एक दुनिया अजनबी
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====ॐ
ऊपर आसमान के कुछ ऐसे छितरे टुकड़े और नीचे कहीं, सपाट, कहीं गड्ढे और कहीं टीलों वाली ज़मीन | गुमसुम होते गलियारे और उनमें खो जाने को आकुल-व्याकुल मन ! पता ही तो नहीं चलता किधर जाएँ ? कभी रहा है क्या किसी का मन स्थिर ! न ही ज्ञानी-ध्यानी का न ही आम आदमी का --और संतों की बात --कितने हैं ? गिन लें ऊँगली पर !
ज्ञान और अज्ञान भी बड़ी गोल-मोल चीज़ हैं |
कभी आसमान पुकारकर उसे ऊँची उड़ान की घोषणा करने के लिए निमंत्रित करता है तो कभी ज़मीन के गढ्ढे उसे अपने भीतर समेट लेते हैं |
"क्या है ये जीवन ? कुछ समझ ही नहीं आता, नरो व कुंजरो वा ? | " शुजा ऐसे ही गोल-गोल घूमते हुए जीवन के बाँकडे पर जाकर खड़ी हो जाती |
"अरे यार ! कहाँ से कहाँ बात ले जाती है | अब इसमें ये कहाँ से टपक गया? "
"समझ आता है क्या ये है क्या ? जैसे ये सच है या वो ? " कभी भी गोलगोल घूमने लगता शुजा का मस्तिष्क !
" क्यों समझना है ? बस---होते हुए देखते जाना है ---" पँक्ति बड़ी सुलझी हुई थी |
इस बार काफ़ी दिनों बाद दोनों सहेलियाँ मिली थीं | जीवन की व्यस्तताएँ सबकी एक ही तरह की कहाँ होती हैं ?
अपने नाम के अनुसार दिलेर शुजा, किसी से भी, कुछ भी, कहीं भी खुलकर पूछ लेने में संकोच न करती फिर भी मन तो मन है जिसमें पल भर में हज़ारों ऊबड़-खाबड़ प्रश्न और उत्तर गड्डमड्ड होते रहते हैं |
मन, बहुत संवेदनशील ! अधिक संवेदनशील व्यक्ति अधिक पीड़ित ! सीधी सी बात -- उसकी संवेदनाएं उसके जीवन में एक पथरीली दीवार सी बनकर खड़ी हो जाती हैं | मज़े की बात है, संवेदना के भी खाने होते हैं --अलग-अलग | अपनी अलग, दूसरे की अलग !
"ठीक कहती हो पँक्ति, पर जब मैं ऐसे लोगों के बारे में कुछ कष्टपूर्ण सुनती हूँ जिन्हें मैं अच्छी तरह जानती हूँ, समझती भी हूँ जिन्हें न कभी ग़लत देखा, न उनके बारे में ग़लत सुना तब बहुत खराब लगता है, उनकी पीड़ा से भर उठती हूँ मैं और जीवन को समझने की ज़रूरत महसूस होने लगती है |
"वैसे ऋषि -मुनी, ज्ञानी-ध्यानी कौन समझ पाए हैं जीवन को --तो परिभाषा ----सच कहती हो तुम पँक्ति ---क्यों बनानी --? कहकर हल्के से मुस्कुरा दी शुजा जैसे किसी पीड़ा को झटकने का प्रयास कर रही हो, बामशक्क़त !
"हम क्या खाकर समझेंगे जीवन को ? "शुजा ने एक लंबी साँस ली, फिर कोशिश की खुलकर दाँत फाड़ने की |फाड़ नहीं सकी , भीतर कुछ खुरचता सा लगा जैसे नुकीले चाकू से कोई कुरेदने की कोशिश में लगातार किसी पुराने ज़ख्म को कुरेद रहा हो |
बालपन की खिलंदड़ी दोनों सखियाँ कभी बात-बेबात ही हँसतीं, गाती रहतीं | जीवन का ख़ूबसूरत मोड़, जिसमें ठहराव की बहुत धीमी प्रक्रिया शुरू होने लगी थी | दरसल, मनुष्य को वातावरण व घटनाएँ गंभीर बना देते हैं |
कोई यदि जीवन की परिभाषा पूछे तो क्या कहेंगे उसे ? कोई भी पूर्ण परिभाषा है कहाँ जीवन की!जीवन की घटनाओं से जुड़ी संवेदनाएँ टूटने की हद तक चरमराने लगती हैं | प्रखर के बारे में सुनकर दोनों लड़कियाँ रोने को हो आईं थीं | कुछ संबंध संवेदनाओं से ऐसे जुड़े होते हैं, बेशक मिले हुए बरसों बीत जाएँ पर वो दिल के दरवाज़े पर चिक बनकर पड़े रहते हैं जिनमें से कभी भी सौंधी पवन भीतर प्रवेश कर जाती है |कभी गर्म तो कभी शीतल !
प्रखर से उनका कोई हाथ की लकीरों का रिश्ता तो था नहीं, न ही खून का लेकिन एक ही सोसाइटी में रहने से बचपन से दोनों ने देखा है उसे | खूब खेली हैं उसके साथ, बेशक छोटी रहीं | प्रभास भैया बड़े थे लेकिन उनको प्रखर के साथ बड़ा अच्छा लगता था ;
"बड़ा सभ्य लड़का है, पूरा परिवार ही बेहद सरल, सभ्य --" वो अक्सर कहते |
प्रभास भैया की शादी हुई और वो अमरीका जाकर बस गए तब भी शुजा और पँक्ति प्रखर और उसकी बहन आर्वी के साथ सामने केखुले मैदान में रात के बारह/एक तक खेलतीं, खेलतीं क्या शैतानी करते | प्लानिंग होती थी पूरी ! किसको कैसे सताया जा सकता है ? भयंकर शैतान प्लानिंग ! अपने-अपने माँ-पापा को कैसे पटाया जाए कि सबको साथ में बाहर जाकर फिल्म देखने की इज़ाज़त मिल सके | फिर तो बाहर ही चटर-पटर खाने का जुगाड़ कर ही लेते सब मिलकर !