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नियत समय पर रेलगाङी ने सीटी बजाई और धुँआ उगलती हुई पटरियों पर दौङने लगी । इधर इन दोनों के मन के घोङे सरपट भाग रहे थे, उधर छुक छुक करती रेलगाङी । कोई स्टेशन आता तो झटके से गाङी रुकती, इधर इनकी सोच के अश्व थमते । कैसे जाएंगे, घरवालों को क्या कहेंगे, रोटी का जुगाङ कैसे होगा, चाचा ने चाची की कितनी धुनाई की होगी, उनके घर पहुँचने से पहले अगर चाचा – चाची वहाँ सहारनपुर पहुँचे हुए तो । सौ तरह के सवालों से उलझते सुलझते रात बीत गयी और सफर भी । सुबह का सूरज अभी अंधेरे का कंबल लपेटे सो रहा था । दिन निकलने से पहले ही वे मीरकोट की गली में पहुँच गये । गली के मुहाने पर पहुँच कर पैर ठिठक गये पर आगे जाना तो था ही । हिम्मत जुटाई और गली में कदम रखा । धङकते दिल से दरवाजे पर पहुँच कर सांकल बजाई । सरदल पर पैर टिकाए । दरवाजा नानी ने खोला । इन दोनों को दरवाजे के सामने खङा देख नानी कुछ देर के लिए हक्की –बक्की रह गयी । अगले ही पल एक तरफ हो दोनों को अंदर आने का निमंत्रण दिया । दोनों घर के भीतर आ गये । मिनटों में पूरे घर में चहल पहल हो गई । आखिर बेटी और दामाद घर आए थे । सब उठ गये । सब खातिरदारी में लग गये । किसी ने नल चलाया । किसी ने बाल्टी भरी । कोई परना निकाल लाया । और जब तक दोनों नहाए-धोए, तब तक आलू के परौंठे, लस्सी और मक्खन तैयार हो गये । दोनों ने भरपेट लजीज नाश्ता खाया । सबसे बङी सुकून की बात यह कि अभी तक न तो चाचा आए थे, न उनकी चिट्ठी । न ही घर वालों ने कोई सवाल किया था । फिर भी एक धुकधुकी लगी थी कि न जाने कब कोई पूछ बैठे, कहाँ से आ रहे हो और क्यों इस तरह अचानक चले आए । पर पूरा दिन सुख से बीत गया । रात आई और चुपचाप चली गयी । इसी तरह दस दिन बीत गये । इस बीच वे ताई और ताये से मिलने उनके रंगपुर के डेरे पर भी जा आए और एक दिन माँ शाकम्भरी देवी मंदिर भी ।
शाकंभरी मां का भवन शिवालिक पर्वत श्रंखला में सहारनपुर शहर से 40 किलोमीटर दूर है । इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है यह माँ का धाम । इस आराधना स्थल में देवी सती का शीश गिरा था । सहारनपुर से बेहट, कलसी और बादशाही बाग होते हुए सुरम्य दृश्यों को देखते बागों और पहाङी नालों को पार करते हुए शाकम्भरी धाम पहुँचना दिव्य अनुभव है । मान्यता है कि शाकम्भरी माँ की आराधना करनेवालों का घर हमेशा धन –धान्य से भरपूर रहता है ।
पुराणों और धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार हिरण्याक्ष के वंश मे एक महादैत्य रूरु था। रूरु का एक पुत्र हुआ दुर्गम। दुर्गमासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके चारों वेदों को अपने अधीन कर लिया । वेदों के न रहने से समस्त धर्म क्रियाएँ लुप्त हो गयी। ब्राह्मणों ने अपना धर्म त्याग कर दिया। चौतरफा हाहाकार मच गया। ब्राह्मणों के धर्म विहीन होने से यज्ञादि अनुष्ठान बंद हो गये और देवताओं की शक्ति भी क्षीण होने लगी। जिसके कारण एक भयंकर अकाल पड़ा। किसी भी प्राणी को जल नही मिला । जल के अभाव मे वनस्पतियाँ सूख गयी। अतः भूख और प्यास से समस्त जीव मरने लगे। दुर्गमासुर के अत्याचारों से पीडि़त देवतागण शिवालिक पर्वतमालाओं में छिप गये तथा उनके द्वारा जगदम्बा की स्तुति करने पर महामाया माँ भुवनेश्वरी आयोनिजा रूप मे इसी स्थल पर प्रकट हुई । समस्त सृष्टि की दुर्दशा देख जगदम्बा का ह्रदय पसीज गया और उनकी आँखों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। माँ के शरीर पर सौं नैत्र प्रकट हुए। शत नैना देवी या शताक्षी की कृपा से संसार मे महान वृष्टि हुई और नदी- तालाब जल से भर गये। देवताओं ने उस समय माँ की शताक्षी देवी नाम से आराधना की। शताक्षी देवी ने एक दिव्य सौम्य स्वरूप धारण किया। चतुर्भुजी माँ कमलासन पर विराजमान थी। अपने हाथों मे कमल, बाण, शाक- फल और एक तेजस्वी धनुष धारण किये हुए थी। माता ने अपने शरीर से अनेकों शाक प्रकट किये। जिनको खाकर संसार की क्षुधा शांत हुई। इसी दिव्य रूप में माँ शाकम्भरी देवी के नाम से पूजित हुई। यहाँ साग, सब्जी, फल, हलवा,पूरी का भोग लगता है ।
देवी की आराधना से या मन्नत माँगने से जैसे कैसे भी हुआ, पर चमत्कार तो हुआ । जैसे ही ये लोग वापिस सहारनपुर पहुँचे, मौसी का मंझला बेटा रंगपुर अपने माता पिता के पास जाने से पहले मिलने आया हुआ था । उसने पूछा – भाऊजी मैं तो नौकरी छोङकर रंगपुर जा रहा हूँ, कल मालिक को जवाब देना है । आप करना चाहो तो ..........।
मना करने का कोई कारण नहीं था । रवि ने हामी भर दी और अगले दिन जाकर मालिक से मिल भी आया । मालिक ने नौकरी तो दी ही, कोठी में एक कवार्टर भी दे दिया । अगले सप्ताह ही यह जोङा अपने नये बसेरे में रहने चला गया । नानी मंगला ने अपने जजमानों की मदद से कुछ बिस्तर और बरतनों का जुगाङ कर दिया । पहली बार दोनों ने जाना कि घर गृहस्थी क्या होती है । तनख्वाह कुल जमा पन्द्रह रुपये थी पर हर आपरेशन पर एक रुपया या दो रुपए मिल जाते । दिन अच्छे से गुजरने लगे । दोनों के बीच मोह की तार भी जुङने लगी । मालकिन के दो छोटे छोटे बच्चे थे, चंदा और सूरज जो धर्मशीला से हिल मिल गये थे । उसके अपने चारों भाई भी दिन में एक बार मिलने आते रहते, नही तो वह स्वयं माँ और नानी से मिलने चली जाती ।
इस सबमें छ सात महीने बीत गये । एक दिन रवि ने इस सब का विवरण देते हुए माँ और चाचा को लंबी चिट्ठी लिखी जिसमें अपने सही सलामत होने और काम मिल जाने की सूचना दी गयी । डाकडिब्बे में डालने के पाँचवे दिन चिट्ठी दुरगी और मुकुंद को मिल गई ।