Baat bus itni si thi - 26 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 26

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बात बस इतनी सी थी - 26

बात बस इतनी सी थी

26.

लगभग दो महीने बाद मेरी कंपनी में एक और नये प्रोजेक्ट पर काम शुरू हुआ । इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए कंपनी में पुराने एंपलॉइस पर्याप्त नहीं थे । पुराने एंप्लॉइस के ऊपर काम का दबाव बढ़ाने के बावजूद भी कंपनी का काम समय पर पूरा नहीं हो पा रहा था, इसलिए कंपनी ने कुछ नये एंप्लाइज की नियुक्ति की थी ।

नये एंप्लाइज की नियुक्ति के अगले दिन मैं ऑफिस पहुँचा, तो अपने केबिन की ओर जाते हुए मुझे मेरे सामने वाले केबिन में एक महिला एंप्लॉय को देखकर कुछ संदेह-सा हुआ और अचानक मेरे आगे बढ़ते कदम ठिठक कर वहीं रुक गए । हालांकि उस समय उस महिला एंप्लॉय की मेरी तरफ से पीठ फिरी हुई थी । मैंने यह अनुमान भी लगा लिया था कि वह महिला उन नवनियुक्त एंप्लाय्स में से एक हो सकती है, जिन्होंने आज ही ऑफिस ज्वाइन किया है । लेकिन फिर भी उसको पीछे से देखकर मुझे ऐसा लग रहा था कि वह मंजरी है ।

अपने शक को पुख्ता करने के लिए मैं अपने केबिन में न जाकर पीछे लौट गया और एच.आर. ऑफिस में जाकर मिस्टर खन्ना से नवनियुक्त एंपलॉय्स के नामों की सूची लेकर देखने लगा । सूची में मैंने देखा, दूसरे नंबर पर मंजरी का नाम था, जो नये प्रोजैक्ट के लिए असिस्टेंट मैनेजर की पोस्ट पर नियुक्त होकर आई थी ।

मंजरी का नाम देखते ही मेरी अजीब-सी हालत हो गई । एक बार उससे पीछा छूटने के बाद मैं नहीं चाहता था कि पूरी जिंदगी में कभी भी मेरा उससे सामना हो । अभी तो हमें अलग हुए मात्र आठ महीने ही हुए थे । अपनी इस कमजोरी के साथ उस दिन तो मैं अपने चेहरे पर मंजरी के वहाँ होने की अनभिज्ञता जताते और आँख बचाते हुए अपने केबिन में पहुँच गया । लेकिन मैं दिन-भर लैपटॉप पर अपनी निगाहें गड़ाये हुए काम में व्यस्त रहा और तबियत कुछ ठीक नहीं होने का बहाना करके समय पूरा होने से पहले ही मैं ऑफिस छोड़कर घर के लिए निकल गया । इतना ही नहीं, उस दिन के बाद भी मैं अगले पन्द्रह दिन तक तबीयत खराब होने का बहाना करके ऑफिस नहीं गया । ऑफिस से छुट्टी लेकर ऑफिस का सारा काम मैं पन्द्रह दिनों तक घर से ही करता रहा था ।

पन्द्रह दिन बाद जब मैं ऑफिस गया, तब भी मैंने छह-सात दिन मंजरी से आँखें चुराते हुए काट दिये । लेकिन एक सप्ताह बाद मैंने जैसे ही ऑफिस में प्रवेश किया, अचानक मंजरी मेरे सामने आ गई । एक पल के लिए तो हम दोनों ही पत्थर की मूर्ति बन गए थे । अगले क्षण मंजरी बोली -

"कैसे हो ? मैंने सुना था कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है ?"

"हाँ, तुमने सही सुना था ! पर अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ ! तुम कैसी हो ?"

"जैसी तुम देख रहे हो ?"

मंजरी ने कुछ गोलमोल सा जवाब दिया और एक पल भी गँवाये बिना तुरन्त अपने केबिन में चली गई ।

देखने से मंजरी खूब खुश नजर आ रही थी । मनभावन रंग की सुंदर महंगी साड़ी पहनकर सजी सँवरी हुई वह काफी स्मार्ट और आकर्षक लग रही थी । उसके हाव-भाव और उसकी जीवन शैली को देखकर सरलता से केवल यही अनुमान लगाया जा सकता था कि मुझसे अलग होने के बाद उसने तुरंत ही दूसरा जीवन साथी तलाश कर अपनी लाइफ सेटल कर ली होगी ।

मंजरी से औपचारिक हाय हैलो होने के बाद मैं अपने केबिन में जाते हुए सोचने लगा -

"चलो अच्छा ही है ! किसी की तो जिंदगी में सुकून लौट आया है ! मैं और मंजरी अलग नहीं होते, उसकी जिंदगी पटरी पर नहीं आ पाती ! मेरी जिंदगी में तो न मंजरी के साथ रहते हुए सुख चैन था और न अब सुकून है !"

मैं मेरे और मंजरी के अलग होने के बाद के हम दोनों के जीवन की वर्तमान दशा के बारे में सोचता हुआ ज्यों ही अपने केबिन में पहुँचा, मेरी नजर मेज पर रखे हुए कुछ पेपर्स पर पड़ी । मैंने जिज्ञासा और उत्सास से उन पेपर्स को उठाकर देखा । पेपर हाथ में लेते ही पहली नजर में यह पता चल गया कि किसी प्रॉपर्टी के पेपर्स हैं । अब मेरी जिज्ञासा कुछ और बढ़ गयी थी । मैंने जल्दी-जल्दी वे सारे पेपर्स उलट पलट कर देखे, तो पता चला कि सारे पेपर्स मेरे उसी फ्लैट की रजिस्टरी के थे, जिसका मालिकाना हक दस महीने पहले ही मैं किसी दूसरे व्यक्ति को दे चुका था ।

जब मैंने यह देखा कि मेरे हाथ में पकड़े हुए सभी पेपर्स वर्तमान में उस फ्लैट पर मेरी माता जी का स्वामित्व दर्शा रहे हैं, तो मेरे पैरों के नीचे से धरती ही खिसक गई और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । उस फ्लैट पर मेरी माता जी के स्वामित्व से संबंधित पेपर्स देखकर मेरे दिल-दिमाग में दो प्रश्नों ने तूफान मचा दिया था । पहला प्रश्न यह था कि -

"क्या मेरी माता जी के पास इतनी बड़ी रकम थी कि वे दोबारा उस फ्लैट को खरीद सकें ? मैं जानता था कि मेरे माता जी के पास इतने रुपये नहीं थे । तो फिर उन्होंने इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था कब ? कैसे ? और कहाँ से होगी ?"

मैं अच्छी तरह जानता था कि माता जी के जीवन में उस फ्लैट का महत्व किसी भी धन दौलत से अधिक है, लेकिन उन्होंने इस विषय में मेरे साथ कोई चर्चा किये बिना एक बड़ी रकम देकर उस फ्लैट को खरीदा है, इस बात को मेरा मन सहज स्वीकार नहीं कर पा रहा था । मेरे मस्तिष्क में दूसरा प्रश्न यह उठ रहा था कि -

"यदि माता जी ने यह फ्लैट खरीद भी लिया है, तो वह मुझसे इसके बारे में घर पर ही बता सकती थी ! हर रोज मैं सुबह घर से ही आता हूँ और यहाँ से लौटकर हर शाम घर वापिस जाता हूँ ! यहाँ तक कि आज सुबह भी मैं घर से ही आ रहा हूँ ! फिर इन पेपर्स को मेरे ऑफिस में भिजवाने की माता जी को क्या जरूरत थी ? और यहाँ मेरे केबिन इन्हें कौन लाया है ?"

पेपर्स हाथ में लिये हुए मैं अपने प्रश्नों में उलझा हुआ था और अपना दिमाग उनके उत्तर खोजने में खपा रहा था । तभी मेरे केबिन के बाहर से खट-खट-खट की आवाज आई । मैंने नजर उठाकर उधर देखा, तो मेरे केबिन के बाहर मंजरी खड़ी थी । मुझसे नजर मिलते ही वह बोली -

"अंदर आ सकती हूँ ?"

अंदर आने के लिए पूछे गए उसके प्रश्न को सुनकर मेरी खोपड़ी और गर्म हो गई । एक तो वह ऐसे समय पर आई थी, जब प्रॉपर्टी के पेपर्स को लेकर मैं मेरे दिमाग में चल रहे कई सवालों का जवाब अभी तक नहीं ढूँढ पाया था । दूसरे, मैं उससे दूर ही रहना चाहता था । उससे आमना-सामना न होने पाए, इसीलिए तो मैं पन्द्रह दिनों तक ऑफिस भी नहीं आया था और घर से ही ऑफिस का सारा काम करता रहा था।

आज पहले तो ऑफिस में पहुँचते ही सबसे पहले मंजरी से मुलाकात होना और अब उसका मेरे केबिन में आना, यह दोनों ही क्षण मुझे डिस्टर्ब करने के लिए पर्याप्त थे । एक बार मेरे मन में आया कि उसके प्रश्न के जवाब में कह दूँ, "नहीं !" लेकिन मेरे संस्कारों ने मेरे मन की बातों को होंठो पर नहीं आने दिया और जो मैं कहना नहीं चाहता था, वह मेरे होठों ने बोल दिया -

"हाँ ! आ जाइए !"

अंदर आकर मंजरी बिना किसी लाग-लपेट के बोली -

"इन पेपर्स के बारे में सोच रहे हो कि ये कहाँ से आए हैं ? और इन्हें यहाँ कौन लाया है ? और सबसे बड़ी बात यह सब कैसे संभव हुआ ?"

मैंने मंजरी के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया, तो उसने दुबारा कहना शुरू कर दिया -

"तुम ही क्यों ? तुम्हारे अलावा कोई दूसरा व्यक्ति होता, तो वह भी यही सोच रहा होता कि अपने पूर्वजों की जो प्रॉपर्टी एक बार हाथों से निकल गई, वही प्रॉपर्टी बिना कुछ किए अचानक आपके हाथों में वापस कैसे लौट आई ? कोई भी आदमी यह तो सोचेगा ही न कि यह सब चमत्कार कैसे हुआ ? कहते हैं कि जब ऊपर वाला देता है, तो छप्पर फाड़कर देता है !"

यह कहकर मंजरी ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया था कि उसको उन पेपर्स के बारे में केवल जानकारी ही नहीं है, बल्कि उन्हें मेरे ऑफिस में लाने में भी उसकी बड़ी भूमिका हो सकती है ! यह अनुमान होने के बावजूद कि उन प्रॉपर्टी पेपर्स के बारे में मंजरी सब कुछ जानती ही नही है, उसमें उसकी बड़ी भूमिका भी हो सकती है और यह बिल्कुल भी नहीं जानते हुए कि मंजरी का उसमें क्या और कितना योगदान मेरे हित या अहित में रहा है, मैंने उपेक्षा और झुँझलाहट के साथ कहा -

"मैं क्या ? और क्यों ? सोच रहा हूँ, वह सब छोड़ो और अपनी कहो ! तुम्हें क्या चाहिए ?"

"मुझे कुछ नहीं चाहिए ? तुम बताओ, तुम्हें चाहिए ? या नहीं ? ये पेपर्स ? मैंने ही इन्हें तुम्हारी टेबल पर रखा था !"

यह जानकर कि मेरी मेज पर वे पेपर्स मंजरी ने रखे थे, मेरा तनाव और बढ़ गया था कि मैं उससे जितनी ही दूर जाने की कोशिश करता हूँ, वह उतनी ही मेरे निकट और निकट आती जा रही है । वैसे भी, उस समय मंजरी से बात करने में मेरी बिल्कुल रुचि नहीं थी, इसलिए मैंने उससे स्पष्ट कहा -

"मेरे पास इस बात को मानने का कोई कारण नहीं है कि मेरी टेबल पर यह पेपर्स तुमने रखे हैं ! मुझे तुमसे इसका कोई प्रमाण भी नहीं चाहिए ! दूसरी बात, यदि यह पेपर्स तुमने यहाँ रखे हैं, तो मैंने तुमसे इन्हें नहीं मांगा था ! और मेरी तीसरी बात जरा ध्यान से सुनो - यह ऑफिस है ! यहाँ सिर्फ ऑफिस से संबंधित बातें करो, तो यह तुम्हारे लिए भी बेहतर है और मेरे लिए भी ! अब तुम अपने केबिन में जा सकती हो ! मुझे बहुत काम करना अभी बाकी है !"

शायद मंजरी को मुझसे ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी । इसलिए उसको मेरे व्यवहार से गुस्सा आया और वह बोली -

"मिस्टर चंदन ! मुझे भी कोई शौक नहीं है तुम्हारे केबिन में आने का ! मैं तुम्हें सिर्फ यह कहने के लिए आई थी कि वह फ्लैट, जो तुम्हारे पापा ने अपनी मेहनत की कमाई का पाई-पाई जोड़कर खरीदा था, जो उन्होंने इस दुनिया से विदा लेने से पहले तुम्हारी माता जी के लिए एक अनमोल उपहार के रूप में छोड़ा था, और जिसको तुमने दहेज की रकम चुकाने के लिए बेच दिया था, मैंने उसी फ्लैट को तुम्हारी माता जी के नाम पर खरीदकर तुम्हें वापस कर दिया है !"

मंजरी ने सोचा था कि मैं इस सबके लिए उसको धन्यवाद कहूँगा, लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता था । मैंने कहा -

"मुझे और मेरी माता जी को तुम्हारी कोई सहायता या दया नहीं चाहिए ! मैं अपनी माता जी के बारे में खुद सोच सकता हूँ और उनका अच्छी तरह से ध्यान रख सकता हूँ ! जब मुझे जरूरत होगी और मेरी सामर्थ्य होगी, मैं खुद उस फ्लैट को खरीद लूँगा !"

"वह तो मैं देख चुकी हूँ कि तुम अपनी माता जी के सुख-दुख का कितना ध्यान रख सकते हो ! एक अदद फ्लैट, जो तुम्हारे पापा ने तुम्हारी माता जी के रहने के लिए उन्हें खरीदकर दिया था, तुमने वह भी गँवा दिया !"

यह कहकर मंजरी के होंठों पर व्यंग की मुस्कुराहट खिल उठी, जो मुझे तीखी मिर्च की तरह लग रही थी । मैंने उसकी बात का उसी की शैली में जवाब दिया -

"मंजरी ! यह मत भूलो कि मेरी माता जी का सुख उस ईंट-पत्थर के बेजान फ्लैट में नहीं, अपने इस जीते-जागते बेटे में बसता है, जो आज भी उनके पास है और खुद से ज्यादा उनकी चिन्ता करता है !

मेरा जवाब सुनकर मंजरी पैर पटकती हुई मेरे केबिन से बाहर जाने के लिए मुड़ गयी । वह जाने लगी, तो उसके बाहर निकलने से पहले ही मैंने दोबारा कहा -

"अपने ये पेपर भी ले जाओ ! इन्हें लेने के लिए तुम्हें दोबारा मेरे केबिन में आने की जरूरत न पड़े !"

मंजरी ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया । यहाँ तक कि उसने वापस पीछे मुड़कर भी नहीं देखा । शाम तक वे पेपर्स मेरी मेज पर ही रखे रहे । ऑफिस से निकलते समय मैंने उन्हें उठाकर अपनी अलमारी में रख दिया और घर के लिए निकल गया । लेकिन माता जी के नाम पर फ्लैट की रजिस्ट्री के पेपर्स देखने के बाद से ही मेरे दिल और दिमाग में एक ही शंका हो रही थी कि मेरी माता जी के फर्जी सिग्नेचर करके मंजरी उन्हें किसी फ्रॉड़ में फँसाने की योजना तो नहीं बना रही है ?

उस समय मैं इतना बेचैन था कि उन पेपर्स की सच्चाई जानने के लिए घर जाने से पहले उस सोसायटी में पहुँच गया, जहाँ हमारा वह फ्लैट था, जिसे मैं पहले ही बेच चुका था और जिसकी मेरी माता जी के नाम पर रजिस्ट्री के पेपर्स मेरे ऑफिस की मेरी अलमारी में रखे थे । सोसायटी में कई पुराने परिचित लोगों से मेरी राम-रहीम और हाय-हैलो हुई । सभी ने मुझसे एक ही सवाल पूछा -

"और सुनाओ, भई चंदन जी ! आज इधर कैसे आना हूआ ? बहुत दिनों बाद आज आपके दर्शन हो रहे हैं । जब से यहाँ से गये हो, इधर कभी आये ही नहीं !"

मेरे पास उनके सवाल का कोई जवाब नहीं था । इसलिए मैं हाय-हैलो करके उनके सवाल को टालकर जवाब दिये बिना ही अपने फ्लैट की दिशा में आगे बढ़ता गया । आगे चलकर जब मैं फ्लैट पर पहुँचा, तो मैंने फ्लैट के दरवाजे पर ताला पड़ा हुआ पाया । अब मेरे पास उस फ्लैट के असली मालिकाना हक का पता लगाने का एक ही विकल्प बचा था । वह विकल्प था, तहसील के प्रॉपर्टी ऑफिस में जाकर फ्लैट के उन पेपर्स को दिखाकर सच्चाई की जानकारी करना ।

लेकिन अगले दिन रविवार था । तहसील के प्रॉपर्टी ऑफिस से सच्चाई का पता लगाने के लिए कम-से-कम चालीस घंटे तक इंतजार करना था । इसलिए फ्लैट के दरवाजे से वापिस लौटने से पहले एक बार मेरे मन में आया कि किसी पड़ोसी से कुछ पूछूँ ! लेकिन फिर मैंने सोचा कि किसी से पूछकर अपना ही तमाशा बनाना ठीक नहीं है । यह सोचते-सोचते कि कैसे जल्दी-से-जल्दी उन पेपर्स का सच पता चले ? मैं वहाँ से वापिस घर की ओर चल पड़ा ।

क्रमश..