पुस्तक-इदन्नमम
लेखिका-मैत्रेयी पुष्पा
बुंदेलखण्ड के वर्तमान समाज और संघर्ष की तस्वीर-इदन्नमम
मैत्रेयी पुष्पा हिन्दी कथा साहित्य में आंचलिकता की सोंधी सुगन्ध की सशक्त लेखिका हैं, उनके दो उपन्यासों और एक कथा संग्रह के बाद उनका नया बेहद सशक्त उपन्यास इदन्नमम पाठकों के समक्ष एक सुखद बयार की तरह आ उपस्थित हुआ है। उपन्यास का नाम रखस गया है -इदन्नमम ! इसके मूल की खोज में हम पाते है कि संस्कृत का सहीशब्द है-इदं न मम ! अर्थात यह मेरा नही। यही संस्कृत शब्द बुंदेली की बोलचाल की भाषा में इदन्नमम बन गया है जिसके बहुतेरे आशय है ,एक यह कि कथा की मन्दा कहती है कि यह सब मेरी वीरता नहीं इस देश की स्त्रीयों की वीरता है, दूसरा यह कि मैत्रैयी जी कहती है कि यह मेरा रचा हआ आख्यान नही , बुंदेली स्त्रीयों का सच्ची जीवन गाथा है।
मैत्रेयीजी की कथा रचनाएं बुंदेलखण्ड की धरती से गहरे तक जुड़ी होती है। बुन्देलखण्ड के ग्रामीणों का जीवन और उनकी सहज भावाभिव्यक्ति मैत्रेयी बिना परिश्रम के प्रस्तुत कर देती हैं। उनके साहित्य मंे समाज का बदलता हुआ परिवेश अपनी पूरी शक्ति के साथ आता है। कथा के सहज प्रवाह, पात्रों के चरित्र विकास और घटनाक्रमों के बीच, संवेदना, नेह और दिल की नाजुक भावनाओं की सरिता मंथर गति से प्रभावशील रहती हैं-प्रस्तुत उपन्यास लेखिका की इन्हीं सब विशेषताओं को एक साथ लेकर उपस्थित होता है।
मंदा नामक किशोरी अपने गांव और खानदान में चलती घात-प्रतिघात की वजह से सुरक्षा के नाते अपनी दादी के साथ अपना घर और गांव छोड़कर दादा के यहां शरण लेती है जहां कि उसे परिवार की तरह स्नेह और संरक्षण मिलता है। वहा दादा के परिवार के बच्चों के साथ घुलमिल कर बड़ी होती है, जहाँ की दादा के परिवार और गाँव की अनेक कहानियां व रस सिक्त प्रसंग, हँसी और दुख जीते जागते समाज की तरह उपन्यास में आते हैं। इस घर में दादा की लाड़ली होने के कारण अपनी विशिष्ट परिस्थिति के कारण मंदा में जब जबर्दस्त आत्मविश्वास, अभिव्यक्ति और प्रखर ज्ञान उत्पन्न होता है तो सामने आती है एक प्रेरणादायक दास्तान जिसका सार यह है कि एक सामान्य सी अल्प साक्षर युवती भी यदि चाहे तो जन जाग्रति और परिवर्तन के लिए क्या नहीं कर सकती? मंदा की इसी साहसी दास्तान को लेखिका ने उपन्यास इदन्नमम में शब्दबद्ध किया है। कोई भी जाग्रति, परिवर्तन तब तक पूर्ण नहीं होता, जब तक कि उससे आम आदमी नहीं जुड़ जाता, यह मान्यता भी इस उपन्यास की अनुभूत सच्चाई है। ष्
इस उपन्यास मंे समाज के जीते-जागते, बुन्देली भाषा बोलते और धक धक जिया धड़काते असंख्य पात्र अपनी पूरी जीवंतता के आते हैं जो बड़े विश्वसनीय और प्रभावशाली समाज रचते हैं जिनके साथ पाठक जल्दी ही जानपहचान और आत्मीयता बन जाती है । इस उपन्यास की दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा के लिए चिंतित दादा हैं, उनकी संगिनी कक्को है, सामान्य वेश मंे रहता डकैती छोड़ चुका सहृदय डाकू “डबल“ है, लालची गोविंद सिंह है, दरोगा बाप विक्रम हैं, पति के स्प़र्श को तरसती व सौत सहती कुसमा भाभी हैं, और उसके गुप्त प्रेमी दाऊजू हैं, निष्काम सेवक और समर्पित स्वजन गनपत कक्का है,ं श्यामाजी के चीफ साब हैं, मोदी जी हैं, निष्कपट सहेली सुगना हैं, गुप्तरोग झेलती अहिल्या हैं, उसकी माँ गनेशी हैं, और प्रेमी जगेसर (सुगना के पिता) है। मूक प्रेमी मकरंद है, गुरू जी के शिष्य शारंगदेव व भृगुदेव हैं, तथा आंदोलन के बाद साधु बने गुरूजी हैं। मंदा के लिए स्नेह का एक सागर बऊ हैं तो दूसरा समुद्र मंदा की माँ प्रेम है। अर्थात् हर पात्र अपनी पूरी जींवत अभिव्यक्ति के साथ इस उपन्यास मंे मौजूद हैं, जो जीवंत है। लिखने के टेबिल पर रचे गए काल्पनिक पात्र नहीं बल्कि जिन्हें बुंदेलखण्ड के हर गांव मंे देखा जा सकता है।
सोनपुरा के बहाने मैत्रेयी ने पूरे बंदेलखण्ड के समाजशास्त्र,संस्कृति व अर्थशास्त्र की कथा इस उपन्यास मंे सुनाई है। आज पूरा बुंदेलखण्ड गिट्टी के क्रेशरों की धडधडाहट से कंप रहा हैं, उसकी धूल से लोगों की जीवन शक्ति और खेतों की उर्वराशक्ति नष्ट हो रही है। गांव के पीड़ित लोग असंगठित, अशिक्षित हैं, उन्हें राजासाहब जैसे पूर्व सामंत और अभिलाख जैसे गुण्डे-व्यापारी ठेकेदार मिलकर चूस रहे है। जरूरत की अहम सुविधाओं से ग्रामवासी मोहताज है। ऐसे क्षेत्रों मंे कानून का नहीं, गुण्ड़ागिर्दी का बोलवाला हैं, और पुलिस उसके साथ है,ं बोली और उसकी लटक तो मैत्रेयी पुष्पा की खास धरोहर हैं, जिसे वे बड़ी कुशलता से अपने पात्रों के मुंह से झरने की तरह अनवरत बहाती रहती हैं।
इस उपन्यास और अनेक कहानियों के माध्यम से मैत्रैयीजी ने इस क्षेत्र के रीति-रिवाज, रहन-सहन और मुकम्मल भाषा को इस तरह चित्रित किया है कि पाठक को यह तक ज्ञान हो जाता है कि किस परिस्थिति मंे पात्र किन शब्दों का प्रयोग करेगा। बातचीत व भावों की सूक्ष्म कला की मैत्रेयी को अद्भूत जानकारी है।
यद्यपि कथा की कलात्मकता को लेकर मैत्रेयी पुश्पा की प्रस्तुति पर उंगली उठाई जा सकती है, क्योंकि इस उपन्यास के कई अंश पढकर लगता हैं कि वे अंश अभी प्रभावहीन व अनगढ हैं, बल्कि रचना का पहला ड्राफ्ट है। लेकिन शायद मैत्रेयी जी की प्रस्तुति का यही अनूठापन, अनगढ उसका प्रयत्न किया हैं पर सोनपुरा मंे रहकर संघर्ष मंे जुटी मंदाकिनी का जीवन ठहरा सा प्रतीत होता हैं, और इसमंे कोई रोचकता या औत्सुक्य सृजन नहीं होता। यहाँ पाठक थोड़ा बोरडम महसूस करता हैं कुछ पाठक नायिका की शुचिता समाप्त होने की भी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन पूरी शक्ति और आत्मविश्वास के साथ (किसी कुकर्मी) की गलती को खुद न भोगते हुए, मंदा का तनकर खड़ा हो जाना आज की सशक्त, जाग्रत और व्यावहारिक (प्रेक्टिकल) नारी का रूप उजागर करता हैं, जो सराहनीय हैं । मंदा की माँ प्रेम के साथ क्या त्रासदी घटी, यह संकेतों में तो आता है लेकिन इसका पूरा विवरण पाठक नहीं जान पाता, यह राज या रहस्य कभी नही खुल पाता यह कमी भी इस उपन्यास की एक सूक्ष्म कमजोरी है।
जिस आत्मविश्वास और बारीकी से लेखिका ने इस कथानक की शुरूआत, विकास, और चरणोत्कर्ष किया वह तारीफ के योग्य है। मंचीय भाषण, जुमलों और सैद्धांतिक क्रांति से दूर रहकर इस उपन्यास के पात्र व्यावहारिक रूप से क्रांति मंे जुटते हैं, चाहे उन्हें हानि ही क्यों न उठाना पड़ रही हो। यह क्रांति और आंदोलन का व्यावहारिक स्वरूप है। दादी, माँ और बेटी की तीन पीढियाँ अपने पूरे दम-खम के साथ उपन्यास मंे प्रकट होती है। हर पीढी पिछली का विरोध करती हैं, आचरण के तौर पर इस कारण यह कथा सचमुच संवेदनशील और सहज लगती है। मैत्रैयीजी से हिन्दी कथासाहित्य को बहुत आशाएं हैं।
पुस्तक-इदन्नमम
लेखिका-मैत्रेयी पुष्पा