इस बार बात कुछ खुल कर हुई। मुझे भी पता चला कि लड़का बार- बार बिना किसी काम के फ़ोन क्यों कर रहा है। असल में कुछ ही दिनों बाद उसकी फ़िर एक परीक्षा यहां थी। वो परीक्षा देने आ रहा था और मेरे पास ठहरना चाहता था। उसका कहना था कि परीक्षा के दिनों में कहीं ठहरने की जगह मिलती नहीं है, और मिले भी तो बहुत महंगी तथा असुविधाजनक। ठीक भी तो है, बेरोजगारी के आलम में एक तो बच्चे बार - बार इतना किराया भाड़ा खर्च करके परीक्षा देने जाएं, फ़िर एक दिन कहीं ठहरने में सैंकड़ों रुपए ऊपर से ख़र्च करें। रेलें भी टाइम- बेटाइम चलती हैं, इनपर भरोसा नहीं कर सकते, तो एक दिन पहले आना पड़ता है।
लड़का मुझसे यही सब कहने में संकोच कर रहा था इसलिए बार- बार फ़ोन करके भी चुप रह जाता था।
अब मैंने उसे आश्वस्त कर दिया कि मुझे कोई दिक्कत नहीं है, वह चाहे जब आए और यहां मेरे पास ही ठहरे।
उसने कृतार्थ सा होते हुए कहा कि वह टिकिट होते ही मुझे बता देगा कि वह कब पहुंच रहा है।
उसने मुझे ये भी बताया कि अब तो नौकरी का कोई फॉर्म भरते समय वह परीक्षा का केन्द्र अपने शहर का ही भरता है, ये पुराने भरे हुए फॉर्म हैं जो जयपुर में पढ़ते हुए उसने भर दिए थे। इनकी परीक्षा ही अब इतनी - इतनी देर से हो रही है।
मुझे रात को कुछ देर और नींद न आई। मैं सोचता रहा कि वास्तव में ये कितनी बड़ी समस्या है कि इतनी खर्चीली और श्रमसाध्य पढ़ाई कर के भी युवाओं को नौकरी नहीं मिल पा रही है और वे अनिश्चित भविष्य के धुंधलके में खोते जा रहे हैं। बार- बार की परीक्षाओं के लिए माता- पिता से खर्चा मांगने में भी उनका ज़मीर घायल हो जाता है। कुछ आक्रोश इस व्यवस्था पर भी उमड़ा जो आज के असीम तकनीकी सुविधाओं वाले युग में भी परीक्षा लेने, परिणाम निकालने और नियुक्तियां देने में वर्षों का समय खराब कर देती है। यही सब सोचते - सोचते रात को न जाने मुझे कब नींद आई।
अगली सुबह फ़िर एक झंझट!
मैं कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था कि दरवाज़े की घंटी बजी।
मेरे एक मित्र अपनी पत्नी के साथ आए थे। असल में वो लोग पहले मेरे पड़ौस में ही रहा करते थे फ़िर उन्होंने मकान बदल लिया था और यहां से कुछ दूर चले गए थे। वही दोनों पति - पत्नी अब नज़दीक के बाज़ार में किसी काम से आए थे तो मुझसे मिलने भी चले आए।
वे ज़्यादा देर बैठने के मूड में नहीं लग रहे थे। यहां तक कि उन्होंने चाय पीने के लिए भी ज़ोर देकर मना कर दिया। लेकिन तब मुझे उनके आने का कारण पता चला जब उनकी पत्नी झट से उठ कर वाशरूम में चली गईं।
वे कुछ शरमाये से बोले - यहां से निकल रहे थे इन्हें काफ़ी देर से वाशरूम की तलाश थी तो मैंने कहा, चलो सर के घर चलते हैं, उनसे मिले भी बहुत समय हो गया। - अरे क्यों नहीं, आपका घर है! मैंने अपनेपन से कहा।
वाशरूम से निकल कर अब उनकी पत्नी कुछ तसल्ली में दिख रही थीं, तुरंत बोल पड़ीं - आपके गीज़र को क्या हो गया, खुला पड़ा है?
- अरे हां, ये खराब हो गया था, तो जिस मैकेनिक को बुलाया, उसने दो दिन से काम लटका रखा है। मैंने कहा।
उनके पति फ़ौरन चहके - किसको बुलाया था आपने?
मैंने तुरंत डायरी से देख कर मैकेनिक का नंबर और नाम उन्हें बताया।
वे बोले - ओहो, अाप भी कहां फंस गए। वो तो काम जानता ही नहीं है, मैं भी उसका भुक्तभोगी हूं, वो अब अपने किसी आदमी को बुला कर लायेगा तब जाकर काम होगा। और आदमी इतनी आसानी से उसकी पकड़ में आयेगा नहीं, अब वो ऐसे ही बहानेबाजी करता रहेगा।
मेरा माथा ठनका। मैंने मायूसी से कहा - अब?
वे बोले - मैं एक दूसरा नंबर देता हूं आपको!
उनकी पत्नी बीच में ही चहकीं - रहने दो, वो किसी दूसरे का खोला हुआ काम हाथ में नहीं लेगा। इन लोगों में बड़ा एका होता है, दूसरा आदमी किसी और के छोड़े हुए काम में हाथ भी नहीं लगायेगा। अब तो उसी की मिन्नतें करनी पड़ेंगी।
मैं निराश हो गया। कमाल है, मिन्नतें कैसी? पैसे देकर काम कराना है कोई मुफ़्त में तो करेगा नहीं।
वे दोनों जल्दी में थे, चाय - पानी के लिए भी रुके नहीं।
दो मिनट के लिए आए, अपना तनाव उतार गए और मेरा बढ़ा गए।
दरवाज़ा बंद करके मैं वापस आ बैठा। मैंने तुरंत उस मैकेनिक को ही फ़ोन लगाया। पर उसका फ़ोन व्यस्त आया।
अब मेरा मन काम में नहीं लग रहा था। मैं थोड़ी - थोड़ी देर बाद उस मैकेनिक का फ़ोन मिलाता। अब मुझे उन दंपत्ति की बात में दम नज़र आने लगा था।
मैं अपने लिए एक कप चाय बनाने के लिए उठ गया।
उस रात मैं सोने लगा तो सिर अनायास ही भारी - भारी सा हो रहा था।
मैं सोचने लगा कि हमारे देश का क्या हाल होता जा रहा है? मैं खुद यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर रहा था। मुझे याद आया कि न तो विद्यार्थी क्लास में नियमित रूप से आते हैं और न शिक्षक ही कुछ सिखाने के लिए गंभीर हैं।
जब मैं किसी भी युवा को लिखते समय व्याकरण की छोटी- छोटी गलतियां करते हुए देखता था तो मुझे बड़ी झुंझलाहट होती थी। मुझे याद आ जाता था कि किस तरह बचपन में हमें एक- एक शब्द ग़लत लिखने के लिए उसे बार- बार लिखने की सज़ा दी जाती थी। अब छात्रों को किसी भी बात के लिए कुछ कह देना उनसे दुश्मनी जैसा माना जाता है। बच्चे और उनके माता - पिता समझते हैं कि हम बच्चे की कोई गलती इसलिए बता रहे हैं कि हम उसके शुभचिंतक नहीं हैं।
उन्हें लगता है कि उन्होंने फ़ीस दी है तो बच्चे को सब आ जाना चाहिए था।
उनकी बात भी पूरी तरह ग़लत नहीं थी क्योंकि शिक्षक भी अब व्यावसायिक रवैया अपनाने के चलते उनका व्यक्तित्व गढ़ने की ज़िम्मेदारी नहीं लेते।
यदि कोई इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर अपनी क्लास में कभी बैठा ही नहीं तो उसने क्या काम सीखा होगा? संस्थानों ने भी फ़ीस लेकर प्रमाणपत्र बांटना अपना धंधा बना लिया। ऐसे में जीवन अनुभव से काम सीखे हुनरमंद लोग धीरे - धीरे कम होते जा रहे हैं।
एक तरफ़ काम लेने वाले कहते हैं कि युवा लोग काम जानते ही नहीं, दूसरी तरफ भयंकर बेरोजगारी है। मुझे अपने एक मित्र, जो आइएएस अफ़सर थे, याद आए जो कुछ दिन पहले ही मुझसे कह रहे थे कि बेरोजगारी नहीं है। जो आदमी काम जानता है, करना चाहता है, उसके लिए काम की कमी नहीं है। बेरोज़गारी सिर्फ़ उनके लिए है जो बैठे - बैठे पैसा कमाना चाहते हैं या सरकारी नौकरी की चाहत रखते हैं ताकि उन्हें कोई कुछ काम न करने पर भी कह न सके। कौन सही है... कौन ग़लत...
नहीं - नहीं... मेरी उम्र अब ये सब सोच कर अपनी तबीयत खराब कर लेने की नहीं है, मुझे सोने की कोशिश करनी चाहिए।
मैंने करवट बदली और अपनी सोच को ताला लगाकर नींद के लिए आने का रास्ता छोड़ दिया।