गवाक्ष
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वह एक सामान्य मनुष्य की भाँति चल रहा था। प्रोफ़ेसर व भक्ति प्रश्नचिन्ह बने एक-दूसरे की ओर अपलक निहारने लगे । कुछ पल पश्चात वह शिथिल चरणों से लौट आया ।
"बहुत गंभीर लग रहे हो ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा ।
"सर मैं दंडित कर दिया गया हूँ ---"
" कैसे पता चला ?"
"मैं जिस विमान से गवाक्ष से पृथ्वी पर आता था, वह स्वामी ने वापिस मँगवा लिया है । वृक्ष पर मेरे लिए गवाक्ष में प्रयुक्त होने वाली भाषा में सूचना लिखी गई है। मुझको पहले से ही महसूस होने लगा था किन्तु अब स्थिति स्पष्ट रूप से मेरे समक्ष है। मुझे एक पूरा जीवन पृथ्वी-लोक में व्यतीत करना है। समय आने पर मुझे भी मनुष्यों की भाँति ले जाया जाएगा लेकिन मैं यह सब किसीके समक्ष कह नहीं पाउँगा क्योंकि पूर्ण मनुष्य के चोले में आने तथा मनुष्य के कर्म करने के पश्चात मैं इसी दुनिया का अंग बन जाऊंगा और मुझे भी दुनियावी परिस्थितियों से गुज़रना होगा । "
प्रोफ़ेसर हँस पड़े, भक्ति भी मुस्कुरा दी । वह अब भी पशोपेश में थी, उत्सुक थी, उद्विग्न थी । वह कॉस्मॉस के बारे में सब कुछ जानना चाहती थी ।
" क्या तुम्हें इस बात का अफ़सोस है ?" प्रोफ़ेसर ने कॉस्मॉस से पूछा ।
" शायद हाँ, या फिर शायद नहीं ---" वह किंकर्तव्यविमूढ़ था ।
" नहीं, दुखी मत हो, जो भी होता है, उसे स्वीकार करने में आनंद है । तुम जैसे कितनों को यह सौभाग्य प्राप्त होता है कि वे पृथ्वी पर एक संवेदनशील प्राणी की भाँति रह सकें । वे जीवन भर एक रोबोट बनकर रहते हैं ।
"रोबोट??"
" समय आने पर समझ जाओगे । देखो हम अस्पताल पहुँच गए हैं । "
प्रोफ़ेसर ने अस्पताल के बाहर गाड़ी रोकी और तीनों सत्याक्षरा से मिलने चल पड़े । भक्ति काउंटर पर आज्ञा-पत्र बनवाने चली गई और प्रो.श्रेष्ठी कॉस्मॉस के साथ प्रतीक्षा -स्थल में सोफे पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे । प्रोफ़ेसर मन ही मन कुछ प्रार्थना कर रहे थे।
“" आप क्या प्रार्थना कर रहे हैं? "कॉस्मॉस ने फिर कहा;
" नहीं, आपकी आँखें बंद थीं और आप मन में जैसे कुछ बोल रहे थे । "
बहुत कुछ समझने लगा था कॉस्मॉस !
" मैंने तुमसे एक बार इस बात पर चर्चा भी की थी । मनुष्य का मन किसी पल भी शांत कहाँ रहता है कॉस्मॉस ! " कॉस्मॉस को इस चर्चा की कोई स्मृति नहीं थी।
" मैंने तुम्हें बताया था कि प्रार्थना यानि अपने वर्तमान में रहना, अपने पल में रहना, जब हमार मन किसी विशेष विचार में, वर्तमान में स्थिर होता है तब वह प्रार्थना ही होती है । "
कॉस्मॉस का मन भी पीछे सत्यनिधि के साथ नृत्य करने वाले उस क्षण में पहुँच गया जब वह अपने आपमें नहीं था, उसे न अपने अस्तित्व ध्यान था, न स्थान का ! वह बस वृत्ताकार में समर्पित हो रहा था । उसे लगा साधना और प्रार्थना का कोई मेल तो है ।
दोनों में एक पावन सी अनुभूति ! पावन सुख, पावन अहसास ! उसे गवाक्ष के निर्देशों की स्मृतियाँ हो आईं जब उन्हें पृथ्वी पर प्रेषित करने के लिए तत्पर किया जाता था तब स्वामी के द्वारा कितने निर्देश दिए जाते थे । पृथ्वी का जीवन कारागार के समान चित्रित किया जाता था किन्तु यहाँ आकर और असफलता के मापदण्डों को नाप-तोलकर उसे यह महसूस होने लगा था कि गवाक्ष का जीवन कितना सपाट है । बेआवाज़ घुटी हुई पवन को अपने भीतर उतारते गवाक्ष के दूत इधर से उधर डोलते दिखाई देते । न हँसना, न रोना, न गाना, न नाचना, न संवेदना न कोई हँसी ---ठहाके --केवल एक मशीन पर जीवन अपने आगे प्रेषित किए जाने की प्रतीक्षा में न जाने कैसी घुटी हुई श्वांसों के सहारे घड़ी के पेंडुलम की भाँति टिक-टिक करता रहता है । यहाँ आकर इस कॉस्मॉस को ज्ञात हुआ कि मनुष्य को व्यक्ति की चेतना के साथ संबंध बनाने पड़ते हैं, शरीर के साथ नहीं!यहाँ संवेदना का महत्व है, यानि मन का महत्व जो शरीर के न रहने पर भी चारों ओर छाया रहता है ।
"इतना सब कुछ देखा-भाला, इतना पृथ्वी की उथल-पुथल में डूबता-उतरा लेकिन अब तक जीवन क्या है ? समझ नहीं सका । "वह बड़बड़ कर रहा था इसीलिए प्रोफेसर का मन भटका ।
"क्या नहीं समझ पाये?"
"क्या नहीं समझ पाये?"
" यही कि जीवन है क्या?इसमें बहुत सी खूबसूरती मैंने जानी लेकिन फिर भी भूल-भुलैया में घूमता ही रहा हूँ, आज भी घूम रहा हूँ। "
" जब मनुष्य वर्षों से इस भूल-भुलैया में भटक रहा है तब तुम सोचो तो सही तुम्हें यहाँ कितना समय बीता है?"
"फिर भी जीवन की कोई परिभाषा तो होगी, जैसे हम दुनिया में कितनी वस्तुओं को परिभाषित करते आए हैं, वही सब तो दुनिया के जीवन की परिभाषा है ।
"यह समझ लो कॉस्मॉस! यह जीवन एक पुस्तक है । जिसे पढ़कर हम उसमें लिखी बातों को गुनने की चेष्टा करते हैं, बेकार की बातें भूल जाते हैं। "
" और कुछ ?"
"और---समझ लो, जीवन एक कहानी है जिसमें विभिन्न पात्र हैं । सभी रिश्ते, पति-पत्नी, माँ-बच्चे, अन्य सभी रिश्तों का खेल जीवन ही है । "
लेकिन कॉस्मॉस के प्रश्नों के उत्तर देते हुए भी उस समय प्रोफेसर का मन वर्तमान में नहीं था, उनका मन सत्याक्षरा के उस अतीत में चला गया था जब प्रारंभ में वह उनसे मिली थी । उन्हें सत्याक्षरा के भाई द्वारा बताई गईं सब बातें स्मरण हो आईं जो उसने कभी उनसे साँझा की थीं, कुछ पुरानी तस्वीरें उनके नेत्रों के समक्ष एक के बाद एक आने-जाने लगीं ।
क्रमश..