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चतुर्थ अध्याय
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गतांक से आगे….
चौथे कमरे में रहते हैं दिवाकर जी अपनी धर्मपत्नी रोहिणी जी के साथ।
वे एक कस्बे से विकसित हुए छोटे से शहर में अपने दो छोटे भाइयों के साथ निवास करते थे।पिता एक किसान थे।सौभाग्य से उनके खेतों के सामने से सड़क निकलने के कारण उन्हें उनकी सड़क की जमीन के लिए सरकार से अच्छा खासा मुआवजा प्राप्त हुआ था, उस धन का सदुपयोग उन्होंने सड़क से लगी जमीन पर छः दुकानें एवं दो-दो दुकानों के पीछे 4-4 कमरों के तीन मकान बनवा लिए थे,तीनों भाइयों के हिसाब से।उन्होंने अपनी एक दुकान में जनरल स्टोर खोल लिया और दोनों भाइयों के लिए एक-एक दुकान छोड़कर शेष तीनों को किराए पर उठा दिया।किराए पर उठाने वाले दुकानों के लिए यह भी ध्यान रखा कि उनसे अलग कार्य हों,जिससे उनके धंधे पर असर न पड़े।जब बीच वाला भाई कार्य लायक हुआ तो उसे कपड़े का कार्य आरंभ करवा दिया।सबसे छोटे भाई को दुकान में बैठना पसंद नहीं था, अतः बीए,बीएड करके वह स्कूल में अध्यापक हो गया।
दोनों भाइयों को व्यवस्थित करने में 10-11 वर्ष निकल गए।उम्र के हिसाब से 30-31वर्ष अधिक नहीं होता, परन्तु वैवाहिक जीवन के 10 साल में यदि सन्तान सुख न प्राप्त हो, वो भी उस काल में जब परिवार नियोजन का कोई विशेष चलन नहीं था तो समाज प्रश्न करने लग जाता है। उंगली तो औरत पर ही उठती है और बांझ का तमगा प्रदान कर दिया जाता है।
ऐसा नहीं था कि रोहिणी जी इस बारे में सोचती नहीं थीं जब भी वे दिवाकर जी से इस सिलसिले में बात करने की कोशिश करतीं, वे अनसुनी कर देते थे।जब दूसरे देवर के यहां प्रथम संतान हुई थी, तब से वे ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं थीं।जब वे डॉक्टर के पास चलने के लिए ज्यादा जिद करने लगीं तो दिवाकर जी ने स्पष्ट कह दिया कि तुम्हें जो करना हो करो,किंतु मैं तुम्हारे साथ नहीं जाने वाला।उनसे निराश होकर रोहिणी जी ने अपने मायके में अपनी भाभी के साथ जाकर दिखाया डॉ को।समस्त जांचों का निष्कर्ष यही निकला कि उनके अंदर कोई कमी नहीं है। वे अच्छी तरह समझ गईं कि या तो दिवाकर जी अपनी कमी के बारे में जानते थे,या उनका पुरुषगत अहंकार स्वयं को दोषयुक्त स्वीकार करने को तैयार नहीं था।स्त्री अपनी कमियों को आसानी से मान लेती है लेकिन पुरुष अपनी कमी मानना ही नहीं चाहता वह भी अपने पुरुषत्व पर।
खैर, मंदिर, पूजा-पाठ,डॉक्टर हर जगह जितना प्रयास कर सकती थीं, करके थकहार कर निराश हो बैठ गईं, अपना भाग्य मानकर।इसी बीच छोटे देवर के यहां भी एक बेटा तथा बिचले देवरानी को एक बेटी भी हो गई।
बीच की देवरानी जब तीसरी बार गर्भवती हो गई तो वह अब औऱ बच्चा नहीं चाहती थी, लेकिन दिवाकर जी ने कहा कि इस बार जो भी होगा,उसे वे गोद ले लेंगे।
रोहिणी जी तथा कुछ हितैषी, मित्रों ने बहुतेरा समझाया कि रिश्तेदार का बच्चा कभी भी पूरी तरह से अपना नहीं बन पाता, किसी अनाथ बच्चे को अपनाओ जो बड़ा होने के बाद जानने पर भी विलग नहीं होगा।बच्चा तो गीली मिट्टी के समान होता है जो जन्म से हमारे पास रहेगा तो हमारे संस्कारों में ढल जाएगा।परन्तु दिवाकर जी का मानना था कि पता नहीं किस जाति का एवं किसके पाप का परिणाम होगा, फिर अपना खून तो अपना ही होता है।
खैर, नियत समय पर देवरानी ने दूसरे बेटे को जन्म दिया, बेटे को देखकर उसका मन बदल गया, किंतु देवर ने समझाया कि बेटा पास के ही घर में तो रहेगा, फिर भइया की दुकान भी हमारी हो जाएगी,अतः देने को तैयार तो हो गई, परन्तु सदैव बच्चे पर अपना पूरा हक बनाए रखा, परिणामतः वे ताऊ-ताई ही बनकर रह गए।जमीन-जायदाद अक्सर रिश्ते खराब कर देता है।एक भाई का बच्चा गोद लेने के कारण छोटा भाई नाराज हो गया, क्योंकि वह चाहता था कि उसकी दूसरी सन्तान जो बेटी थी,उसे वे गोद ले लें।
खैर, समय अपनी गति से व्यतीत होता रहा, बच्चे बड़े हो गए।उनके दत्तक पुत्र ने दुकान संभाल लिया।उसके कुछ समय बाद ही बेटे के विवाह में दिवाकर जी ने रोहिणी जी से अपने जेवरों में चढ़ाने की बात कही,तो उन्होंने इनकार कर दिया।जेवर तो उनके पास काफी थे, क्योंकि साल में 3-4 जेवर तो वे बनवा ही लेती थीं।उस समय भविष्य की सुरक्षा के लिए सोना खरीदना ही सुरक्षित निवेश माना जाता था।
बेटा अपने जन्मदाताओं के पूर्ण नियंत्रण में था।उन्हें भय था कि कहीं दूसरी दुकान छोटे भाई के नाम न कर दें,अतः दिवाकर जी को पट्टी पढ़ाकर बेटे ने दुकान अपने नाम करवा लिया, किंतु मकान रोहिणी जी के नाम था, इसलिए उसे नहीं हथिया सके।इस कृत्य के पश्चात सभी अपने असली रंग में आ गए।दुकान से दिवाकर जी को पूर्णतः बाहर का रास्ता दिखा दिया।आज वे बेहद पश्चाताप कर रहे थे कि क्यों मैंने रोहिणी की बात नहीं मानी,परन्तु अब पछताए होत क्या।
बेटे-बहू,भाई एवं उसका परिवार उन्हें परेशान तथा अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे,वे सभी चाहते थे कि वे लोग दुखी होकर वहां से चले जायँ।
दिवाकर-रोहिणी जी अब ऊब चुके थे, वे वहाँ अब रहना भी नहीं चाहते थे, लेकिन जाएं कहाँ, फिर धनाभाव भी था।तभी किसी हितैषी के समझाने पर रिवर्स मॉर्गेज के तहत मकान पर लोन ले लिया।उन्हीं परिचित ने सांध्य-गृह का पता बताया।अतः अब वे यहां आकर उन कथित अपनों से दूर इन बेगाने मित्रों के साथ बेहद प्रसन्न हैं।
क्रमशः ………
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