मानस के राम
भाग 15
महाराज जनक का स्वागत
मंदाकिनी नदी के तट पर राम अपने भाइयों एवं महर्षि वशिष्ठ के साथ राजा जनक और उनकी पत्नी सुनयना का स्वागत करने पहुँचे। राजा जनक ने पत्नी सहित महर्षि वशिष्ठ के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया। राम ने भी अपने भाइयों के साथ पहले राजा जनक के साथ आए शतानंद के चरण स्पर्श किए। उसके बाद राजा जनक एवं उनकी पत्नी सुनयना के पैर छुए। राजा जनक ने कहा,
"मुझे समाचार मिला कि भरत राम को मना कर वापस अयोध्या ले जाने के लिए चित्रकूट आ रहे हैं। अतः मैं भी आ गया। अपने पुत्रों के इस प्रेम और त्याग की भावना को देखकर महाराज दशरथ की आत्मा को बहुत शांति मिल रही होगी। अपनी पुत्रियों का विवाह आप लोगों के साथ करके मैं स्वयं को धन्य महसूस कर रहा हूँ।"
महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"आप सही समय पर पधारे हैं। भरत राम को मना कर अयोध्या ले जाना चाहते हैं पर राम उनकी बात मानने को तैयार नहीं हैं। हमें आपकी सहायता की आवश्यकता है। परंतु उससे पहले आप पड़ाव पर चल कर विश्राम कर करें।"
राजा जनक और उनकी पत्नी सुनयना पड़ाव में आए। तीनों रानियों से मिले। महाराज दशरथ की मृत्यु पर शोक प्रकट कर उन्हें हिम्मत बंधाई।
राजा जनक और सुनयना अपनी पुत्री सीता से मिले। उन्होंने अपनी पुत्री को आशीर्वाद दिया कि उसने अपने लिए जो मार्ग चुना है ईश्वर उस पर आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान करें।
भरत राम द्वारा अयोध्या लौटने की बात ना मानने के कारण बहुत परेशान थे। वह माता कौशल्या के पास निवेदन लेकर गए कि वह राम को अयोध्या वापस चलने के लिए मनाएं। कौशल्या ने उनसे कहा कि राम ने जो तर्क दिए हैं वह उचित हैं। वह महर्षि वशिष्ठ की तरह विवश हैं। राम को आदेश नहीं दे सकती कि वह अपना कर्तव्य छोड़कर वह अयोध्या वापस जाएं। भरत की सारी उम्मीदें अब राजा जनक पर टिकी थीं।
अपने शिविर में राजा जनक भी विचार में मग्न थे। उन्होंने अपनी पत्नी सुनयना से कहा,
"गुरुदेव वशिष्ठ ने मुझ पर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है। मैं दुविधा में हूँ कि क्या करूँ। एक तरफ भरत का प्रेम है तो दूसरी तरफ राम का कर्तव्य। मैं किसका साथ दूँ। अब तो ईश्वर ही मेरी सहायता करें।"
रानी सुनयना ने कहा,
"आप निश्चिंत रहिए। समय आने पर ईश्वर आपको सही रास्ता दिखाएंगे।"
भरत का राम के प्रतिनिधि के रूप में राज्य ग्रहण करना
अगले दिन फिर सभा का आयोजन हुआ। सब इस आशा से उपस्थित हुए थे कि राजा जनक कोई ऐसा फैसला लेंगे जो सबको प्रिय होगा। राजा जनक अपने स्थान पर खड़े हुए। महर्षि वशिष्ठ को प्रणाम कर बोले,
"गुरुदेव आपने मुझे एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सौंपा है। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सही निर्णय ले सकूँ।"
महर्षि वशिष्ठ को प्रणाम करने के बाद वह बोले,
"एक तरफ भरत का अपने बड़े भाई राम के लिए निर्मल प्रेम और क्या की भावना है। इस प्रेम को देखकर कोई भी अभिभूत हो जाएगा। परंतु दूसरी तरफ राम की मर्यादा है जो किसी भी मूल्य पर अपने कर्तव्य से विचलित होने को तैयार नहीं है। मुझे इन दो महान भावनाओं के बीच में से एक का चुनाव करना है। यह अत्यंत कठिन कार्य है। परंतु मैं भगवान शिव को प्रणाम करके अपनी बात कहता हूँ।"
सभा में उपस्थित सभी लोग बड़े ध्यान से राजा जनक के निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे। राजा जनक ने भरत से कहा,
"तुम्हारा प्रेम निर्मल और निश्छल है। इसे देखकर तो देवता भी अपना सर झुका रहे होंगे। परंतु भरत प्रेम कर्तव्य के मार्ग में बाधा नहीं बनता। तुम्हारा प्रेम केवल यह देख पा रहा है कि राम वन में कष्ट भोग रहे हैं। परंतु राम ने अपने पिता के वचनों का पालन करने के लिए प्रसन्नता पूर्वक स्वयं ही इन कष्टों को चुना है। राम अपने कर्तव्य पथ से डिग कर प्रसन्न नहीं रह सकते। अतः मेरा निवेदन है कि तुम अपने प्रेम को राम की कर्तव्य निर्वहन में बाधा ना बनने दो। वही करो जो राम की प्रसन्नता है।"
राजा जनक की बात सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग प्रसन्न हुए। भरत को भी अपनी गलती का एहसास हो रहा था। अपनी प्रेम में वह केवल अपने ही प्रसन्नता देख रहे थे। राम को मना कर वापस अयोध्या ले जाना। परंतु वह राम की प्रसन्नता के विषय में नहीं सोच रहे थे। उन्होंने राजा जनक को प्रणाम किया और राम के चरणों में बैठकर बोले,
"आदेश दें कि मुझे क्या करना चाहिए।"
राम ने कहा,
"तुम्हारे प्रेम ने मुझे भी बदल दिया। मैं माता कैकेई के पश्चाताप का सम्मान करता हूँ। मैं तुम्हारे द्वारा दिया गया अयोध्या का राज्य स्वीकार करता हूँ। परंतु मेरा वचन तब तक पूरा नहीं होगा जब तक चौदह वर्षों की अवधि पूर्ण नहीं हो जाती है। अतः मैं भरत को आदेश देता हूँ कि मेरे लौटने तक वह मेरा प्रतिनिधि बनकर अयोध्या का राज्य संभाले।"
भरत ने कहा,
"परंतु क्या मैं अयोध्या का राज्य संभालने के योग्य हूंँ ?"
राम ने कहा,
"सर्वथा योग्य हो। मुझे तुम्हारी क्षमता पर पूर्ण विश्वास है। तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए गुरुदेव वशिष्ठ हैं। सुमंत जी जैसे मंत्रीगण हैं। शत्रुघ्न जैसा भाई है।"
भारत ने हाथ जोड़ कर कहा,
"भ्राता आपका आदेश मानकर मैं आपकी अनुपस्थिति में अयोध्या का राज्य संभालूँगा। परंतु मेरा निवेदन है कि आप अपनी पादुकाएं मुझे दे दें। इन्हें सिंहासन पर स्थापित कर मैं अपने कर्तव्य का पालन करूँगा। किंतु स्वयं एक तपस्वी का जीवन व्यतीत करूँगा।"
महर्षि वशिष्ठ, राजा जनक और माताओं की आँखों में भरत के प्रेम और त्याग को देखकर प्रसन्नता के अश्रु आ गए। राम ने भरत को अपनी पादुकाएं दे दीं।
राम की पादुकाएं लेकर भरत सभी के साथ अयोध्या लौट आये। उन्होंने राजा के तौर पर राम की पादुकाओं को सिंहासन पर स्थापित कर दिया। उन्होंने घोषणा की कि वह नगर में नहीं रहेंगे। नगर से बाहर नंदीग्राम में एक तपस्वी की भांति रहते हुए अयोध्या का कार्यभार संभालेंगे। उन्होंने अपने लिए नंदीग्राम में एक पर्ण कुटी बनवाई। महर्षि वशिष्ठ के आशीर्वाद से सुमंत और शत्रुघ्न की सहायता से राज काज संभालने लगे।
चित्रकूट से प्रस्थान
भरत के जाने के बाद राम का ह्रदय चित्रकूट से उचट गया अतः उन्होंने चित्रकूट से प्रस्थान करने का निश्चय किया। वहाँ के ऋषि मुनियों से विदा लेकर उन्होंने चित्रकूट छोड़ दिया।
आगे बढ़ते हुए राम सीता और लक्ष्मण अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। ऋषि एवं उनकी पत्नी अनुसुइया ने उनका स्वागत किया। सीता के पतिव्रत धर्म से अनुसुइया बहुत प्रभावित हुईं। उन्होंने सीता को कुछ उपदेश दिए और सुंदर वस्त्र एवं सौंदर्य वर्धक जड़ी बूटियां भेंट कीं। अत्रि ऋषि के आश्रम से विदा होकर तीनों दंडक वन में आगे बढ़ने लगे। चलते चलते वह एक स्थान में पहुँचे जो अत्यंत रमणीय था। वहाँ कुछ ऋषि आश्रम बना कर रह रहे थे। चारों तरफ से वेद मन्त्रों की ध्वनि सुनाई दे रही थी। ऋषियों ने तीनों का स्वागत किया। वहाँ रात्रि में विश्राम करके राम सीता तथा लक्ष्मण वन में आगे बढ़ गए। अब सघन वन आरम्भ हो गया था। जहाँ कई प्रकार के हिंसक वन्य जीव थे। तीनों सावधानी से आगे बढ़ रहे थे।
विराध नामक राक्षस का वध
वन में चलते हुए राम और लक्ष्मण का सामना अचानक ही एक भयानक राक्षस से हुआ। भीषण गर्जना करते हुए वह उनकी ओर बढ़ा। वह विशालकाय और वीभत्स था। उस राक्षस ने सीता को उठा लिया और कर्कश स्वर में बोला,
"तुम लोग कौन हो ? भेष तो तपस्वियों का है किंतु अस्त्र धारण किये हुए हो। इस स्त्री के साथ वन में क्या कर रहे हो ? मैं तुम दोनों का वध कर तुम्हारा मांस खाऊँगा और इस सुंदर स्त्री से विवाह करूँगा।"
राम ने क्रोध में उसे ललकारा,
"हम इक्ष्वाकु के वंशज हैं। महाप्रतापी महराज दशरथ के पुत्र हैं। तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हो।"
यह कह कर राम और लक्ष्मण ने उस पर तीरों की बौछार कर दी। उस राक्षस ने अपने शरीर को ज़ोर से हिलाया। सारे तीर ज़मीन पर गिर गए। उसे कुछ नहीं हुआ। ज़ोरदार अट्टहास के साथ वह बोला,
"मैं जय का पुत्र विराध हूँ। मुझे ब्रह्माजी का वरदान है कि किसी भी शस्त्र से मैं नहीं मर सकता। तुम्हारे ये तुच्छ अस्त्र मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। इस स्त्री को छोड़ कर भाग जाओ। अन्यथा मेरा भोजन बन जाओगे।"
राम ने क्रोध में कहा,
"यह तुम्हारी मृत्यु का समय है।"
यह कह कर उन्होंने उस पर तीक्ष्ण बाणों का प्रहार किया। विराध की मृत्यु तो नहीं हुई किंतु वह पीड़ा से छटपटाने लगा। अस्त्र उसे मार नहीं सकते थे किंतु उनसे उसे पीड़ा अवश्य होती थी। उसने सीता को भूमि पर उतार दिया और राम तथा लक्ष्मण की ओर लपका। राम और लक्ष्मण ने उस पर तीक्ष्ण बाणों का प्रहार ज़ारी रखा। वह असहनीय पीड़ा से कराहने लगा। उसने दोनों राजकुमारों को अपने कंधे पर बैठा लिया और सघन वन में घुस गया। राम और लक्ष्मण अपनी मुष्टिका से उस पर भीषण प्रहार करने लगे। भयंकर पीड़ा के कारण वह भूमि पर गिर गया। राम ने उस पर अपने चरणों से प्रहार करना आरम्भ किया। राम के चरणों के स्पर्श से उसके मस्तिष्क पर पड़ा माया का पर्दा हट गया। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला,
"प्रभु आपके हाथ ही मेरी मुक्ति होनी है। मैं एक गंधर्व हूँ जो श्राप के कारण राक्षस बन गया। अब आपके हाथों मर कर मैं मुक्त हो जाऊँगा।"
राम और लक्ष्मण ने बिना अस्त्रों के अपने बाहुबल से उसे मार दिया और भूमि में एक बड़ा सा गड्ढा खोद कर उसे गाड़ दिया। राम और लक्ष्मण लौट कर सीता के पास आये और उन्हें सारा वृतांत सुनाया।
वहाँ से आगे बढ़ कर तीनों सरभंग ऋषि के आश्रम पहुँचे। तीनों ने ऋषि को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम किया। सरभंग ऋषि बोले,
"राम मैं आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। आपके दर्शन हो गए अब मेरे देह त्याग करने का समय आ गया है। मैं अपनी सारी तपस्या का फल आप को देना चाहता हूँ।"
राम ने विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर कहा,
"प्रभु मैने वन में निवास करने हेतु सब त्याग दिया है। मैं आपकी तपस्या का फल कैसे ले सकता हूँ। मैं तो आपके पास आया था ताकि आप मेरा मार्गदर्शन करें कि वन में निवास का उपयुक्त स्थान कौन सा है।"
सरभंग ऋषि राम के वन आगमन का उद्देश्य जानते थे। उन्होंने राम को सुतीक्ष्ण ऋषि के पास जाने को कहा। तत्पश्चात उन्होंने देह त्याग दी।
वहाँ रहने वाले ऋषियों और मुनियों को जब राम द्वारा विराध के वध का समाचार मिला तो वह सभी राम और लक्ष्मण के पराक्रम की प्रशंसा करने लगे। उन्होंने राम को राक्षसों के उत्पात के विषय में बताया और प्रार्थना की कि वह उनकी राक्षसों से रक्षा करें। राम ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह इन राक्षसों से उनकी रक्षा करेंगे।