पिछले कुछ दिनों से मन बड़ा विचलित, दुखी सा था।
मुझे कुछ नही हुआ लेकिन लोगो को देखकर मुझे चिंता हो रही थी।
यहाँ हर कोई ऐसे परेशान है जैसे जिंदगी कोई बहुत भारी सामान हो।
सब लोग सुकून ढूंढ रहे है लेकिन मिल किसी को नही रहा।
एक गुमठी पर सुट्टा मारते,हँसते खिलखिलाते कुछ युवक दिखाई दिये तो सोचा कि चलो किसी के पास तो खुसी है लेकिन तभी उनमे से एक फोन आने पर दूसरी तरफ गया ,फोन पर किसी से बड़ी उदास आवाज में कह रहा था 'भैया,मैं और पापा दोनो कोशिश कर रहे है लेकिन अभी तक मम्मी के ऑपरेशन के लिए पूरे पैसों का इंतजाम नही हुआ,आप कहीं से ब्याज पर दिला दो इसलिए आपको फोन कर रहा था'
मैं एक पल के लिये रुका वहाँ, वो फोन रखकर फिर से अपने दोस्तों के पास चला गया, फिर से हँसने लगा।
ये कैसी अदाकारी है?
भीतर से इतना परेशान आदमी दूसरे ही क्षण दोस्तो में जाकर हँसने लगता है ?
शायद उसको ऐसे ही सुकून मिलता हो।
ये युवक तो बस उदाहरण मात्र है,सबके साथ ऐसा ही होता है।
जब घर मे रहकर मन घुटने लगता है तब घर से बाहर निकलकर दो-चार दोस्त हंसी ठिठोली कर लेते है।
लेकिन भीतर से चारो की दशा एक ही जैसी है,चारो परेशान है।
सास दुखी,बहु दुखी,पति दुखी,पत्नी दुखी,बहन,भाई,माँ, बाप सब दुखी है।
घरों के माहौल ही ऐसे हो गये।
एक दूसरे से बनती नही है।
और ये सिर्फ घर का माहौल नही है।
घर,दफ्तर,कार्यस्थल सबका हाल ऐसा ही है।
अमीर-गरीब सबका हाल ऐसा ही है।
क्यों है ऐसा ?
क्यों इतने बैचेन है लोग भीतर से?
दुनिया के सब बुद्धिजीवी,सब ज्ञानी जन अंत मे एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते है- अपेक्षा,ईच्छा।
हमारी अपेक्षाएं इतनी ज्यादा हो गई कि क्षण भर भी हम सुकून से नही रह पाते।
क्या बच्चे को डांटकर पिता को सुकून मिलता है?
क्या अपने नीचे काम करने वाले व्यक्ति को डांटकर बॉस को सुकून मिलता है ?
नही,
बल्कि वे डांट खाने वाले से ज्यादा परेशान हो जाते हैं,मूड खराब हो जाता है,पूरा दिन चिढ़े चिढ़े रहते है।
कोई व्यापार में प्रगति न होने के कारण परेशान है,किसान भाव,पेमेंट न मिलने के कारण परेशान है,एम्प्लोयी अपने बॉस से परेशान है,विपक्ष सत्ता न मिलने से परेशान है,सत्ताधारी लोगो की असंख्य अपेक्षाओं के बोझ तले दबे है।
उफ्फ...........
कहाँ है चैन सुकून ?
मैंने ढूंढा उसे,मैंने पा लिया उसे, वो तो मेरे भीतर ही दफन कर दिया था मैंने।
वो आपके भीतर भी कहीं दफन होगा आप ढूंढिये उसे।
कुछ तरीके बताता हूँ कैसे मिलेगा।
#प्रशंसा_करना:-आपके भाई, पिता,पुत्र,माता,पत्नी,बॉस एम्प्लाइज चाहे कोई भी व्यक्ति जिसके सम्पर्क में आप आते है उसकी अच्छी चीजों की तारीफ कीजिये।
जैसे आपकी पत्नी ने जब भी कभी बुरा खाना बनाया है आपने उसको झिड़क दिया है,वो कभी अच्छा खाना बनाये तो उसकी तारीफ भी जरूर करो,उसको एहसास दिलाओ की उसके आने से आपका जीवन कितना आसान हुआ है। फिर देखिए आपका दाम्पत्य कितना सरल हो जाता है।
पिता भी अपने पुत्र से सिर्फ अपेक्षाएं न रखें,
उनके साथ बातें करे,उनकी रुचि को समझे उसके गुणों की प्रशंसा करे।उसे पड़ोसियों ,रिश्तेदारों के बच्चो से ना तोले।
वो आपका बच्चा है, पड़ोसियों या रिश्तेदारों का नही जो वो भी उनके बच्चो जैसा बने।
बॉस भी अपने नीचे काम करने वालो की उन्मुक्त मन से तारीफ करे, आपके साथ काम करने वाले आपको हिटलर न समझे।
आप भी माहौल चेक करना फिर अपना।
इसी तरह से कोई भी आपके सम्पर्क में आता है और उसमे कुछ अच्छा दिखे आपको तो जरूर प्रशंसा कीजिये,आपका जीवन चमत्कारी रूप से सरल होगा।
लेकिन सिर्फ प्रशंसा,चापलूसी नही।
#अपने_भीतर_के_बालक_को_फिर_से_जिंदा_करो-
'अब हम बड़े हो गये है' इस विचार ने हमारे सुकून में खंजर भौंके है।
आप क्यों मस्ती नही करते अब?
आप क्यों नही कोई खेल खेलते अब?
आप क्यों नही शरारतें करते अब?
क्योंकि आप बड़े हो गये है ?
ऐसा सोचते है तो आपको गलतफहमी हो गई है,
बड़े तो सिर्फ महादेव है,आपकी बस उम्र बढ़ रही है।
उम्र बढ़ते बढ़ते आने वाली जिम्मेदारी को बोझ मानकर ढो रहे है आप।
जिम्मेदारी आपका कर्तव्य है लेकिन जीवन जीना आपका अधिकार।
आप क्यों नही जी रहे फिर ?
तुम इतने बड़े हो गये हो फिर भी पतंग उड़ाते हो,कंचे खेलते है,छुपम-छुपाई खेलते हो,क्रिकेट या कुछ भी खेलते हो-किसी के ऐसा कहने पर आपको शर्मिंदगी होती है ?
क्यों होती है ?
क्या कहीं नियम है ऐसा कि आप उम्र बढ़ने पर ऐसे खेल नही खेल सकते ?
अपने बच्चो,भतीजे-भतीजी,भांजे-भांजी के साथ खेलिये।
उनकी तरह खेलिये,भूल जाओ की आपकी उम्र ज्यादा है,फिर देखो सुकून और शांति कैसे दौड़े आते है आपके पास।
जीना है तो बचपन को जिंदा रखना पड़ेगा,बड़े होने की गलतफहमी आपको,आपकी खुशियों को तबाह कर रही है।
#अध्यात्म
अध्यात्म से मिलने वाली अनुभूति अद्भुत है।
आप योग,ध्यान,प्राणायाम, प्रार्थना,भजन आदि से खुद को अधिक शसक्त बना सकते हो।
#अपेक्षा_ईच्छा पर नियंत्रण
मनुष्यों के जीवन मे समस्त दुखो का कारण यही है-अपेक्षा और ईच्छा।
असीमित इच्छाओं ने मनुष्यों को मशीन बना दिया है।
भावहीन मशीन।
जिसको सिर्फ अपने सुखों की चिंता है,वो कुछ भी करके अपनी अच्छी बुरी सब इच्छाओं को पूरा करना चाहता है।
वो अपेक्षा करता है कि सबकुछ उसके अनुकूल हो।
कुल मिलाकर मनुष्य का मन एक ऐसी मशीन बन गया है जो इच्छाओं का प्रोडक्शन करता है और मनुष्य उन इच्छाओं को समेटता हुआ ही एक दिन मर जाता है।
अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए आपको कुछ तो करना पड़ेगा।
ऊपर लिखे हुए 3 तरीके ही इसका उपचार है।
खुश रहिए,महादेव आपको सफल करें।
©Sumit Jasoi