मानस के राम
भाग 16
सुतीक्ष्ण ऋषि से भेंट
सरभंग ऋषि की सलाह पर राम, सीता और लक्ष्मण के साथ सुतीक्ष्ण ऋषि से भेंट करने के लिए आगे बढ़ने लगे। राम और लक्ष्मण पर अब उस प्रदेश में रहने वाले आश्रमवासियों की सुरक्षा का भार था। सीता इस बात से कुछ चिंतित थीं। जब एक स्थान पर वह लोग विश्राम करने के लिए रुके तो उन्होंने राम को समझाया,
"आप इस वन प्रदेश में अपने पिता के वचन का पालन करने आये हैं। इन भयानक राक्षसों से टकराने की आवश्यकता नहीं है।"
राम ने उनकी चिंता को समझ कर उन्हें प्रेम से समझाया,
"सीता भले ही मैं और लक्ष्मण तपस्वी के भेष में वन में रह रहे हैं किंतु अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करना हमारा कर्तव्य है। समस्त ऋषि संरक्षण के लिए हम पर निर्भर हैं। अतः उनकी सहायता करना हमारा दायित्व है। तुम क्षत्राणी होकर इस तरह क्यों भय कर रही हो ?"
राम की बात सीता की समझ में आ गई। उन्होंने फिर उन्हें उनके क्षत्रिय धर्म का पालन करने से नहीं रोका।
मार्ग में तीनों ने कई जगहों पर रुकते हुए ऋषि मुनियों का सानिध्य प्राप्त किया। उनसे ज्ञान के वचन सुने। इस प्रकार आगे बढ़ते हुए तीनों ऋषि सुतीक्ष्ण के आश्रम पहुँचे। उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया। सुतीक्ष्ण ऋषि बोले,
"मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने सुना था कि आप चित्रकूट में निवास कर रहे हैं। मैं जानता था कि आप यहाँ अवश्य आएंगे। मेरे मन में आपके दर्शन की अभिलाषा थी। आज वह अभिलाषा पूर्ण हो गई।"
सुतीक्ष्ण ऋषि की बात सुनकर राम ने कहा,
"ऋषि महोदय मैं तो साधारण मनुष्य मात्र हूँ। मुझे आपके दर्शन का सौभाग्य मिला यह मेरे बहुत बड़ी बात है।"
राम की बात सुनकर सुतीक्ष्ण ऋषि ने कहा,
"आप त्रिलोक के स्वामी हैं। परंतु इस समय मानव लीला कर रहे हैं। मुझे बताएं कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?"
राम ने सुतीक्ष्ण ऋषि को प्रणाम कर विनीत भाव से कहा,
"सारभंग ऋषि ने मुझे आपके पास भेजा है। आप मेरा मार्ग दर्शन करें कि मैं अपनी पत्नी और भाई के साथ वनवास काल में कहाँ निवास करूँ ? "
सुतीक्ष्ण ऋषि ने कहा,
"मेरे गुरु अगत्स्य आपका उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। मैं आपको उनके पास लेकर चलता हूँ। मैं भी अपने गुरुदेव के दर्शनों का लाभ उठा लूँगा।"
सुतीक्ष्ण ऋषि के मार्गदर्शन पर राम सीता तथा लक्ष्मण आगे बढ़ने लगे। वह अब दक्षिण की तरफ बढ़ रहे थे। यह क्षेत्र बहुत हरा भरा व सुरम्य था। मार्ग में सुतीक्ष्ण ने ऋषि वशिष्ठ की महिमा के बारे में बताते हुए कहा,
"गुरुदेव महान सिद्ध पुरुष हैं। उनकी महिमा ऐसी है कि उनके रहने से आश्रम के चारों ओर प्रकाश पुंज छाया रहता है। कोई असत्य बोलने वाला, कामी, पापाचारी उनके आश्रम में जीवित नहीं रह सकता है। उनसे धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए देवता गंधर्व नाग इत्यादि उनके आश्रम में आते हैं।"
ऋषि अगस्त्य की महिमा सुनकर लक्ष्मण ने कहा,
"हमें ऐसी विभूति के दर्शन का सौभाग्य मिलेगा यह जानकर मैं बहुत खुश हूँ। कृपया उनके बारे में और बताएं।"
राम ने ऋषि अगस्त्य की महानता का बखान करते हुए कहा,
"ऋषि अगस्त्य की कीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई है। उनके तेज के विषय में कहा जाता है कि यदि हिमालय से विंध्य पर्वत के बीच निवास करने वाले सभी ऋषियों का ज्ञान और आध्यात्मिक बल तुला के एक पक्ष में रख कर दूसरे में ऋषि अगस्त्य को बैठाया जाए तो उनका पक्ष ही भारी होगा। जब भगवान शिव और देवी पार्वती के विवाह में सम्लित होने के लिए सभी ऋषि मुनि उत्तर में कैलाश पर्वत पर गए तो अकेले अगस्त्य ऋषि पृथ्वी का संतुलन बनाये रखने हेतु दक्षिण में रुक गए।"
सीता ने कहा,
"ऋषि अगस्त्य के विषय में जानने की पिपासा बढ़ गई है। कृपया उनके विषय में विस्तार से बताएं।"
राम ऋषि अगस्त्य के विषय में बताने लगे।
ऋषि अगस्त्य द्वारा सागर पी जाना
वृत्तासुर नाम का एक दैत्य था। सभी देवतागण उससे बहुत परेशान थे। वृत्तासुर के वध के लिए सभी देवतागण ब्रम्हा जी के पास गए। उन्होंने ब्रह्मा जी से वृत्तासुर के वध का उपाय पूंँछा। ब्रम्हा जी ने उपाय बताया कि यदि महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र से प्रहार किया जाए तो वृत्तासुर को मारा जा सकता है।
देवताओं ने महर्षि दधीचि के पास जाकर प्रार्थना की कि वृत्तासुर के वध के लिए उन्हें उनकी हड्डियों से बना वज्र चाहिए। देवताओं की सहायता हेतु महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग दिया। उनकी हड्डियों से बने वज्र से वृत्तासुर का वध हो गया।
वृत्तासुर के साथ कालजेय नामक दैत्यों का एक समूह था। वृत्तासुर की मृत्यु के बाद वह दैत्य समूह सागर में जाकर छिप गया। वह दिन भर सागर में छिपा रहता था। रात्रि में बाहर निकल कर उत्पात करता था। ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों की हत्या कर देते थे। देवताओं ने जाकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि उनकी सहायता ऋषि अगस्त्य ही कर सकते हैं।
देवताओं ने जाकर ऋषि अगस्त्य को सारी बातें बताईं। उन्होंने प्रार्थना की,
"कालजेय दैत्य समूह से हमारी रक्षा करें। वह धर्मात्माओं की हत्या कर पृथ्वी पर से धर्म का नाश करना चाहते हैं। आप उनका वध करने में हमारी सहायता करें।"
ऋषि अगस्त्य ने कहा,
"मैं धर्म की रक्षा करने के लिए सागर को पी जाऊँगा। आप उसके तल में छिपे दैत्यों का वध कर दीजिएगा।"
अपने वचन के अनुसार ऋषि अगस्त्य ने सागर का सारा जल पी लिया। देवताओं ने तल में छिपे दैत्यों की हत्या कर दी।
विंध्य पर्वत का अभिमान तोड़ना
एक बार जब विंध्य पर्वत ने अहंकारवश अपनी ऊँचाई बढ़ा कर सूर्य के उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ने वाले मार्ग को बाधित कर दिया। सूर्य देव परेशान हो गए। विंध्य पर्वत के पार की धरती सूर्य के प्रकाश से वंचित हो गई। सभी देवता घबरा कर अगस्त्य ऋषि के पास गए। अगस्त्य ऋषि विंध्य पर्वत के पास गए। उससे कहा कि उन्हें दक्षिण की तरफ जाना है। किंतु तुम्हारी ऊँचाई अधिक होने के कारण मैं ऐसा कर नहीं पा रहा हूँ।
ऋषि अगस्त्य की बात सुनकर विंध्य ने श्रद्धा से सर झुका कर उन्हें जाने के लिए रास्ता दे दिया। ऋषि अगस्त्य ने कहा कि जब तक मैं लौटकर ना आऊँ तुम इसी प्रकार झुके रहो। तब से विंध्य श्रृंखला लंबाई में फैली है किंतु अधिक ऊंची नहीं है।
वातापि और इल्वल को सबक सिखाना
ऋषि अगस्त्य के बारे में एक और कथा विख्यात थी। वातापि और इल्वल नामक दो राक्षस थे। दोनों ने ऋषियों को परेशान कर रखा था। वातापि को वरदान था कि उसके शरीर के चाहे कितने टुकड़े कर दिए जाएं किन्तु वह सब जुड़ कर पुनः शरीर बन जाएंगे और वह जीवित हो जाएगा। इल्वल ब्राह्मण का भेष बना कर ऋषियों को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करता। वह वातापि के टुकड़े कर उसे भोजन के साथ पका देता। जब ऋषिगण भोजन कर लेते तो वह वातापि का नाम लेकर पुकारता। वातापि के शरीर के टुकड़े जो भोजन के रूप में ऋषियों के उदर में होते उनका उदर चीर कर बाहर आ जाते थे। इस प्रकार वह कई ऋषियों को एक साथ मार डालता था।
इसी प्रकार उन्होंने ऋषि अगत्स्य को मारने का प्रयास किया। किंतु अपने तपोबल से ऋषि अगत्स्य उसे पचा गए। वातापि की मृत्यु से क्रोधित हो इल्वल ऋषि को मारने भागा किंतु उन्होंने अपने तेज से उसे भस्म कर दिया। इसके पश्चात उनका आश्रम राक्षसों के आतंक से मुक्त हो गया।
कावेरी को धरती पर लाना
ऋषि अगस्त्य जब उत्तर से दक्षिण क्षेत्र की ओर गए तो वहाँ जल की आपूर्ति के अभाव में अक्सर सूखे की स्थिति को देखकर वह ब्रह्मा जी के पास जाकर बोले,
"मैं भगवान शिव के आदेश पर दक्षिण में निवास कर वहांँ धर्म और ज्ञान का प्रसार कर रहा हूँ। किंतु वहांँ गंगा और यमुना जैसी नदियां नहीं हैं। जिसके कारण उस क्षेत्र में सूखे जैसी स्थिति है। अतः आप दक्षिण क्षेत्र में अपनी कृपा दृष्टि बरसाएं।"
ब्रह्मा जी ने कहा,
"मैं मानव कल्याण के लिए तुम्हारी भावना को देखकर प्रसन्न हूँ। मैं अपनी पुत्री कावेरी को तुम्हारे साथ भेज रहा हूँ। वह गंगा के समान ही पवित्र है। वह दक्षिण क्षेत्र को सदैव हरा भरा रखेगी।"
ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री कावेरी को बुला कर कहा,
"पुत्री दक्षिण क्षेत्र के कल्याण हेतु तुम ऋषि अगस्त्य के साथ पृथ्वी पर जाकर प्राणियों का कल्याण करो। दक्षिण क्षेत्र के लोग गंगा के समान ही तुम्हें पूजेंगे।"
अपने पिता का आदेश मानकर कावेरी ऋषि अगस्त्य के साथ धरती पर आने को तैयार हो गईं। उन्होंने कहा,
"गंगा तो शिव की जटाओं में समा गई थीं। मैं किस प्रकार धरती पर जाऊँ।"
ब्रह्मा जी ने अपना कमंडल ऋषि अगस्त्य को देकर कहा,
"तुम जल रूप में इस कमंडल में समा जाओ। ऋषि अगस्त्य तुम्हें धरती पर ले जाएंगे।"
कावेरी कमंडल में समा गईं। ऋषि अगस्त्य उन्हें दक्षिण क्षेत्र की भलाई के लिए धरती पर ले आए।
ऋषि अगस्त्य से भेंट
ऋषि अगत्स्य के बारे में जानने के बाद सीता तथा लक्ष्मण उनके दर्शन को आकुल हो गए। दक्षिण क्षेत्र बहुत सुंदर था। सघन वन थे जिनमें भांति भांति के फल फूल वाले वृक्ष थे। विभिन्न प्रकार के पशु आनंद से विचरण करते थे। अगस्त्य ऋषि के आश्रम पहुँच कर राम ने सुतीक्ष्ण ऋषि से कहा,
"आप जाकर ऋषि अगस्त्य को हमारे आगमन की सूचना दें।"
अपने शिष्य से राम के आगमन का समाचार सुनकर ऋषि अगत्स्य उनसे भेंट करने आश्रम के द्वार पर आए। उन्होंने तीनों का स्वागत किया।
ऋषि अगत्स्य ने उनसे कहा,
"मुझे आपके चित्रकूट निवास के बारे में पता था। मैं आपके आने की प्रतीक्षा कर रहा था। आपके वनवास की अवधि समाप्त हो रही है। आप मेरे आश्रम में सुख पूर्वक रहें। यह क्षेत्र राक्षसों से मुक्त है।"
राम ने विनम्रता से कहा,
"आपकी इस अनुकम्पा का मैं आभारी हूँ। किंतु मैंने दण्डक में रहने वाले ऋषियों को उनकी रक्षा का आश्वासन दिया है। अतः मैं इस सुरक्षित स्थान पर सुख से नहीं रह सकता हूँ। मुझे जाना होगा।"
ऋषि अगस्त्य ने कहा,
"मैं आपकी बात से प्रसन्न हूँ। दण्डक क्षेत्र में पहले आप की ही एक पूर्वज राजा दंड का राज्य था। राक्षसों ने अब इस स्थान को उजाड़ दिया है। आप पंचवटी नामक स्थान पर जाकर रहें। वहाँ से कुछ दूर जनस्थान में राक्षसों की छावनी है। आप उनसे दण्डक के ऋषियों की रक्षा कर सकते हैं।"
ऋषि अगत्स्य राम को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित भगवान विष्णु का धनुष और कभी खाली न होने वाले तूणीर राम तथा लक्ष्मण दोनों को देते हुए आशीर्वाद दिया कि इनकी सहायता से राक्षसों का संहार करो।