Mouth Organ - Beautify in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | माउथ ऑर्गन - सुशोभित

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माउथ ऑर्गन - सुशोभित

कई बार कुछ किताबों में समाए ज्ञान(?) को पढ़ कर तो कई बार कुछ लेखकों का लिखा पढ़ कर आप उनका इम्तिहान लेते हैं या लेने की सोचते हैं कि बंदे ने आखिर इसमें क्या और कैसा लिखा है? मगर कई बार इस प्रकार की स्थिति में आमूल चूल परिवर्तन करते हुए आपके समक्ष कोई ऐसी विकट स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है कि कोई किताब आपके सामने ही अपनी छाती चौड़ी कर के खड़ी हो जाती है कि...

"ले!...बेट्टे... है हिम्मत तो अब तू मुझे पढ़ के दिखा।"

चलो!...आप या मुझ जैसे कुछ लोग जैसे तैसे..मन मसोस कर इसे कैसे ना कैसे कर के पढ़ने में कामयाब हो भी जाते हैं तो वही किताब तुरंत ही दूसरा सवाल ले के पुनः सर पे खड़ी हो जाती है कि...

"पढ़ लिया है तो अब ज़रा इसका मतलब भी समझा।"

दोस्तों... इस बार मेरा वास्ता जिस किताब से पड़ा, उसे तो मैंने इस शौक से मँगवाया था कि मज़े-मज़े गुनगुनाते हुए उसे, उसके नाम अनुरूप ही वाद्ययंत्र के माफ़िक बजाऊँगा मगर सच पूछो तो इस किताब में ज्ञान की इतनी गहरी और गूढ़ बातें भरी पड़ी हैं कि इसने तो सच में मेरे ही दिमाग की बत्ती बना, उसका बैण्ड बजा डाला।

अब इस एक 192 पेज की किताब का मतलब समझने के लिए अगर आपको महीनों/सालों इसमें दिए गए विवरणों, किरदारों को जानने...बूझने और फिर सोच समझ कर दिमाग़ में बिठाने में लग जाएँ तो आप भी कह उठेंगे कि...

"छड्डो जी...सानूं होर वी बड़े जरूरी कई कम्म ने।"
(छोड़ो जी...हमें और भी बड़े ज़रूरी काम हैं।"

मगर छोड़ने भर से काम चल जाए तो बात ही क्या? किताब फिर फिर आपको प्रेरित तो कभी चैलेंज सा करती प्रतीत होती है कि...

"अब आया ना ऊँट पहाड़ के नीचे?"

वैसे...इसमें लेखक की नहीं हमारी ही ग़लती है कि हम उसकी तरह ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं। अब नहीं पढ़े तो नहीं पढ़े...क्या करें? जितना समझ आएगा.. उसी के हिसाब से ही तो हम बात करेंगे ना?

दोस्तों में बात कर रहा हूँ सुशोभित द्वारा लिखित किताब "माउथ ऑर्गन" की जिसमें किस्सागोई वाली शैली तो है मगर इसमें ना तो किस्से हैं और ना ही कहानियाँ हैं बल्कि उनकी जगह पर कुछ ऐसा है जिसे उन्होंने 'कहन' कह कर बिना किसी तारतम्य के कहना था, इसलिए कह दिया गया। ऐसा भान होता है कि इस किताब में लिखी गयी बातों को मूलतः ब्लॉग पर पोस्ट करने या फिर डायरी में दर्ज करने के लिए अपने रोज़मर्रा के मूड के हिसाब से लिखा गया होगा और बाद में इन्हें जस का तस..बिना क्रमवार तरीके से जोड़े, बस इन्हें छापने भर को छाप दिया गया।

विविध विषयों से सुसज्जित इस किताब में अगर कहीं आमों का जिक्र हो रहा है तो आमों की तमाम किस्मों के नाम, उनके स्वाद, रंग रूप और खुशबू की इसमें बात है। शराफ़त की मूरत याने के 'शरीफ़े' फल की बात है तो उसके अन्य प्रचलित नाम 'सीताफल' के साथ उसकी नज़ाकत..उसकी खुशबू का भी जिक्र है। कहीं इसमें किसी चुक चुकी अभिनेत्री से मुलाकात है तो कहीं किताबों तथा उनकी महत्ता और किताबों को किताबघर में संजोने की बात है।

कहीं इसमें बड़े चाव से रसगुल्ले के जन्म और इतिहास की जन्मपत्री बांची गयी है। तो कहीं पेड़ों(मिठाई) की तो कहीं रबड़ी की राम कहानी है। कहीं पूरियों के नाना प्रकार और उनकी महिमा का गुणगान है तो कहीं खिचड़ी की अगली पिछली पुश्तों का तिया पांचा कर उसका इतिहास खंगाला गया है।

कहीं इत्र और अन्य सुगंधियों पर विस्तार से चर्चा है तो कहीं शीतलपेय के शुरुआती दिनों को नॉस्टेल्जिया के ज़रिए फिर से याद किया गया है।
कहीं बच्चे के स्कूल में एडमिशन तो कहीं एक शहर से दूसरे शहर शिफ्ट होने से बच्चों के स्कूल बदलने की दिक्कत एवं झंझटों का जिक्र है। कहीं बच्चे से जुड़ी छोटी छोटी बातें जैसे जूते पॉलिश, पासपोर्ट साइज़ फोटो खिंचवाने की बात है।

कहीं लेखक ब्लैक होल के जिक्र से आपके दिमाग को ब्लैंक कर, मथता नज़र आता है तो कहीं अचानक धप्प से धप्पा करते हुए ताजमहल के बाद ग़ालिब की हवेली से होता हुआ फ़िरोज़शाह के मकबरे पर चढ़ कर बाज़बहादुर और रूपमती की कहानी कहने लगता है। वहाँ से उतर कर मुग़लों के आतंक की बात करते हुए काठगोदाम रेलवेस्टेशन और उसके नामकरण की बात करने लगता है।

वहाँ से जाने कैसे एकदम छलांग लगा, लेखक नील आर्मस्ट्रांग के साथ चाँद पर टपक पड़ता है। चाँद से धरती पर उतरते ही एक विदेशी फ़िल्म का सार शुरू कर अगले ही पल जयपुर के कबूतरों के साथ गुटरगूँ करने लगता है। कबूतरों को देख के जोश चढ़ता है तो उन्हीं के मानिंद ऊँची उड़ान भरते हुए सीधा डर्बीशायर के चेस्टरफील्ड वाले के क्वीन्स पार्क के क्रिकेट ग्राउंड में जा के लैण्ड करता है और झटपट उठते ही 'एक गोरैया का गिरना' के ज़रिए सलीम अली 'चिड़ीमार' के द बर्डमैन ऑफ इंडिया बनने का बखान शुरू कर देता है।

इसमें कहीं बात पैरिस में बने और सिंगापुर से खरीदे गए अनब्रेकेबल फूलदान के हिन्दोस्तान में टूटने से शुरू होती है तो गुलज़ार के झक्क सफ़ेद कुर्तों तक जा पहुँचती है। कहीं घर देर से लौट कर, नींद की बाहों में कटे दरख़्त की तरह टूट कर अपने बिस्तर पर गिरने के बड़े सुख की बात क्लेओपात्रा के निर्वस्त्र हो...उसके अंतिम चुंबन तक जा पहुँचती है।

कभी इसमें सिल्क रुट के सफ़र के दौरान समरकंद और फिर अरारात पहाड़ पर चढ़ने के प्रयास होता है। तो कहीं इसमें रोज़मर्रा की अख़बारी रातों से बात सोमवार के शोक भरे दिन तक जा पहुँचती है जो चेरुकारा के काई से लदे फदे रेलवे स्टेशन की बात करती है और अपने अगले पड़ाव में स्टेशन पर ना रुकने वाली गाड़ियों से हमें रूबरू कराती है।

यूँ अगर देखा जाए तो बुद्धिजीविता से भरी यह किताब काफ़ी ज्ञान भारी बातों से हमारा परिचय कराते हुए उनके पीछे की राम कहानी से हमें रूबरू कराती है मगर दिक्कत ये है कि इसमें कुछ भी सिलसिलेवार ढंग से क्रमवार मौजूद नहीं है। साथ ही इस किताब को समझने के लिए पढ़ते वक्त एक आम पाठक के पास हिंदी/उर्दू का वृहद शब्दकोश वहीं पर..वक्त ज़रूरत के हिसाब से पास में ही मौजूद होना चाहिए। एक बेहद ज़रूरी शर्त और कि उसी पाठक को इस किताब को पढ़ने से पहले तमाम अंतरराष्ट्रीय साहित्य का ज्ञान होना आवश्यक है कि तभी वह इस किताब के मर्म..इसमें अंतर्निहित बातों को ढंग से समझ पाएगा।

अंत में किताब की पठनीयता बढ़ाने के लिए एक सुझाव लेखक और प्रकाशक के लिए कि कठिन उर्दू एवं अन्य भाषायी शब्दों के सरल हिंदी अनुवाद भी साथ में दिए जाएँ। साथ ही इस तरह की किताबों के मुखपृष्ठ पर बोल्ड अक्षरों में स्पष्ट चेतावनी अंकित हो कि...

"किस्से..कहानियों की चाह रखने वाले कृपया इस किताब से दूर रहें।"
उम्दा क्वालिटी की इस किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है संयुक्त रूप से हिन्द युग्म प्रकाशन और Eka ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹175/-
आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।