सुलझे….अनसुलझे!!!
(भूमिका)
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जब किसी अपरिचित की पीड़ा अन्तःस्थल पर अनवरत दस्तकें देने लगती हैं, तब उसकी कही-अनकही पीड़ा हमको उसके बारे में बहुत कुछ सोचने और जानने के लिए बार-बार उद्वेलित करती है| ऐसे में वह समय के साथ हमको कुछ जाना पहचाना-सा लगने लगता है|
जब हम उसकी पीड़ा को मन ही मन बार-बार दोहराते हैं तभी प्रत्यक्ष में संवादों के तार बांधने की कोशिश की जाती है| फिर यह तार धीरे-धीरे अपनेआप ही बंधना शुरू हो जाते हैं| बातचीत के दौरान न सिर्फ पीड़ाओं से जुड़े वाकये सामने आते हैं बल्कि उन वाकयों से भी पहले के भी कुछ घटनाक्रम संवादों का हिस्सा बनते हैं, क्योंकि किसी भी पीड़ा का प्रत्यक्ष में दिखना, उस मध्यांतर की स्थिति है जिसका मूल कहीं और था और जिसका अंत कुछ और होगा|
कोई भी अपरिचित किसी दूसरे अपरिचित के साथ बातें करके, खुलेगा या नहीं? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति अपनी बातों, दर्द और पीड़ाओं को साझा करे, पर जब मरीज़ किसी चिकित्सक के पास आता है, तब एक विश्वास और आस्था चिकित्सक के प्रति मरीज़ के दिलो-दिमाग में पहले से ही होती है कि उसकी व्याधि का इलाज़ या समाधान इनके पास होगा|
काफी बीमारियां ऐसी होती है जिनकी शुरुआत किसी दूसरी स्थिति-परिस्थितियों का प्रतिफल होती है, और व्याधि काफी समय तक परिस्थितियों से जूझने के बाद प्रत्यक्ष में सामने आती है| हमारा शरीर और व्यक्तित्व जीवन के विषम काल में किस तरह की प्रतिक्रिया देगा, यह हमारे शारीरिक व मानसिक विकास की सुदृढता पर निर्भर करता है|
सार्वभोमिक दृष्टिकोण के अनुसार जिस व्यक्ति का शरीर व मन पूरी तरह क्रियाशील है उसे ही पूर्णतः स्वस्थ्य कहा जा सकता है| जब हम अपने जीवन में आने वाली सभी सामाजिक, शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों का प्रबंधन सफलतापूर्वक करने में सक्षम होते हैं तब हम स्वस्थ्य कहलाते हैं|
चिकित्सक का काम अपने मरीज़ को ठीक करना है| वह बीमारी के मूल में जाकर जानकारी हासिल करता है क्योंकि कई व्याधियों का इलाज करने में मरीज को मानसिक सुदृढता देना भी डॉक्टर का ही काम होता है तभी शारीरिक व्याधियों को भी आसानी से सही किया जा सकता है|
मेरे पति डॉक्टर राजकुमार गुप्ता( एम.डी. मेडिसिन) और मैंने मिलकर जोधपुर में अपने चिकित्सीय प्रतिष्ठान स्थापित किए, चूँकि मैं डॉक्टर नहीं थी, पर मैंने समाजशास्त्र का एडवांस कोर्स कर रखा था जिसमें चिकित्सीय समाजशास्त्र और मनोविज्ञान भी विषय थे| प्रारंभिक दौर में तो मैंने सिर्फ उनका कागज़ी काम और प्रबंधन ही संभाला, पर बाद में जब चैरिटेबल प्रतिष्ठान स्थापित करने का मन बनाया| उस प्रतिष्ठान को संभालने की जिम्मेवारी मेरी ही थी|
वहां पर आए हुए विभिन्न प्रकार के मरीजों की शारीरिक व मानसिक व्याधियों के साथ मेरा हर रोज़ ही सामना हुआ| कब मरीज़ अपनी शारीरिक बीमारियों के साथ-साथ बहुत अपनी बातें भी मेरे साथ साझा करते गए और उनका मुझ में विश्वास, मुझे उनकी अन्तःवेदना से जोड़ता गया और न जाने कब और कैसे मैं उनके लिए काउंसलर की भूमिका निभाने लगी, आज सोचूं तो वह दिन और साल मुझे याद नहीं| बस मेरी इस यात्रा ने मुझे बहुत कुछ दिया| मरीजों का स्नेह प्यार और एक विश्वास जिसके साथ-साथ जीवन में बहुत सुकून महसूस हुआ और वही बातें पन्नों पर अनुभवों के रूप में उतरती गई|
मैं जब इन्ही अनुभवों को कहानियों का रूप दे रही थी, तभी हस्ताक्षर वेब पत्रिका के सम्पादक अनमोलजी ने मेरे अनुभवों को ‘जरा सोचिये’ स्तंम्भ के लिए भेजने का आग्रह किया, तो मुझे उनका आग्रह बहुत अच्छा लगा क्यों कि समाज से जुड़े मुद्दे आमजनों के सामने आने ही चाहिए क्यों कि बहुत बार मानसिक परेशानियां ही शारीरिक परेशानियों को जन्म देती है| अगर समस्याओं को मूल में ही सुधार लिया जाए तो भविष्य बहुत सी मानसिक व शारीरिक समस्याओं से बचा जा सकता है|
हस्ताक्षर वेब पत्रिका का हिस्सा होने की वजह से व्यस्तताओं के बीच भी पिछले दो साल से लेख क्रमबद्ध होकर प्रकाशित होते रहे हैं तो उनको संग्रह का रूप देने में सुविधा रही| उसके लिए अनमोल जी का हृदय से शुक्रिया| श्री भूपाल सूद जी का हृदय से शुक्रिया| जिन्होंने मेरा हमेशा हौसला बढाया| अयन प्रकाशन का भी शुक्रिया जिस के बेनर के तले यह मेरा पांचवा संग्रह संग्रह निकला है| मेरा छठा ई-संग्रह अमेज़न ने भी प्रकाशित किया|
मेरे जीवन से जुड़े उन्ही चिंतनपरक संस्मरण का संग्रह है, सुलझे...अनसुलझे!! जहां मरीज़ों की अनसुलझी समस्याओं को सुलझाने के प्रयत्न किये गए| इस संग्रह में उन मरीजों के जिक्र है जिनके साथ जीवन की बहुत सारी विषमताओं को मैंने बहुत करीब से महसूस किया है|
किसी की भी पीड़ा और दर्द को शब्दों में बांध पाना यूं तो बहुत मुश्किल होता है, पर मैं चाहती थी आमजन की इन सब समस्याओं को लोग पढ़े, ताकि अपने-अपने स्तर पर एक दूसरे की जो भी मदद हो सके जरूर करें क्योंकि समाज या परिवार से जुड़ी पीड़ा, हम सभी की पीड़ा होती है| हम सभी को उसे महसूस कर समझना चाहिए ताकि अनकहे अनसुलझे विषयों पर भी मंथन किया जा सके और समाधान निकले|
मरीज़ों से जुड़ा हुआ वार्तालाप लगभग वही है, कुछ भी काल्पनिक नहीं है क्योंकि जीवन काल्पनिक नहीं होता है, जीवन सिर्फ सत्य है और सत्य को महसूस करना बहुत मुश्किल नहीं होता है और यह संग्रह सिर्फ़ सच की बयानी है||