मैं सुबह उठते ही चाय पीने के साथ साथ अख़बार देख रहा था तब मेरा ध्यान रह रह कर घड़ी पर भी जा रहा था। मैंने तय कर लिया था कि दस बजे के बाद मैं गीज़र मैकेनिक को फ़ोन करूंगा और यदि आज भी उसने कोई बहाना किया तो मैं ख़ुद उसकी दुकान पर चला जाऊंगा और उससे खुल कर ये बात करूंगा कि वो काम न जानने की वजह से किसी दूसरे मैकेनिक की तलाश में है या सचमुच उस पुर्जे की दुकान दो दिन से खुली नहीं है। और मैं उससे ये भी कहूंगा कि यदि वो दुकान आज भी नहीं खुली हो तो वह ज़रूरी पार्ट कहीं और से ले ले। यदि उस दुकान से उसे उधार माल मिलने के कारण वो वहीं से खरीदता हो तो वो मुझसे पैसे ले जाए और कहीं दूसरी जगह से नकद खरीद लाए।
इस तरह मैंने उसे पूरी तरह घेरने की योजना बना ली थी। यद्यपि इस योजना में मेरे लिए भी पर्याप्त जोखिम था कि जो आदमी दो दिन से मेरा काम टाल रहा था मैं उसे आगे बढ़ कर और पैसे दे देने की पेशकश कर रहा था। ये तो वही बात थी कि चाहे मुझे नुकसान हो जाए पर मैं उसे लाभ नहीं उठाने दूंगा।
और क्या, ये लाभ उठाना ही तो था कि जो काम वो जानता ही नहीं, उसे किसी दूसरे की मदद से किसी तरह पूरा कर के पैसा कमाए।
ये तो वैसा ही था कि कोई बच्चा परीक्षा में नक़ल करके ज़्यादा अंक ले ले और अपने से ज़्यादा योग्य बच्चे को पीछे छोड़ कर ख़ुद आगे निकल जाए। चीटिंग! घोर चीटिंग!
अपने दिमाग़ की इस उधेड़ बुन के चलते मैं अख़बार की खबरों में भी रस नहीं ले पा रहा था।
मध्यप्रदेश में तीन महीने पहले घटे दुष्कर्म मामले में पुलिस द्वारा खुलासा कर दिए जाने के बावजूद मैंने दोषियों के नाम तक नहीं पढ़े थे, केवल उस डॉक्टर का बयान ही पढ़ कर रह गया था जिसने कहा था कि दुष्कर्म हुआ ही नहीं।
यहां तक कि मैं उस अभिनेत्री की फ़ोटो भी केवल सरसरी तौर पर ही देख कर रह गया था जो अपनी बर्थडे पार्टी में कोट के बटन खुले होने के कारण काले रंग की ब्रा दिख जाने से चर्चा में आ गई थी। मैंने अपनी तमाम उलझन के बावजूद ये ज़रूर पढ़ लिया था कि उसका ये तथाकथित बोल्ड फ़ोटो उसके भाई ने ही खींचा था।
अभी दस बजने में काफ़ी देर थी इसलिए मैं गैस पर पानी गर्म करके नहाने की तैयारी करने के लिए उठ गया।
साढ़े दस बजे के करीब मेरे फ्लैट की घंटी बजी। मेरे एक मित्र जो बहुत दिन से मुझसे मिलना चाहते थे, आ गए।
उन्होंने एक कहानी लिखी थी जो वो मुझे सुनाना चाहते थे और उसके बारे में कुछ विमर्श भी करना चाहते थे।
मैं गीज़र मैकेनिक की बात पूरी तरह भूल गया।
हमने साथ में नाश्ता किया।
वो बोले कि वो अपनी कहानी का एक प्रिंट भी मुझे देना चाहते हैं ताकि मैं बाद में उसे मनोयोग से पढ़ कर उस पर अपनी राय उन्हें उपलब्ध करा सकूं।
मैंने उन्हें अपना कम्यूटर और प्रिंटर दिखाया और वो मेरा लैपटॉप लेकर बैठ गए।
उन्होंने जेब से पैन ड्राइव निकाल कर उसमें लगा लिया और एक बार फिर से स्क्रीन पर अपनी कहानी में खो गए।
इस बीच मुझे अपने गीज़र मैकेनिक का ख्याल आया और मैं उसे फ़ोन मिलाने लगा।
शायद वो समझ रहे थे कि मैं उनकी कहानी के बाबत अपनी पहचान के किसी संपादक से विचार विमर्श कर रहा हूं। किन्तु जब उन्होंने मुझे अपने ही किसी अन्य कार्य में व्यस्त देखा तो वे कुछ गिल्टी कॉन्शस हो गए और कुछ हड़बड़ी में अपनी कहानी का प्रिंट मुझे देकर निकलने की तैयारी करने लगे।
मेरा ध्यान इस बात पर बिल्कुल नहीं गया कि वो मुझे व्यस्त समझ कर जल्दी से निकल रहे हैं। उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और चले गए।
हमने परस्पर अभिवादन भी किया।
उनके जाने के बाद ही मैं एकाएक ये समझ पाया कि उन्होंने जाने की जल्दी उनके ख़ुद के किसी काम से नहीं बल्कि मेरी व्यस्तता के कारण की।
पर अब कुछ नहीं हो सकता था क्योंकि वो जा चुके थे। मैकेनिक का फ़ोन न मिलने के कारण मैं भी अब पूरी तरह फ़्री था।
मेरी ये योजना भी अब परवान नहीं चढ़ पाई कि फ़ोन न मिलने पर मैं उसकी दुकान पर जाऊंगा। क्योंकि दुकान पर कोई भी मैकेनिक सारे दिन बैठा तो नहीं रह सकता। वहां तो कई लोग होते थे जो सुबह हाज़िरी लगाने के बाद अपनी- अपनी ड्यूटी लेकर निकल जाते थे।
यदि मैं अब वहां जाता भी तो दुकान का मालिक मुझे यही कहता कि मैकेनिक के लौट आने के बाद ही वो उससे बात करके कुछ बता सकेगा।
मैंने पूरे प्रकरण से ही पीछा छुड़ा लिया।
इसी बीच मैंने देखा कि मेरी डाक में एक पत्रिका आई थी। आजकल लोगों ने खतो- किताबत तो बंद कर ही दी थी, कोई किसी को चिट्ठी पत्री नहीं लिखता था। केवल कोई अखबार या पत्रिकाएं ही कभी - कभी आ जाया करती थीं।
बाक़ी सब काम तो आजकल फ़ोन से ही होने लगे थे। मुझे इस ख़्याल से अपने आप पर ही शर्म आ गई कि आजकल सब काम फ़ोन पर होने लगे थे। मैं झेंप गया कि तीन दिन से एक मैकेनिक से तो मेरा संपर्क हो नहीं पा रहा है।
मुझे दोपहर में सोने की आदत नहीं थी। इसलिए मैं डाक में आई पत्रिका हाथ में लेकर कुर्सी पर आ बैठा। ये पत्रिका एक साहित्यिक पत्रिका थी। इसकी संपादक एक कवयित्री थीं जो अक्सर धार्मिक पंक्तियां या दोहे आदि लिखा करती थीं। वैसे ये फ़िल्म लिखने से भी जुड़ी हुई थीं। मैंने सुना था कि उनकी लिखी किसी कहानी की शूटिंग पहाड़ी क्षेत्रों में चल रही है।
रात को खाना खाने के बाद मैंने टहलने के लिए एक लंबा चक्कर लगाया।
मुझे घूमना हमेशा से अच्छा लगता था। मैं बाज़ार में देर देर तक घूमता था। लोग पार्कों में घूमने चले जाते हैं और वहां फ़िर जॉगिंग या सैर करते हैं। किन्तु मुझे घूमने को हमेशा स्वास्थ्य कारणों या प्रयासों से जोड़ना नहीं भाता था। मेरे लिए घूमने का मतलब दुनिया देखना, लोगों को देखना, समाज की हलचलों को देखना भी था।
मैं ज़ोर से हंस पड़ा। कोई नहीं था, न मेरे साथ, न मेरे पास, न मेरे आसपास।
फ़िर मैं हंसा क्यों?
ये क्या बात हुई कि आप अकेले हैं, आपके पास हंसने की कोई वजह नहीं है और आप हंस पड़े।