slete batti in Hindi Moral Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | स्लेट-बत्ती

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स्लेट-बत्ती

कहानी

स्लेट-बत्ती

रामगोपाल भावुक

कुन्दर की शादी की तैयारियां की जा रही हैं। गाँव की औरतें पंगत के लिए गेहूं बीनने आई है। सभी गेहूं बीनने में लगी हैं। कुन्दन की दादी केशर से एक औरत ने गेहूं बीनते हुए पूछ लिया-‘अम्मा जी अपयें लल्ला की सगाई कों तो, तीन-चार सालें हो गईं होयगी ?‘

यह सुनकर केशर ने तो पूरा ही किस्सा सुना डालने का मन बना डाला, कहने लगी-‘जानकी बहू व तो भाग्य की बात है, मेरो कुन्दन तो सीधो-साधो है।‘

यमुना गेहूं बीनते हुए बोली-‘ज अपयें जो बहू आ रही है व नेकाद पढ़ी-लिखी तो होयगी।‘

यमुना का बीच में बोलना केशर को बहुत खला था-‘कल क बहुरिया बात काटती है पर उसे याद तो आया पति का यह वाक्य जिसमें उन्होंने कहा था-‘केशर यह प्रजातन्त्र का युग है। इसमें किसी पर कोई विचार थोपना नहीं चाहिए।‘ वे तो चले गए, मुझे छोड़ गए अपने आपको बदलने के लिए।‘

उसे यमुना की बात का उत्तर देना था। कुछ सोचते हुए बोली-‘बेटी वही तो मैं कह रही हूं, कुन्दन की पहले सगाई भई हती व मोड़ी इतैक सुन्दर हती, के कहवे वारी बात नाने और हां आइ किताबें पढ़ी हती। भई का उन लोगन ने झां सगाई करवे एक दिना पहिले आने हतो। झें पांत पंगत को इन्तजाम हो गओ, सब जगह बड़ी बदनामी होन लगी। मोय बड़ौ सोच पर गओ।‘

सभी औरतें बात को कान लगाकर सुन रही थीं। बात रहस्यात्मक हो गई थी। साबो सोठानी भी बातें दत्त-चित्त होकर सुन रही थी और गेहुं भी बीनते जा रही थी। उसे लगा दादी बात का आनन्द ले-लेकर कह रही है। यही सोचकर उसने प्रश्न कर दिया-‘दादी, फिर कहा भओ।‘ यह प्रश्न सुनकर केशर ने बात आगे बढ़ा दी- ‘अरे महाराजपुरा वारे नहीं आये तो, मोय जों लगे कै कहूं डूब मरो। मैंने प्रतिज्ञा कर लईं-कै जब तक मेरे कुन्दन की सगाई नहीं होयगी, तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगी।‘

यह सुनकर जानकी ने प्रश्न किया- ‘अरे अम्मा जा बात इतैक बढ़ गई हती।‘

यह सुनकर केशर ने बात और आगे बढ़ाते हुए कहा-‘हां, बहू ते ही बता, समाज में जास हू बड़ी कोई बदनामी होते। मेरी तो सबरी तपस्या ही माटी में मिल गई होती।‘ साबो ने एक नया प्रश्न उठा दिया, बोली-‘जे बंधा गाँव वारे फिर कैसे आ गये ?‘ यह सुनकर केशर ने बात और आगे बढ़ाते हुए कहा- ‘अरे वे ! कुन्दन के पापा ने बंधावारिन से पहलें ही सगाई करवि की मना कर दई हती। बिन्हीं के झां खबर भेजनों पड़ी। कैसेंऊं मना मुनी कें बिन्हें झें ले आए।‘ चन्दा बड़ी देर से बातें सुन रही थी। उसके मन में भी प्रश्न उठ खड़ा हुआ। समाधान पाने के लिए उसने प्रश्न कर दिया- ‘तो अम्मा जी वे महाराजपुरा वारे काये नहीं आ पाये।‘

यह सुनकर केशर ने उत्तर दिया- ‘अरे सब भाग्य की बातें हैं। बिनके झां कोऊ बीमार परि गओ। वे बिचारे दूसरे दिना झें आ पाये। तोनों कुन्दन के पापा ने बंधावारिन से बात पक्की कर लई। सुनतंये व मोड़ी खूब सुन्दर हती। वे ब्याह सोऊ अच्छो कत्तये।‘ इसी बीच साबो ने एक प्रश्न और कर दिया- ‘झें कहा तै भओ है ?‘ यह यह सुनकर केशर ने बात और आगे बढ़ा दी- ‘अरी बहू वे, टैम पै सगाई ही कर गए जई बहुत है।‘ अब तक जानकी ने एक प्रश्न और उठा दिया-‘अम्मा जी व बहू थोड़ी बहुत पढ़ी-लिखी तो होयगी।‘ यह सुनकर केशर ने जानकी को हाथ कें इशारे से चुप रहने का संकेत करते हुए कहा- ‘अरे चुप रह, कुन्दन सुन लेगो तो आफत हो जायेगी। व तो मेरी वजह से कछू नहीं कत। सब भाग्य की बातें हैं, पढ़े-लिखे मोड़ा के गले से अनपढ़ बहू बांधनो पड़ रही है।‘ इसी समय कुन्दन वहां से निकला तो सभी चुप हो गईं। प्रसंग बदलने के लिए केशर ही बोली-‘नेक जल्दी-जल्दी बीनो, बातिन में लगी हो। एक-एक थाली हू नहीं निपटा पाईं।‘ दादी की यह बातें सुनकर सभी जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगीं।‘ शान्ति बुआ लोकगीतों की अच्छी जानकार थीं उसे इधर-उधर की बातें खल रही थीं। उसे अपने विशय पर आने का यह अच्छा अवसर दिखा तो कहने लगी- ‘नेक गा लेऊ।‘ यह सुनकर सभी लोकगीत गाने लगीं-

उठ धनरी मेरी चन्द्रा बदनी।

करमन सींचिये बीधरी।।

जा विधि ओ सांई हमें न सुहावे।

हमरे बिरन बसे परदेश में।।

उठ धन री

कुन्दन आज से नहीं, जब से सगाई पक्की हुई थी तभी से अपने आपसे लड़ने के लिए स्वयं को तैयर करता आ रहा था। किस अभाव से किस तरह संघर्श करेगा। टूटते हुए सपनों को किस तरह दिशा बोध देगा। यों परिस्थितियों ने उसे समय के पूर्व ही चिन्तक बना दिया था।

जिन शादी की रश्मों के वैज्ञानिक तथ्य उसे ज्ञात न हो सके थे, उसने उनका उसी आत्मविश्वास के साथ विरोध किया था जिसके साथ आमदी उनका पक्ष लेता है। उसे कई रीति-रिवाज व्यर्थ जान पड़ रहे थे। कुछ लोगों ने उसके इस विरोध को अपने धर्म का ही विरोध मान लिया था पर उसने किसी विरोध की परवाह नहीं की।

ससुराल में उसके एक विरोध को देखकर लड़की वालों को लगने लगा था-‘हमारी सीधी-साधी अनपढ़ लड़की का राम जाने कैसे निर्वाह होगा।‘ यही सोचकर कुन्दन के बड़े साले की पत्नी कमला ने कुन्दन को समझाने का प्रयास किया था- ‘लाला जी अब तो हमारी ननद जी आपके आधीन हैं, सीधी-साधी हैं, चतुर चालाक नाने, निवाह लिओ।‘ यह कहते में उसके आंसू छलक आए थे।

यह देखकर कुन्दन कहने लगा- ‘अरे रोती क्यों हो ?‘ यह सुनकर उसने उत्तर दिया- ‘लाला जी वैसें रोबे की बात तो कछू नाने पर हमाई ननद जी जरा ज्यादा सीधी हैं। सोचती हूं आपके साथ कैसे निभ पायेंगी। तईं आपके सामने रोबो आ गओ। जिन्हें निभा लिओ।‘

उसके प्रत्येक शब्द कुन्दन का हृदय भेदन करने में समर्थ थे। बातें सुनकर उसका कोमल हृदय पिघल गया, उसमें से एक द्रव्य बह निकला जिसे सभी करूणा कहते हैं। वह करूणा मात्र एक प्राणी तक सीमित न रह सकी। उसने कुन्दन को नये तरीके से सोचने-समझने के लिए मजबूर कर दिया। विदाई के समय तक तो कुन्दन की सारी उच्छृंखलताएं शान्त हो चुकी थी।

बारात लौट आई। अब उसका विद्रोह जाने कहां चला गया था। वह चुपचाप सारे रीति-रिवाजों की पूर्ति के लिए समर्पित हो गया था। दूसरे दिन कुल देवताओं के पूजन का दिन आ गया। सारे गाँव की परिक्रमा करने में सारा दिन व्यतीत हो गयां

आनन्दी अपने कमरे में थी। जन्म-जन्मान्तर से बंधित बंधुआ मजदूर की तरह हाजरी में खड़ी हो गई। कुन्दन पास पहुंच गया। उसे खड़ी देखकर बोला-‘अरे खड़ी क्यों हो गई।‘ उसने उसे दोनों हाथों का सहारा देकर पास बैठा लिया। कुन्दन को लगा- ‘वह कांप रही है। जैसे किसी कसाई के बस में पड़ी बकरी कांपती है।‘ कुन्दन यह सब देखकर बोला-

‘अरे कांप क्यों रही हो। समझ नहीं आता, तुम मुझसे इतना क्यों डर रही हो। मैं भी आदमी हूं, कोई जंगली जानवर नहीं हूं।‘ यह सुनकर तो आनन्दी ने अपने आपको समर्पण के लिए पूरी तरह तैयार कर लिया। कुन्दन ने घूंघट हटाया। आनन्दी इसका क्या विरोध करती। घूंघट हटा, चेहरे पर दिखी चेचक की बड़ी-बड़ी गूदें।

यह देखकर कुन्दन कुछ सोचने का प्रयास करने लगा-‘इसमें आनन्दी का क्या दोश ? यह तो आनन्दी के माता-पिता के अज्ञानता का प्रतिफल है जिन्होंने आनन्दी को समय पर चेचक के टीके ही नहीं लगवाए। मुझे समाज में फैले इस अंधकार से लड़ना होगा।‘ यह सोचकर उसने आनन्दी से प्रश्न कर दिया-‘तुम कुछ पढ़ी-लिखी भी हो, कै नहीं ? यह सुनकर आनन्दी ने उत्तर दिया- ‘हम तो काला अक्षर भैंस बराबर हैं।‘ यह कहावत सुनकर उसे लगा-‘आनन्दी पढ़ी लिखी तो नहीं है पर उसे इस कहावत का सही प्रयोग जरूर आता है।‘

यह सुनकर कुन्दन कहने लगा- ‘अब तो तुम्हें मेरे साथ रहना है।‘ यह सुनकर वह अपने आपको हृदय से समर्पित करते हुए कहने लगी- ‘जैसे राखोगे, मैं रहूंगी। मैं कहा करो, मेरे मां-बाप ने मोय कछू नहीं सिखाओ व तो भाग्य की बात है, वैसें मैं तुम्हारे लायक नाने। जाने कहा कत्त कहा हो गओ। तईसे तो मेरी भाभी ने तुमसे कछू बातें कही हतीं।‘

यह सुनकर कुन्दन को कमला भाभी के आंसू याद हो आए थे। बड़ी देर तक दोनों गुमसुम बैठे कुछ सोचते रहे। मौन आनन्दी को खलने लगा तो उसे तोड़ते हुए बोली- ‘कहा सोचन लगे।‘ यह सुनकर कुन्दन ने आनन्दी का मनोबल बढ़ाने के लिए कहा -‘आदमी का बाह्य आवरण नहीं अन्तः मन सुन्दर होना चाहिए। भावनाएं सुन्दर हों, मन में सच्चाई हो, विशाल दृश्टिकोण हो, बस।‘ वह सुनकर वह इस संवाद को पचाने की कोशिश करते हुए बोली-‘हमने जिन्दगी में कछू नहीं सीखो।‘

यह सुनकर कुन्दन ने कहा- ‘अरे अभी तक कुछ नहीं सीखा है तो न सही।,

अब तो कुछ सीखना चाहती हो, बोलो पढ़ना चाहोगी।‘

यह सुनकर उसने अन्तस् की आवाज से उत्तर दिया-‘आज के जमाने में पढ़िवो लिखिवो कौने बुरो लगतो ?‘

यह सुनकर कुन्दन मन ही मन आनन्दित हो गया, उसे लगने लगा-‘उसे वासना की पूर्ति के लिए ही एक औरत नहीं मिली है बल्कि जीवन में साथ देने के लिए एक साथी मिला है।‘

कुन्दन को सोचते हुए देखकर वह कहने लगी- ‘अरे फिर कहा सोचन लगे, मैं तुम्हाये लायक नाने तो छोड़ देऊ। मैं मेहनत-मजूरी करकें जी लऊंगी।‘

यह सुनकर तो कुन्दन का दिल भर आया वह भावुक बनते हुए बोला- ‘तुमने ऐसे कैसे सोच लिया।‘

यह सुनकर उसने जवाब दिया-‘मैं तुम्हाये वारे में सुनवे कत्ती। तुम पढ़े-लिखे हो, सुन्दर हो, मैं पढ़ी-लिखी नाने सुन्दर नाने, राम जाने कहा होयगो।‘

उसी भोली-भाली बातों ने कुन्दन का मन आकर्शित कर लिया। नीचे औरतें लोकगीत गा रही थीं।

राजा तनक मन धन ऐसीं, अब होय कैसें ?

सासू ममीजू मेरो एक जस लेऊ।।

आज की रात बंगला मोय देऊ। राजा तनक मन .....

रानी जिठानी मेरो एक जस लेऊ।

आज की रात पलंग मोय देऊ।। राजा तनक मन .........

बारी ननदिया मेरो एक जस लेऊ।

आज की रात ननदेऊ मोय देऊ।। राजा तनक मन.......

रानी देरनिया मेरो एक जस लेऊ।

आज की रात देवर मोय देऊ।। राजा तनक मन .......

आनन्दी को लिवाने के लिए उसका भाई आ गया था। कुन्दन पत्नी को मैके भेजने से पहले कुछ उपहार देना चाहता था। बहुत सोच-विचार करने के बाद वह एक उपहार ले आया। वह उपहार लाल-हरी पन्नियों में बन्द था। आनन्दी ने बड़ी उत्साह से उस उपहार को खोला। उसमें से निकली -‘स्लेट-बत्ती‘। उसने वह स्लेट-बत्ती कुन्दन की तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘लो पहला सबक अब तुम ही लिख दो।‘ कुन्दन ने स्लेट-बत्ती ली और उस पर लिख दिया - ‘अ, आ‘।

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