big people in Hindi Moral Stories by Alka Agrawal books and stories PDF | बड़े लोग

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बड़े लोग



सीता को उस दिन काम पर जाने में देर हो गई थी। आजकल उसके सास ससुर आए हुए थे गाँव से, इसलिए जल्दी-जल्दी करते हुए भी समय उसके हाथ से फिसल जाता था। वह उनकी सेवा भी पूरे मन से करती थी। उसे सास-ससुर बोझ नहीं लगते थे, पर समय की सीमा के कारण चाहकर भी इतना अधिक नहीं कर पाती थी, जो पूरे मन से करना चाहती थी। उसकी चादर छोटी थी, पर मन विशाल था ।

जब वह काम करने पहुँची, मेम साब गुस्से में थीं। उन्हें उसका देर से आना जरा भी पसंद नहीं था, उनका पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था। सीता ने मूड देखकर चुपचाप जल्दी-जल्दी काम करना शुरू किया। आजकल मेम साब की सास भी आई हुई थी। इसलिए मेम साब वैसे भी खुश नहीं दिखाई देती थी। सीता को आश्चर्य होता था, माताजी इतनी सीधी - सादी थी, कभी कुछ रोक-टोक नहीं करती थी, न ही किसी काम में कोई दखल देती थी। स्वयं शाकाहारी होने पर भी, चिकन बनने पर कुछ नहीं कहती थी। हालाँकि उस दिन खाना भी नहीं खा पाती थीं। पर किसी को कुछ कहने की आदत नहीं है उनकी, इसलिए भूख नहीं है कहकर टाल देती थी।

सीता ने जल्दी से बरतन साफ किए, घर की सफाई की और खाना बनाने की तैयारी करने लगी। सुबह से शाम तक घर का सारा काम वह करती थी। सुबह बच्चों को स्कूल के लंच-बॉक्स पैक करने और तैयार करने का काम ही मेम साब करती थी। सुबह का नाश्ता दूध-ब्रेड कॉर्नफ्लेक्स ही लेते थे वे लोग। पता नहीं कैसे इतना सा खाकर काम चला लेते हैं बड़े लोग।

मेम साब ने दोपहर के लंच के लिए हिदायतें दीं सीता ही लंच बनाती थी और ड्राइवर दोपहर में आकर खाना ले जाता था ऑफिस में । दोनों बच्चे जब स्कूल से आते, सीता ही उन्हें खाना खिलाती थी । मेम साब बहुत शक्की और वहमी हैं। रसोई में बहुत कम केवल जरूरी सामान रहता है, बाकी सामान रसोई के स्टोर में रहता है और उसमें ताला लगा रहता है। बच्चों को कुछ देना होता है, बस उतना ही मिठाई, नमकीन वगैरह बाहर निकालकर रख जाती हैं। फ्रिज भी लगभग खाली सा रहता है।

दोपहर का खाना बनाकर, सीता ने थाली परोसी और माताजी के लिए लेकर गई। उन्हें चलने में तकलीफ होने के कारण वे डाइनिंग टेबिल पर नहीं बल्कि कमरे में ही खाती हैं। जैसे ही थाली लेकर गई, माताजी ने सीता से मिर्च का अचार लाने के लिए कहा। पर सीता को मना करना पड़ा क्योंकि अचार तो स्टेर में रहता था। लेकिन उसे उन्हें मना करना बहुत बुरा लगा। माताजी शायद तीखा और ज्यादा मिर्च मसाले का खाना पसंद करती हैं और मेम साब फीका और कम तेल-घी का खाना खाती हैं। इसलिए माताजी ने कहा, एक पापड़ ही ला दो लेकिन वह भी स्टोर में ही था। तब माताजी को सब्जी दाल में थोड़ी सी लालमिर्च डालकर ही संतोष करना पड़ा।

शाम को मेम साब के आने पर सीता ने अचार और पापड़ बाहर निकालने के लिए कहा, लेकिन मेम साव ऐसा करके माताजी की आदत नहीं बिगाड़ना चाहती थी। इसलिए सीता की बात को उन्होंने सुना-अनसुना कर दिया। शाम को भी माताजी जल्दी खाना खाती हैं, साब और बच्चे बाहर ही डिनर पर जाने वाले थे, इसलिए मेम साब बच्चों को तैयार करने में लग गई और सीता से माताजी के लिए खाना परोसने के लिए कहा । पर सीता ने तो अभी कुछ बनाया ही नहीं था।

"कुछ बनाने की जरूरत नहीं है।" मेम साब ने आदेश देते हुए कहा और कई दिन पुरानी कढ़ी और सब्जी फ्रिज में से निकालकर परोसने के लिए निकाल दी । सीता के पास खाना गर्म करके परोसने के अलावा, कोई विकल्प नहीं था वह अच्छी तरह जानती थी कि मेम साब कभी फ्रिज की पुरानी सब्जी, दाल काम में नहीं लेती, अगर बच जाती है तो सीता को दे देती हैं और ये सब तो कई दिन पुराना है।..... कहीं इसे खाकर माताजी बीमार न हो जाएँ। भारी मन से वह माताजी को खाना खिलाने लगी ।

दूसरे दिन सीता जब सुबह आई तो माताजी की तबियत खराब थी, उन्हें उल्टियाँ हो रही थीं। सीता समझ गई, कल के बासे खाने ने अपना कमाल दिखा दिया था। सीता जब सब्जी गर्म कर रही थी तब उसे सब्जी से बुरी-सी गंध आ रही थी, पता नहीं कैसे खाई होगी, माताजी ने। बाद में उसे पता चला कि उनकी सूँघने की शक्ति खराब हो गई । मेम साब यह बात जानती थी और इसलिए उन्होंने खाना ठिकाने लगाया था साब बहुत परेशान थे, पर मेम साब से पता नहीं क्यों दबते थे इसलिए उन्हें कभी कुछ नहीं कहते थे। वे ही माँ की सेवा कर रहे थे। डॉक्टर आकर देख गया था और दवाई भी आ गई थी। साव ने सीता को दिन भर की दवाई समझा दी थी। मेम साब सेवा करना तो दूर, नाक पर रूमाल रखे घूम रही थी।

सीता सोच रही थी, उसे शाम को घर जाकर सास के पैरों में तेल की मालिश करनी है, उनकी पसंद की बाजरे की खिचड़ी बनानी है, ससुर कई दिन से पुए खाना चाह रहे थे, लेकिन पैसे हाथ में आने पर ही वनाएगी। वह सोचने लगी, मेम साब की कभी इच्छा नहीं होती अपनी सास की सेवा करने की, कभी मन नहीं होता उनकी पसंद का कुछ बनाकर खिलाने की, उनके पास दो घड़ी बैठकर उनके दुःख-सुख बाँटने की।" उसने सोचा- " शायद ऐसा ही होता होगा. बड़े लोगों के यहाँ।" अपना चिंतनधारा को विराम लगाते हुए वह काम करने लगी ।
- डॉ अलका अग्रवाल