Destiny ... - 5 in Hindi Women Focused by Apoorva Singh books and stories PDF | नियति... - 5

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नियति... - 5

ऐसा सोच मैं मन ही मन माता रानी से प्रार्थना करने लगती हूँ।और कोचिंग से घर के लिए निकल जाती हूँ।रास्ते मे हल्की बूंदाबांदी शुरू हो जाती है लेकिन इतनी नही कि भिगो सके।बारिश देख कर मैं मन ही मन प्रफुल्लित हो रही थी कि तभी ई रिक्शा खराब हो गया और मेरे साथ वहां मौजूद अन्य लोगो को भी परेशानी होने लगी।हे अम्बे मां! इसे भी अभी खराब होना था।अब तो पक्का बारिश हो जानी है।और मुझे पूरी तरह भीग ही जाना है।

इ रिक्शे को सही होने में समय लगता तो मैं पैदल ही हॉस्टल के लिए निकल जाती हूँ।एक तो शाम का धुंधलका,और आगरा की साफ सड़कें उस पर दोनों ओर लगे छोटे छोटे कनेर के वृक्ष और उन वृक्षो के नीचे हवा के जोर से बिखरे हुए पुष्प,और ये हल्की हल्की बारिश की बूंदे जिस कारण वहां के वातावरण में बिखरी भीनी भीनी खुशबू सभी मिलकर मुझे जादुई दुनिया मे होने का उस समय एहसास करा रही थी।मन बहुत ही खुश हो गया था ये दृश्य देखकर।ऐसा लग रहा था मुझे जैसे प्रकृति ने चारों ओर पुष्प वर्षा करी हो।।मैं चलती ही जा रही थी कि तभी एक बाइक मेरे पास आकर रुकती है।अचानक बाइक में रुकने से मेरा ध्यान भंग होता है जिस कारण मैं थोड़ा सिहर जाती हूँ।

बाइक पर कोई और नही अमर होता है जिसने मुझे पैदल जाते देख अपनी बाइक रोक ली होती है।

अमर - निया तुम पैदल क्यों जा रही हो घड़ी देखी है बस आठ मिनट ही बाकी है सात बजने में।तुम्हे देर
हो जाएगी तो हॉस्टल में एंट्री लेने में दिक्कत होगी।

पहले तो उसे अचानक देख चौंक जाती हूँ।लेकिन बाद में खुद को संयत कर कहती हूँ तुम यहाँ ,कैसे?

अमर - कुछ खास नही बस ऐसी बारिश में मुझे बाइक राइड करना पसंद है इसीलिए घर से निकल आया था।लेकिन तुम बताओ तुम यूं पैदल क्यों जा रही हो?

मैं - क्योंकि जिस ई रिक्शे में मैं आ रही थी वो खराब हो गया था इसिलए?

अमर - ओह कोई बात नही चलो मैं तुम्हे होस्टल छोड़ देता हूँ।अगर पैदल गयी तो थोड़ा सा लेट हो जाओगी।।और ज्यादा मत सोचो शाम का समय है इस समय तुम्हे कोई नही पहचानेगा कि तुम किसी के साथ हो बाइक पर।और वैसे भी बाइक से दो मिनट से भी कम समय लगेगा।

मैं पहले तो अमर की बात सुन जरा सा हैरान रह जाती हूँ कि ये बोल क्या रहा है लेकिन बाद में बात की गंभीरता को समझ थोड़ा सा डिस्टेन्स बना उसकी बाइक पर बैठ जाती हूँ।मेरे बैठने से उसके चेहरे पर एक लंबी सी मुस्कान आ जाती है जिसे मैं बाइक में लगे मिरर से देख लेती हूं।

मैं - अमर एक बात पूछना चाहती हूं सच सच बताइयेगा?

अमर - एक क्या जितना मन हो उतनी बातें पूछो तुम्हे बताने में मुझे कोई दिक्कत नही होगी।।उल्टा तुमसे बात करना तो मुझे अच्छा लगता है।

क..क... क्या..उसकी बात सुन मैं थोड़ा अटकते हुए जवाब देती हूं जिसे सुन वो मुस्कुराते हुए कहता है यही कि तुमसे बातें करना अच्छा लगता है मुझे।।

मैं - तुम्हारी बातों का मतलब मैं समझ नही पा रही हूं अमर??क्या साफ साफ कहोगे जो कह रहे हो??

ओह हो अब इससे ज्यादा साफ क्या बोलूं मैं।तुम सच मे नादान हो।। या फिर बन रही हो।।क्योंकि तुम लगती नही हो इतनी नादान जो मेरी बातों का मतलब भी न समझ पाओ!!

तब तक हॉस्टल आ जाता है और अमर थोड़ा पहले बाइक रोक देता है।मैं बाइक से उतर जाती हूँ और बिन कोई जवाब दिए वहां से जाने लगती हूँ।
तो अमर कहता है जवाब तो देती जाओ।मैं मुड़ कर फोन की तरफ इशारा कर देती हूं और आगे बढ़ जाती हूँ।एक मिनट चलने के बाद मैं हॉस्टल के गेट पर पहुंच वार्डन की परमिशन से अंदर चली जाती हूँ

रश्मि जो मेरे लिए थोड़ा परेशान हो रही थी।मुझे देख खुश होती है और दौड़कर मुझे गले लगा लेती है।
क्या यार कहाँ रह गयी थी तुम, कब से इंतज़ार कर रही हूं।ये मौसम देख घबड़ा ही गयी थी मैं।। मैंने कितना फोन ट्राय किया तेरा लेकिन स्विच ऑफ आ रहा था।तो और टेंशन हो रही थी।

बस बस अब ज्यादा चिंतित न हो मेरे लिए।।वो फोन ऑफ हो गया था।बैटरी खत्म हो गयी थी इसीलिए।कोचिंग से निकली तो ई रिक्शा खराब हो गया जिस वजह से मैं पैदल आ रही थी तो रास्ते मे अमर मिल गया तो उसी ने मुझे हॉस्टल तक ड्राप किया।।

क्या...निया??अमर ने तुम्हे ड्राप किया।।
हां।।अब हैरान मत हो इतना।।तुम्हारी संगत का असर है जो मुझे इस नए जमाने के साथ कदम से कदम मिला चलने का हौंसला मिला है।नही तो मैं वही रूढ़िवादी सोच में जकड़ी रहती लड़की, लड़का, अलग अलग,वगैरह वगैरह...!!

व्हाट...ये एक घंटे में तुझे क्या हो गया।।तेरी बातें और तेरी सोच दोनों कैसे बदल गए।।

पता नही मुझे खुद।।खैर ये सब छोड़ मैं हाथ मुंह धो लूं फिर कुछ बात करते है।तब तक मुझे अपने रूम की छत पर बारिश की बूंदों की झमाझम सुनाई देती है और मैं सीधा ऊपर छत के लिए निकल जाती हूँ।

निया कहाँ दौड़ी जा रही हो सुन तो...कहते हुए रश्मि भी मेरे पीछे आ जाती हैं। मैं छत पर जाकर झमाझम बारिश में भीगने लगती हूँ।उस समय मेरा मन मयूर प्रसन्नता की ताल पर नृत्य कर रहा होता है और मैं खुशी के मारे एक छोटी बच्ची की तरह पानी की बूंदों से खेलने लगती हूँ।पानी की नन्ही नन्ही बूंदों को हाथों में लेकर उन बूंदों को अपनी मुट्ठी में कैद करने लगती हूँ।और चेहरे को ऊपर आसमान की तरफ कर ठंडे ठंडे पानी की बूंदों को अपने अंतर्मन के जरिये महसूस करने लगती हूँ।।एक रूह को छूने वाली पवन का एहसास होता है मुझे।और उस एहसास को संजोए जा रही होती हूँ।

बरसों बाद मेरी बारिश के पानी मे झमाझम भीगने की ख्वाहिश पूरी होती है जिसकी खुशी मेरे चेहरे पर स्पष्ट दिख रही होती है।रश्मि छत के दरवाजे पर खड़ी खड़ी मुझे ऐसे प्रसन्न देख मुस्कुरा रही होती है।मेरी नज़र उस पर पड़ती है तो मैं उसे भी साथ आने का इशारा करती हूं।लेकिन वो न आने का इशारा करती है जिसे देख मैं उसके पास जाती हूँ और उसे खींच कर ले आती हूँ।

ओह गॉड खुद तो भीगी ही मैडम साथ मे मुझे भी भिगा ही दिया।अब जब भिगो ही दिया है तो अब मज़े भी ले ही लूं!! कहते हुए रश्मि छत पर भर हुआ पानी मुझ पर उलीचने लगती है।लो बचो अब तुम!☺️ बहुत मज़े ले रही थी न अकेले अकेले..☺️।।अब मैं भी थोड़ा सा ले ही लूं।।ही ही ही😊😊! उधर मुझे भी बहुत अच्छा लग रहा था मैं भी खुल कर इस बारिश को एन्जॉय कर रही थी।

रश्मि - तुम्हे बारिश पसंद है न निया!!
हम्म।। बहुत ज्यादा।।मुझे ये मौसम ही पसंद है रश्मि।।इस मौसम की हर बात निराली होती है। कोयल की कुहू कुहू इस मौसम में अलग ही सुकून देती है।वहीं चारो ओर बिखरी हरियाली, हरे भरे पौधे,मुझे अपनी ओर आकृष्ट करते हुए प्रतीत होते हैं।आसमान में धूप की लुका छिपी और हल्की बूंदों के बीच निकला हुआ इंद्रधनुष की सतरंगी छटा चारो ओर जब अपनी मोहिनी बिखेरती है तो मयूरों का नृत्य ऐसा लगता है मानो वो क्षण उस समय धरती का स्वर्ग हो।।

वाओ... ये सब तुमने खुद देखा है न निया क्योंकि तुम ग्रामीण क्षेत्र से बिलोंग करती हो औऱ बरसात के समय गांवो में अक्सर ऐसे नज़ारे देखने को मिल जाते हैं ऐसा मैंने सुना था अपने दादाजी से..जब वो हमारे साथ थे तब रोज गांवो के किस्से कहानियां सुनाते थे।मैंने तो अभी तक ऐसे नज़ारे देखे ही नही न..

ओहहो कोई बात नही अबकी बार मैं जब घर जाऊंगी तब तुम भी चलना तुम्हे दिखा दूंगी ...लेकिन इस प्यारे से चेहरे पर उदासी नही ठीक है।।

लेकिन निया क्या तुम्हारे घर मे मेरा जाना सही होगा मेरा मतलब मेरा रहन सहन तुम्हारे जैसा नही है न।

ये बात भी सही है लेकिन एक दिन के लिए तुम एडजस्ट कर ही सकती हो न।सो कर लेना ठीक है।

रश्मि - हम्म ठीक है।। ......तब तक बारिश भी बंद हो जाती है।अब हम दोनों के सामने एक नई परेशानी खड़ी अब नीचे कैसे जाएं... क्योंकि भीगे हुए थे और पानी कपड़ो से टपक रहा था।।अगर ऐसे ही गये तो हॉस्टल प्रशासन की डांट पड़नी तय है।

रश्मि - निया अब हम दोनों नीचे कैसे जाएंगे यार..
कुछ सोचो अब..!!अगर ऐसे ही यहां कुछ देर और रहे तो छींके आ जानी है।फिर सर्दी लग जानी है।

मैं - रश्मि अभी पहले तुम नीचे जाओ ,लाइट चली गयी है हॉस्टल की। रात का समय है।सब कमरों में दुबके बैठे होंगे।और ये देख यहां छत पर कौने में वाइपर रखा हुआ है।मैं इसे साथ ले आती हूँ।मुझे आदत है सफाई करने की तो जल्दी ही सारा पानी मैं इससे वाइप करते हुए तुम्हारे पास आ जाऊंगी।समझी।।

ओहहो लेकिन इतनी देर में तो तुम्हे सर्दी लग जायेगी यार।।
अरे तुम्हे पहले भेज ही इसलिये रही हूं कि तुम पहुंचो और चेंज कर वापस मेरे पास आ जाओ फिर मैं चली जाऊंगी।।सिंपल...☺️!

वाह.. क्या आईडिया दिया है तुमने।।रश्मि हंसते हुए कहती है।।

मैं - अब जहां इतनी मस्ती की है वहां थोड़ी बहुत सज़ा तो बनती है न।हॉस्टल प्रशासन सज़ा दे उससे तो यही बेहतर है न कि हम खुद ही सज़ा भुगत ले।

हम्म ये भी सही है कहते हुए रश्मि नीचे चली जाती है और मैं वाइपर लेकर अपने साथ नीचे फैलता हुआ पानी समेटते हुए अपने कमरे की तरफ धीरे धीरे चल देती हूं।क्योंकि इस कार्य का अभ्यास मुझे पहले से ही होता है सो रश्मि के जाने के पांच मिनट बाद ही सारा पानी वाइप करते हुए मैं अपने रूम तक पहुंच जाती हूँ।पानी को पास ही में बने निकास स्थल से निकाल मैं फट से अपने कमरे में घुस जाती हूँ।जहां रश्मि अपने गीले बालों को सुखाने में लगी हुई होती है।

रश्मि मुझे देख कहती है तुम बहुत जल्दी आ गयी यार अभी तो मै आ ही पाई हूँ।

देख लो।।अब काम हो गया पूरा।।अच्छा अब तुम ये लो, जल्दी से समेट दो।मैं चेंज कर लेती हूं।नही तो छींके शुरू हो जाएगी।

रश्मि - ठीक है।कहते हुए कार्य करने लगती है।
कुछ देर बाद हम दोनों बैठ कर गप्पे मारने लगती हैं।

मैं रश्मि से कहती हूँ मैं आज बहुत बहुत बहुत खुश हूं, मेरी ख्वाहिश थी बारिश में भीगने की।वो आज पूरी हो गयी।

मैं रश्मि की तरफ देखती हूँ।जो अपने मोबाइल में व्यस्त हो जाती है।उसे देख मुझे थोड़ा सा गुस्सा आता है तो मैं उससे कहती हूँ ये सही है मैं यहां तुमसे बातें कर रही हूं और तुम मोबाइल में व्यस्त हो।तुम रहो इसी के साथ व्यस्त मैं भी दूसरे कार्य मे लग जाती हूँ फिर न कहना मेरे पास तुमसे बात करने के लिए भी समय नही है।हुह।।जाती हूँ मैं...सुन रही हो...।..अरे तुमसे ही बात कर रही हूं...रश्मि...

लेकिन रश्मि न जाने कौन सी दुनिया मे होती है।बस मोबाइल देख देख मुस्कुरा रही होती है।

मैं थोड़ा सा गुस्सा दिखाकर उसका मोबाइल लेकर wifi ऑन कर देती हूँ।।मोबाइल लेने पर उसका ध्यान टूटता है तो कहती है छीन काहे रही हो एक बार कह देती मैं वैसे ही ऑन कर देती।

उसकी बातें सुन मैं कहती हूँ क्यों तबसे चिल्लाए जा रही थी मैं सुनाई ही नही दिया तुम्हे।अब सुनाई दे गया न।चल ले रख अपना मोबाइल कहते हुए उसे वापस कर देती हूं। और खुद मोबाइल पर स्टडी करने लगती हूँ।कुछ देर बाद अमर और राघव दोनों का मैसेज एक साथ आता है।
मैं चेक करती हूं जिंसमे दोनों ने ही हाई बोला हुआ है।

अमर और राघव दोनो के एक साथ मेसेज देख मैं थोड़ा सा चौंक जाती हूँ।चूंकि उस दिन मेरा मूड काफी अच्छा था इसिलिए मैंने तुरंत रिप्लाय किया और काफी अच्छे से बातचीत भी की।राघव तो कुछ ही देर में ऑफलाइन हो चुका था।केवल अमर ही ऑनलाइन था।बात करते करते समय का पता ही नही चला और उस दिन करीब छः घंटे ऑनलाइन बात हुई थी।इन छह घंटो में मैंने और अमर ने एक दूसरे के बारे में काफी बातें जानी।अमर से बात करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अमर भी मेरी तरह ही अपने परिवार से उपेक्षित है।उसके पास फैमिली तो है लेकिन फैमिली की अटेंशन नही है।

ऐसा अक्सर होता है जब एक ही दर्द के मारे दो लोग मिलते हैं तो एक दूजे का दर्द अच्छे से समझते हैं।इसी दर्द के कारण मैं और अमर एक दूजे से भावनात्मक रूप से जुड़ते चले गए।जिस आवाज़ से मैं दूर भागती थी।उसी आवाज़ के सम्मोहन में मैं धीरे धीरे बंधती चली गयी।

समय व्यतीत होता गया।धीरे धीरे हमारी दोस्ती को एक महीना हो गया।अब अमर के साथ बात करने में मुझे कोई दिक्कत नही होती थी।एक दिन अक्षत ने मुझसे कहा...

निया अब तो तुम्हे सेलेरी भी मिल गयी न।तो अब अपना प्रोमिस पूरा करो!!

मैं - हां बिल्कुल।।बताइये कहाँ चलना है।।मुझे पार्टी देने में कोई दिक्कत नही है।मैं तो सोच ही रही थी कि अब तक आप सब ने पार्टी के लिए बोला क्यों नहीं।

ओह तो मैडम जी समझ रही थी कि हम सब पार्टी के बारे में भूल गए है न।सभी एक साथ कहते हैं।।

ओह हो आप सब भी मैडम जी कह रहे हो।।अरे मैं आप लोगो की मैडम तो नही हूँ आप सब तो मेरे दोस्त हैं न।

अमर - दोस्त माना कहाँ है आपने नियति।।अब यूँ इतनी इज्जत से भला दोस्तो से बात करि जाती है क्या?? आप, आप सब, हैं,,...बोलो तो।।

हम सब मे देखा है किसी को ऐसे बात करने के लिए..हम सब तो तुम तुम्हारा,तेरा कह मज़े से बात करते हैं।इससे हम सब को ज्यादा अपनापन लगता है।अब यूँ इज़्ज़त से बात करोगी तो दोस्त कम मैडम ज्यादा लगती हो...इसीलिए तो कहा मैडम जी..कह सभी दोस्त मुस्कुरा देते हैं।

ओह हो अब मुझे यही सिखाया गया है तो इस मे मैं क्या कर सकती हूं।अब ये शामिल है आदत में मेरी।अब इसके लिए तुम सब चाहे जो कहो।भई बदलना तो मेरी फितरत में ही नही।और वैसे भी हम सब को अच्छी आदते अपनानी चाहिए न।तो समझ लो तुम सब के लिए ये एक प्लस पॉइंट है क्या पता मेरी संगत में आप सब खुद को ही बदल लें।

अमर - अरे यार।।इन सब मे तो हम मुख्य मुद्दे को भूल ही गए।।हम सभी क्या डिसकस कर रहे थे पार्टी के बारे में न गाइज़।और उसी से भटक गए।

निया।।अब तुम पार्टी शॉर्टी छोड़ो चलो हम सब को आगरा की ही एक छोटी सी ट्रिप करा दो।क्या कहते है सब।।चला जाये।।

आइडिया अच्छा है यार।।चलते ही है वैसे भी आजकल कॉलेज में प्रोफेसर सर नही आ रहे।अपने लेक्चर तो कम ही हो रहे हैं।आशीष अमर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहता है।

ठीक है फिर चलते है इस बार मैं राघव को भी बुला लेता हूँ वो भी हम सब के साथ चलेगा तो उसका भी घूमना हो जाएगा।

ये सुन कर अमर का मुंह बन जाता है और मेरी तरफ देखता है।जिसे देख कर मैं समझ जाती हूँ अमर को राघव कुछ खास पसंद नही है।

मैं अमर के पास जाती हूँ और उससे कहती हूँ अमर ये ऐसा मुंह काहे बना रहे हो।अब तुम्हारे और राघव के बीच प्रॉब्लम क्या है ये मुझे नही पता लेकिन राघव अच्छा इंसान है तुम्हे उससे दूरी बनाए रखनी है तो बिल्कुल रखो लेकिन अपने दोस्तों के सामने उसे यूँ जाहिर तो मत होने दो।अक्षत और राघव बहुत अच्छे दोस्त हैं और अक्षत तुम्हारा भी अच्छा दोस्त है तो अपने दोस्त के लिए ही राघव से तुम भी दोस्ती कर लो...

ओ तेरी..अभी कुछ देर पहले ये आप आदत के लेक्चर दिए जा रहे थे बहुत जल्दी भूल गयी है न..बस ऐसे ही बोला करो तुम, तुम्हारा अपनापन झलकता है कहते हुए अमर मुस्कुरा देता है।

ओह गॉड सही कहते है संगत का असर बहुत जल्द होता है और मैंने देख भी लिया अभी।

मेरी बात का मान रखते हुए अमर अक्षत से कहता है ये तो बहुत अच्छी बात है सारे दोस्त एकसाथ चलेंगे घूमने।अब जाएंगे कहाँ ये भी डिसाइड कर ही लेते हैं।

मैं अपनी खुद की ही सोच में डूब जाती हूँ क्योंकि आगरा खुद में एक टूरिस्ट प्लेस है भीड़भाड़ वाली जगह जाना तो मुझे पसंद ही नही है।और अगर सबने मिल वही डिसाइड किया तो मेरी तो वैसे ही हालत खराब हो जानी है।

अमर - अरे इतना क्या सोचना यारो।अब समय देखो कितने बज रहे हैं बारह।।एक घण्टे बाद निया को कोचिंग पहुंचना है पढ़ाने के लिए।आज का प्लान तो कैंसल।क्योंकि उसने छुट्टी के लिए बोला ही नही होगा।

हम्म ये भी सही है।तो फिर कल संडे है कल का दिन तय रहा।हम सब जाएंगे आगरा से कुछ किलोमीटर दूर फतेहपुर सीकरी।।कैसा रहेगा।निया के लिए भी कोई दिक्कत नही होगी क्योंकि वो आगरा से बाहर स्थित जो है।न ज्यादा भीड़भाड़ रहती है वहाँ, और न ही बिल्कुल खामोशी है।अमर मेरी तरफ देखते हुए कहता है जिसे देख मैं सोचती हूँ न जाने कैसे ये हर बार मेरी परेशानी को भांप लेता है और तुरंत उसका समाधान भी कर देता है।

मैं अमर को होठो ही होठों में थैंक यू कहती हूँ।और सभी को बाय कह अपनी कोचिंग के लिए निकल जाती हूँ।

शाम को रश्मि भी मेरी कोचिंग आ जाती है।उसे वाहन देख मैं उससे वहां आने का कारण पूछती हूँ

रश्मि तुम यहाँ कैसे कोई काम से आई हो क्या।

ओह हो क्या काम से ही मैं तेरे पास आ सकती हूं तेरी कोचिंग ऑफ हो गयी तो सोचा तुम्हे आज आगरा के गुरुद्वारे में ले चलूं।बहुत अच्छी जगह है।वहां जाकर बैचेन मन को भी सुकून मिल जाता है।और बाबाजी का आशीष भी मिलता है।

मैं घड़ी देख उससे मना करती हूं।लेकिन वो मुझे फोर्स कर आगरा के गुरुद्वारे में बुला ले जाती है।अरे यार चल न तुम तो वैसे भी इंटेलिजेंट हो दो घण्टे भी अगर ध्यान लगा कर पढ़ोगी तो सब याद कर लोगी।मेरा मन है आज गुरुद्वारे जाकर बाबाजी का प्रसाद ग्रहण करने का।

प्रसाद...?? क्या वहां कोई स्पेशल प्रसाद मिलता है क्या बोल न।

स्पेशल नही डियर।।वेरी स्पेशल!! तुम्हे पता नही है वहाँ 24 *7 बाबाजी का लंगर चलता है जिसे हम सब बाबाजी का प्रसाद कहते हैं।और उस प्रसाद की बात ही निराली है इतना स्वाद होता है आत्मा तक तृप्त हो जाती है।वहाँ सभी जा सकते है किसी धर्म विशेष के लिए कोई बंदिशे नही हैं।ये सब बातें वो मुझे रास्ते मे ऑटो में बैठे बैठे बताती है।

इस सब को जान कर मेरे मन मे उत्सुकता बढ़ती जाती है क्योंकि पहली बार मैं किसी गुरुद्वारे में जा रही होती हूँ। लगभग बीस मिनट में हम दोनों ही गुरुद्वारे के सामने खड़े होते हैं।सड़क पार कर हम दोनो अंदर प्रवेश करते हैं।अंदर कदम रखते ही वहां मुझे एक अंदरूनी खुशी महसूस होती है और मेरे चेहरे पर एक मुस्कान स्वतः आ जाती है।मेरे कदम खुद ब खुद अंदर की तरफ बढ़ जाते हैं।पास ही पानी का इंतज़ाम होता है हाथ मुंह धोने के लिए।वहां जाकर हम दोनों हाथ पैर धुलते है तथा सर को दुपट्टे से ढंक लेते हैं।

सीढियो से चढ़ हम दोनों अंदर बाबाजी के पास जाते हैं और वहां चल रहे शब्द कीर्तन में कुछ देर खो जाते हैं।कुछ देर बाद रश्मि और मैं बाबाजी को प्रणाम कर वहां से बाहर आ जाते हैं।और लंगर वाले स्थान पर पहुंचते हैं।जहां मेरी नज़र एक छोटी बच्ची पर पड़ती है जो एक खंभे के पास अकेली खड़ी चारो ओर देख रही है।मैं उसके पास जाती हूँ और उससे वहां खड़े होने का कारण पूछती हूँ। तो वो पंगत की तरफ इशारा कर देती है।मुझे लगता है कि शायद वो खाने के लिए कह रही है मैं उसे वहीं पंगत में बैठा देती हूँ साथ ही मैं और रश्मि भी वही उसमे पास बैठ जाते हैं।कुछ देर बाद बच्ची का पेट भर जाता है।मैं और रश्मि उस बच्ची को लेकर वहाँ के मैनेजमेंट के पास जाते हैं और उनसे पूरी बात कहते हैं।गुरुद्वार मैनेजमेंट उस बच्ची को उसकी मां के पास पहुंचाने का आश्वासन देता है।क्योंकि उसकी मां वही सेवा में रत होती हैं।
मन मे मेरे एक अलग ही खुशी होती है और इसी खुशी में गुनगुनाते हुए मैं जल्दी जल्दी सीढियां उतरने लगती हूँ।कि तभी मेरा पैर मुड़ जाता है और मैं वहीं दर्द की वजह से बैठ जाती हूँ।

रश्मि - बोल रही थी न धीरे धीरे उतरो।।अब मुड़ गया पैर।तुम बैठो यहीं मैं कुछ करती हूं यहां किसी की मदद लेती हूं शायद किसी के पास यहां ऑइंटमेंट या दर्द निवारक जैल हो।

रश्मि तुम कहाँ यूँ पूछती घूमोगी।चलो हमे होस्टल भी पहुंचना है।.......तुम और तुम्हारा स्वाभिमान।। मदद ले लोगी तो छोटी नही हो जाओगी।।रश्मि मेरी तरफ घूरते हुए कहती है।

अरे बात मदद की नही है मैं बस इतना चाहती हूं कि मेरी वजह से किसी को भी इतनी सी भी प्रॉब्लम न हो।समझी।।चल अब चलते हैं।।मैं कोशिश करती हूं चलने की।थोड़ा सा पेन होगा मैं झेल लुंगी।..लेकिन ज्यादा देर रुके यहां तो जरूर प्रॉब्लम हो जानी है..।

हां भाई तुमसे तो मैं जीत ही नही सकती कभी?लेकिन एक बात साफ साफ कहे देती हूं अगर ज्यादा पेन हुआ तो मैं अमर को मदद के लिए बुला लूँगी।।और ज्यादा न नुकुर तो तुम फिर करियो मत।काहे कि उसका एहसान मैं मान लुंगी तुम बस चुपचाप चली चलियो मेरे साथ ठीक।

लेकिन रश्मि मैं....
अब ज्यादा कुछ न कहो।बात खत्म..
कोई रास्ता न देख मैं उसकी बात को मान लेती हूं।रश्मि मुझे कन्विंस करने में सफल हो जाती है।

मैं उठ कर चलने की कोशिश करने लगती हूँ।दर्द बहुत हो रहा होता है मेरे पैरों में।लेकिन रश्मि की बात सुन कर उसे जाहिर नही करती हूं।रश्मि मेरे चेहरे के एक्सप्रेशन से समझ जाती है और चुपके से अमर को गुरुद्वारे पहुंचने का मैसेज कर देती है।

मैं तो इस बात से अनजान ही होती हूँ।एक एक कदम रखना मेरे लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है।दो मिनट की दूरी तय करने में मुझे पूरे दस मिनट लग जाते हैं।दरवाजे तक बमुश्किल ही पहुंच पाती हूँ,फोर्स फुली चलने की वजह से पैर में सूजन भी आ जाती है।मेरा पैर बहुत ज्यादा दर्द करने लगता है अगला डग जैसे ही मैं आगे रखती हूं तभी मैं लड़खड़ा जाती हूँ कदमो का साथ नही होने की वजह से गिरने ही वाली होती हूँ कि तभी मुझे मेरे दोनो हाथो में किसी की मजबूती का एहसास होता है।मैं आंखे खोल देखती हूँ तो सामने अमर मेरे दोनो हाथो को पकड़े खड़ा हुआ होता है।उसने मजबूती से मेरे हाथों को थामे हुए होता है।

रश्मि - थैंक गॉड अमर तुम आ गए।वरना ये पगली तो ऐसे ही तकलीफ सहते सहते रूम तक पहुंच जाती लेकिन मज़ाल क्या किसी की मदद लेती।

जानता हूँ रश्मि।।ये थोड़ी अलग है।जिद्दी,पगली सी
तभी तो जैसे ही तुम्हारा मेसेज देखा तुरंत चला आया।

मैं घूर कर रश्मि को देखती हूँ जिसे देख वो कहती है अब ये घूरने का प्रोग्राम रूम पर पहुंच कर लेना।

अमर एक तरफ तुम थामो एक तरफ मैं इसका हाथ पकड़ती हूँ फिर इसे ऑटो में बिठा मैं ले जाऊंगी रूम तक तुम बस यहाँ से ऑटो तक पहुंचाने में मेरी मदद कर दो।

मदद कर दूंगा लेकिन रूम पर जाने के लिए नही।डॉक्टर के क्लिनिक पहुंचने के लिए।सो यहां से उस तरफ मैं ले जाता हूँ इसे तुम वो पास में ही हॉस्पिटल है न रेनबो वहाँ ले जाओ और डॉक्टर को दिखा दो।वहाँ से तुम दोनों रूम के लिए निकल जाना।

अमर की बात सुन मैं कहती हूँ अरे सिर्फ पैर मुड़ा है।कोई महा बीमार नही हुई हूं जो डॉक्टर के पास जाना पड़े मुझे।रूम पर पहुंचूंगी मूव से मालिश कर लुंगी कस कर सुबह तक बिल्कुल ठीक हो जाऊंगी।समझे।। तो प्लीज़ मुझे रूम पर ही जाने दो।

ओके चली जाओ।।लेकिन रश्मि जैसे अभी तुमने इससे अपनी बात मनवाई हैं न वैसे ही सुबह भी मनवा लेना।।अगर पेन नही गया तो खींच कर के जाना हॉस्पिटल।

रश्मि हंसते हुए उसे हां कहती है।और ऑटो रुकवा मैं और रश्मि होस्टल के लिए निकलती हैं।
तथा कुछ देर में होस्टल पहुंच भी जाति है।जहां रश्मि की मदद से मैं होस्टल के दरवाजे तक पहुंचती हूँ और धीरे धीरे रूम तक वो मुझे ले जाती है।रूम पहुंच कर मैं अपने पैरों में मालिश करती हूं।और शांति से बेड पर बैठ जाती हूँ।

रश्मि मुझे बोर होता हुआ देख अपने फोन का wifi न कर देती है और मैं फोन कनेक्ट कर उस पर हिस्ट्री के वीडियो देखने लगती हूं।

लगभग एक घण्टे बाद मेरे पास अमर का मैसेज आता है -

अमर - हाई!!निया!

मैं - हेल्लो!!
अमर - अब पेन कैसा है तुम्हारा?
मैं - अभी तो थोड़ा आराम है।

अमर - एक बात कहूँ निया??
मैं - कहो?
अमर - निया तुम्हे मैं उस समय इतने दर्द में देख कर मुझे बहुत तकलीफ हो रही थी!. वाकई बहुत सहनशील हो तुम?

निया - तफरी ले रहे हो तुम है ना।।
नही निया!! सच मे तफरी नही ले रहा।।सच कह रहा हूँ!!

तुम्हारी तो हर बात अच्छी है निया।।डांसर कमाल की हो तुम।।सहनशील भी हो।स्वभाव भी अच्छा है।तुमसे बात करना मुझे अच्छा लगता है।इनफैक्ट तुम्हारा स्वभाव ही मुझे अच्छा लगता है।

अमर आप कुछ कहना चाहते हैं साफ साफ कहिये!!आज इतनी तारीफे क्यों हो रही हैं मेरी??मैंने अमर से कहा।न जाने क्यों उस दिन अमर तारीफ पर तारीफ किए जा रहा था।

नही तो बस मन किया तो कह दिया!!अमर ने इधर इधर देखते हुए कहा।

नही अमर तुम्हारी बातो से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे तुम कहना कुछ और चाहते हो और कह कुछ और रहे हो!

हां!!कहना तो है।।पहले वादा करो मेरी बात सुन कर तुम मुझसे गुस्सा नही होगी।...

अमर कहना है तो साफ साफ कहिये।।ये वादा करने की क्या जरूरत है भला।अब बात अगर गुस्से वाली होगी तो गुस्सा करूँगी ही न।।

अमर - नही तो फिर मुझे कुछ नही कहना।।निया।।

मैं - अब ये क्या बात हुई भला।।कहो भी क्या कहना है।।यूँ बात को अधूरा छोड़ना मेरी आदत में नही है और न ही मुझे पसंद है।

अमर - अब ये तो गलत बात है निया।।मेरी मर्ज़ी।।चाहे मैं बताऊं या नही।तुम यूँ ऐसे मुझे फोर्स तो करो ही मत।।मैं तो तभी बताऊंगा जब तुम वादा करोगी मुझसे कि मेरी बात सुनकर भी तुम गुस्सा नही करोगी।अगर बुरा लगे तो सीधा बोल दोगी लेकिन गुस्सा नही करोगी।

अमर की बात सुन कर मेरे मन मे उत्सुकता बढ़ गयी थी कि ऐसा क्या कहना है इसे जो पहले से ही वादा लिया जा रहा है।मैं अमर की बात मान लेती हूं।।

अमर - थैंक्स निया।।वो क्या है न बहुत दिनों से मैं तुमसे कुछ कहना चाहता था लेकिन न जाने क्यों कह ही नही पा रहा हूँ।बात हर बार मेरी जुबान पर आकर ही अटक जाती थी।आज कह ही देता हूँ क्योंकि अगर अब नही कह पाया तो कभी नही कह पाऊंगा।।

अमर क्या कहना है साफ साफ कहो न।यूँ पहेलियाँ सी तो बुझाओ मति।

अमर - नियति।।मुझे तुमसे बात करना, तुम्हारे साथ समय बिताना अच्छा लगता है।मैं तुम्हे पसंद करने लगा हूँ तबसे जब से तुम्हे जाना है समझा है।।प्रेम करने लगा हूँ तुमसे निया।।

क्या...कह रहे हो अमर।।अमर की बात सुन उस समय मैं पसीने से पूरी तरबतर हो जाती हूँ।और ऑफलाइन हो जाती हूँ।

अमर उस समय मेरा रिएक्शन देख घबरा जाता है।सॉरी निया।।लेकिन बात तक करो।।कुछ कहो तो।।
मुझे ऐसे देख रश्मि दौड़ती हुई मेरे पास आती है और पूछती है क्या हुआ तुझे।।तुम यूँ पसीने में कैसे भीगी हुई हो पंखा तो ऑन ही है यार।रश्मि टेबल पर रखे फेन की तरफ देखते हुए कहती है।

कुछ देर में मैं नॉर्मल हो जाती हूँ और रश्मि से कहती हूँ मैं बिल्कुल ठीक हूँ।वो क्या है न मूव लगाई थी पैरो में हाथ धुले नही और भूल से हाथ को गर्दन पर रगड़ दिया और ये सब हो गया।

ओह गॉड. तुम और तुम्हारी ये स्टुपिडिटी.... डरा ही दिया था तुमने मुझे.. खौर तुम यहीं बैठो मैं मेस में जाती हूँ वहां से तुम्हारे लिए कुछ पैक करा लाती हूँ।तुम्हारी मजबूरी है तो इसीलिए मेस वाला स्टाफ मना नही करेगा..ओके ध्यान रखना अपना, आती हूँ अभी मैं। रश्मि मेस की तरफ चली जाती है और मैं कमरे में बैठी हुई फिर से सोच में पड़ जाती हूँ।

मैं - ये अमर ने कहा क्या? जब सारी बाते साफ साफ कह दी थी मैंने फिर भी?? किसी का हृदय तोड़ना अच्छी बात तो नही है।।मैं भी न किस सिचुएशन में पड़ गयी हूँ।न तो हां ही कहते बनता है और न तो ना ही कहना सही लगता है।न कहूंगी तो किसी का दिल टूटेगा।और हां कहा तो कहीं मैं अपने लिए ही गड्ढा न खोद लूं।माना कि अमर अच्छा है।सभ्य है, मुझे समझता है, मेरी परवाह करता है लेकिन मैं ...
मेरे लिये तो इन सब के बारे में सोचना भी दूभर है करना तो बहुत दूर रहा..! अब कुछ न कुछ तो कहना ही होगा वादा जो कर दिया.. बात सुन कर गुस्सा नहीं करूंगी!!

बहुत मुश्किल रहा था मेरे लिए अमर को जवाब देना.. कुछ देर बाद मैं ऑनलाइन आती हूँ तो देखती हूँ अमर के बहुत सारे मेसेज ,कुछ वौइस् कॉल,पड़ी हुई होती है।जिनमे सॉरी यार,कहाँ गयी,तुमने वादा किया था नाराज नही होगी, जो भी हो साफ साफ बोल दोगी।प्लीज़...निया..बात तो करो..., प्लीज़।।देखो तुम्हारे मन मे चाहे जो हो लेकिन दोस्त तो हम हमेशा रहेंगे।प्लीज़..।। नियति ...जवाब तो दो ...कुछ तो बोलो..!!

मैं ये सारे मेसेज पढ़कर अमर को रिप्लाय करती हूं

सॉरी अमर।।लेकिन मैंने अपनी तरफ से सारी बातें पहले ही क्लीयर कर दी थी। माना कि हम अच्छे नही बहुत अच्छे दोस्त है लेकिन फिर भी मैं नही एक्सेप्ट कर सकती।प्रेम एक भावना है और इस पर हमाई वश नही चलता अमर, तुम्हारी भावनाओं की मैं इज़्ज़त करती हूं लेकिन मैं नही कर सकती।।हम सिर्फ दोस्त ही बन सकते हैं उससे ज्यादा नही।सॉरी।।

अमर - थैंक गॉड।।कुछ बोली तो तुम।।बस इसीलिए नही कह रहा था तुमसे कुछ भी।मुझे स्वीकार है निया मैं आगे से कुछ भी नही कहूंगा इस बारे में।

शुक्रिया।।समझने के लिए।।और अब मैं तुमसे बाद में बात करती हूं।कह मैं ऑफलाइन हो जाती हूँ। रश्मि भी आ जाती है।साथ में टिफिन भी लगवा कर लाई होती है।खाने के बाद हम दोनों अपनी स्टडी में लग जाते हैं।

अगले दिन रविवार होता है।हम सब ने फतेहपुर सीकरी घूमने का प्लान बनाया होता है।सो इसके अकॉर्डिंग हम सभी दोस्त तैयार हो जाते हैं और तय जगह पर मिलते है।अमर नही पहुंचा होता है।अक्षत अमर को कॉल करता है..

अक्षत - कितनी देर में पहुंच रहे हो अमर!! हम सब तो पहुंच चुके है यहां सभी तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे हैं।

मैं बस कुछ ही देर में पहुंच रहा हूँ।वो मैं कुछ भूल गया था सो दोबारा उसे वापस लेने आना पड़ा।

अरे भूलने से याद आया तुम कैमरा तो ले आये हो अपना। भूल तो नही आया न।

अमर - वही लेने तो आया था दोबारा।
अक्षत -ओह।।चल आजा फिर !!

थोड़ी देर में अमर भी आ जाता है ।वहां से एक ऑटो बुक करते हैं।अक्षत राघव को भी बुला लेता है। सभी ऑटो में एडजस्ट हो बैठ जाते हैं और निकल पड़ते हैं ट्रिप के लिए।रास्ता लंबा होता है सो सभी अपने अपने किस्से बताने में मशगूल हो जाते है।पूरे ऑटो में केवल दो हो लोग खामोश रहते हैं एक मैं और एक राघव।।बाकी अमर अक्षत सुचिता आशीष सभी बातों में मशगूल होते हैं।मैं हमेशा की तरह बाहर के नजारे देखने मे व्यस्त होती हूं।हरे भरे दृश्य मेरे मन को सहज ही आकर्षित करते हैं।बीच बीच मे सब पर एक नज़र डाल और मुस्कुरा कर फिर से बाहर देखने लगती हूँ।

वहीं राघव न जाने अपनी कौन सी दुनिया के खोया हुआ होता है।कभी मुस्कुराता है कभी एक दम से खामोश हो जाता है।उसे देख कर सहज ही ते अंदाज़ा लग जाता है कि वो किसी के बारे में सोच रहा होगा।

खैर लगभग एक घंटे में हम सब बुलंद दरवाजा को क्रॉस कर फतेहपुर सीकरी में प्रवेश करते हैं।

निया ये वही दरवाजा है न जो सम्राट अकबर ने गुजरात विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था।शायद 17 वी शताब्दी के आरंभ में।अमर दरवाजे की ओर देखकर कहता है।

कल की घटना में बाद मैं अमर से थोड़ी सी दूरी बनाने लगी थी।जिस कारण उसके प्रश्न का मैं उत्तर नही देती हूं।बस हां हूं कह रश्मि से बतियाने में लग जाती हूँ।

रश्मि मुझे कुछ और इसके बारे में बताने के लिए कहती है।...ओके डियर..

मैं - ये बुलंद दरवाजा हिंदी फ़ारसी स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है।पूरे विश्व मे ये सबसे बड़ा दरवाजा है।कुछ सीढियां के ऊपर ये दरवाजा स्थित है।बादशाह अकबर ने इस दरवाजे का निर्माण गुजरात विजय के उपलक्ष्य में करवाया था।ये दरवाजा ५३ मीटर ऊंचा तथा 35 मीटर चौड़ा है।जिसे लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया है तथा ये जो बीच बीच मे सफेद से पत्थर है वो संगमरमर है।दरवाजे के आगे के हिस्से में और ये जो स्तम्भ है न इन पर कुरान की आयतें खुदी हुई है।

तो ये रहा इतिहास इस बुलंद दरवाजे का।अब और भी जानना है तो कहो वो भी बता दूं।क्योंकि मेरा तो काम ही यही है।इतिहास से अवगत कराना।कहते हुए मेरे चेहरे पर एक मुस्कुराहट आ जाती है और मैं बाकी सभी के साथ आगे बढ़ जाती हूँ।

अक्षत आशीष राघव अमर सुचिता, मैं और रश्मि सभी चारो ओर निहारते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।

कुछ आगे चल कर हम सभी थोड़ी देर सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं।सर्दियों की शुरुआत के दिन होते हैं।जिस कारण ऐसा लग रहा है जैसे मौसम भी हम सबका पूरी तरह साथ दे रहा हो।गुलाबी से दिन होने लगे है जिस कारण वो पहाड़ी क्षेत्र बहुत खूबसूरत प्रतीत हो रहा है।

सुचिता - गाइज़।।सभी बैठ गए ही है तो क्यों न कुछ सेल्फी हो जाये।अब इतनी दूर आये है तो कुछ यादें रखनी तो बनती है।सो पहले फ़ोटो खींचते हैं फिर सेल्फी सबकी एक साथ।

सुचिता की बात से सभी सहमत होते हैं।अमर सबकी पिक क्लिक करो न अपने कैमरे से।अमर जो सोच विचार में डूबा हुआ होता है सुचिता की बात सुन हड़बड़ा जाता है, और कहता है.. क्या.. मुझसे कुछ कहा किसी ने....।

हां।।अमर! और तुम्हारे हाव भाव देख कर लगता है की तुम अपने ही ख्याली पुलाव पकाने में मस्त थे। है न।

नही सुचिता वो तो बस ऐसे ही...थोड़ा सोच विचार में डूब गया था।चलो तुम सबकी फ़ोटो क्लिक करता हूँ।सभी बैठे हुए होते है और अमर सामने से थोड़ा पीछे कदम बढ़ाता है और बैठकर फोटोज क्लिक करता है।अरे तुम सभी ये रोनी सी सूरत क्यों बनाये हो।ऐसे फ़ोटो खिंचाओगे तो कभी न अच्छे आने फोटोज।सभी फ़ोटो सेशन में व्यस्त होते है कि मेरी नज़र सामने कुछ दूरी पर एकांत में बहस करते हुए कपल पर पड़ती है।जिन्हें देख ऐसा लग रहा था कि अभी कुछ देर और ये ऐसे ही लड़ते रहे तो कहीं एक दूजे का खून ही न कर दे।लड़की रोये जा रही होती है लेकिन कम वो भी नही पड़ रही।लड़के की बातों का जवाब बराबर दिए जा रही होती है।

मैं सबके बीच से उठ उन दोनों की तरफ चली जाती हूँ।लड़के की उम्र होगी यही कोई उन्नीस वर्ष।और लड़की की उम्र होगी अठारह वर्ष।।मैं उनकी बातों से उनके झगडा होने का कारण समझने की कोशिश करने लगती हूँ।कुछ क्षण सुनने के बाद पता चलता है लड़ने का एक छोटा सा रीजन है दोनो घूमने तो साथ आये हैं लेकिन व्यस्त दोनो फोन में हो जाते हैं।और एक दूसरे को टाइम देने की बजाय फोन को टाइम देने लगते हैं।और बहस इस बात पर होने लगती है शुरुआत तुमने की फोन चलाने की।उसमे व्यस्त होने की।तो मैंने भी वही किया।

उनकी बात सुन पहले तो मुझे हंसी आती है लेकिन खुद को संयत करते हुए मैं उन दोनों को रोकने की कोशिश करते हुए कहती हूँ।

आप दोनो ऐसे क्यों लड़ रहे हो।एक दूजे से प्रेम करते हो तो एक दूसरे की भावनाओ को सम्मान दो।न कि यूँ इस तरह सबके सामने लड़ झगड़कर अपने प्रेम का तमाशा बनाओ।जरा अपने आसपास देखो कितने लोग खड़े हो गए है।क्या एहसास है आपको इस बात का।

मेरी बात सुनकर वो दोनो खामोश हो जाते हैं और एक नज़र चारो ओर देखते है तो पाते है कि कुछ पर्यटक उनके आसपास ही खड़े हो उन दोनों की तरफ देख रहे हे।वो सॉरी कह उस समय तो वहां से निकल लेते हैं।लेकिन जब आस पास से लोग चले जाते है तब फिर वो वापस आते है और कहते है --

आपसे ये किसने कहा कि हम एक दूसरे से प्रेम करते हैं।हम दोस्त है सिर्फ और यहां घूमने आए हुए है।ऐवे ही किसी के बारे में ख्यालात बनाना अच्छी बात नही है।और न ही यूँ बीच मे कूदना कोई मैनर है।।हम चाहे झगड़े,लड़े,रूठे मनाये इससे आपको क्या??आप अपने काम से काम रखिये न।

अरे वाह!! उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।।आप दोनों चाहे दोस्त हो या लवर।।लड़ना झगड़ना,रूठना मनाना सब करो लेकिन अपनी प्रॉपर्टी पर।।यूँ पब्लिक प्लेस पर नही।पब्लिक प्लेस पर ये सब करोगे तो कोई न कोई बीच मे पड़ ही जायेगा।।उम्मीद करता हूँ बात समझ मे आ गयी होगी।अगर हां तो सॉरी कहो इन मैडम से और चलते बनो।अमर उन दोनो से कहता है।अमर को अपने लिए खड़ा होता देख न जा के क्यों मेरे मन को अच्छा लगता है।वो दोनों सॉरी कह चले जाते हैं।और मैं अमर को थैंक यू कहती हूँ।

नियति।।कोई बात नही है।चलो बाकी सब के पास चलते हैं और फ़ोटो सेशन का मज़ा लेते हैं।

क्या है ये!!मैं इतना रूड बिहेव कर रही हूं इसके साथ फिर भी ये मेरे लिए हमेशा खड़ा रहता है।कल से तो मैं इससे दूर दूर फिर रही हूं फिर भी मेरे लिए बोला ये।।सच मे कितना सोचता है मेरे लिए।।अमर के बारे में सोचते हुए मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है।मैं और अमर बाकी सभी के पास पहुंचते है।और ढेर सारे फ़ोटो खींच कर विशाल प्रांगण से आगे बढ़ते है।जहां हम सब पंच महल को देख आश्चर्य से कहते है कितनी सुंदर तरीके से नक्काशी की गई है इस पर।
इसे इस तरह क्यों बनवाया गया होगा पांच मंज़िले और एक के बाद एक का आकार छोटा होता गया है।।सुचिता अमर की तरफ देखते हुए कहती है।

हां सुचिता।इसे बादशाह अकबर ने अपनी बेगमो के लिए बनवाया था।जिसमें शाही बेगमो के मनोरंजन की सुविधा उपलब्ध थी।ये पूरी इमारत खम्भो पर ही स्थित है।इसमें लगभग 176 खंभे है।।

देखने मे भी खूबसूरत है।।कितना दिमाग लगाया होगा न कारीगरों ने।

हम्म दिमाग तो लगाया ही है तभी तो ये जगह इतनी खूबसूरत है।अक्षत सुचिता की बात का जवाब देते हुए कहता है।

**(इस नगर का निर्माण बादशाह अकबर ने शेख सलीम चिश्ती के सम्मान में 1572 - 1585 के बीच करवाया था।क्योंकि अकबर संतानहीन था और इन्ही शेख के आशीष से अकबर को संतान की प्रप्ति हुई थी।)**

इसके बाद हम सभी जोधाबाई महल की ओर गए जहां रास्ते मे कुछ और रोचक स्थल को देखा, जो बादशाह अकबर के समय मे विभिन्न नाम से फेमस थे..जिनमे ख्वाबगाह,अनूप तालाब, आबदार खाना, ज्योतिषी का कमरा, इबादत खाना आदि फेमस थे।कुछ और आगे चलने पर बीरबल का निवास स्थल, दिवान ए आम,दीवान ए खास, शेख सलीम चिश्ती का मकबरा,पचीसी दरबार आदि सभी घूमते है।हम सब शेख चिश्ती के मकबरे में गए और वहां सजदा कर नक्काशी दर खिड़कियों मे लाल धागा बांधने जाते है।आंखे बंद कर रब को याद कर हम सभी धागा बांध रहे होते है, तभी मुझे खिड़की के उस तरफ अपनी अंगुलियों मे एक अलग सा सुखद स्पर्श महसूस होता है जो शायद किसी की अंगुलियों के होते है।मैं उस तरफ देखने की कोशिश करती हूं, लेकिन धागों की वजह से मैं साफ साफ देख ही नही पाती हूँ।हम सभी थोड़ा आगे चल कर बैठ जाते है और बातें करने लगते हैं।समय की तरफ तो हम में से किसी का ध्यान ही नही गया होता है।शाम के चार बज रहे होते हैं।यानी वापस आने का समय हो गया होता है।

राघव - ये जगह वाकई में बेहद खूबसूरत है।अक्षत।।मैं तो इस जगह एक बार फिर से आना चाहूंगा।

अक्षत - क्या बात है यार।।ये तो कमाल हो गया आज।।ऐसी कोई जगह तो मिली जो तुझे पसंद आई घूमने के लिए।

राघव - हम्म सो तो है।

है गाइज़ हम सब को अब चलना चाहिए वापस।।रऔर कुछ देर यहां रुके तो निया और रश्मि को लेट हो जाना है फिर इन दोनो की डांट पड़नी तय है।अमर सबसे कहता है।सुचिता का अमर की ये बात सुनकर मुंह बन जाता है जिसे मैं देख लेती हूं।लेकिन कुछ कहती नही हूँ।हम सभी वहां से घर के लिए निकलते हैं।बाहर आते आते आधा घंटा हो जाता है।बाहर आने के बाद मेरी नज़र एक फ़ास्ट फ़ूड स्टॉल पर पड़ती है।।मैं रश्मि से कहती हूँ यार भूख तो बहुत लगी है पर पता नही बाकी सब को यूँ इस तरह कुछ खाना पीना पसंद होगा कि भी नही।

क्यों नही होगा।।आई थिंक एवरी बडी लविंग इट.
एक काम करते है पूछ लेते है सब से...

मैं और रश्मि आपस मे बातचीत कर ही रहे होते है की मेरी नज़र सामने उन्ही दोनो पर पड़ती है जो डरे सहमे चारो ओर देखते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़े सड़क के किनारे चल रहे थे।जरा सी गाड़ी रुकने की आवाज़ होती तो लड़की अपनी पकड़ थोड़ी और मजबूत कर देती।ये देख कर इतना तो समझ मे आ गया कि कुछ गड़बड़ है।मैं रश्मि से कहती हूँ रश्मि तुम सबको इसी स्टॉल पर रुकने के लिए कहो मैं अभी आती हूँ।।
मैं उन दोनों की तरफ बढ़ जाती हूँ अमर मुझे जाते हुए देखता है तो वो भी बाकी सबसे कह मेरे पीछे आ जाता है।मैं उन दोनों तक पहुंच भी नही पाती कि तभी दो गाड़ियों के रुकने की आवाज़े आती है साथ ही कुछ और आवाज़े भी सुनने में आती है वो रहे दोनो, गाड़ी रोको साइड में उठा लो दोनो को..सुबह से घुमा रहे हैं दोनो..रोको रोको..उठाओ दोनो को..

सारा वाक्या मेरी आँखों के सामने घटित हो रहा था मैं बुरी तरह घबरा गई थी ये दृश्य देखकर।

गाड़ी रुकी उसमे से कुछ लोग उतरे और दोनों को पकड़ कर गाड़ी के अंदर डाल लेते हैं।और वहां से चलते बनते हैं।

मैं ये देखकर अंदर तक डर जाती हूँ क्योंकि ऐसा कोई दृश्य आज पहली बार मेरे सामने घटित हुआ है।लेकिन इन सब मे मैं अपनी याददाश्त अच्छी होने के कारण गाड़ी के नंबर नोट कर लेती हूं।न जाने किसकी प्रेरणा से मैं तुरंत ऑटो पकड़ उनके पीछे चलने को कहती हूँ।अमर भी ये सब देख लेता है तथा ऑटो से मेरे पीछे लग जाता है।

वो गाड़ी में और मैं ऑटो में भला कैसे पीछा हो पाता।लेकिन ये माता रानी की ही मेहर थी कि कुछ किलोमीटर के बाद वो दोनों गाड़ियां मुझे सड़क के किनारे खड़ी दिखाई देती हैं।ऑटो रुकवा कर मैं गाड़ियों की तरफ लपकती हूँ.. लेकिन वो दोनों खाली होती हैं उनमें कोई नही होता है।

हे अम्बे मां गाड़ी का नबर तो यही है लेकिन इसमें बैठे लोग न जाने कहाँ गए।अब कहाँ ढूंढू उन दोनो को मैं।अम्बे मां बस उन दोनों को सुरक्षित रखना।दोनो हाथ जोड़ मन ही मन प्रार्थना कर मैं चारो ओर देखने लगती हूँ शायद कोई सुराग मिले कि वो यहीं कहीं है या कहीं और ले गए है।

चारो तरफ सड़क के किनारे पेड़ पौधे खड़े हुए हैं चूंकि अभी बारिश का सीजन निकल कर गया है जिस कारण झाड़ झंखाड़ भी काफी मात्रा में बढ़ गए है।सुनसान सी सड़के होती है खाली खाली सी।कभी कभी इक्का दुक्का वाहन निकल जाते हैं।न जाने ये कौन सी जगह है।इस वक्त मैं कहाँ हूँ मुझे कुछ समझ मे नही आ रहा था।उस पर शाम भी हो चली थी।।डूबते सूरज की लालिमा आसमान में दिखाई देने लगी।तभी मेरी नज़र सामने बने एक घर पर पड़ती है।ये सामने इस जगह पर न जाने किसका घर बना है।देखने मे तो पुराने खंडहर जैसा बिना मरम्मत का लग रहा है।कहीं उन दोनो को यहीं तो नही रखा गया।एक बार जाकर देख ही लेती हूं।सोचते हुए मैं उस घर की तरफ बढ़ जाती हूँ।वहीं पीछे से एक और ऑटो रुकता है जिसमे अमर होता है।मैं उस समय सड़क से थोड़ा दूर निकल आती हूँ।अमर दूर से ही मेरी तरफ देखता हुआ चला आता है।

माता रानी को मन ही याद कर मैं उस पुराने से घर के पास पहुंच जाती हूँ।और दबे पांव उसके चारों ओर ये सोच कर घूमने लगती हूँ।शायद अंदर झांकने के लिए कोई खिड़की दरवाजा दिख जाए तो पता लगा सकूँ कि अंदर कोई है भी या नही।

दूसरे तरफ मुड़ते हुए मुझे एक खिड़की दिखाई देती है जो खुली हुई होती है।वहां से मैं अंदर झांकने लगती हूँ।अंदर के नजारे देख मैं हैरान रह जाती हूँ। हैरान होने की बात ही थी बाहर से जो घर टूटा फूटा, मरम्मत चाहने वाला लग रहा था वो अंदर से उतना ही आलीशान था।लाइट,परदे, डेंटिंग पेंटिंग सब कुछ तो हो रखा था उस घर मे।ऐशो आराम की सारी चीज़ें मौजूद थी वहां। खिड़की के सामने ही ड्राइंग रूम टाइप हॉल था जिसमे बड़ा वाला टेलीविजन रखा था।एक तरफ बीच मे बड़ी सी कांच की टेबल रखी थी।काफी सजाया गया था उस घर को।जैसे कोई फंक्शन अरेंज किया जा रहा था वहां। काफी चहल पहल की आवाज़े आ रही थी वहां।तभी मेरी नज़र घर के दूसरे हिस्से में पड़ती है जहां वो दोनों हो बंधक बने हुए बैठे थे डर उन दोनों के चेहरों पर साफ नजर आ रहा था...

क्रमशः ...