Trikhandita - 2 in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | त्रिखंडिता - 2

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त्रिखंडिता - 2

त्रिखंडिता

2

अनामा की डायरी

रमा एक अनाम अकेली स्त्री की डायरी के पन्ने पलट रही है।यह डायरी उसे फुटपाथ पर बिकने वाली पुस्तकों के ढेर में मिली थी।शीर्षक ने प्रभावित किया तो ले लिया था।डायरी नयी थी।समय-समय पर लिखी डायरी के पन्नों से उस स्त्री के मनोभाव झांक रहे थे।डायरी पढ़ कर रमा को लगने लगा है कि यह हर अकेली स्त्री की व्यथा है, उसकी भी।

5 जनवरी

कभी-कभी मेरा क्रोध चरम पर होता है। मुझे सब पर गुस्सा आता है। अपने आप पर भी ! लोगों का स्वार्थी रूप मुझे पीड़ित करता है । अपने आप को कोसती हूँ कि क्यों ऐसे लोगों से मैं रिश्ते रखती हूँ ? पर मैं करूँ भी तो क्या ? इंसान अकेले ना तो जी सकता है, ना हर काम कर सकता है। कभी न कभी किसी ना किसी की जरूरत आन ही पड़ती है। मुझे झुकना पड़ता है ऐसे वक्त ! मीठे बोल बोलने पड़ते हैं, ताकि किसी तरह वह जरूरी काम पूरा हो सके, पर लोग भी कम चालाक नहीं होते। समझते हैं कि जब तक काम है मैडम सीधी हैं। वे जरा सा हाथ आगे बढ़ाएँगे, तो टेढ़ी हो जाएंगी। मुझे उनकी इस सोच पर गुस्सा आता है-तो क्या मैं सबके साथ....छि: ! समाज परस्पर सहयोग से चलता है। मैं किसी का सहयोग चाहती हूँ तो क्या अपनी इज्जत उछालती फिरूं ? कैसे लोग हैं ! क्या मेरे शहर में ही ऐसे लोग हैं या संसार में हर जगह के लोगों की स्त्री के प्रति यही सोच है ? मैंने तो अपने अनुभव से यही जाना है कि यह मर्दों की दुनिया है। एक मर्द दूसरे मर्द की बात सुनता है, उसका सहयोग करता है। औरत अगर मर्द के समकक्ष है, तब भी उसे अपना काम कराने के लिए मर्द की जरूरत पड़ती है। और मर्द मदद के बदले स्त्री से सिर्फ सम्मान ही नहीं चाहता, उसकी देह भी चाहता है। जो देह नहीं चाहता, वह मदद भी नहीं करता। मर्द चाहे सोलह वर्ष का किशोर हो या सत्तर साल का बूढ़ा। उसकी स्त्री के प्रति सोच एक-सी है। यह सोच पढ़-अपढ़, सम्पन्न-विपन्न सबमें समान रूप से विद्यमान है। मैं सोचती हूँ कि यदि स्त्रियाँ ही एक.दूसरे का सहयोग करना शुरू कर दें, तो शायद मर्दों का बर्चस्व कम हो जाए, पर ज्यादातर स्त्रियाँ अपने घर या बाहर किसी न किसी मर्द की गिरफ्त में हैं। जो आजाद हैं। उनके पास ना तो वक्त है, ना सहयोग करने की भावना।

मधुमिता और अनुराधा बाली जैसी स्त्रियों के बारे में जब मैं सोचती हूँ तो उनके प्रति सहानुभूति से भर जाती हूँ। समाज कहता है कि उन्होंने स्वार्थ के लिए विवाहित सत्ताधारी पुरूष का साथ करके गलत किया। पर क्या करें उन जैसी स्त्रियाँ? जब समाज का हर पुरूष उन्हें नोंच खाने को तैयार बैठा हो। जब हर कदम पर उन्हें समझौते पर मजबूर किया जाता हो, ऐसे समय उनके पास दो ही विकल्प होते है या तो वे अपनी महत्वाकांक्षा का परित्याग कर एक आम स्त्री की तरह पारम्परिक जीवन जीए या फिर समझौता करके सफल स्त्री बनें। तीसरा कोई विकल्प है क्या ! लोग जिन सफल स्त्रियों के नाम गिनाते हैं उनके पीछे कोई ना कोई पुरूष जरूर है। हाँ, उनसे रिश्ते अलग.अलग हो सकते हैं। पर बिना मर्द का सहारा लिए इस मर्दों की दुनिया में कोई भी आम स्त्री सफल नहीं हो सकती। मर्द पिता, भाई, पति, पुत्र, दोस्त, प्रेमी किसी भी रूप में हो सकता है, पर जरूरी है। मैं अक्सर सोचती हूँ कि आखिर अपनी सारी प्रतिभा के बावजूद मैं क्यों एक साधारण जीवन जी रही हूँ ? क्यों उस हद तक सफल नहीं हूँ ?जबकि मुझसे कमतर स्त्रियाँ सुख.वैभव पूर्ण सफल जीवन जी रही हैं। कारण मुझे पता है। मैं अपनी आत्मा से समझौता नहीं कर पाती। प्रेम का नाट्य मुझसे नहीं होता। मैं अनिच्छित पुरूष को नहीं सह सकती। मुझे उबकाई आने लगती है जब युवा, सुंदर स्त्रियों को धनाढ़्य घृणित बूढ़ों या अय्यास पुरूषों से सम्बंध बनाते देखती हूँ । उस वक्त मैं सोचती हूँ कि ऐसे घृणित पुरूष जब उस स्त्री को छूते होंगे, तो क्या उसे लिजलिजा सा अहसास नहीं होता होगा ?

5 फरवरी

मैं कभी नहीं चाहती थी कि किसी को मेरे कारण दुःख पहुँचे, पर अपना चाहना हमेशा पूरा तो नहीं होता। मुझे आश्चर्य होता है कि मेरे जैसी सरल, सहृदय, निश्छल स्त्री से इतने सारे लोगों को दुःख पहुँचा ? क्या मैंने कभी भी ऐसा चाहा था ? अब स्थिति यह है कि चारों तरफ मेरे आलोचक ही हैं । जब कभी मैं आत्ममंथन से गुजरती हूँ तो इन सबका कारण यह पाती हूँ कि मैं अपनी मर्जी से सुकून भरा जीवन चाहती थी। पुरूष का प्रेम मेरी प्राथमिकता थी, जो मुझे कभी नहीं मिला। आखिर क्यों घ? मैं अति सुंदर तो नहीं, पर आकर्षक हूँ । मुझमें संवेदना और करूणा है। फिर क्यों ?

यह कहना झूठ होगा कि मेरे जीवन में पुरूष नहीं आए ।कई आए पर टिके नहीं। कारण यही था कि वे मुझसे प्रेम नहीं करते थे, बस मुझे हासिल करना चाहते थे। मेरे शरीर ही नहीं, दिल.दिमाग को भी । वे मुझ पर हॉवी होकर मुझे एक आम स्त्री बना देना चाहते थे। पुरूष की मुहताज स्त्री ! परतंत्र स्त्री ! पारम्परिक स्त्री ! पर मैं आम स्त्री से अलग थी। मैं प्रेमहीन संबंधों का निर्वाह नहीं कर सकती थी। इसलिए आखिर में मैं अकेली पड़ जाती थी। और आज मैं पूर्णतया अकेली हूँ । एक भी पुरूष मेरे करीब नहीं। मैं किसी के प्यार में नहीं हूँ । मुझे अब तक एक भी ऐसा पुरूष नहीं मिला, जिससे मैं आत्मा से प्यार करूं। मैं सोचती हूँ कि क्या संसार में एक भी सच्चा पुरूष नहीं ? होगा तो जरूर, पर मेरी बदकिस्मती कि मेरे जीवन में सिर्फ ढ़ोंगी, बनावटी, दंभी, स्वार्थी, बदनीयत व पौरूष-हीन पुरूष ही आए। कहते हैं इंसान को वही नहीं मिलता, जिसकी चाहत उसे सबसे ज्यादा होती है। मेरे साथ भी यही हुआ। शायद पुरूष का प्यार मेरी किस्मत में नहीं है । चलो प्रेमी नहीं मिला, पर क्या एक अच्छा मित्र भी नहीं मिल सकता था ? कहने को तो मेरे कई सारे मित्र हैं, पर कोई भी मुझे व्यक्ति नहीं समझता। सब मुझे स्त्री ही समझते हैं...एक अकेली स्त्री ! और हमेशा इस प्रयास में रहते हैं कि मेरे अंदर की स्त्री कमजोर पड़े और कुछ पल को ही सही, उनकी बाहों में शरण ले। मेरी दूसरी समस्याओं को वे न केवल अनदेखा करते हैं, बल्कि उन्हें मेरे स्वयं द्वारा उत्पादित समझते हैं । मैं अकेली ही जूझती रहती हूँ ।

5 मार्च

मर्द प्रगतिशीलता का कितना भी दावा कर ले पर प्रगतिशील नहीं हो पाता। इसी कारण बोल्ड छवि स्त्री के लिए जी का जंजाल बन जाती है। स्त्री का बोल्ड होना पुरूषों के लिए स्वछंद होना है। स्वछंद यानी हर वर्जना से मुक्त, यहाँ तक सोचना तो फिर भी गनीमत है, पर उसे सुलभ मान लेना कहाँ का न्याय है ? मैंने इस अन्याय को इतनी बार सहा है कि मुझे पुरूष जाति से नफरत होने लगी है। ऐसी मानसिकता वाले पुरूष हर उम्र, जाति, धर्म, प्रदेश, पद पर मिल जाते हैं। गाँव, कस्बे, शहर का भी भेद नहीं। शिक्षित-अशिक्षित, मालिक-मजदूर हर वर्ग में मौजूद ऐसे लोग ऊपर से बोल्ड यानी प्रगतिशील दिख सकते हैं, प्रगतिशील बातें कर सकते हैं। स्त्री की बोल्डनेस की सराहना कर सकते हैं, पर समझते उसे वस्तु ही हैं। उनकी प्रगतिशीलता की थाह तब मिलती है, जब उन्हें स्त्री की तरफ से इन्कार मिलता है। उस समय वे बिल्कुल जंगली बिल्ले हो जाते हैं, झपट्टा मारने को तैयार या फिर स्त्री को अमर्यादित शब्दों से नवाजने वाले उजड्ड पुरूष। पहले स्त्री की जिन खूबियों की वे सराहना करेंगे वे ही दोष बन जाएंगी । मेरे कई मित्र जो पहले अपने परिवार की स्त्रियों के सामने मेरी प्रशंसा करते थे, अपने घर दावत पर बुलाते थे, अब मुझसे उन्हें इसलिए दूर रखते हैं कि मेरे कारण उनके घर की स्त्रियाँ बिगड़ जाएंगी। हद तो तब होती है जब वे मेरे लिए 'घुमा चुका हूँ' जैसा द्विअर्थी संवाद बोलते हैं। मैं जानती हूँ कि मैंने जिन पुरूषों को निराश किया है, वे मुझे बदनाम करते हैं । मेरे बारे में गलत बातें करते हैं। मैं सोचती हूँ आखिर पुरूष दोस्ती, प्रेम और विवाह में अंतर क्यों नहीं कर पाता? स्त्री को भोग्या समझने की उसकी मानसिकता कब बदलेगी? कब वह उसे एक व्यक्ति समझेगा ?व्यक्ति के रूप में समकक्ष समझेगा? स्त्री को उससे इससे अधिक कुछ चाहिए भी तो नहीं |

5 अप्रैल

मैं अकेली हूँ, आत्म निर्भर हूँ बोल्ड हूँ तो क्या सिर्फ एक देह हूँ ? क्यों पुरूष सिर्फ मेरी देह के बारे में ही सोचते हैं ? मैंने अकेलापन क्यों चुना ? यह जानने की किसी ने कोशिश नहीं की। सबने यह अपने आप ही तय कर लिया कि स्वछंदता की आकांक्षा ने मुझे अकेला किया है या फिर अत्यधिक महत्वाकांक्षा ने। यह सच है कि मैं सामान्य स्त्री नहीं हूँ।सब कुछ सहकर अपने घर-परिवार में मरने.खपने वाली स्त्री । स्त्री का यही घरेलू रूप तो पुरूष को पसंद है क्योंकि ऐसी स्त्री ही उसकी अपनी स्वतंत्रता और महत्वाकांक्षा में बाधक नहीं बनती। ऐसी स्त्री के त्याग की नींव पर ही वह अपने सुख की विशाल इमारत खड़ा करता है, सफलता के झंडे गाड़ता है, इतिहास में दर्ज होता है। एकाधिक स्त्रियों का सुख हासिल करता है। उसके मन में यह धारणा होती है कि महत्वाकांक्षी और बोल्ड स्त्रियाँ बस शो पीस और देह सुख देने वाली वस्तु होती हैं भले ही वह उनकी बुद्धि, योग्यता, प्रगतिशीलता की सराहना करता है और अपने इन विचारों को सभा-सम्मेलनों में मंच से प्रकट भी करता है, पर तभी तक, जब तक उसकी अपनी सुख-प्राप्ति में बोल्ड स्त्री बाधक न बने।

मैं अपने अतीत के बारे में बात नहीं करना चाहती तो इसका अर्थ यह लिया जाता है कि मैं अतीत छिपाती हूँ । जबकि मैं अतीत के गड़े मूर्दे निकालकर उसकी जाँच-पड़ताल नहीं करना चाहती, क्योंकि अतीत बीत चुका है, फिर से वापस नहीं आ सकता। किसने क्या गलती की, क्यों की?यह विषय इतना आसान तो नहीं कि झटके से उस पर टिप्पणी जड़ दी जाए। पर लोग अक्सर ऐसा ही करते हैं| स्त्री की ही गलती रही होगी। या फिर किसी की कोई आकांक्षा पूरी ना हो तो, इसीलिए तो इसकी यह हालत है। कहकर अपनी हार पर पर्दा डालने की परम्परा है। मैं कभी किसी की जिन्दगी पर आसानी से टिप्पणी नहीं करती। अपराधी के भी मनोविज्ञान तक पहुँचना चाहती हूँ और यही सब मैं अपने लिए भी चाहती हूँ । मेरा मनोविज्ञान समझा जाएगा, तभी तो पता चलेगा कि मैं अकेली क्यों हूँ? क्या कोई भी मनुष्य अकेला रहना चाहता है ? वह भी एक स्त्री, जिसका मनोविज्ञान ही घर-परिवार की संकल्पना से निर्मित होता है। होश संभालते ही जो घर... घर खेलने लगती है। पति-बच्चे की कल्पना करती है। गुड्डे-गुड़िया के माध्यम से उसे व्यक्त करती है। उसकी शिक्षा, खेल, व्यक्तित्व में अपने आप घर-परिवार शामिल हो जाता है। मैं भी तो उसी भारतीय वातावरण में निर्मित हुई है, फिर मैं क्यों अन्य स्त्रियों से अलग हो गई? क्यों मेरी रूचियाँ, आकांक्षाएँ और व्यक्तित्व आम स्त्री की तरह नहीं है ? क्यों मैं त्याग बलिदान के पुराने फार्मुले पर नहीं जीना चाहती ? मैं प्यार और सम्मान चाहती हूँ । अपने मनुष्य होने का अधिकार चाहती, हूँ तो क्या यह गलत चाहना है ?

मैंने लड़की के रूप में जनम लेने का अधिकार छीना। परवरिश में भाई से कमतर समझे जाने का विरोध किया। शिक्षा के लिए संघर्ष किया। देह समझे जाने के प्रति तन कर खड़ी हो गई। दोस्त, प्रेमी, पति किसी के अन्याय को, प्रेमहीन रिश्ते को स्वीकार न कर सकी, तो क्या गलत किया ?मैं पारम्परिक स्त्री बनकर हर कदम पर ज्यादतियाँ नहीं सह सकती थी। मैं दोहरा जीवन नहीं जी सकती थी। हृदय के हाहाकार करते समय चेहरे पर मुस्कान चस्पाँ नहीं कर सकती थी-यही मेरा अपराध था, गुनाह था क्योंकि यही तो सदियों से स्त्री की नियति है, फिर क्यों कोई मेरे साथ रहता? मुझसे प्यार करता ! मैं अकेली हो गई। यह अकेलापन मुझे खलता जरूर है, पर इसे मैं उस स्थिति से नहीं बदलना चाहती, जिसमें अधिकांश स्त्रियाँ जीती हैं। मैं सोच भी नहीं पाती कि दिन भर जली-कटी सुनाने वाले, हर जगह अपमानित करने वाले पति के साथ कोई स्त्री कैसे दैहिक रिश्ते बनाती है? कैसे जेवर -कपड़े पाकर अपमान भूल जाती है ? पराई स्त्री से संबंध रखने वाले पति से जीवन भर का साथ निभाती है! दोषी ना होते हुए भी अपना दोष मान लेती है, वह भी सिर्फ इसलिए कि पति ने दोष निकाला है और पति का इगो हर्ट न हो। बच्चों की सारी जिम्मेदारी अकेले उठाती है, फिर भी बच्चों के बनने का श्रेय पति को देती है और बिगड़ने का दोष खुद पर लेती है।नहीं, उससे यह सब नहीं हो सकता। वह प्रेम के खातिर हर खतरे को उठा सकती है, पर प्रेमहीन जीवन नहीं जी सकती। अपनी इन्हीं विचित्रताओं के कारण उसे अकेलेपन का अभिशाप मिला है।

5 मई

मैं तब असमान्य हो जाती हूँ जब किसी की बातों में मेरे अतीत की तरफ संकेत होता है। जब कोई जाने-अनजाने मेरे मर्म को छू लेता है, तो मैं बौखला उठती हूँ । बहुत कुछ कह जाती हूँ जो शायद सामान्य अवस्था में कभी नहीं कहती। तरस और दया शब्दों से मुझे नफरत है। औरत होने के नाते मैं दया दृष्टि से देखी जाऊँए यह मुझे असह्य है। मेरा अतीत मेरी दृष्टि में कभी कलंक नहीं रहा। जब कोई दुनिया और लोगों की बातें कहकर यह साबित करना चाहता हैं कि वह मुझसे रिश्ता रखकर अहसान कर रहा है। या यह कहता हैं कि लोग मेरे बारे में सत्य ही कहते हैं कि मैं किसी की नहीं हूँ, तो मेरे अधैर्य की सीमा नहीं रहती।अपनी निर्दोष आत्मा पर मुझे सदा विश्वास रहा है और उस विश्वास को किसी के द्वारा दलित होते देखकर मेरा आक्रोश उमड़ पड़ता है। मैंने कभी किसी से खुद को अपना लेने की प्रार्थना नहीं की है। दोस्त ही मुझे अतीत के साथ अपनाने को इच्छुक रहे, फिर बाद में वे ही क्यों मेरी दुखती रग पर हाथ रखते हैं ? क्यों ?क्या पुरूषों का अहं खुद को सर्वोपरि रखने हेतु यह सब कुछ कहलवाता रहता है?

मेरी जैसी स्त्री को दयनीय दिखना चाहिए, पर मैं कहीं से भी दयनीय नहीं दिखती। मुझे लोगों की ईर्ष्या की वस्तु बनना पसंद है, दया का पात्र नहीं। दया और सहानुभूति को मैं हेय समझती हूँ शायद इसीलिए यह मुझे नहीं मिलती। मैं चाहती भी नहीं। मैं किस गर्व से गर्ववती हूँए यह आज तक कोई नहीं समझ पाया।

मैं समझ नहीं पाती कि लोगों को मेरे जख्मों में क्यों रूचि है? क्यों लोग मुझे रोते कलपते, टूटते देखना चाहते है? क्यों ?बहुत बाद में वह समझ सकी कि स्त्री जब भी कुछ छोड़कर आगे बढ़ती है उसे इल्जाम मिलते हैं। उसके दर्द, जख्म की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। मुझे अब यह लगने लगा है कि जख्मों की संख्या में निरन्तर वृद्धि ही विधाता ने मेरे भाग्य में लिख दिया है। हरदम मुझसे लिया ही जाता है, माँगा ही जाता है, अपेक्षा ही की जाती र्है। कभी संबंध, कभी फर्ज , कभी दया, कभी वफा के नाम पर। देने के नाम पर अपने.परायों सबने मुझे सिर्फ जख्म ही दिए हैं । सिर्फ जख्म!

मुझे अपने अनुभवों से यही लगता है कि सरलए भावुकए छल-छद्म से रहित संवेदनशील व्यक्ति, जो दुनियादार नहीं है, दुनियावी लोगों से एडजस्ट नहीं कर पाता। किसी के साथ रहने का अर्थ अपने आदर्शों के साथ समझौता, अपने आत्मसम्मान को मारना या किसी अन्य प्रकार की अधीनता हो, तो यह उसके वश की बात नहीं होती। वह जिसे अपना समझता है, उसके असली चेहरे को देख लेता है, तो आहत हो जाता है। उसकी विडम्बना है कि वह ऐसे लोगों के साथ नहीं रह सकता, जिससे वह प्यार नहीं करता या जो उससे लगाव नहीं रखते। मैं भी उसी तरह की हूँ | उस घाव को नहीं भरना था उस दर्द को नहीं मिटना था, जो मेरे हिस्से का है। कोई साझीदार सह अनुभूति नहीं कर सकता। अच्छा भी है। कुछ तो है जो सिर्फ मेरा है सिर्फ मेरा | दर्द या जख्म ही सही।

रमा डायरी एक ओर रखकर सोचने लगी कि वह भी तो अकेली है और बहुत हद तक उसके अनुभव उस अनाम स्त्री के समान ही रहे हैं।क्या हर अकेली स्त्री का दर्द एक जैसा ही होता है ?कौन है यह अनामा ?काश, कभी मिले तो उसके जीवन के कुछ और भी गूढ अनुभव सुनने को मिले |

यह सुखद संयोग ही रहा कि उसकी आकांक्षा जल्द ही पूरी हो गयी।दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में एक सुंदर स्त्री वाणी प्रकाशन के स्टाल पर खड़ी होकर बड़े ध्यान से उसके उपन्यास को पढ़ रही थी। उसने उसे हॅलो कहा तो दोनों में बातचीत होने लगी। जब रमा ने बताया कि उसका दूसरा उपन्यास शीघ्र आने वाला है जिसमें एक अनाम स्त्री की डायरी भी है तो वह चौंकी। रमा ने डायरी मिलने की कहानी बताई तो वह मुसकुराई।फोन का आदान-प्रदान हुआ | फिर शीघ्र ही दोनों अच्छी सहेलियाँ बन गईं। अंतरंग सहेलियाँ जिनके बीच कुछ भी छिपा नहीं रहता। श्वेत-स्याह कुछ भी।अनामा के जीवन में कई पुरूष आए थे, जिन्होंने उसके जीवन को बदल डाला था।

ऐसा नहीं कि रमा के जीवन मे पुरूष नहीं आए। आए थे और उसके अकेलेपन को भरने का दावा भी किया था, पर उसे उनकी आँखों में सच्चा प्रेम न दीखा, इसलिए वह उनसे दूर हो गई।पर यह कहना भी झूठ होगा कि इतने लम्बे युवा-काल में उसके मन को किसी ने झंकृत नहीं किया। किया, पर वे इतने दिव्य थे कि वह उनसे दुनियावी रिश्ता नहीं बना सकी। ना वे आगे बढ़े और ना वह बढ़ सकी।उसका उनसे रूहानी रिश्ता रहा और वह भी एकतरफा । शायद यह उसका अपना ही डर था कि वे करीब आते ही आम पुरूष हो जाएॅगे। या शायद उन दिव्य पुरूषों में उस जैसी स्त्री से प्रेम का साहस नहीं था, इसलिए वे उसके जीवन का हिस्सा नहीं बन पाए ।हाँ, ...., जीवन के कई-कई वर्ष उसने अपने उन्हीं प्रिय पुरूषों के काल्पनिक सानिध्य में गुजार दिए । इसलिए कुछ अनुभूतियाँ हैं। यादगार क्षण हैं.... महकती खुशबू का एहसास है। खुद को चाहे जाने का गर्व खट्टी-मिट्ठी स्मृतियाँ। यही तो उसकी धरोहर है। कौन समझ पाएगा इन बातों को ? उसकी आँखें अक्सर मुस्कुराने क्यों लगती हैं ? संगीत क्यों सज उठता है उसके अधरों पर? किन मधुर स्मृतियों में वह जीवन की कटुताओं को विस्मृत किए रहती है?