Charles Darwin ki Aatmkatha - 4 in Hindi Biography by Suraj Prakash books and stories PDF | चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 4

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 4

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(4)

मुझे इस बात की हैरानगी है कि कैम्ब्रिज में मैंने जितने भृंगी-कीट पकड़े, उनमें से कई ने मेरे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ दी थी। जहाँ-जहाँ मुझे अच्छा संग्रह करने का मौका लगा उन सभी खम्भों, पुराने वृक्षों और नदी के किनारों को मैं आज भी याद कर सकता हूं। उन दिनों पेनागियस क्रुक्स मेजर नामक प्यारा भृंगी कीट एक खजाने की तरह से था, और डॉन में घूमते हुए मैंने एक भृंगी कीट देखा जो कि सड़क पर दौड़ता हुआ जा रहा था। मैंने भाग कर उसे पकड़ा, और तुरन्त ही मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि यह पेनागियस क्रुक्स मेजर से थोड़ा अलग है। बाद में पता चला कि वह पी क्वाड्रिपंक्टेटस था, जो कि इसकी एक किस्म या इसी की निकट सम्बन्धी प्रजाति है, लेकिन इसकी बनावट में थोड़ा अन्तर है। मैंने उन दिनों लिसीनस को कभी जिंदा नहीं देखा था, यह कीट भी अनजान व्यक्ति के लिए काले कैराबाइडुअस भृंग से शायद ही अलग लगे, लेकिन मेरे बेटों ने यहाँ एक ऐसा ही कीट पकड़ा और मैं तुरन्त जान गया कि यह मेरे लिए नया है। तो भी पिछले बीस साल से मैंने ब्रिटिश भृंगी कीट नहीं देखा है।

मैंने अभी तक वह परिस्थिति नहीं बतायी है जिसने दूसरी बातों की तुलना में मेरे समूचे कैरियर को सर्वाधिक प्रभावित किया। यह घटना थी – प्रोफेसर हेन्सलो के साथ मेरी दोस्ती। कैम्ब्रिज आने से पहले मैंने अपने भाई से उनके बारे में सुना था। प्रोफेसर हेन्सलो विज्ञान की हर शाखा के बारे में जानते थे, और मैं उनके प्रति नतमस्तक था। सप्ताह में एक बार वे ओपन हाउस रखते थे। उस दिन यूनिवर्सिटी में विज्ञान विषय पढ़ने वाले सभी अन्डर ग्रेजुएट और पुराने सदस्य एकत्र होते थे। फॉक्स के माध्यम से जल्द ही मुझे भी सभा में शामिल होने का निमत्रण मिला और उसके बाद मैं नियमित रूप से वहाँ जाने लगा। हेन्सलो के साथ घुलने-मिलने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। कैम्ब्रिज में बाद के दिनों में मैं ज्यादातर उन्हीं के साथ सैर करने जाता था। कुछ गुरुजन तो मुझे यह भी कहने लगे थे, `हेन्सलो के साथ घूमने वाला व्यक्ति' और अक्सर शाम को वे मुझे अपने परिवार के साथ भोजन पर बुला लेते थे। वनस्पतिशास्त्र, कीट विज्ञान, रसायन, खनिज विज्ञान और भूविज्ञान में उन्हें व्यापक ज्ञान था। लम्बे समय तक निरन्तर चलने वाले सूक्ष्म अवलोकन से निष्कर्ष निकालने की उनकी रुचि बहुत गहरी थी। उनकी निर्णय शक्ति अद्वितीय और उनका दिमाग संतुलित था, लेकिन मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं दिखाई देता था जो यह कहे कि प्रोफेसर हेन्सलो में आत्म-प्रज्ञा नहीं थी।

वे बहुत ही धार्मिक और रुढ़िवादी थे। एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि थर्टीनाइन आर्टिकल्स का अगर एक भी शब्द बदला जाए तो उन्हें बहुत दुख होगा। उनके नैतिक गुण अत्यधिक प्रशंसनीय थे। उनमें लेश मात्र भी मिथ्या अहंकार नहीं था। वे अन्य क्षुद्र भावनाओं से भी कोसों दूर थे। मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा था जो अपने और अपने कार्य व्यापार के बारे में बहुत ही कम सोचता हो। वे हर प्रकार की अहंमन्यता या इसी प्रकार की संकीर्ण विचारधारा से पूरी तरह मुक्त थे। उनका स्वभाव अत्यन्त शान्त था, वे सुशील और दूसरे के दिल को जीत लेते थे, लेकिन वे किसी भी गलत काम के खिलाफ बहुत ही जल्दी आक्रोश से भर जाते थे, और फौरन ही उसे रोकने का प्रयास भी करते थे।

एक बार मैं उनके साथ कैम्ब्रिज की सड़कों पर घूम रहा था। अचानक ही मैंने बड़ा भयंकर दृश्य देखा जो शायद फ्रांसीसी क्रान्ति में ही दिखाई दिया होगा। दो उठाईगीरों को पुलिस ने गिरफ्तार किया गया था, और जेल ले जाते समय उग्र भीड़ ने उन्हें हवलदार के हाथों से झपट लिया, और उसी धूलभरी तथा पथरीली सड़क पर दोनों उठाईगीरों की टाँगें पकड़कर घसीटने लगे। वे दोनों ही सिर से पैर तक धूल से सने हुए थे। लात-घूंसों और पत्थरों की मार से उनके चेहरे लहूलुहान थे। दोनों ही अधमरे हुए जा रहे थे। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उन दोनों आफत के मारे उठाईगीरों की एक झलक भर देख पाए थे हम दोनों। उस भयंकर दृश्य को देखकर हेन्सलों के चेहरे पर जो पीड़ा मैंने देखी वैसी मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। उन्होंने बार-बार भीड़ को चीरकर रास्ता बनाने की कोशिश की लेकिन वह तो असम्भव था। वे तुरन्त मेयर के पास भागे और मुझसे कहा कि उनके पीछे आने के बजाय मैं कुछ और पुलिसवालों को बुला लाऊँ। बाकी तो याद नहीं, हाँ इतना ज़रूर हुआ कि पुलिस दोनों उठाईगीरों को जिन्दा ही जेल पहुँचाने में सफल रही।

हेन्सलो की परोपकारिता अपरिमित थी। उन्होंने गरीब देहातियों के लिए जो बेहतरीन योजनाएं तैयार कीं, उनसे इसके पक्के प्रमाण मिलते हैं। हिचेम में रहने के दौरान तो उन्होंने बहुतों का भला किया। ऐसे इंसान के साथ तो मेरी घनिष्ठता होनी ही थी, और मेरे ख्याल से यह मेरे लिए अपार लाभदायक भी रहा।

मैं एक छोटा-सा वाकया बताता हूँ जो उनकी उदारता को प्रकट करता है। नमीदार सतह पर पराग कणों की परीक्षा करते समय मैंने देखा कि कुछ गाँठें सी निकल आयी हैं। अपनी यह आश्चर्यजनक खोज उन्हें तुरन्त बताने के लिए मैं भागा-भागा गया। उनकी जगह वनस्पतिशास्त्र का कोई दूसरा प्रोफेसर होता तो इस तरह की जानकारी देने के लिए मेरी बदहवासी पर हंसे बिना न रहता। लेकिन उन्होंने इस घटना को बड़ा रोचक बताया और इसका आशय समझाते हुए यह भी स्पष्ट किया कि यह कोई नई घटना नहीं है, बल्कि सर्वविदित है। इस घटना से वे तो बहुत कम प्रभावित हुए लेकिन मुझे उन्होंने यही एहसास कराया कि मैंने स्वयं ही बहुत उल्लेखनीय तथ्य को भली प्रकार समझ लिया है। साथ ही मैं इसके लिए भी कृतसंकल्प हो उठा कि अब अपनी खोज को लेकर इतनी जल्दबाजी नहीं करूँगा।

डॉ. व्हीवेल पुराने परिचितों और खास लोगों में से एक थे। हेन्सलो के पास इनका आना-जाना होता रहता था। मैं कई बार रात में उनके साथ ही घर लौटता था। गम्भीर विषयों पर व्याख्यान देने में सर जे मेकिनटोश के बाद उन्हीं का स्थान था, लेकिन मैंने उनके व्याख्यान कभी नहीं सुने। हेन्सलो और लियोनार्ड जेन्यन्स में जीजा-साले का रिश्ता था। लियोनार्ड भी कभी-कभार हेन्सलो के यहाँ रुकते थे। इन्होंने आगे चलकर प्राकृतिक इतिहास में बहुत से उत्कृष्ट निबन्ध प्रकाशित कराए। लियोनार्ड जब फैन्स (स्वाथम बुलबेक) की सीमा पर रह रहे थे, तो मैं खास मेहमान के तौर पर उनके पास गया था। उनके साथ भी प्राकृत इतिहास पर मैंने खूब बातें कीं। हम मिलकर सैर को गए। मैं अपने से उम्र में बड़े कई लोगों से परिचित हुआ जो विज्ञान के बारे में अधिक चिन्ता नहीं करते थे, लेकिन वे सब हेन्सलो के दोस्त थे। इनमें एक स्कॉटमैन भी थे जो सर अलेक्जेन्डर रैमसे के भाई थे, और जीसस कालेज में शिक्षक थे। बहुत कम उम्र में ही इनका देहान्त हो गया था। एक मिस्‍टर डावेस भी थे जो बाद में हरफोर्ड के डीन बने। गरीबों के लिए शिक्षा व्यवस्था तैयार करने में इन्होंने बहुत नाम कमाया। इन लोगों और ऐसे ही ज्ञानवान लोग तथा हेन्सलो सब मिलकर ग्रामीण इलाकों में दूर-दूर तक अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इनमें मुझे भी बुलाया जाता था और सभी मुझे तहे-दिल से साथ रखते थे।

अतीत पर नजर डालूँ तो मैं इस निर्णय पर पहुँचता हूँ कि मुझमें ऐसा ज़रूर कुछ था जो मुझे आम नौजवानों से अलहदा बनाए हुए था। वरना तो मैं जिन लोगों के साथ रहता था वे न केवल उम्र में मुझसे बड़े थे बल्कि कहीं ज्यादा पढ़े लिखे भी थे, और ऐसा न होता तो उन्होंने मुझे कभी भी साथ न लिया होता।

मैं अपने एक शिकारी दोस्त टर्नर की बात याद कर बैठता हूँ, जिसने मुझे गुबरैलों का संग्रह करते देखकर कहा था कि तुम एक दिन रॉयल सोसायटी के फैलो बनोगे। उसकी आत्मा की यह आवाज़ मुझे उस समय निरर्थक लगी थी।

कैम्ब्रिज में अपने अंतिम वर्ष में मैंने अत्यधिक सावधानी बरतते हुए और रुचि लेते हुए हम्बोल्ड लिखित पर्सनल नरेटिव का अध्ययन किया। इस रचना और सर जे हर्शेल लिखित इन्ट्रोडक्शन टू दि स्टडी ऑफ नेचुरल फिलासफी ने मेरे मन में इस उत्साह को और भी बढ़ावा दिया कि मैं भी प्राकृत विज्ञान की विशाल संरचना में अपना तुच्छ योगदान देने का प्रयास करूँ। लगभग दर्जन भर दूसरी पुस्तकों में से किसी भी पुस्तक ने मुझ पर इतना प्रभाव नहीं डाला जितना इन दोनों ने। मैंने हम्बोल्ड की पुस्तक में से टेनरिफेल के बारे में लिखे अंश की नकल की और अपनी अध्ययन यात्राओं के दौरान हेन्सलो (शायद), रेमसे और डेवेस के सामने इसका वाचन किया, क्योंकि पहले किसी मौके पर मैंने टेनरिफेल की शोभा का जिक्र किया था, और हमारी मंडली के कुछ लोगों ने यह भी कहा था कि वे वहाँ जाने का प्रयास करेंगे, लेकिन मेरा विचार है कि वे सब अधूरे मन से कह रहे थे। लेकिन मैं तो भीतर से तैयार था और लन्दन के एक मर्चेन्ट से मिलकर जलयान के बारे में पूछताछ भी कर चुका था, लेकिन मेरी यह योजना बीगेन पर समुद्री यात्रा के आगे धरी रह गयी।

गर्मी की छुट्टियों का मेरा सारा वक्त गुबरैले पकड़ने, कुछ पढ़ाई करने और छोटी-मोटी यात्राओं में निकल जाता था। पतझड़ के दौरान मेरा सारा समय निशानेबाजी में जाता था। मैं इसमें से ज्यादातर समय वुडहाउस और मायेर में गुज़ारता था। कई बार मैं आयटन के रईस आयटन के साथ भी रहता था। कुल मिलाकर कैम्ब्रिज में बिताए गए तीनों बरस मेरे जीवन के सर्वाधिक खुशी भरे रहे। मेरी सेहत बहुत बढ़िया रही और कुल मिलाकर मैं कभी दुखी नहीं रहा।

मैं 1831 की शुरुआत में क्रिसमस पर कैम्ब्रिज आया था, इसलिए अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी मुझे दो सत्रों तक रोका गया; तब हेन्सलो ने ही मुझे समझा-बुझा कर भूविज्ञान का अध्ययन शुरू करने के लिए कहा। इसलिए श्रापशायर लौटने के बाद मैं भूखण्डों की व्यवस्था का अध्ययन करने लगा और श्रूजबेरी के आसपास के इलाकों के रंगदार नक्शे भी तैयार किए। प्राचीन चट्टानों का भूवैज्ञानिक अन्वेषण करने के लिए अगस्त की शुरुआत में प्रोफेसर सेडविक नार्थवेल्स की यात्रा शुरू करने वाले थे; हेन्सलो ने उनसे कहा कि वे मुझे भी साथ चलने की इजाज़त दें। सब तैयारी करके वे मेरे पिता के घर आकर रुके।

शाम को उनके साथ थोड़ी बातचीत ने मेरे दिमाग पर गहरा असर डाला। श्रूजबेरी के समीप ही एक दलदली गड्ढे की जाँच करते समय एक मज़दूर ने मुझे बताया कि उसे गड्ढे में से एक बड़ा पुराना-सा उष्ण कटिबंधीय शंख मिला है। ऐसे शंख झोपड़ियों की चिमनियों में भी मिल जाते हैं, लेकिन उस मजदूर ने शंख बेचने से मना कर दिया। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत था कि उसे यह शंख वास्तव में गड्ढे में से ही मिला था। मैंने सेडविक को यह बात बताई तो (संदेह नहीं सच में) वे एकदम बोले कि किसी ने इसे गड्ढे में फेंक दिया होगा; लेकिन वे यह भी बोले कि यदि यह वहीं पड़ा रहता तो भूविज्ञान के लिए दुर्भाग्य की बात होती, क्योंकि यह हमें मिडलैन्ड काउन्टीज में धरातलीय मिट्टी के जमाव के बारे में काफी बातों की जानकारी देगा। दलदल की ये परतें वस्तुत: हिम नदीय युग से सम्बन्धित हैं, और बाद के वर्षों में ये मुझे आर्कटिक के टूटे हुए शंखों में भी मिले। लेकिन उस समय मैं एकदम हैरान रह गया कि सेडविक इस अद्भुत तथ्य पर खुश क्यों नहीं हुए कि उष्ण कटिबंधीय इलाके का शंख यहाँ इंग्लैन्ड के बीचों-बीच इलाके में ज़मीन के भीतर कहाँ से आया होगा। यद्यपि मैंने बहुत-सी वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन किया था, लेकिन इससे पहले मुझे इतनी गहराई से यह अहसास नहीं हुआ था कि तथ्यों का समूहीकरण करने में ही वैज्ञानिकता है, क्योंकि इसके बाद ही कोई सामान्य नियम या निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

अगले दिन हम लेंगोलेन, कॉनवे, बेंगोर और कैपल कूरिग के लिए निकल पड़े। इस यात्रा का एक लाभ तो मुझे यह मिल ही गया कि किसी देश के भूविज्ञान का अध्ययन किस प्रकार किया जाए। सेडविक मुझे कई बार अपने ही समानांतर चलने को कहते और कहते कि चट्टानों के नमूने लेते चलो तथा नक्शे पर उनका स्तर विन्यास भी चिह्नित करो। मुझे थोड़ा-सा संदेह है कि उन्होंने यह मेरी भलाई के लिए किया था, क्योंकि मैं उनकी सहायता करने में बहुत ही उदासीन रहता था। इस यात्रा के दौरान एक विशेष अनुभव भी हुआ कि जब तक ध्यान देकर न देखा जाए तो उत्कृष्टतम लक्षण को भी नज़र-अन्दाज़ कर देना कितना आसान होता है। क्वेम इड्वाल में हम दोनों ने कई-कई घन्टे लगाकर सभी चट्टानों को बड़े ही ध्यान से देखा, क्योंकि सेडविक उनमें जीवाश्म (फॉसिल) तलाश रहे थे, लेकिन हम दोनों ही ने अपने चारों ओर बिखरे पड़े हिम नदीय लक्षणों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया; हमने समतल तराशी चट्टानों, इधर-उधर पड़े शिलाखंडों, आवसानिक और पार्श्वीय हिमोढ़ों पर नज़र ही नहीं डाली। हालांकि ये लक्षण इतने सुस्पष्ट हैं कि इसके कई वर्ष बाद फिलास्फिकल मैगजीन में प्रकाशित एक लेख में मैंने यह ज़िक्र किया कि वह घाटी अपनी कहानी ठीक उसी तरह से कह रही थी जिस तरह से जलकर खाक हुआ कोई मकान कहता है। यदि यह घाटी अभी भी हिमनद के पानी से भरी होती तो ये सभी लक्षण इतने मुखर न होते जितने इस समय हैं।

केपेल क्यूरिग में मैं सेडविक से अलग हो गया और दिक्सूचक तथा नक्शे के सहारे नाक की सीध में चलता गया तथा पर्वतों को पार करता हुआ बारमाउथ तक गया। रास्ते में मैंने कभी भी निर्धारित मार्ग का अनुसरण नहीं किया। संयोगवश मिल गया तो दूसरी बात थी। इस प्रकार मैं एक अपरिचित बियाबान में जा पहुँचा, और इस तरह की यात्रा का मैंने खूब आनन्द उठाया। मैं बारमाउथ में पढ़ रहे कैम्ब्रिज के पुराने साथियों से मिला और वहाँ से श्रूजबेरी लौटा और निशानेबाजी के लिए मायेर चला गया। उस समय मुझ पर भूविज्ञान या किसी अन्य विज्ञान की बनिस्बत चकोर के शिकार का भूत सवार था।

बीगेल से समुद्रयात्रा : 27 दिसम्बर 1831 से 2 अक्तूबर 1836

नार्थ वेल्स की इस छोटी भूवैज्ञानिक यात्रा से लौटने पर मुझे बताया गया था कि कैप्टन फिट्ज राय को एक सहायक चाहिए, जो उनके साथ बिना कुछ भी वेतन लिए बीगल की समुद्र यात्रा पर चल सके। उसे प्रकृतिवादी के रूप में काम करना होगा और बदले में उसे कैप्टन राय अपने केबिन की सभी कलाकृतियाँ देंगे। जहाँ तक मेरा विश्वास है मैंने अपने यात्रा-संस्मरण रोज नामचे में उन सभी घटनाओं का जिक्र किया है जो उस दौरान घटित हुईं। यहाँ मैं केवल इतना ही बताऊँगा कि मैं भी इस प्रस्ताव को मानने के लिए पूरी तरह से इच्छुक था। लेकिन मेरे पिता ने इसका पुरज़ोर विरोध किया, और मेरी भलाई के लिए यह भी कहा,`यदि तुम सामान्य बुद्धि का ऐसा कोई व्यक्ति बता सको जो तुम्हें वहाँ जाने की सलाह दे, तो मैं भी सहमति दे दूँगा।' इसलिए मैंने उसी शाम इन्कार करते हुए जवाब लिख दिया। अगली सुबह मैं पहली सितम्बर की तैयारी करने के लिए मायेर चला गया। मैं निशानेबाजी कर रहा था कि मुझे अंकल ने बुलवाया। उन्होंने मुझसे श्रूजबेरी चलने के लिए कहा और बोले कि वे मेरे पिता से चलकर बात करेंगे कि उस प्रस्ताव को मानना बुद्धिमानी का काम होगा। मेरे पिता हमेशा यह मानते थे कि (मेरे अंकल) विश्व के सर्वाधिक समझदार व्यक्ति हैं। उनकी बात सुनते ही पिताजी ने फौरन सहमति दे दी। मैं कैम्ब्रिज में बहुत फिजूलखर्ची करता था, इसके लिए मैंने पिताजी को भरोसा दिलाया कि बीगेल यात्रा के दौरान मैं अपने भत्ते से ज्यादा खर्च नहीं करूँगा। पिताजी ने मुस्कराते हुए कहा, `लेकिन उन्होंने मुझे बताया है कि तुम बहुत बुद्धिमान हो।'

अगले दिन मैं कैम्ब्रिज जाने को चल पड़ा। वहाँ हेन्सलो से मिला और फिर फिट्ज राय से मिलने लन्दन के लिए निकल गया। यह सारे काम आनन-फानन में हो गये। इसके बाद जब फिट्ज राय से कुछ घनिष्टता हो गयी तो उन्होंने मुझे बताया कि वे मेरी नाक की आकृति के कारण मुझे अपने साथ न लेने का मन बना चुके थे। वे लावेटर के प्रबल अनुयायी थे, और इस बात को पक्का मानते थे कि वे किसी भी इंसान के चेहरे से उसका चरित्र जान सकते थे। उन्हें संदेह था कि मेरे जैसी नाक वाले इंसान में इस समुद्र यात्रा के लिए पर्याप्त ताकत और इच्छाशक्ति भी होगी। लेकिन मैं समझता हूँ कि बाद में उन्हें यह तो संतोष हो गया होगा कि मेरी नाक ने गलत आभास दिया था।

फिट्ज राय का चरित्र विलक्षण था। उनमें बहुत से उत्तम लक्षण थे। वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित, किसी भी कमी के प्रति उदार, बहादुर, दृढ़ प्रतिज्ञ और ग़ज़ब के ऊर्जावान तो थे ही, अपने सभी मातहतों के लिए जोशीले दोस्त भी थे। वे जिसे सहायता पाने लायक समझते थे, उस व्यक्ति के लिए कुछ भी कर गुज़रते थे। वे एक सजीले, सुदर्शन व्यक्ति थे। उनका व्यवहार बहुत अधिक शिष्टता लिये हुए था। उनकी सभी आदतें उनके मामा प्रसिद्ध लार्ड केसलरीग से मिलती थीं, जैसा कि रियो के मिनिस्टर ने बताया था। बेशक उनका चेहरा चार्ल्स-द्वितीय से मिलता-जुलता था। इसी सिलसिले में डॉक्‍टर विलिश ने अपना एक एलबम दिया था। उन्हीं चित्रों में से एक चित्र फिट्ज राय से बहुत मिलता जुलता था। बाद में चित्र के नीचे लिखा नाम मैंने पढ़ा डॉक्‍टर ई सोबेस्की स्टुआर्ट, काउन्ट ड'अल्बाइन जो कि उसी सम्राट के वंशजों में से थे।

फिट्ज राय का मिजाज़ बड़ा ही अजीब था। सवेरे-सवेरे तो उनका मूड आम तौर पर खराब ही रहता था। अपनी गिद्ध जैसी पैनी निगाह से उन्हे फौरन ही पता चल जाता था कि जलयान पर कुछ गड़बड़ है, और फिर इल्ज़ाम लगाने में वे किसी को भी बख्शते नहीं थे। वे मेरे प्रति काफी दयालु थे, लेकिन उनके साथ घनिष्टता कर पाना टेढ़ी खीर था। लेकिन एक ही केबिन में रहने के कारण हम दोनों की आदतों में कुछ घाल-मेल तो हो ही गया। हम कई बार एक दूसरे से उलझ भी जाते। ऐसे ही यात्रा की शुरुआत में ब्राजील के बाहिया नामक स्थान पर उन्होंने गुलामी प्रथा का पक्ष लिया और इसकी बड़ी तारीफ की, जबकि मुझे गुलामी प्रथा से नफरत थी। उन्होंने मुझे बताया कि वे एक ऐसे व्यक्ति से मिल चुके हैं जिसके पास कई गुलाम हैं। उन्होंने स्वयं ही अनेक गुलामों को पूछा था कि क्या वे खुश हैं, और क्या वे आज़ाद होना चाहते हैं। इस प्रश्न पर सभी का जवाब था - `नहीं'। मैंने उस समय उपहास के लहज़े में कहा था कि मालिक के सामने उसके गुलामों का वह जवाब कोई मायने नहीं रखता। इससे वे बहुत नाखुश हो गए और बोले कि इसका मतलब यह भी हो सकता है, कि मैं उनके साथ रहना नहीं चाहता। मैंने सोचा कि अब जहाज तो छोड़ना पड़ेगा, लेकिन जैसे ही दूसरे लोगों को इस झगड़े की भनक लगी, तो जहाज के कैप्टन ने फौरन ही अपने लैफ्टिनेन्ट को भेजा कि जाओ और राय के गुस्से को शान्त करने के लिए डार्विन को खरी-खोटी सुनाओ। यहाँ मैं गन रूम के आफिसर्स के प्रति काफी शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने तुरन्त ही यह संदेश भेजा कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ। लेकिन कुछ ही घंटे के बाद फिट्ज रॉय ने दरियादिली दिखाते हुए जहाज के एक अधिकारी की मार्फत माफी माँगते हुए यह भी अनुरोध किया कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ।