उपन्यास शम्बूक शम्बूक वध का सच
रामगोपाल भावुक
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1 शम्बूक वध का सच का भाग 1
1 शम्बूक वध का सच
अग्नि परीक्षा के बाद भी
सीता माँ का परित्याग,
महान तपस्वी शम्बूक का
राम के द्वारा वध,
पता नहीं किस कुघरी में
ये निर्णय लिये गये।
व्यवस्था को सड़ने के
अंकुर दिये गये।।
मैं अपनी इन पक्तियों को अपने लम्बे काल से ही गुनगुनाता रहा हूँ। आज याद आरहा है, तथा कथित काव्यकारों ने अपना वर्चस्व प्रदर्शित करने के लिये मर्यादा पुरूषोतम श्रीराम का चरित्र ही दांव पर लगा दिया। इस सम्बन्ध में मैं आप सब का ध्यान हरवंश पुराण के साथ-साथ जगदीश गुप्त की कृति शम्बूक के पृष्ठ 11,12 के अनुसार डा. फादर कामिल बुल्के की कृति रामकथा में अनुच्छेद(618 तथा628 से 632) तक, पद्मपुराण के सृष्टि-खण्ड और उत्तर खण्ड, महाभारत के शान्ति पर्व का अध्याय 149, रधुवंश के 15 वे सर्ग, आनन्द रामयण के अनेक अध्यायों, देश की उडिया और कन्नड भाषाओं की रामायणों में तथा वाल्मीकीय रामायण के तेहत्तर से छिहत्तर सर्ग में रामराज्य के जनपद में रहने वाला एक ब्राह्मण अपने मरे हुये बालक का शब लेकर राजद्वार में आया और कहने लगा-‘‘यह राजाराम का कोई महान दुर्ष्कम है जिससे इनके राज्य में रहने वाले बालकों की मृत्यु होने लगी है। (वाल्मीकीय रामायण सर्ग 73 श्लोक10) यहाँ अन्य बालकों की मृत्यु का प्रमाण के लिये प्रस्तुत किया जाना चाहिये था, किन्तु एक ही ब्राह्मण बालक की मृत्यु को लेकर यह बात कही गई है।
उस ब्राह्मण ने राजाराम को यह धोंस दे डाली कि मैं अपनी स्त्री के साथ आपके राजद्वार पर प्राण दे दूँगा, फिर ब्रह्महत्या का पाप लेकर तुम सुखी होना। इस तरह सारा दोष श्री राम के मत्थे मढ़ दिया गया।
इस समस्या के समाधान के लिये राजसभा बुलाई गई। नारद जैसे दिव्य दृष्टि वाले मुनि का यह कथन-‘‘सतयुग में ब्राह्मणों को तप करने का अधिकार था। त्रेता युग में क्षत्रियों को तप करने का अधिकार हो गया। क्रम से द्वापुर में वैश्य भी तप का अधिकार प्राप्त कर लेंगे किन्तु शूद्रों को कलियुग में तपस्या करने की प्रवृति होगी और वे यह अधिकार प्राप्त कर लेंगे।( वाल्मीकीय रामायण सर्ग 74 श्लोक27)
यों त्रेतायुग में वैश्य और शूद्रों को तप करने का अधिकार नहीं था। इस परम्परा को शम्बूक ने तोड़ने का प्रयास किया तो कुछ तथाकथित काव्यकारों को अपना वर्चस्व खतरे में पड़ता दिखा। यहाँ उन्होंने अपना वर्चस्व बनाये रखने एवं लोगों को भ्रम में डालने के लिये यह कथा गढ़ डाली और उसे वाल्मीकीय रामायण में जोड़ दी।
जरा सोचिये, किसी शूद्र की तपस्या से ब्राह्मण बालक की ही मृत्यु हुई हो! राजसभा के माध्यम से श्री राम जैसे व्यक्तित्व द्वारा तपस्वी का वध करने की कहानी इसमें जोड़ना। जिससे लोग राम की तरह उन तथाकथित काव्यकार ब्राह्णों से डरकर रहें। उनके झूठे कथनों पर आँखें बन्द करके विश्वास करते रहें और उनकी झोली में भीख डालते रहें। इनकेा श्री राम पर ऐसा नीच आक्रमण करने में जरा भी संकोच नहीं लगा और यह कहानी गढ़कर वाल्मीकीय रामायण में जोड़ दी।
यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या राम जैसा व्यक्तित्व इतना कमजोर था कि ऐसी झूठी बातों में आगया। तपस्या से ब्राह्मण बालक की मृत्यु जैसी बात पर किसी तपस्वी को मारना न्याय संगत नहीं लगता।
इसी प्रसंग में आश्चर्य यह भी है कि नारद जैसा तपस्वी ऋषि यह तो बतला देता है कि कहीं शम्बूक शूद्र तप कर रहा है किन्तु वे यह नहीं बतला पाते कि वह कहाँ तप कर रहा है! श्री राम उसे मारने के लिये देश में चारों तरफ खोजते फिरते हैं।( वाल्मीकीय रामायण सर्ग 75 श्लोक10से 14)
शम्बूक एक सरोवर के निकट वृक्ष से उलटा लटका तप कर रहा था। राम उससे पूछते हैं-‘‘तुम कौन हो और तप क्यों कर रहे हो?’
’वह बोला-‘‘मैं शम्बूक नाम का शूद्र हूँ। इन्द्रासन प्राप्त करने (उच्च पद प्राप्त करने) के लिये तप कर रहा हूँ।’’
शम्बूक की बात सुनकर उत्तर दिये बिना राम तलवार से उसका वध कर देते हैं। यहाँ हमारे मन में यह प्रश्न उठता है, कि केवल शम्बूक का वध करने के लिये राम तलवार लेकर चले थे किन्तु वे तो धनुषधारी थे। इससे स्पष्ट है- तलवार युग में यह कहानी वाल्मीकीय रामायण में जोड़ी गई है।
आश्चर्य तो देखिये, शम्बूक के वध बाद वह ब्राह्मण बालक जी जाता है और अपने बन्धु-बान्धवों से जा मिलता है। कथा में फिर उस बालक के माता-पिता कहीं दिखाई नहीं देते। राम का उपकार मानने भी नहीं आते। अरे! किसी का मृत पुत्र जीवित हो जाये और वह जीवित करने वाले का उपकार भी न माने। यहाँ कथा गढ़ने वाले यह भूल गये कि इससे उनकी कृतघ्नता ही प्रदर्शित होगी और कहानी झूठी सिद्ध हो जायेगी।
यों वाल्मीकीय रामायण में यह वृतान्त ही गढ़ा हुआ प्रतीत होता है।
अब हम आठवी शताद्वी में महाकवि भवभूति द्वारा लिखे प्रसंग पर ध्यान दें-वे राम कथा लिखते समय परम्परागत प्रसंगों को नहीं छोड़ पाये हैं। महाकवि भवभूति सीता के अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग से व्यथित हैं।....और यही व्यथा उन्हें उत्तर राम चरित लिखने को विवश करती है। वे इस कृति के माध्यम से इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करना चाहते हैं। भवभूति की सीता वाल्मीकीय रामायण की तरह धरती में नहीं समाती वल्कि उनका मिलन होता है।
पौराणिक परम्परा के मोह में पड़कर भवभूति भी शम्बूक का राम के द्वारा वध कराते हैं किन्तु यहीं राम का अपनी बाहु से यह कथन-‘‘हे दक्षिण वाहु, ब्राह्मण के मरे हुये शिशु के जीवन के लिये शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चलाओ। परिपूर्ण गर्भ से खिन्न सीता के निष्कासन में निपुण तुम राम की वाहु हो। तुम्हें भला दया कहाँ?’
उसे गौर से पढ़े तो महाकवि भवभूति को उस परम्परागत पौराणिक प्रसंग पर सन्देह होता है, इसी कारण इस प्रकार का द्वन्दात्मक प्रसंग उन्हें लिखना पड़ा है। गर्भवती सीता के निष्कासन में निपुण तुम राम की वाहु हो। तुम्हें भला दया कहाँ?’’
शम्बूक वध से पूर्व राम का ऐसा चिन्तन! इस तरह मनोबैज्ञानिक दृष्टि से सोचने वाला व्यक्ति किसी की हत्या कर पायेगा। वे करुणा से परिपूर्ण हो अपनी भुजा को धिक्कारते हैं। शम्बूक वध के समय निर्वासित सीता की स्मृति करके वे महसूस करते हैं उनके हाथ से दूसरा यह अशोभनीय कार्य भी हो रहा है।
इससे आगे उनका ही वाक्य देखें-‘‘किसी भी प्रकार मारकर राम के सद्रश्य कर्म कर दिया। सम्भव है ब्राह्मण पुत्र जी जाय।’’
इस कथन में राम अपने को धिक्कारते हुये यह अनैतिक कर्म करते हुये दिखाई दे रहे हैं।
शम्बूक वध के बाद दिव्य पुरूष की उपस्थिति वाल्मीकि की अपेक्षा नया प्रयोग है। उस दिव्य पुरूष के शब्दों पर ध्यान दें-‘‘यमराज से भी निर्भय करने वाले, दण्ड धारण करने वाले तुम्हारे कारण यह शिशु जी गया। यह मेरी समुन्नति है। यह शम्बूक तुम्हारे चरणों में सिर से नमस्कार करता है। सत्सग से उत्पन्न मरण भी मुक्त कर देते हैं । राम शम्बूक को तप का फल प्रदान करते हैं, उसे अणिमा लघुमा जैसी सिध्दियाँ प्रदानकर बैराज नाम के लोक में निवास करने का वरदान देते हैं।’
शम्बूक कहता है-‘‘स्वामी आपके जो प्रसंग बाद में जोड़़े हुये होते हैं उनमें कहीं न कहीं भूल छूट जाती है। यों भवभूति और बाल्मीकि की कथा में वहुत अन्तर है। वाल्मीकि की अपेक्षा भवभूति ने मनोबैज्ञानिकता का पूरा ध्यान रखा है। भवभूति मृत बालक के शव को पिता के द्वारा न भेजकर माता के द्वारा राजद्वार में भेजते हैं।
प्रसाद का यह महत्व है। तपस्या से भला क्या! अर्थात् तपस्या ने बहुत वड़ा उपकार किया है। संसार में अन्वेषण करने योग्य लोकनाथ, शरणागत की रक्षा करने वाले मुझ शूद्र को ढ़ूढते हुये सेकड़ों योजन लाँघकर यहाँ आये हैं। यह तपस्या का फल ही है।’’
शम्बूक वध के बाद दिव्य पुरूष की उपस्थिति, और वह श्री राम को दन्डकारण्य से परिचित कराता है। यों राम शम्बूक वध के बाद प्रसंग में शम्बूक को संन्तुष्ट करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं।
यहाँ विचार करें-आपको किसी ने दन्ड़ित कर दिया। फिर भी आप उस दन्ड़ित करने वाले की मदद करने में लग सकेंगे! यह सम्भव नहीं लगता। यहाँ शम्बूक राम केा दन्डकारण्य का मार्ग सुझाता है। राम उसकी बात मानकर आगे बढ़ते हैं। मुझे तो यह सब हास्यप्रद और अमनोबैज्ञानिक प्रतीत होता है।
इसका अर्थ है सम्पूर्ण वृतान्त ही झूठ का पुलन्दा है। बाल्मीकि जैसे महाकवि से ऐसे अस्वाभाविक वृतान्त की रचना की कल्पना नहीं की जा सकती।
वाल्मीकि के राम भवभूति के राम की तरह पश्चाताप नहीं करते। यदि यह वृतान्त वाल्मीकि ने लिखा होता तो करुणा के कवि के राम भी उस पर पश्चाताप करते अथवा उस मृत बालक को जीवित करके शम्बूक को मारे बिना उसको अपना महत्व समझा देते। यों भी शम्बूक को तमोगुणी साधना से उदासीन कर सतोगुणी मार्ग की ओर प्रेरित कर सकते थे।...किन्तु इससे उन कथा जोड़ने वालों का लक्ष्य पूरा नहीं होता।
महार्षि वाल्मीकि की कथाओं में मनोविज्ञान का ऐसा हृास और कहीं देखने को भी नहीं मिलता जैसा इस प्रसंग में दिखार्द देता है। इसका अर्थ है यह प्रसंग उनके द्वारा रचित नहीं हो सकता वल्कि अन्य काव्यकारों द्वारा लिखकर जोड़ गया होता है।महाकवि भवभूति परम्परागत पौराणिक प्रसंग में पड़कर शम्बूक का वध तो करा देते हैं किन्तु वध कराते समय उनके राम का हाथ काँपता है। हाथ काँपना सन्देह के घेरे को बल प्रदान कराता है। यदि यह वाल्मीकीय रामायण का वास्तविक प्रसंग होता तो महाकवि भवभूति की तरह स्वाभाविक रूप से लिखा जाता और वध करते समय वाल्मीकीय के राम का भी हाथ काँपता।
महाकवि भवभूति अपने लेखन के प्रति सजग हैं। उनकी सीता वाल्मीकि की सीता की तरह धरती में नहीं समाती वल्कि मिलन होता है। ऐसे ही भवभूति ने राम के द्वारा पश्चाताप शम्बूक वध का प्रायश्चित ही है। ऐसे प्रसंग सन्देह के घेरे में आते हैं निसन्देह क्षेपक के रूप में स्वार्थ पूर्ति के लिये चिपकायें हुये होते हैं। महाकवि तुलसीदास ने अपने साहित्य में इस प्रसंग की चर्चा कहीं नहीं की है। इसका अर्थ है उन्हें यह प्रसंग विश्वसनीय नहीं लगा, अन्यथा वे इसकी कहीं न कहीं चर्चा अवश्य करते।
अखिल भारतीय भवभूति समारोह में पधारे संस्कृत साहित्य के विद्वान डा0 वसन्त भट्ठ ने सन् 2007 में कहा था-‘‘राम शम्बूक वध मिथक है। इसका चतुर्थ एवं पंचम अंक ही सिथिल है। रधुवंश में महाकवि कालीदास ने इसको प्रस्तुत किया है। कथ्य अमनोबैज्ञानिक है। वशिष्ठ जी की आज्ञा से कर्मफल की अवधारणा को व्यक्त करता हैं।
गर्भवती सीता का निष्कासन करके राम खुद के पुत्र की जन्म के समय दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सके। उन्हीं राम को दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिये तपस्या करने वाले का वध करने जाना पड़ा। यह बात अस्वाभाविक लगती है।’’
डा0 वसन्त भट्ठ कहते हैं-‘‘वाल्मीकि और भवभूति की कथा में अन्तर है। यह अन्तर ही सन्देह उत्पन्न करता हैं।
डा0 अम्वेडकर और पैरियार की वाल्मीकीय रामायण पर टीकायें अलग-अलग व्याख्या करतीं हैं। दोनों में कुछ समानतायें भी हैं। डा0 अम्वेडकर का जोर राम द्वारा शम्बूक की हत्या पर है जो कि इसलिये की गई थी कि शम्बूक ने शूद्र जाति के सदस्यों के प्रायश्चित स्वरूप तपस्या करने पर प्रतिबन्ध का उलंघन किया था। महात्मा फुले की तरह डा0 अम्वेडकर ने भी वाली की हत्या करने के लिये राम की कड़ी निन्दा की है।
यों यह कथा महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचित न होकर क्षेपक के रूप में उसमें जोड़ी गई है। महाकवि भवभूति एवं अन्य मनीषियों ने इस क्षेपक कथा का ही अनुकरण किया है।
राज नारायण वोहरे ने इसके कथ्य के विस्तार में जो सुझाव दिये है उनके कारण रचना अपने यर्थाथ रूप में सामने आ सकी है इनके अतिरिक्त कथाकार प्रमोद भार्ग्रव, ए असफल, वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’ के साथ-साथ डॉ अवधेश कुमार चन्सौलिया, डॉ अरुण दुवे,, डॉ स्वतंत्र सक्सैना, तथा सुरेश कुमार गुप्ता ने कथ्य के चयन में जो सहयोग किया है, इसके लिये मैं उनका हृदय से आभार मानता हूँ।
रामगोपाल भावुक
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