उपन्यास धूल पौधों पर,- गोविंद मिश्र
रोचक व विचारोत्तेजक
गोविन्द मिश्र का दसवां उपन्यास ’धूल पौधों पर’ अपेक्षाकृत छोटे आकार का सधा हुआ उपन्यास है। इसमें मिश्रजी एक ऐसे क्षेत्र में कथा विस्तार करते है जो प्रायः उनकी कथा रचनाओं में आता हनीं है। हालांकि इसकी शुरूआती उनके नवें उपन्यास ’कोहरे में कैद रंग’ से हो चुकी थी। महत्वकांक्षी युवती को अपनी परंपराा के नाम पर दबाने का प्रयास करने वाले एक परिवार की कथा कहते गोविन्द जी युवती के सास ससुर के इस काम को उसी प्रकार दबाने का काम सिद्ध करते है जैसे कि किन्ही बढ़ते पौधों पर ढेरों धूल डालकर उसे दबा दिया गया है। उपन्यास के कई अंश दिलचस्प है। जिनमें विवाहेतर संबंधो का वर्णन है।
प्रेमप्रकाश देश के प्रसिद्ध समाजशास्त्री पर लेखक है उनका एक व्याख्यान अपने कॉलेज में कराने के लिए आमंत्रित करने आई तो उपन्यास नायिका, प्रेमप्रकाश के प्रति एक अनाम नेह से भर गई वह प्रायः उनके घर आने लगी और उनकी मॉ व पत्नी से भी उसकी आत्मीयता हो गई। खुद प्रेमप्रकाश आंशिक तौर पर अवचेतन में उसके प्रति आसक्त हो उठे और एक दिन उसे छोड़ने घर जाते वक्त कार के भीतर उसे चूमने की मजबूरी तक जो पहुंचे। वह स्तब्ध थी- माने ट्रांस में हो फिर सरब्ती से कार चलाने को कहा तो प्रेमप्रकाश स्तब्ध थें। निकटता बढ़ गई तो वह अपने घर की हर बात बताने लगी यहां तक कि पति पत्नी के बीच का निहायत निजी व्यवहार भी- ’’मैं कोई चीज हॅू जानवर हॅू या पत्नी हॅू तो इसलिए मनुश्य भी नहीं हॅू ? मेरी इच्छा - अनिच्छा कुछ नहीं.... रात भर उसने मुझे एक जबर कुत्ते की तरह चींथा.... मेरे शरीर का कोई हिस्सा नहीं छोडा.....’’(पृश्ठ 23)
प्रेमप्रकाश से निकटता बढ़ती है तो पति से दूरी होती जाती है, भले ही प्रेमप्रकाश के साथ कोई दैहिक संबंध नहीं बनते लेकिन भगवा वस्त्र पहन कर घर में बने मंदिर में गुरू बनकर बैठने वाले पति के साथ गुरूआनी बनकर बैठने से भी व संसर्ग से भी साफ इन्कार कर देती है । पति की नाराजगी के परिणामस्वरूप् उसे अपना शहर छोडकर दूर जा नौकरी करना पडती है और बेटे की चिन्ता है। तिल-तिल जलती हुई किसी तरह एक साल गुजाती है- वहशियों और स्त्री दे हके लोलुपों के बीच फिर लोक लाज के भय से पति ही उसे वापस बुलाता है ओर एक रात फिर बखेडा खडा होता है, जब स्वयं को प्रेतग्रस्त बताकर वह सरें आम पत्नी के चरित्र पर उंगली उठाता है- हालांकि अब प्रेमप्रकाश दूर हो गए है।
कथा में प्रेमप्रकाश का द्वद्वं, युवा गुरू की गलती से मकाान के दलालों की गुण्डागर्दी, वकीलों की भिरतरघात, स्कूलों का कलुपित वातावरण, युवा गुरू का निशा के प्रति आकर्शण भी आता है, जो कथा को बहतरीन ढंग से विकसित करता हैं ।
गोविनद जी ने इस उपन्यास मेें एक जागरूक स्त्री के मनोविज्ञान का बडा प्रभावी चित्रण किया है। ’आपसे मिलने के पहले मैं मशीन की तरह पडी थी। आपने छू दिया तो जीवित हो उठाी। पहली बार मैंने अपने बारे में महसूस करना शुरू किया कि मैं भी कुछ हॅू, मेरे साथ भी कुछ हो सकता हैं, होना चाहिए।’ (कर) या ’राहुल सर से खतरा है, हर पुरूश से होता है...... जरा सी छूट दी कि.....। अकेली रहती लडकी हैं । यह अपनी तहर का स्ट्रेन है।’ (पृश्ठ 116) इस तरह एक परपुरूश के स्पर्श से जीवित होती नारी दूसरे अनचाहे पुरूशों से किस हद तक सतर्क रहती है, शानदार प्रस्तुति है।
शिल्प के स्तर पर भी गोविन्द जी इसमें खूब प्रयोग ले आये है ं। उपन्यास का आरंभ अन्तर्द्वन्द्व से होता है, ऐसी जगह ’मै’ शब्द का प्रयोग है, अन्यथा ’प्रेमप्रकाश’ का अन्तर्द्वन्द्व कई जगह आता है बीच में। नायिका का भी अन्तर्द्वन्द्व इसी प्रकार ’मै’ कहकर आता है।
......तो आज के उच्च मध्यवर्ग की अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी की बोलचाल की भाशा में लिखा गया व शिक्षा भी अनायास अपने मूल कुरूप् में आती है। उपन्यास रोचक है और विचारात्तेजक भी।
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