Manas Ke Ram - 11 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मानस के राम (रामकथा) - 11

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मानस के राम (रामकथा) - 11








मानस के राम
भाग 11




भरत की अयोध्या वापसी


आठवें दिन जब भरत और शत्रुघ्न अयोध्या पहुँचे तो वहां के वातावरण में एक अजीब सी ख़ामोशी थी। पहले की भांति ना तो सडकों और बाज़ारों में चहल पहल थी और ना ही किसी घर से कोई मंगल ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। यह सब किसी अशुभ का संकेत थे। भरत और शत्रुघ्न को अब पूरा यकीन हो गया था कि बात बहुत गंभीर है।
जब वह दोनों महल में पहुँचे तो उन्हें महाराज दशरथ की मृत्यु का दुखद समाचार मिला। साथ ही कैकेई द्वारा रचे गए षडयंत्र की भी जानकारी भी मिली। भरत शोक में डूब गए। अपनी माता के इस कृत्य पर उन्हें बहुत क्रोध आया। वह तुरंत कैकेई के महल में गए। कैकेई ने उन्हें गले से लगा कर भावी राजा के तौर पर संबोधित किया।
भरत को यह आचरण बहुत खराब लगा। उन्होंने धिक्कारते हुए कहा,
"यह क्या किया तुमने मेरे पिता की मृत्यु का कारण बन गई। मेरे बड़े भाई को बिना किसी दोष के वन भेज दिया। उन्होंने तो कभी भूल से भी किसी का दिल नहीं दुखाया। उनके साथ यह अन्याय करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आई। धिक्कार है तुम पर। तुम्हें अपनी माता कहते हुए मुझे लज्जा आ रही है। मैं तो भ्राता राम के राजगद्दी पर बैठने के स्वप्न देख रहा था। इस राजगद्दी पर मैं कैसे बैठ सकता हूँ जिसके लिए मेरे भ्राता राम को वन जाना पड़ा और मेरे पिता को प्राण गवाने पड़े। "
कैकेई ने अपना पक्ष रखते हुए कहा,
"पुत्र मैंने तो तुम्हारे हित के लिए ही यह सब किया है। सोचो यदि राम राजा बन जाता तो तुम्हारी क्या दशा होती। आज जिसके लिए तुम मुझ पर क्रोधित हो रहे हो वही तुम्हें अपना दास बनाकर रखता। मैं कौशल्या की दासी बन जाती।"
आग्नेय नेत्रों से कैकेई को देखते हुए भरत बोले,
"तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो। भ्राता राम ने सदैव तुम्हें माता कौशल्या से भी अधिक प्रेम और सम्मान दिया। मुझे सदैव पुत्रवत स्नेह किया। सब कुछ भूल कर तुमने उन्हें वन जाने को कहा। ऐसा करते हुए तुम्हारे दिल ने एक बार भी नहीं धिक्कारा। कैसी निष्ठुर स्त्री हो तुम। यह राज सिंहासन मेरे लिए धधकते अंगारों के सामान है। तुम्हारे इस कृत्य के लिए मैं तुम्हें कभी भी क्षमा नहीं करूँगा।"
कैकेई ने कहा,
"तुम भोले हो। अभी इस संसार के प्रपंच को नहीं समझते हो। जब सत्ता का मद सर पर चढ़ता है तो कोई भी रिश्ता नाता याद नहीं रहता है। जो राम अभी तुम्हें पुत्र की तरह प्रेम करता था। राजगद्दी मिल जाने के बाद तुम्हें एक दास से अधिक ना समझता। मैं भी उसके लिए एक दासी से अधिक महत्व ना रखती।"
भरत ने चिढ़कर कहा,
"मैंने सारी बात पता कर ली है। मैं जानता हूँ कि यह शब्द तुम्हारे नहीं हैं। तुम्हारे कान उस कुटिल मंथरा ने भरे हैं। मुझे अफसोस है तुम एक रानी होकर उस दासी की बातों में आ गई। उसकी बातें मान कर ऐसा पाप कर्म कर बैठी। अब अपनी गलती मानने की बजाए इस तरह की बातें कर रही हो। तुम चाहे जो कहो। पर तुमने मेरा दिल दुखाया है। तुम मेरा भला क्या चाहोगी। तुम तो यह भी नहीं समझती कि तुम्हारे इस कृत्य से मैं पूरी अयोध्या के सामने कितना लज्जित हूँ। अब तुम्हारे पाप का प्रायश्चित मुझे ही करना होगा।"
भरत कैकई के महल से चले गए। रास्ते में उन्हें मंथरा मिली। मंथरा को भी भरत के क्रोध का सामना करना पड़ा।
अपने भवन में कौशल्या शोक में डूबी हुई बैठी थीं। अचानक दो दो विपत्तियां उन पर आ पड़ी थीं। कहाँ वह अपने पुत्र राम के राज्याभिषेक की खुशी में फूली नहीं समा रही थीं। पर अचानक काल की गति ने ऐसा मोड़ लिया कि सारी परिस्थिति ही बदल गई। राम को अपनी पत्नी और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास के लिए जाना पड़ा। पुत्र के वियोग का शोक मन में दबा कर वह महाराज दशरथ को सांत्वना देने लगीं। वह पश्चाताप की आग में जल रहे थे। एक पत्नी के रूप में उनके मन की जलन को शांत करने की कोशिश करना उनका दायित्व था। पर महाराज दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिए। अब वैधव्य का दुख भी उन पर आ पड़ा।
कौशल्या ईश्वर से पूँछ रही थीं कि अचानक उन्होंने अपनी कृपा दृष्टि उनके कुल पर से क्यों हटा ली। अचानक ही उनके परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। उसी समय भरत उनके सम्मुख आकर खड़े हुए। उन्होंने कौशल्या के चरण स्पर्श किए और अपने नेत्र झुका कर उनके सामने खड़े हो गए। नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। मुख पर पछतावा था। जो कुछ हुआ उसके लिए कौशल्या के मन में क्षण भर के लिए भी भरत के प्रति कोई मैल नहीं आया था। उन्होंने उठकर भरत को गले से लगा लिया। भरत अपनी माता के कर्मों के लिए उनसे क्षमा मांग रहे थे। कौशल्या उन्हें शांत करा रही थीं। उन्होंने भरत से कहा,
"मेरे लिए तुममें और राम में कोई अंतर नहीं है पुत्र। महाराज के जाने के बाद अब सारा दायित्व तुम पर आ गया है। तुम्हें ही अयोध्या को संभालना है। यह शोक करने का समय नहीं। रघुकुल की मर्यादा निभाते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करो। ईश्वर तुम्हें शक्ति प्रदान करें। तुम्हारा यश चारों दिशाओं में फैले।"
कौशल्या के वचन सुनकर भरत को विश्वास हो गया कि राम के साथ जो हुआ उसके लिए कौशल्या उन्हें दोषी नहीं मानती हैं। उनके ह्रदय को यह जानकर बड़ी तसल्ली मिली। उनकी आज्ञा मानकर वह पिता के अंतिम संस्कार का दायित्व निभाने चले गए।
महाराज दशरथ के शव को औषधीय तेल से भरे एक कुंड में सुरक्षित रखा गया था। भरत ने उनके सारे अंतिम संस्कार किए।
सारे अंतिम कर्म हो जाने के बाद महर्षि वशिष्ठ एवं अन्य मंत्रीगणों ने एक सभा बुलाई। महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"महाराज दशरथ की मृत्यु के पश्चात अब अयोध्या के राजसिंहासन के तुम ही उत्तराधिकारी हो। राम अपने पिता का वचन पूरा करने के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ वन गए हैं। चौदह वर्षों तक वह वहीं रहेंगे। अब तुम्हारा दायित्व है कि अपने पूर्वजों की धरोहर को तुम संभालो। अतः अब तुम अयोध्या के राजा का पदभार ग्रहण करो।"
भरत राजगद्दी पर बैठने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें यह बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही थी कि उनके ज्येष्ठ भ्राता राम वन मैं कष्ट भोगें और वह राजा बनकर महल के सुखों का आनंद लें। भरत ने बड़े ही विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर कहा,
"इस राज सिंहासन पर केवल भ्राता राम का अधिकार है। रघुकुल की परंपरा भी यही रही है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राजगद्दी पर बैठता है। स्वर्गीय महाराज दशरथ के पुत्रों में राम ज्येष्ठ हैं। यही नहीं प्रजा भी उन्हें ही राजा बना हुआ देखना चाहती है। हमारे पूर्वजों की कीर्ति पताका को आगे ले जाने का दायित्व वह ही सबसे उत्तम तरीके से कर सकते हैं। राम हर तरह से अयोध्या के राजा बनने के योग्य हैं।"
महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"भरत तुम्हारी बातें सही हैं। परंतु परिस्थितियों के अनुसार ही काम करना अच्छा होता है। इस समय महाराज दशरथ के स्वर्गवास से अयोध्या का सिंहासन रिक्त हो गया है। राम चौदह वर्ष के वनवास पर गए हैं। ऐसे में राज सिंहासन खाली रहे यह ठीक नहीं होगा। खाली सिंहासन शत्रुओं को आमंत्रण देता है। राजा विहीन राज्य की प्रजा में अराजकता फैल जाती है। इस समय तुम्हारा कर्तव्य यही है कि तुम इस राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले लो।"
भरत महर्षि वशिष्ठ की बातों से सहमत थे। परंतु उनका ह्रदय उनकी आज्ञा मानने को तैयार नहीं हो रहा था। उन्होंने एक सुझाव दिया,
"गुरुदेव आप तो परम ज्ञानी हैं। आपका कहना सर्वथा उचित है।‌ पर मैं स्वयं को इस बात के लिए नहीं मना पा रहा हूँ कि मैं अपने बड़े भाई राम के स्थान पर राजगद्दी पर बैठूँ। अतः मेरा एक सुझाव है। हम सब वन की ओर प्रस्थान करते हैं। भ्राता राम को सारी परिस्थितियों से अवगत करा कर वापस अयोध्या आने की विनती करते हैं। मै स्वयं उन्हें मना कर अयोध्या वापस लाऊँगा। आप कृपया जाने की आज्ञा दें।"
महर्षि वशिष्ठ तथा सभा में उपस्थित सभी लोगों को यह विचार ठीक लगा। महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"मैं राम के संकल्प से परिचित हूँ। पर यदि तुम्हें लगता है कि ऐसा हो सकता है तो मैं आज्ञा देता हूँ।"
महर्षि वशिष्ठ की बात सुनकर भरत बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सुमंत से कहा,
"आप कृपया हमारे जाने का प्रबंध करें। हमारे साथ कुछ रथ सेना एवं मंत्री भी जाएंगे अतः इन सब के जाने की व्यवस्था करें।"
यह बात हर तरफ फैल गई कि भरत राम को मना कर अयोध्या वापस लाने के लिए वन जा रहे हैं। प्रजा में एक बार फिर खुशी की लहर दौड़ गई। जो लोग अब तक भरत को दोषी मान रहे थे वह भी उनकी प्रशंसा करने लगे।

कैकेई ने अपने पुत्र भरत के मोह में पड़ कर मंथरा की बात मानी थी। पर भरत ने इस बात के लिए उसे धिक्कारते हुए उससे संबंध तोड़ लिए तो उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। वह हर पल उस क्षण के लिए अपने आप को कोसती थी जब उसने अपने विवेक से काम ना लेकर अपनी दासी मंथरा के भड़काने पर महाराज दशरथ से वह दो वरदान मांगे‌। उसने अपने सुख के संसार में स्वयं ही आग लगाई थी। उसे दो वरदान तो मिल गए। परंतु उसका सब कुछ लुट गया। पति जो उसे अपने प्राणों से अधिक प्यार करता था वह अंतिम समय में उसका मुख भी नहीं देखना चाहता था। जिस पुत्र के लिए वह कलंकिनी बनी वह भी उससे घृणा करने लगा था।
कैकेई के कानों में जब यह बात पड़ी कि भरत राम को अयोध्या वापस लाने के लिए वन जा रहा है तो उसके मन में भी एक उम्मीद जगी। वह सोचने लगी कि वह भी राम को मनाएगी। अपने किए की क्षमा मांगेगी। राम विशाल ह्रदय है। यदि वह उसे क्षमा कर देगा तो भरत भी उसे क्षमा कर देगा।