कृति आलोचना की अदालत
कथाकार श्री राजनारायण बोहरे जी
सम्ंपादक के.बी.एल पाण्डेय जी
उदीप्त प्रकाशन लखमीपुरा खीरी उ.प्र.
समीक्षक वेदराम प्रजापति मनमस्त
कृति आलोचना की अदालत पठन हेतु प्राप्त हुई तीनो कहानी संकलनो पर प्रबुद्ध समीक्षको का गहन चिंतन मिला समालोचको के निर्णायक निर्णयों ने कृति को साहित्यिक धरोहर बना दिया है। कहानियों में बोहरे जी खूब गहराई तक डूबे हैं। समीक्षाओं के चयन में सम्पादक श्री पाण्डेय जी का विशेष परिश्रम दिखाई देता है। क्रम संयोजन विवेकपूर्ण रहा।
‘‘आलोचना की अदालत’’ का आवरण पृश्ट अभिनव लगा जो तुलनात्मक न्याय परोसता है। अदालत की दोनों तुलायें सब कुछ दर्शा रही हैं, जिसमे कहानियों का वनज उजागर हो रहा है। सर्वप्रथम श्री के. वी. एल पाण्डेय जी की सम्पादकिय उजागर कर रही है कि कहानियों का पिटारा हमारह अपनी आत्म कथाओं का जीता जागता सा चित्रण है, जिसे जीवन से अलग करके देखा नहीं जा सकता है। प्रत्येक कहानी जीवन का अबूझ कोना खटखटाती है। तीनांे संग्रह 1इज्जत आबरू,2हादसा,तथा3गोष्टा तथा अन्य कहानियों ने जन जीवन के सम्पूर्ण परिवेश में पसरी है। कहानियों की संख्या बहुत है। मुख्यतः इन कहानियों ने जन जीवन और पाठको को अधिक झकझोरा है। जैसे कहानी इज्जत,आबरू, भय, बुल्डोजर, गोष्टा गाडीभर जौंक, मुटभेड कुपच, लौट आओ सुखविंदर, विश्वास विडवंना, जमीन का आदमी , हडताल, टीका बब्बा, जमील चच्चा, बदलाहट,विसात हादसा, अपनी खातिर, मुहिम, एकवार फिर, भूूूूँँूख,मृग छलना,उजास,डूबते जलयान, साधू यह देश विराना, बीमारी, आस्थान, आदत, मंलगी, समय साक्षी, हडताले जारी, बेटा उम्मीद, बाजार बेब, निगरानी, आदि आदि। उपरोक्त ढेरसारी कहानियों में समीक्षकोें ने जीभर कर कहने का प्रयास किया है तथा अपने चितंन में दवी भडास भी निकाली हैं। कहानी और कहानी की दुनियाँ में डाँ पदमा शर्मा जी ने गहन चितंनों के साथ कहानी विधा के सम्पूर्ण परिदृश्य की गहराई को बडी बारीकी से मापा है तथा कृति के आधे भाग में पसरी दिखी, जिसमें अनेक मनोविश्लेषणों को स्थान दिया है। श्री महेश कटारे जी, तो कहानी के विशेष हस्ताक्षर है ही, उन्होंने भी कहानी के तत्वों की निकष पर प्रत्येक कहानी को नई सोच के साथ जिन्दगी को कुपच के केनवाश मे बखूबी जडा है साथ ही सच को सहज शिल्प के सच में वयान करने का जामा पहनाया है। श्री ए. असफल जी ने तो इन कहानियों को आस्था जगाती और आज के परिवेश में नवीन विम्ंवों को अजागर कर, रोचक ससक्त्ता प्रदान करने तक का सफर बताया है। श्री रामभरोसे मिश्र जी भी पीछे नहीं रहे, उन्हांेने अपने चिंतन ऐनक से कहानियों को नऐ शोच के साथ चम्बल का प्रमाणिक आख्यान मुखविर एवं गोष्टा तथा अन्य कहानियों के परिदृश्य में जनजीवन के भोगे गये क्षणो के सच को माना है। इसी धरातल को छूते दिखे है। श्री ओमप्रकाश शर्मा जी, जो इन कहानियों को अपने आस पास भोगते एवं सभी ओर पाते है। डाँ जितेन्द्र विसारिया जी के शोच का कौना कुछ अलग दिखा जिसमंे प्रत्येक कहानी अपने समय से मुटभेड करती है। श्री ऋषि मोहन श्रीवास्तव जी भी इन्हंे परिवेश का प्रतिविम्व मानते है। श्री रामगोपाल भावुक जी का चिंतन हादसों की कहानी का प्रतिविम्व प्रत्येक कहानी झरोख्ेा से दिखाई देता है।
श्री वीरेन्द्र जैन जी का नजरिया कुछ अलग दिखा, वे इन्हें समय की कहानियों के साऐ में तरासते है क्योंकि इन कहानियाँ में समय सापेक्ष ही है। डाँ लक्ष्मीनारायण वुनकर जी तथा श्री मनोज कुमार पाण्डेय जी तो इन कहानियों को इति वृतात्मकता की वापिसी एवं मध्यम वर्गीय मानसिकता का प्रमाणिक दस्तावेज स्वीकारते है। श्री राधारमण वैध जी ने इन्हे एक पाठक की दृष्टि से जीवन गाडी का ढांचा स्वीकारा है। श्री शहरोज जी की दृष्टि ने इन्हे व्यापक अनुभव संसार माना है। श्री देवशंकर नवीन जी ने इस कहानी दस्तावेज को भयाभय परिस्थितियों पर विजय की आकाँक्षा कर जीता जागता ग्लोब ही कहा है
उपरोक्त चिंतनांे के परिदृश्य में इनमे से बहुत कुछ कहानियाँ साहित्य के नए आसमान को भी छूती दिखी है जो पुरस्कृत होकर बोहरे जी को भावी अनंत संभावनाऐं देती है। कहानियों के भाषा शिल्प की भी खूब खीचातानी की गई है। उनकी अपनी भाषा मनमौजी रही है, भाषा पाटक को पठनीयता में अधिक बाधक न होकर रोचकता प्रदान करती है। आलोचना की अदालत ने सम्पादक और आलोचको का काफी श्रमपाया है। लगभग सभी रचनाऐं अपना नया बजूद रखती है। श्रम की परिधि में कहानीकार और सम्पादक जी अनेक बधाइयों के कुशल हस्ताक्षर है।
यदि किसी नर्सरी का भ्रमण किया जाये तो, माली के अथिक परिश्रम के बाद भी कुछ एक विजे उगने के बाद भी मुरझाए आथवा अब गुंटित भी पाये जाते हैं जो आलोचना की अदालत की झाँकियों में, टंकण की असावधानी के प्रतीक चिन्ह वने हैं, जिनका संसोधन आवश्यक सा लगा। अनुक्रम को देखें तो पृष्ठांकन विहिन लगा जो पाठक को परिश्रम हेतु बाध्य करता है। श्री महेश कटारे जी एवं ए. असफल जी तथा श्री रामभरोसे मिश्र जी का डवल अवतरण भी अतिक्रमण सा लगा, जवकि एक ही संदर्भ में सवकुछ कहा जा सकता था। अतिंम टिप्पणी का देना अनावश्यक सा दिखता है, जिसमें कोर्इ्र नवीन चित्रण नहीं झलकता।
अतः च्ूाकि एक सौ चौवीस पृष्ठीय ‘‘आलोचना की अदालत’’ मानव जीवन के अनेक पहलूओं को बडी गहराई से छूती है। तथा जीवन की सच्चाई को डंके की चोट कहती है।कृति पठनी होने के साथ-साथ, चिंतनिय और संग्रहणिय भी है। कहानी की यह विरासत कथाकार और संम्पादक जी को बहुत कुछ नये आयाम परोसती है। इन्हीं सारे सम्बधों के साथ, बहुत सारी बधाईयों के साथ अनेकशः भावी जीवन की मंगलकामनाऐं।
धन्यवाद
चिंतन का शुभेक्षु
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
गायत्री शक्ति पीठ रोड
गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर म.प्र.
मो-9981284867