Mission Sefer - 3 in Hindi Moral Stories by Ramakant Sharma books and stories PDF | मिशन सिफर - 3

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मिशन सिफर - 3

3.

वह जब भी नमाज के लिए मस्जिद में जाता उसकी आंखें जाने-अनजाने कादरी साहब को खोजने लगतीं, पर उस दिन के बाद वे वहां दिखाई नहीं दिए थे। रास्ते में आते-जाते भी उसकी निगाहें उन्हें तलाशतीं। कभी कोई उन जैसी कद-काठी का आदमी नजर आता तो वह उसका चेहरा देखने के लिए उसके पास से गुजरता, पर हमेशा ही उसे मायूसी हाथ लगती। उनसे बात करने के बाद से ही उसे लगने लगा था कि वे उसे सही रास्ता दिखा सकते हैं और उन लोगों तक पहुंचा सकते हैं जो उसके इंतिख़ाबात को अंजाम तक पहुंचा सकते हैं।

उस दिन जब नमाज के बाद वह मस्जिद से बाहर निकल रहा था तो किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और पूछा – “कैसे हो राशिद मियां?”

उसने तुरंत पलट कर देखा कादरी साहब ही थे। खुशी उसकी आंखों में तैर गई और उसने सलाम के लिए हाथ माथे तक ले जाते हुए कहा – “मैं ठीक हूं जनाब, आप कैसे हैं? उस दिन के बाद तो आप दिखाई ही नहीं दिए।“

“इसका मतलब आप मेरी मौजूदगी-गैर-मौजूदगी पर निगाहें रखते रहे हैं”- कादरी साहब ने हंसते हुए कहा।

“जी जनाब, पहली ही मुलाकात में लगा था कि अल्लाहताला ने आप जैसे मजहबी और वतन-परस्त शख्स से मेरी मुलाकात करा कर मुझ पर रहमत अता फरमाई है। वरना, कितने ही तो लोग आते हैं इस मस्जिद में, लेकिन उसने मुझे आपके पास खड़े होकर नमाज पढ़ने की इज्जत बख्शी और आपसे गुफ्तगू का मौका भी दिया।“

“क्या बात है बरखुरदार आप तो मेरी शान में कसीदे ही पढ़े जा रहे हैं। भाई मैं भी आपका जैसा मामूली इंसान हूं। चलो, कहीं बैठकर बात करते हैं।“

“यही ठीक रहेगा। इस इलाके में अल्लाबख्श की चाय की दुकान बड़ी मशहूर है। बैठने की जगह भी है वहां। आइये, वहीं चलते हैं।“

चाय का ऑर्डर देकर और वहां कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए कादरी साहब ने पूछा – “अब बताओ मियां, तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?”

“आपकी दुआ से ठीक ही चल रही है। अगले महीने फाइनल एक्ज़ाम हो जाएंगे, बस उसी की तैयारी में लगा हुआ हूं।“

“बेहतर है। वैसे जहीन हो, इंशाअल्लाह टॉप करोगे।“

“मेहनत तो जितनी हो सकती है कर ही रहा हूं, पर उससे ज्यादा आपकी दुआओं की जरूरत है।“

चाय आ गई थी। कादरी साहब ने कप उठाकर चाय की घूंट भरते हुए कहा – “इंजीनियरी के बाद क्या करने का इरादा है?”

“कोई अच्छी सी नौकरी करना चाहता हूं ताकि अब किसी पर भी और बोझ ना बनूं, बल्कि जिन्होंने अब तक मुझे सहारा दिया है, उनके लिए कुछ कर सकूं।“

“आप उस यतीमखाने की बात तो नहीं कर रहे राशिद, जहां परवरिश हुई है?”

राशिद एकदम चौंक गया था – “आपको कैसे पता चला कि मेरी परवरिश यतीमखाने में हुई है।“

“अरे भई, हमें तो उन वकील साहब का भी पता है जो आपकी इंजीनियरी की पढ़ाई का खर्चा उठा रहे हैं।“

राशिद लगभग उछल ही पड़ा था, उसके हाथ में पकड़े प्याले से चाय छलक कर उसके कुर्ते पर आ गिरी थी। उसने हाथ में पकड़ा कप मेज पर रखते हुए कादरी साहब को ध्यान से देखा और पूछा – “मेरे बारे में इतनी मालूमात आपको कहां से हुई हैं? कौन हैं आप?”

“परेशान होने की जरूरत नहीं है बरखुरदार। एक दिन यहां आया था, आपसे मिलने की तलब महसूस हुई तो इंजीनियरी कॉलेज चला गया था। बाहर ही कुछ लड़के मिल गए उनसे आपके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि इस समय आप लाइब्रेरी में होंगे। मैंने सोचा वहां जाकर आपसे मिलना आपकी पढ़ाई में दखल देना होगा, इसलिए मैंने मिलना मुल्तवी कर दिया। उन्हीं लड़कों से आपके बारे में ये बातें मालूम हुईं।“

“अफसोस हुआ, आप वहां तक आए थे और मुलाकात न हो सकी।“

“कोई बात नहीं, अब तो मिलना-जुलना लगा ही रहेगा। फिर कभी आ जाएंगे आपसे मिलने। ऐसी कोई जरूरी बात तो थी नहीं, बस इधर से निकल रहा था तो सोचा आपसे मिलता चलूं।“

“मुझे भी आपसे मिलना अच्छा लगेगा।“

“हां, हां, क्यों नहीं। पर, आपकी पढ़ाई भी जरूरी है। इंजीनियर बन जाइये आप, फिर फुरसत से बातें होंगी।“

“मैं तो कई बार यह सोचता हूं कि आप के जरिए मुझे उन लोगों तक पहुंचने का मौका मिलेगा जो मजहब और वतन के वास्ते अपना सबकुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। मैं तो चाहता हूं कि मेरी इंजीनियरी की पढ़ाई का इस्तेमाल वतन की तरक्की और इक़बाल के वास्ते हो।“

“आपका यह जज्वा देख कर सच मानो मेरा सीना चौड़ा हो जाता है। आप जैसे जोशीले और वतन-परस्त नौजवानों के होते यह एतमाद सुर्खरू हो जाता है कि पाकिस्तान की तरफ कोई टेढ़ी नजर से नहीं देख सकता। जीते रहो। अल्लाह तुम्हारी सारी मुरादें पूरी करे।“

वे दोनों जब रुखसत हुए तो राशिद के दिल में कई सवाल उठ रहे थे। कादरी साहब को उसके बारे में सबकुछ मालूम था। छोटी-छोटी दो-तीन मुलाकातों में ही वे उसके वुजूद पर छा गए थे। मस्जिद में और वह भी नमाज के वक्त उनसे अचानक मुलाकात का होना और उनसे मन ही मन में एक रिश्ता सा बन जाना शायद ऊपर वाले ने पहले से ही तय कर रखा था। कभी-कभी इस सब में उसे रहस्य सा नजर आता जो उसे कई तरह के सोच में उलझा देता, पर उसे यह सोच कर सुकून मिलता कि जो कुछ हो रहा है वह अल्लाह की मर्जी से ही हो रहा है और फिर वह ऐसे ख्यालों को अपने दिल पर हावी होने से बचा लेता।

इम्तहान सिर पर आ चुके थे। उसे हर हालत में अच्छे नंबरों से पास होना है, नहीं तो वह खुद को कभी माफ नहीं कर पाएगा और उसके ख्वाब जिंदा होने से पहले ही मर जाएंगे। उसने अपने लिए एक टाइम-टेबिल बना लिया था, उसी के हिसाब से सुबह से रात तक पढ़ने में मशगूल हो गया था। उसने हॉस्टल से बाहर जाना लगभग बंद कर दिया था, बहुत ही जरूरी कुछ होता तभी वह बाहर निकलता। टाइम-टेबिल के हिसाब से पढ़ाई करने में कोई खलल न पड़े यह सोच कर अब वह हॉस्टल के कमरे में ही मुसल्ला बिछा कर नमाज अदा कर लेता। इससे मस्जिद तक जाने-आने में लगने वाला समय बच जाता था और उसका ध्यान भी बंटने से बच जाता था।

जिस दिन इम्तहान शुरू होने वाले थे, उसके पहले वाले दिन फ़जर की और मगरिब की नमाज उसने मस्जिद में जाकर पढ़ना ही तय किया। अल्लाह के घर में उसकी बंदगी करके वह खुद को उसके हवाले छोड़ देना चाहता था। उसने हाथ उठाकर अल्लाह से दुआ मांगी थी कि उसके इम्तिहान अच्छे हो जाएं ताकि वह उन लोगों की कसौटी पर खुद को खरा साबित कर सके जिन्होंने उसकी काबिलियत पर भरोसा किया था और उसकी हर तरह से मदद की थी। फिर उसने आमीन कहा था और उसकी शान में सज़दा करके बाहर निकल आया था। मस्जिद से बाहर निकलते समय उसे कादरी साहब की याद हो आई। उसकी नजरें बेसाख्ता उन्हें ढ़ूंढ़ने लगी थीं। सुबह ही उसके इम्तहान का पहला पर्चा था, वह चाहता था कि अगर कादरी साहब जैसे अल्लाह के बंदे का हाथ उसके सिर पर रख जाए तो फिर कैसा भी इम्तहान हो, उसके लिए आसान बन जाएगा। पर, वे कहीं नजर नहीं आए। थोड़ा-बहुत इधर-उधर चहल-कदमी के बाद वह बिना और वक्त गंवाए हॉस्टल की तरफ निकल लिया।

हॉस्टल पहुंच कर उसने कल के पर्चे की तैयारी शुरू कर दी। उसमें वह इतना डूब गया कि उसे वक्त का कोई होश न रहा। जब उसे होश आया, मैस बंद होने का समय हो चला था। वह भागा-भागा मैस में पहुंचा और जो कुछ बचा-खुचा खाने को मिला, वह खाकर तुरंत ही लौट आया और सुबह जल्दी उठने के लिए सोने की तैयारी करने लगा। उसने देखा, उसका रूममेट इकबाल अभी तक नहीं लौटा था। वह सुबह ही अपने कई साथियों के साथ ग्रुप में पढ़ाई करने के लिए निकल गया था। उसने सोचा, पता नहीं लोग ग्रुप में कैसे पढ़ाई कर लेते हैं, पढ़ाई के बीच बातचीत में कितना ही तो वक्त जाया होता होगा। खैर उसे क्या, जिसमें जिसको सहूलियत हो, वो वैसा करे। उसने सुबह पांच बजे का अलार्म सेट किया और बिस्तर में घुस गया।

राशिद के इम्तहान शुरू हो चुके थे। वह सबकुछ भूल चुका था। इम्तहान के वे पन्द्रह दिन कब निकल गए पता ही नहीं चला। आखिरी पर्चा देकर जब वह हॉस्टल लौटा तो उसे ऐसा लग रहा था जैसे सिर से मनों बोझ उतर गया हो। इस अहसास के साथ-साथ उसे खुशी का भी अहसास था क्योंकि उसके सारे पर्चे बहुत अच्छे गए थे। उसे पता था, वह अच्छे नंबरों से पास होगा और सभी की उम्मीदों पर खरा उतरेगा।

चंद दिनों में ही उसे हॉस्टल छोड़कर चले जाना था। हॉस्टल ही उसका घर बन गया था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अब कहां जाएगा और वकील जावेद साहब जो अब तक का उसका खर्चा चला रहे थे, आगे भी उसका खर्चा चलाएंगे या फिर उसे कोई और इंतजाम करना होगा। इम्तहान का बोझ सिर से उतर चुका था, पर अब इस चिंता का बोझ उस पर हावी हो चुका था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। वकील जावेद साहब से इस बाबत बात करना उसके अहसासे-कमतरी को और बढ़ा देता। उसने सोचा, क्या उसे रिजल्ट आने और नौकरी मिलने तक फिर से यतीमखाने चला जाना चाहिए। यतीमखाने की बदौलत ही आज वह अपने पैरों पर खड़ा होने की सोच सकता था, पर कब तक उन पर बोझ बने रहना होगा। उन्होंने उसके लिए जो कुछ किया, उसे तो वह ताजिंदगी नहीं भूल पाएगा। इंजीनियरी का रिजल्ट आते ही उसे कहीं ना कहीं नौकरी करनी होगी और यतीमखाने से मदद मांगने के बजाय उसकी मदद के लिए अपनी हैसियत के मुताबिक कुछ ना कुछ करना होगा। यही सब सोच कर उसे यतीमखाने पर अपना बोझ डालना मुनासिब नहीं लग रहा था।

हॉस्टल खाली करने के लिए उसे नोटिस मिल चुका था और बस तीन दिन बाद ही उसे उस समस्या से दो-चार होना था जिसके बारे में सोच कर ही उसके बदन में झुरझुरी आ जाती थी। वह इसी फिक्र में था कि तभी उसके दिल से आवाज आई – अल्लाह पर भरोसा छोड़ दिया है क्या राशिद? जिसने आज तक का सफर तय कराया है, उसी मालिक ने आगे के लिए भी कुछ सोच रखा होगा। इन्हीं ख्यालों में उलझा वह मस्जिद की तरफ निकल गया। नमाज-ए-जुहर का वक्त भी हो रहा था।

वह मस्जिद के पास पहुंचा ही था कि उसे कादरी साहब नजर आ गए। वह तेजी से उनके पास पहुंचा और बोला – “जनाब आप? इस वक्त आपके यहां होने की बिलकुल उम्मीद नहीं थी।“

“ये जनाब, जनाब क्या लगा रखी है, आप मुझे कादरी भाई कह सकते हैं।“

“जी...कादरी भाई..।“

“हां, यह हुई ना बात, मैं भी आपको अब राशिद भाई कह कर ही पुकारा करूंगा। कोई ऐतराज तो नहीं है?”

“कैसी बातें कर रहे हैं कादरी भाई? बहुत छोटा हूं आपसे, आप जैसे भी पुकारेंगे, उसमें मेरे लिए मोहब्बत ही भरी होगी।“

“वो तो है.....। आज मैंने भी नहीं सोचा था कि इस वक्त आप यहां मिल जाएंगे क्योंकि आपके तो इम्तहान चल रहे हैं ना?”

“इम्तहान खत्म हुए तो पूरा हफ्ता गुजर चुका है। अब तो हॉस्टल छोड़ने का भी वक्त आ गया है।“

“अरे, फिर कहां जाएंगे?”

“यही सोच रहा हूं.....शायद यतीमखाने....। रिजल्ट आने तक और कहीं मुलाजमत करने तक वहीं रहने देने के लिए अर्ज करूंगा उनसे।“

“चलो, पहले नमाज पढ़ लेते हैं, उसके बाद कहीं बैठ कर इत्मीनान से बात करेंगे।“

“जी, बेहतर है।“

नमाज़ पढ़ने के बाद मस्जिद से दोनों साथ ही बाहर निकले। तय हुआ कि अल्लाबख्श के उसी चायखाने में चाय पीते हुए गुफ्तगू की जाए।

उस दिन वाली कोने की बेंच खाली थी। चाय का ऑर्डर देकर वे दोनों वहां जाकर बैठ गए। अपने रूमाल से बेंच झाड़कर उस पर बैठते हुए कादरी भाई ने कहा – “राशिद भाई अब बताओ, क्या कह रहे थे?”

“कुछ नहीं, इम्तहान के रिजल्ट आने तक.......।“

“हां, हां, मुझे याद आया, तब तक आप यतीमखाने तशरीफ ले जाने की बात कर रहे थे।“

“जी हां, और कोई चारा भी तो नहीं है मेरे पास।“

“क्यों खुद को बेचारा कह रहे हो। अल्लाहताला तो इस दुनिया में छोटे-मोटे जानवरों और परिंदों तक के रहने-खाने का इंतजाम किए हुए है। इंशाअल्लाह कुछ ना कुछ जरूर हो जाएगा।“ फिर वे अपनी दाढ़ी में हाथ फिराते हुए और सोचते हुए बोले – “देखो, राशिद भाई वक्ती तौर पर तो आपके रहने-खाने का इंतजाम हो गया समझो।“

“सच... कहां...कैसे?”

“अरे, इतने उतावले मत बनिए। हमने कह दिया तो समझो हो गया।“

“फिर भी ...।“

“उस इदारे के बारे में बताया था ना आपको जहां वतन-परस्त मजहबी नौजवान इकट्ठा होते हैं और पाकिस्तान के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए नए ख्यालों के साथ खुद को तैयार करते हैं।“

“जी हां..... ।“

“वही इदारा आप जैसी सोच रखने वाले मज़हबी जोशीले नौजवानों के लिए हॉस्टल चलाता है। आप वहीं रह भी सकते हैं और अपनी वह मुराद भी पूरी कर सकते हैं जिसके लिए आपने अपनी तैयारी दिखाई थी।“

“यह तो बहुत बेहतर होगा कादरी भाई, पर आपको तो पता है, सारी जेबें खाली हैं मेरी।“

“पता है मुझे.... पर आपको यह पता नहीं है कि मैं वहां का ट्रस्टी हूं। आपके रहने-खाने का मुफ्त इंतजाम हो जाएगा वहां।“

“आपने पहले तो कभी यह ट्रस्टी वाली बात नहीं बताई।“

“मौका ही कब मिला बरखुरदार आपसे तफसील से बात करने का? अब यह बताइये आपको आम खाने हैं या पेड़ गिनने हैं।“ यह कहकर वे जोर से हंस पड़े।

“नहीं....यह तो मेरे ऊपर आपकी बहुत बड़ी मेहरबानी हो जाएगी। मैं जिंदगी भर आपका एहसान नहीं भूलूंगा, कादरी भाई।“

“क्या बात कर रहे हो भाईजान? कादरी कौन है कुछ करने वाला, उस मालिक की रजा के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।“

इतनी बड़ी समस्या का इतना आसान हल होते देख राशिद की आंखों में पानी भर आया था। बेसाख्ता उसकी नजरें और हाथ आसमान की ओर उठ गए थे और होंठों पर उसकी शान में कलमा और दुआएं थरथराने लगे थे।

इस बीच कादरी भाई ने अपना मोबाइल फोन निकाल कर किसी को फोन लगा दिया था। क्या बात हो रही थी यह राशिद सुन नहीं पा रहा था क्योंकि वे “अस्सलाम वालेकुम नसीम भाई” कहने के साथ ही मोबाइल फोन लेकर थोड़ी दूर जा खड़े हुए थे। वे करीब पांच-सात मिनट फोन पर बात करते रहे। बात करते हुए वे काफी संजीदा नजर आ रहे थे। किसी को कुछ समझाने की कोशिश कर रहे थे। पता नहीं, वे नसीम भाई कौन थे, जिनसे वे बातें करते जा रहे थे और बीच-बीच में राशिद की तरफ भी देखते भी जा रहे थे। इससे राशिद को यह तो अंदाजा हो गया था कि वे उसी के बारे में नसीम भाई नाम के उस शख्स से बातें कर रहे थे। वह चुपचाप बैठा उनके फोन पर बात खत्म होने का इंतजार करता रहा। बोरियत मिटाने के लिए वह चायखाने से निकल कर आसपास का एक चक्कर लगाने के लिए उठने की सोच ही रहा था कि तभी कादरी भाई मोबाइल पर बातचीत बंद करके उसके पास आए और बोले – “राशिद भाई, अच्छी खबर है। मैंने वहां उस हॉस्टल में बात कर ली है। आपके बारे में उहें सबकुछ बता दिया है। वे आपके जैसे जहीन, मज़हबी और वतन-परस्त नौजवान को हॉस्टल में बिना किसी फीस के रखने को तैयार हो गए हैं। दोनों वक्त का खाना, चाय नाश्ता सबकुछ भी मिलेगा और उसके लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ेगा। बस, आपको वहां के नियम-कायदे मानने होंगे।“

अल्लाह की इस मेहरबानी पर राशिद की आंखों में पानी तैर आया था। उसने लगभग कांपती आवाज में कहा था – “कादरी भाई, ये जो आप मेरे लिए इतना सबकुछ कर रहे हो, उसके लिए किन लफ्जों में शुक्रिया अदा करूं। आप जैसी दयानतदार शख्सियत से अल्लाहताला ने मुलाकात कराई, यह मेरे लिए बहुत अहम है।“

“जाने दो राशिद भाई। कुरान शरीफ ने हमें इंसानियत का पैगाम दिया है। इंसान ही इंसान के काम आता है। और फिर मैं यह सब आपके लिए यूं ही नहीं कर रहा हूं। भाई इससे मेरा मतलब भी सध रहा है।“

“मैं समझा नहीं कादरी भाई? मुझ यतीम और बेसहारा गरीब लड़के से आपका क्या मतलब सध सकता है।“

“इसमें समझने की कोई खास बड़ी बात नहीं है। हर आदमी चाहता है कि वह जिस शख्स को अपना अजीज़ समझता है, उसकी मुश्किलें आसान कर दे। आप मेरे अजीज़ हो राशिद भाई, आपकी मुश्किलात दूर करने के लिए अगर मैं कुछ मदद कर सकता हूं तो उसमें मुझे सुकून मिलेगा या नहीं?”

राशिद ने अपनी जगह से उठ कर उनके हाथ चूम लिये थे। फिर तय यह रहा कि अगले ही दिन सुबह दस बजे के आसपास वे उसे अपने साथ लिवा ले जाने के लिए उसके हॉस्टल आएंगे, वह मेनगेट पर उनका इंतजार करेगा।

राशिद सोच रहा था, कादरी भाई जैसे आदमी से मिला कर खुदा ने उसे यतीम बनाने की अपनी गलती सुधार ली थी। उसे लग रहा था, अब वह यतीम नहीं है। कोई है जो उसे अपना अजीज़ समझता है और उसकी मुश्किलात आसान करने के लिए तैयार रहता है। कादरी भाई की शक्ल में उसे एक सरपरस्त मिल गया था, जिसकी सरपरस्ती में वह खुद को महफूज़ समझ सकता था।