कामनाओं के नशेमन
हुस्न तबस्सुम निहाँ
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जिसके पास कुछ याद रखने के लायक कोई अतीत ही न हो और वर्तमान भी सुलगता सा हो तो भविष्य ही बचता है जिस पर मन के पांव रख कर धीरे-धीरे चला जा सकता है और यदि पूरा का पूरा भविष्य भी किसी अंजान अंधेरे में गुम होने लगे तो वे मन के पांव भी चलने से इंकार कर देते हैं। शायद ऐसे ही भावों से ग्रस्त रजिया बेग़म इतनी रात बीत जाने के बाद भी जागती रही हैं। न जाने कहाँ व्यर्थ ही उनका मन भटक रहा था। तभी उन्हें लगा कि कमरे में कोई आया है। वे चुपचाप आहट से अंदाजा लेती रहीं। कमरे में पूरी तरह अंधेरा था। वह छाया उनके बेड के पास तक आ गई। उन्होंने उठते हुए थोड़ी तेज आवाज़ में पूछा-
‘‘कौन..?‘‘
‘‘मैं हूँ...अमल।‘’ अमल ने एक फुसफुसाती आवाज में कहा। ‘‘ठंड बढ़ गई है। आपको कंबल देना भूल गया था। वही लेकर आया हूँ‘‘
‘‘अरे...तुम...‘‘ रजिया बेगम ने हँस कर कहा- ‘‘ठंडक लगती तो मैं जगा कर कंबल मांग न लेती।‘‘ आगे बोलीं- ‘‘नींद नहीं आई क्या? बेला भी जाग रही है?‘‘
‘‘बेला हमेशा ही पूरी-पूरी रात जागती रहती थी। अब उसे नींद की गोलियां देता हूँ...वह सो रही है।‘‘ अमल ने एक अव्यक्त भाव से बताया। अमल उनके पास बेड पर कंबल रखते हुए बोले- ‘‘शायद आपको भी नींद नहीं आ रही।‘‘
‘‘मुझे नींद आने और जागते रहने में कोई फर्क नहीं पड़ता।‘‘ रजिया ने एक खनक भरी हँसी के साथ कहा- ‘‘न कोई सपने हैं और न कोई जीने का खास मक़सद।...बस इस जिंदगी को भी एक तरन्नुम की तरह गाए जा रही हूँ। वैसे तुम्हारे पास बहुत बड़ा भविष्य है। मैं जबसे आई हूँ तुम्हें जिंदगी से बेजार देख रही हूँ। एक तनाव में देख रही हूँ।...शायद बेला को लेकर।‘‘
‘‘मैं अपने भविष्य को अच्छी तरह पहचानता हूँ लेकिन उसे मुटिठयों में गींजता रहता हूँ।..एक बेकार कागज की तरह।‘‘ अमल ने कहा। रजिया बेग़म ने बड़ी आत्मीयता से कहा- ‘‘बैठो थोड़ी देर मेरे पास। जितने पल भी सुकून के मिल जाए वो बड़े कीमती होते हैं।‘‘
अमल उनके बेड पर बैठ गए। इस एकांत की निकटता न जाने क्यों अभी अमल को अंदर से कहीं चुपचाप सिहरा गई थी। रजिया बेग़म भी शायद अपनी औरत की मन की आँखों से अमन के उस पुरूषत्व को महसूस करने लगी थीं। वह थोड़ा खुद को सहेजते बोलीं- ‘‘मैं तुम्हारे दर्द को बड़ी गहराई से महसूस कर रही हूँ। तुम मुझे उस प्यासे शख्स की तरह लग रहे हो जो एक मनचाहे लेकिन सूखे कुंए के पास रहने के लिए मजबूर हो। न तो तुम प्यास ही अपने से अलग कर सकते हो और न तो उस सूखे कुंए की जगत से हट सकते हो।...।‘‘
‘‘मैं बेला को बहुत प्यार करता हूँ। मेरा मन उससे इस कदर सन गया है कि एक पल भी उसके बगैर बहुत ही खाली-खाली लगता है। लेकिन मेरे पास अपने मन के अलावा भी तो और कुछ है...कुछ और भी तो प्यास है।‘‘
क्षणों तक रजिया बेग़म एक अर्थ को जैसे उबालती रहीं चुपचाप। शायद अमल के पुरूष की प्यास अभी इन क्षणों में सुलगने लगी थी। उसकी आंच पूरे कमरे में जैसे फैलने लगी थी। रजिया बेग़म को अभी अमल के अंदर का पुरूष जैसे हाथ से बेहाथ होता महसूस हुआ है। वह खुद को अंदर से कुछ मजबूत करने का प्रयास करने लगी थीं। कुछ बोल नहीं पा रही थीं सिवा अमल के अंदर बैठे एक प्यासे से पुरूष का आभाष करने के। तभी अमल लरजती आवाज में बोले- ‘‘अभी रात में जब बेला ने आपको चूमने के लिए बुलाया था तो आपने कहा था मैं तरस गई थी कि कोई मुझे प्यार से चूमे।...आपकी ये बात अब तक मन में घुमड़ रही है...‘‘
‘‘मैं अपने को उस प्यास की आदी बनाने के लिए मजबूर हुई हूँ। और मेरी वह मजबूरी ही मेरी बहुत प्यारी चीज है...‘‘ रजिया बेगम ने कुछ ठोस सी आवाज में कहा- ‘‘मेरी उस प्यास में बहुत वजन नहीं है। फूलों जैसा ही वजन है उसमें। उसे ढोना अच्छा लगता है। तुम भी मेरी तरह क्यों नहीं ढोते बहुत अच्छा लगेगा..।‘‘
‘‘नो..‘‘ अमल ने एक पुरूषवत आवाज में कहा- ‘‘मैं अपने को इस तरह मार नहीं पाऊँगा। मैं बंट गया हूँ...मन से और तन से..‘‘ इतना कह कर अमल उनके चेहरे पर किसी विवेकहीन पुरूष की तरह झुक गये थे और धीरे से बोले-‘‘आप मेरे लिए बहुत ही सम्मानित हैं या फिर हम उम्र हैं मैं इसकी पहचान खोता जा रहा हूँ। आप इस वक्त सिर्फ एक औरत हैं जिसने कभी किसी पुरूष का सुख जाना नहीं। ‘‘
रजिया बेग़म उसके चेहरे को हाथों से परे करते एक सहमती आवाज में बोलीं- ‘‘अमल, तुमने शायद मुझे एकदम से मुजरे वाली ही औरत समझ लिया है। तुम्हारे लिए मेरे दिल में बहुत हमदर्दी हैं लेकिन ऐसा नहीं हैं...‘‘
‘‘मुझे रोकिए मत...‘‘ अमल ने किसी बच्चे की तरह गिड़गिड़ा कर कांपती आवाज में कहा- ‘‘मैं अपने पूरे उन्माद में हूँ।...अभी आपके चिल्लाने से लोग जाग जाएंगे तो मेरे पास अत्महत्या करने के सिवा कोई विकल्प न बचेगा।‘‘
रजिया बेग़म शायद अंदर से अमल की आत्महत्या वाली बात से कांप सी गयीं। उनके अंदर फूटते विरोध के सारे स्वर जैसे चटख कर अंदर ही बिखर गए। वे जड़ की तरह अमल के गर्म से चेहरे की ताप को जैसे निहायत मजबूरी में सहने को बाध्य हुई हैं। इस क्षण उस हल्के से अंधेरे में सिर्फ एक स्त्री और पुरूष होने का एहसास ही बाकी रह गया था। सारे शब्द चुक से गए थे। सिर्फ प्यास की ही एक अजीब सी तप्त ख़ामोशी बची रह गयी थी।
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अलस्सुबह ही अमल की आँख खुल गई। देखा बाजू में अभी भी बेला पूरी तरह नींद में ही थी। जहाँ रजिया बेगम सोई थीं वहाँ भी एक पूरी ख़ामोशी थी। उन्होने अंदाजा लगाया कि वह भी शायद सो रही हैं। कल रात जो कुछ उनसे रजिया के साथ हुआ उसे लेकर न तो उनका मन ग्लानि से भरा हुआ था और न तो अपने पुरूष को अपराधी होने से बचा पा रहे थे। फिर वह उठ कर किचेन की तरफ केशव नाथ जी के लिए चाय बनाने चले गए। चाय बना कर जब वह केशव नाथ जी के कमरे की ओर चाय लेकर गए तो दरवाजे पर ही ठिठक गए। की-होल से झांक के देखा तो सन्न रह गए। उनका बदन पूरी तरह कांप गया। भीतर जैसे भूकंप सा आ गया। विस्फारित नेत्रों से वह जड़ से भीतर झांकते रह गये।
रजिया बेग़म केशव नाथ जी के कंधे पर झुकीं हुई कह रही थीं- ‘‘मैं अमल को कल रात एक बेटे से ज्यादह कहीं एक भूखा-प्यासा औरत की तलब लिए हुए एक मर्द ही महसूस कर रही थी।....मैं रोक नहीं पायी उसे।...यह सारा कुछ मैंने आपके लिए सहेज कर रखा था। मैं आपकी जिंदगी में न आ पायी, अमल की माँ आ गई।...यह सारा कुछ आपसे ही पाना चाहा था। आपकी याद लिए मैं ढाका से वापस आ कर आपकी लय में गाने लगी थी। लेकिन उस दिन जब यहाँ आई आपके यहाँ का मंजर देखा तो सोचा यहीं रह कर आपकी खिदमत करूंगी, इस घर की खिदमत करूंगी।...लेकिन वह सपना, सपना ही रह गया। मैं अब यहाँ नहीं रह पाऊँगी।‘‘ केशव नाथ जी ने एक जड़ता लिए हुए पूछा- ‘‘कहाँ जाओगी।‘‘
‘‘मुंबई में तो कहीं नहीं रहूँगी। जब अमल मेरे सामने पड़ेगा तो उसे झेल नहीं पाऊँगी।‘‘ रजिया बेग़म ने एक गहरी सांस खींच कर कहा- ‘‘मैं ढाका वापस चली जाऊँगी।...जहाँ आपसे पहली बार मिली थी। लेकिन जाने से पहले मैं आपसे यह वादा लेकर जाऊँगी...आप कभी भी अमल को यह एहसास न होने दीजिएगा कि उससे मेरे लिए कुछ गलत हुआ है।....एक बेटे ने चाहा मैंने दे दिया। इसका मलाल जरा भी मेरे मन में नहीं है। न तो कोई गुनाह या जुर्म जेसा एहसास है।‘‘
अमल के पांव ये सब सुन कर कांपने लगे थे। उसका पूरा वजूद ही जैसे इस पल नकार उठा था उसे। वह उल्टे पांव वापस आकर बेला के पास कुर्सी पर निढाल सा ढह गया। रजिया बंग़म उसकी प्यास से कहीं ज्यादह एक बहुत बड़ी महिला महसूस हुई थीं इस क्षण। तभी रजिया बेग़म पता नहीं कब उसके पीछे आकर खड़ी हो गईं और उसके बालों को एक नेह से सहलाती हुई बोलीं- ‘‘अरे..., तुम चाय बना कर भी ले आए और चुपचाप यहाँ बैठे भी हो।‘‘
अमल ने मुड़ कर उनकी ओर देखा। कहीं कुछ नहीं था उनके चेहरे पर। वे बहुत ही सहज भाव में सारा कुछ पी गई थीं। बस मुस्कुराए जा रही थीं। शायद उसे यही एहसास दिलाने के लिए कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं जिससे किसी भयावह स्थिति में डूबा जाए।‘‘
अमल ने जैसे बहुत कुछ भीतर समेटते हुए हँस कर पूछा- ‘‘अभी मेरा मन हुआ कि आप सबको अपने हाथ की बनायी चाय पिला दूं।‘‘ फिर बहुत सहज भाव से कहा- ‘‘पता नहीं बाबू जी जागे कि नहीं।‘‘
वे सहसा चुप सी हो गयीं फिर बहुत ही सहजता से बोलीं- ‘‘जाकर उनके कमरे में देखो कि जागे कि नहीं। मैं बेला को जगाती हूँ और ब्रश करवाती हूँ...‘‘
अमल चुपचाप उन्हें निहारते हुए कमरे की तरफ चले गए।
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सभी चाय पी रहे रहे थे तभी रजिया बेग़म जैसे चेहरे पर बिना कोई भाव लाए बोलीं- ‘‘आज मैं ढाका जा रही हूँ।...तुम लोगों को छोड़ने का मन तो नहीं है लेकिन सोचती हूँ यहाँ भी कितने दिनों तक रहूँगी। वापस तो जाना ही होगा।‘‘
अमल ने केशव नाथ जी के चेहरे की ओर देखा। वे बिल्कुल जड़ से बने बैठे सब सुनते बैठे रहे। उनके थके से कंधे के टिकने के लिए जो एक ललक उनकी आँखों मे थी वह लुप्त सी लगी है। वे ज्यादह थके से महसूस कर रहे थे। रजिया बेग़म की जाने वाली बात पर न तो केशव नाथ जी ही कुछ बोल पाए थे और न तो अमल के अंदर ही साहस बचा था कि उन्हें रूकने के लिए कुछ कह सके।
तभी बेला ने बहुत ही व्यथित भाव से कहा- ‘‘आपका जाना अच्छा नहीं लगेगा। कुछ ही दिनों में यह नहीं लगा कि आप एक मेहमान हैं। इस घर की आत्मा से आप पूरी तरह जुड़ गई थीं।‘‘ फिर बेला ने थोड़ा रूकते हुए कहा- ‘‘वैसे मैं आपको रोकूंगी नहीं।...क्या मिलेगा आपको यहाँ सिर्फ दो रोटी के सिवा। सब तो अपनी-अपनी जगह टूटे हुए हैं। आप यहाँ रह कर सारा कुछ क्यों झेलें।‘‘
रजिया बेग़म जैसे कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उनके अंदर से शब्द फूट ही नहीं रहे थे। वे बिना किसी की ओर देखे बेला के गालों को थपथपाती हुई मुसकुराती हुई बोली थीं- ‘‘...मैं जरूर आऊँगी उस दिन...जब अमल अमेरिका से वापस हिंदुस्तान आएंगे और उनकी शोहरत अखबारों में पढ़ूंगी।‘‘ तभी बेला ने कुछ सोच कर कहा- ‘‘आप एक बार पुरानी मुंबई जा कर देख लें शायद वहाँ आपका कुछ बचा रह गया हो।‘‘
‘‘मैंने अब यह मान लिया कि अब मेरे पास कुछ भी कीमती नहीं बचा रह गया है। यह सोचने से मन को राहत मिलेगी।‘‘ रजिया बेग़म ने हँसकर कहा- ‘‘अब तो बस ढाका जा कर ये सोचूंगी कि मुझे क्या बचाना रह गया है।...यादें...या फिर टूटी हुई जिंदगी की किरचियों को ही बचाने की कोशिश करूंगी।‘‘
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अकेले अमल ही उन्हें सीएसटी छोड़ने गए थे। केशव नाथ जी नहीं आए। रजिया बेग़म इतनी देर में सिर्फ उनसे अमेरिका जाने की बात ही कहे जा रही थीं। रात वाली बात से जैसे दोनों ही अपनी-अपनी जगह कटते रहे। उस संदर्भ का एहसास भी नहीं बन पाया न तो चेहरों से और न तो शब्दों से ही। जब ट्रेन छूटने लगी तो अमल जैसे अपने आपको रोक नही पाए और कांपती आवाज में रजिया बेग़म की अंगुलियों को अपनी मुट्ठियों में भरते बोले-‘‘...एक माँ की तरह मेरे सारे गुनाहों को माफ कर दीजिएगा। इसके अलावा मेरे पास कहने के लिए बचा ही क्या है।‘‘ रजिया बेग़म की आँखों में एक अजीब तरलता भर आई थी। वे इस क्षण अमल के मुँह से माँ शब्द निकलने से थोड़ा चौंकी थीं। वह पलों तक अमल का चेहरा निहारती रहीं। फिर बोली थीं- ‘‘तूने कोई गुनाह नहीं किया।...उन लम्हों में मैं केवल एक औरत थी और तुम एक बहुत प्यासे मर्द।...वैसे, तुम्हें बाद में यह कहाँ से महसूस हुआ कि मैं तुम्हारी माँ के रिश्ते के लायक हूँ, खैर बस इतना करना कि अपने बाबू जी का बहुत ख्याल रखना। मैं हमेशा याद आऊँगी तुम्हें जब तुम अपने बाबू जी की खिदमत करोगे जिसके लिए मैं पूरी जिंदगी तरसती रही..‘‘
ट्रेन छूट गई थी। अमल काफी देर तक प्लेटफार्म पर वैसे ही चुके से खड़े रह गए। जाने कैसा-कैसा लगता है, मन को जब मालूम हो कि जाने वाला अब शायद कभी न लौट कर वापस न आएगा। वह हमेशा के लिए गुम होने जा रहा है। शायद इसी एहसास से अमल चुपचाप देर तक जड़ से प्लेटफार्म पर खड़े रह गए थे बहुत देर तक।
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अभी जब अमल स्टेशन से वापस लौटे तो केशव नाथ जी बेला के पास बैठे थे। वे चुपचाप एक अभियुक्त की तरह आ कर खड़े हो गए। केशव नाथ जी ने पलों तक अमल के चेहरे की ओर न जाने किन अर्थों में देखा और फिर अंदर ढेर सारे जैसे दहकते प्रश्नों को अनबूझा सा छोड़ कर मुस्कुरा कर बोले- ‘‘...कॉलेज जाने से पहले दिल्ली के लिए स्वीकृति पत्र तैयार कर लो।‘‘
‘‘ये रोज टालते ही जा रहे हैं‘‘ बेला ने बीच में ही टोकते हुए कहा- ‘‘बाबू जी आप यह जान लें कि यदि मेरी बीमारी का बहाना बना के यह अमेरिका नहीं गए तो मेरे पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाएगा...ऐसी संवेदनाएं किस काम की जब एक पत्थर से पड़े बेजान भाविष्य के नीचे दूसरा जीवंत भविष्य घुट-घुट कर मरने के लिए दबा पड़ा रहे।‘‘
‘‘माला भी चली गई...और रजिया बेग़म भी यहाँ रूकने का इरादा बना कर भी वापस लौट गईं।‘‘ अमल ने बहुत ही आहत भाव से कहा- ‘‘कोई भी वर्तमान ठहर नहीं पा रहा है सब कसैले अतीत बनते जा रहे हैं...क्या करूं...मैं...‘‘
अमल की इस असह्ता पर जैसे बेला एक पल को कांप सी गई है। वह लरजती सी आवाज में बोली- ‘‘मेरा वर्तमान तो ठहरा हुआ है कमसे कम मुझे तो कसैला अतीत न बनने दो। यदि मैं तुम्हारे भविष्य को पकड़ लूंगी तो यकीन मानो यह मेरी अपंगता बेमानी हो जाएगी। मैं तुम्हारे भविष्य के साथ-साथ दौड़ूंगी।...मन के पांव से..‘‘
अमल केवल बेला का चेहरा कुढ क्षणों तक निहारते रह गए हैं। फिर उस कमरे में चले गए जहाँ रात को रजिया बेग़म सोयी थीं। थोड़ी देर में जब अमल वापस आए तो उनके हाथ में एक पोटली थी। शायद वे ले जाना भूल गई थीं। अमल चुपचाप केशव नाथ जी के सामने पोटली लेकर खड़े हो गए। बेला ने आश्चर्य से पूछा- ‘‘क्या है यह...?‘‘
‘‘पता नहीं...शायद रजिया बेग़म भूल से यहाँ छोड़ गईं।‘‘ अमल ने कहा।
‘‘खोलो...इसमें क्या है?‘‘ बेला ने कुतुहलता से कहा।
‘‘अमल चुपचाप पोटली लिए खड़े रहे। जैसे उसे खोलने का उनका साहस नहीं हो रहा था। केशव नाथ जी अभी उस पोटली की ओर आश्चर्य से न देखकर केवल अमल के चेहरे पर तैरते भावों को जैसे पढ़ने लगे थे। अमल एक अभियुक्त की तरह सिर झुकाए उस पोटली को लिए खड़े से रह गए थे। जैसे उस पोटली में पहाड़ों का वजन भर आया था।
इस बार केशव नाथ जी ने बहुत ही सहजता से कहा- ‘‘इसे क्यों इतनी देर तक रहस्य बनाए हुए हो। खोल कर देखो इसे...‘‘
यह रहस्यमयता वाली बात पर वह केशव नाथ जी का चेहरा तकने लगा। वह मुस्कुरा रहे थे ढेर सारे अर्थों वाली मुस्कान के साथ। अमल ने फिर उस पोटली को सामने टेबल पर खोल दिया। उसमें काफी कीमती गहने थे। कुछ हीरों के सेट्स भी थे। बेला के मुँह से एक चीख सी निकल गई। वह कांपती आवाज में बोली- ‘‘बड़ा गजब हुआ। बेचारी यह सब कैसे भूल गयीं। लगता है दंगे में लुट जाने के डर से यही बचा कर ले आई थीं।‘‘
केशव नाथ जी बहुत ही निर्विकार भाव से उन गहनों को देखते भर रह गए थे। उनके पास जैसे ढेर सारे शब्द रहते हुए भी चुके से रह गए थे। तभी बेला ने पूछा- ‘‘अब क्या होगा इन कीमती गहनों का।...कैसे इन्हें ढाका वापस पहुँचाया जाए रजिया बेग़म के पास।...तुम्हें अपना ढाका वाला पता दे गई हैं क्या..?‘‘
‘‘नहीं...‘‘ अमल ने बहुत ही दबी जुबान में कहा।
‘‘फिर इस पराई चीज का क्या होगा। बेचारी वैसे ही सब लुटा कर बैठी थी। कम से कम यहीं सहारा रहता उनका...क्या पता उन्हें इसकी याद पड़े तो वापस आएं ही लौट कर‘‘
अमल ने इस लौटने की बात पर केशव नाथ जी का चेहरा झुकती निंगाह से देखा। वे अब भी बहुत ही निर्विकार भाव से बैठे थे। तब अमल ने बहुत ही दबे स्वरों में कहा- ‘‘शायद अब वे कभी यहाँ वापस न लौटें। यहाँ वे इससे भी बहुत ज्यादा मूल्यवान चीजें खोकर चली गयीं हैं। इन गहनों के लिए तो वह वापस नहीं आएंगी..‘‘