्री का मन बहलाने के लिए यह फूलों की वेणी लगा रही है आप..। जब मुझमें महक खत्म हो गयी तो इन फूलों में महकने से क्या मिलना है?‘‘

बेला की बातों को अनसुनी कर मोहिनी ने बेला का गाल चूमते हुए एक चहक के साथ कहा- ‘‘हाय...बेला सचमुच तू बहुत ही सुंदर है। तभी अमल बाबू हर पल तुम्हें निहारते रहना चाहते है और तुम्हें छोड़कर कहीं भी उनका जाने का मन नहीं करता।‘‘

बेला ने हँस कर कहा- ‘‘ये मेरे आकर्षण से नहीं, मेरी निरीहता से बंधे रहते हैं।‘’

‘‘मैं तुमसे रेशम की गांठ से ही बंधा हूँ। अब वह चाहे तुम्हारा आकर्षण हो या तुम्हारी निरीहता। प्रश्न सिर्फ तुमसे बंधे रहने का है जो मेरे मन की सबसे बड़ी शर्त है।‘‘ अमल ने बेला की ओर अपनी पूरी आंतरिकता के साथ निहार कर कहा। फिर शायद इस संदर्भ से कटते हुए बेला ने बहुत कृतज्ञता के भाव के साथ मोहिनी से कहा- ‘‘..आज लगा बहुत दिनों बाद...कि यह घर है। सारा कुछ तो आपने बदल कर रख दिया है। पर्दे, चादरें, फूलों का गुलदस्ता सभी तो सज गए हैं। क्या बाबू जी को खाने में पसंद है क्या इनको पसंद है मुझसे ज्यादह तो आप जानती हैं।‘‘

‘‘...तुम्हें क्या पसंद है ये अमल से पूछ लूंगी..या मैं खुद जान लूंगी।‘‘ मोहिनी ने हँसते हुए कहा- ‘‘स्त्री हूँ न...मुझसे कितना छुपा पाएंगी आप अपनी पसंद को।‘‘ स्त्री शब्द में मोहिनी जिस ढंग से एक मोहकता पैदा कर गयी है, बेला उस मोहकता में डूबने के लिए विवश हुयी है जैसे। वह चुपचाप मोहिनी का मुस्कुराता हुआ चेहरा, एक हवा के झोंके में हिलते किसी फूल की तरह देखती रह गयी है।

तभी बाबू जी बाहर से आ गए। उन्होंने आते ही पूरे कमरे को परखती निंगाह से देखा और फिर मुस्कुरा कर बोले-‘‘बड़ा बदलाव ला दिया मोहिनी ने तो...‘‘ फिर उन्होंने बेला के बेड के पास कुर्सी पर बैठते हुए कहा- ‘‘बेला, ये मोहिनी पूरी तरह एक मौसम है। जहाँ रहती है अपना असर बनाए रखती है।‘‘

‘‘सो तो है बाबू जी।‘‘ बेला ने मुस्कुरा कर कहा- ‘‘इस घर का पतझड़ ही चला गया। मोहिनी जी ने इस घर का कोना-कोना खिला दिया है।‘‘

मोहिनी ने हँस कर कहा- ‘‘बाबू जी, अमल हमेशा की तरह कंजूस ही रहे। मैंने कुछ लेने के लिए कहा कि यह भी खरीद लो तो बोले पैसे बहुत लग जाएंगे।‘‘ तब मोहिनी की बात काटते हुए बेला ने कहा- ‘‘ऐसी बात नहीं है वक्त ने कंजूस बना दिया है। मेरे ऊपर दवाईयों का खर्च भी तो ज्यादा है। बाबू जी रिटायर हो गए हैं।‘‘

‘‘आप भी बेला हर बात पर दुखड़ा लेकर बैठ जाती हैं।...अरे मै अमल को चिढ़ा रही थी। इनको पैसेों की कमी कभी नहीं पड़ सकती। दुनिया भर के समारोहों के लिए प्रोग्राम आते होंगे। लेकिन यह महाशय जाते ही न होंगे। लेकिन अब तो जांएंगे। घर और और तुम्हारी चिंता से इन्हें कोई सरोकार नहीं अब। अमेरिका वाला प्रोग्राम इन्हें मिस नहीं करने दूंगी। बाबू जी तो कुछ कहते नहीं। इन्हें बिगाड़ रखा है। अभी तक वे इन्हें बच्चा ही समझते हैं। इकलौता होने में यही फायदा है।‘‘ मोहिनी ने बहुत ही अपनत्व के भाव में डांटते हुए कहा।

तभी केशव नाथ जी ने बेला की दवाईयों की बात पर कुछ सोचते हुए कहा- ‘‘अमल आज मैं पुरानी मुंबई गया था। वहाँ किसी से रजिया बेगम का ढाका वाला पता मालूम किया था। पता मिल गया है। उनके गहने या तो तुम वापस कर आओ या फिर मैं ही एक दिन चला जाता हूँ। उसे जिंदगी में जरूरत पड़ सकती है।‘‘ अमल ने केशव नाथ जी के चेहरे पर एक सपाट भाव देख कर कहा- ‘‘मैं खुद ही परेशान था उनके गहनों को लेकर कि कैसे उन्हें वापस भिजवाया जाए। बेला भी कई बार कह चुकी है कि किसी तरह उन्हें वापस भिजवा दो। उनका इतना लगाव ही काफी रहा हम लोगों के लिए।‘‘

केशव नाथ जी ने देखा, इस क्षण अमल का चेहरा कुछ फीका सा पड़ गया है किसी अभियुक्त की तरह। वह फिर बोले- ‘‘ठीक है मैं परसों चला जाता हूँ। अब तो मोहिनी है चिंता भी नहीं रहेगी।‘‘ फिर मोहिनी की ओर मुड़ते हुए कहा- ‘‘मैं आज तुम्हारे ही काम से बाहर निकला था। मैंने कॉलेज के प्रबंधक से तुम्हारे लिए बात कर ली है। कल अमल के साथ जा कर एप्लीकेशन दे आना।...लेकिन अपने घर तो एक बार पूछ लो। यहाँ तुम्हें रहने देंगें?‘‘

मोहिनी थोड़ा चुप रह कर जैसे किसी गहरे भाव को दबाती तेज आवाज में बोली- ‘‘मैं कुछ फैसला लेकर ही आई हूँ। आप लोगों को मेरा यहाँ रहना अच्छा न लगे तो भले ही वापस चली जाऊँगी कुछ दिनों बाद।‘‘

फिर मोहिनी एक झटके से उठी और किसी गहरे घाव के कुरेद जाने से अंदर ही अंदर एक व्यथा सी झेलती वहाँ से किचेन की तरफ चली गई। एक पल के लिए सभी ख़ामोशी से उसका जाना देखते रहे। फिर बेला ने कहा- ‘‘बाबू जी आपने व्यर्थ ही उनका मन दुखा दिया। वह कुछ फैसला करके ही आई होगीं न।‘‘

तब केशव नाथ जी ने हँस कर कहा- ‘‘अरे वह ऐसे ही जरा तुनकमिजाज है। वह मेरे लिए चाय बनाने गयी होगी। उसका एक अंदाज ही है झटके से आने का झटके से जाने का। पूरी आंधी है वह। मंद-मंद हवा की तरह चलना नहीं जानती वह। अभी भी वह बिल्कुल नहीं बदली।‘‘ फिर वे अमल की ओर देख कर बोले- ‘‘देखो, अमल से उसकी पटती है कि नहीं।‘‘

इतना कहते-कहते जैसे केशव नाथ जी कुछ छिपा ले गए। उन्हें शायद अभी बरबस याद आ गया था कुछ दिनों पहले अमल का पचमढ़ी जाना। अमल से इस वक्त जैसे सिर भी नहीं उठाया गया था उधर देखने के लिए। थोड़ी देर में मोहिनी चाय लेकर आ गई और केशव नाथ जी की ओर बढ़ाती हुई बोली- ‘‘जब तक मैं हूँ यहाँ आप मेरे हाथ की चाय पी लीजिए‘‘ तभी बेला ने हँस कर कहा- ‘‘चाय बनाने गयी थीं किचेन में या रोने। आँखें लाल हो गई हैं आपकी।‘‘

फिर मोहिनी ने हँस कर कहा- ‘‘मेरा हँसना और रोना दोनो बराबर है। जब जिसका मन चाहे रूला ले जब मन चाहे हँसा ले।‘‘

‘‘आपको क्या लगता है कि मैं आपको रूलाऊँगी।‘‘ बेला ने बहुत ही अपनत्व के भाव में मुस्कुरा कर कहा।

‘‘अरे मैं तुम्हारी बात नहीं कर रही। मैं इन लोगों की बात कर रही थी। ये लोग हमेशा मुझे रूलाते हैं।‘‘ मोहिनी ने ठोस आवाज में कहा।

अभी मोहिनी अपने आंसुओं के उस मारक अर्थ को जिस तरह छिपा के ले गयी है अमल अंदर तक हिल से गए हैं। वे मूक बने मोहिनी का मुस्कुराता हुआ चेहरा निहारते रह गए हैं।