कहानी--
आभास
आर. एन. सुनगरया
आदतानुसार मैंने बाहर से आते ही टेबल पर जेबों का सामान पटकना प्रारम्भ किया, तभी टेबल पर पड़े पत्र पर मेरी नज़रें मंडराने लगीं......
प्रिय राजेन्द्र,
मैं जानती हूँ तुम मुझसे नाराज हो, फिर भी तुमसे अनुरोध है-आज सुबह अस्पताल में मिलूगी, तुम्हारी सख्त जरूरत है। आना जरूर।
तुम्हारी
लतेश
लतेश!......मुझे और अस्पताल! क्या मेरी चेतावनी सही.....! नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता, नहीं होना चाहिए।
मैं एक अज्ञात अनुभूति से सिहर उठा, कॉंप उठा। जेब में हाथ गया केवल पॉंच का सिक्का, यही सबसे ज्यादा अखरती है बेकारी-बेरोजगारी! चलो बेटा राजेन्द्र पैदल ही, पूरे पॉंच किलोमीटर है अस्पताल।
मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि वह नौकरी हेतु चुन ली गई थी, फिर इतनी जल्दी घर क्यों लौट आई? कहीं अस्पताल में गर्भपात हेतु पति होना ही चाहिए। छी! कैसी अशुभ बात सोचता हॅूं। उससे मिले बगैर।
मुठ्ठियों को कॉंखों में चपेटे हुये मैं फुटपाथ पर, अस्पताल की ओर लपके जा रहा था, मगर सर्दी का महीना, हवा मेरे कलेजे तक कंपकंपी पहुँचा रही थी।
रोड पर फर्राटे भरती वाहनों पर ईर्षा हो रही थी काश! मेरे पास भी कोई वाहन होता। अरे वाहन न सही, पंख होते कंधे पर। विभिन्न प्रकार के शोरगुल के बावजूद भी मेरा दिमाग लतेश पर ही अटका हुआ था। क्या गुजर रही होगी उस पर? इस वाक्य ने मुझे अतीत में उछाल फेंका..........
........विज्ञापन ही ऐसा था कि रोजगार की तलाश में भटकता अभावग्रस्त शिक्षित नौजवान तुरन्त तैयार हो गया पोस्टल आर्डर करने और इन्टरव्यू की तैयारी हेतु कर्ज लेने या कुछ बेचने के लिये। मुझे बड़ी खुशी हुई नोकरी लगे या ना लगे मगर लतेश के साथ सफ़र करने तो मिलेगा। वह भी पूरे चौबीस घंटे। इन्टरव्यू भी बड़ा विचित्र और रहस्यमय हुआ। इसमें आश्चर्य की बात यह भी रही कि रिजल्ट भी उसी समय पता चल गया।
शायद इन्टरव्यू में पास होना योग्यता से नहीं आंका जा रहा था, बल्कि धनराशि या रूपराशि अर्पित करने की सामर्थता पर आधारित था।
मुझसे भी कई अन्डसन्ड प्रश्न पूछे गये। मैंने उत्तर दिया ही था कि वे लोग ठहाका मार कर हँसने लगे। हाय दुर्भाग्य! मेरे सोलाह साल के परिश्रम की सफलता इनके एक अक्षर ‘’हॉं या ना’’ में समा गई। हँसते-हँसते ही वे लोग आपस में कुछ बातें करने लगे, जिससे जाहिर हो गया, ये कुछ माल चाह रहे हैं। और मेरे उलझे हुये दिमाग में अपने घर की जर्जर आर्थिक स्थिति और अनेक अभाव एवं दूषित कलह पूर्ण वातावरण, जिसकी जड़ अर्थाभाव है......
‘’बाबूजी हटना!’’ तांगेवाले की यह कर्कश चेतावनी और घोड़े के मुँह का पीठ पर ठंसे से मैं मानो घबरा ही गया। एक नजर पीछे देखा और तेज आगे बढ़ने लगा, जैसे अतीत से पीछा छुड़ाना चाह रहा हूँ, लेकिन अगले चित्र और स्पष्ट हो गये।...........
.......निराश मायूस नज़रों से लतेश का इन्तजार करने लगा। वह तो दिखी नहीं, पर फैक्ट्री पर ध्यान गया जिसका चित्र दिमाग में विज्ञापन पढ़कर जो बना था वैसा कुछ भी नहीं था। यह तो लघुउद्योग कहलाना चाहिए। सामने नजरें गयीं अँग्रेजी शराब की दुकान! जी में आया दो-तीन बोतलें उड़ेल लॅूं मुँह में, पर जेब ने अनुमति नहीं दी।
‘’क्या बात है आज कल से ज्यादा हिरनी फंसी हैं।‘’ ग्राहक भी मुस्कुरा रहा है। मैंने गौर से देखा-यह वही आदमी है, जो फैक्ट्री के गेट पर खड़ा इन्टरव्यू के लिये एक-एक को अन्दर भेज रहा था, आगे मैंने सुना, ‘’इनके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं भैया। पोस्टल आर्डर में आ गये हजारों, कुछ लोगों ने भेंट चढ़ा दिये और यह रूप राशि ऊपर से।‘’
‘’वाक्यी यार फैक्ट्री ने अच्छा जाल फेंका।‘’
मेरा बदन रोमांचित हो उठा, मुट्ठियॉं अपने आप कस गईं। मेरी नज़रें तीव्रता पूर्ण लतेश को खोजने लगीं। हाल ही में उसके सेलेक्शन हेतु प्रार्थना करने वाला सोचने लगा- कहीं दुर्भाग्यपूर्ण उसका सेलेक्शन ना हो जाय। उफ! वह तो फौरन पासकर ली जायेगी, क्योंकि उससे अधिक हसीन लड़की नहीं है। यहॉं।
ओह! वह चली आ रही है लतेश, फैक्ट्री के किसी दलाल नुमा चमचे के साथ। शायद सेलेक्ट कर ली गई है। कितनी खुश नजर आ रही है।
ज्यों-ज्यों वह हकरीब आ रही है, मेरे होंठ चिपकते जा रहे हैं। आखिर मैं बोल ही नहीं पाया, वह ही बोली, ‘’क्यों खुश ना होंऊ मेरे पास होने पर अब कोई बात की चिन्ता नहीं, झींकना खत्म!’’
‘’अब तो नहीं कहोगे कि तुम्हारा खर्च नहीं उठा पाऊँगा।‘’
‘’तुम पास नहीं हुये इसलिये उदास और चुप हो। कोई बात नहीं हम में से एक को तो नौकरी मिली, तुम्हें भी मिल जायेगी देर सबेर से।‘’
‘’यह बात नहीं लतेश!’’ होंठ बामुश्किल हिल पाये, ‘’तुम घर चलो।‘’
‘’क्यों?’’ लतेश चीख पड़ी, ‘’क्या तुम जुदाई नहीं सह सकते, मैं नौकरी छोड़कर चल दूँ ओर फिर वही-एक-एक पैसे के लिए तरसती रहूँ और बूढ़े बाप को किलपाती रहूँ। यही चाहते हो तुम?’’
‘’यह बात नहीं लतेश, यहॉं तुम्हारी सुरक्षा.....’’
‘’अभी तक भी तो मैं अपनी सुरक्षा स्वयं ही करती रही हूँ।‘’ उसने मुझे तीखी नज़रों से देखा, मगर कोमल स्वर में कहा, ‘’आंखिर तुम इस नौकरी से बंघी आशाओं पर पानी क्यों फेरना चाहते हो।‘’........
........’’पीं........पीं.......’’ जीप का इतना तीक्ष्ण हार्न कि मैं गिरते-गिरते बचा।
अस्पताल की दीवाल घड़ी, ‘’टन्-टन्’’ द्वारा बतला रही है कि अस्पताल बन्द होने में अभी पूरा डेढ़ घण्टा बाकी है।
सर्दी कुछ कम हो गई थी। मैंने इधर-उधर देखा-सबसे पहले मेरी नज़र दायीं और ‘’गर्भपात विभाग’’ की तरफ ही गई, परन्तु मैं सीधा पुरूष वार्ड की ओर चल दिया।
मेरा बैचेन मन तुरन्त लतेश का हाल जान लेना चाहता है। बैचेनी पूर्वक मेरी नज़रें उसे खोज रही हैं। सहसा मेरी भटकती नज़रें ऑप्रेशन रूम के सामने वाली बेंच पर अटक गईं, ‘’बाबा।‘’ क्या बाबा के साथ आई है लतेश? क्या बाबा को पता....नहीं लतेश उनसे नहीं कह सकती।
मेरे होंठ सूख रहे हैं, कुछ साहस नहीं कर पा रहा हूँ कि उनसे क्या बात करूँ, कैसे पूछूँ? लतेश कहॉं है?
फिर भी मेरे हाथ उनकी तरफ उठे, हाथ जोड़कर, ‘’नमस्ते बाबा।‘’ मैंने मुस्कुराने की कोशिश की, ‘’यहॉं कैसे?’’
‘’अरे बेटा!’’ उन्होंने मुरझाई हुई ऑंखों से मेरी और देखते हुये एक लम्बी सॉंस ली, ‘’लतेश ने पटक रखा है, यहॉं आज इस जॉंघ का ऑप्रेशन होना है।‘’ उन्होंने पैर उठाकर दिखाया जो काफी फूला हुआ था। वाक्यी तुरन्त ऑपरेशन होना चाहिए।
‘’कब आई लतेश?’’
‘’अरे वह तो उसी दिन आ गई थी, जिस दिन तुम आये।‘’ उन्होंने आराम से धीरे-धीरे बताया, ‘’जब से आई है बड़ी उदास रहती है, अकेली-अकेली और खोई-खोई, ना जाने क्या-क्या सोचती रहती है।‘’
‘’कहॉं है लतेश?’’ मुझे अपना शक सच सा लगा, मेरी बैचेनी और बढ़ गई।
‘’इधर ही गई है।‘’ उन्होंने बाईं ओर इशारा किया।
मैं अविलम्ब उधर चल दिया। थोड़ा ही चला कि सामने लगे बोर्ड पर नज़रें टकराने लगीं- ‘’यहॉं गर्भपात की सुविधा नि:शुल्क....।‘’ मेरे शरीर में विचित्र सी अनुभूति और कम्पन्न तब उत्पन्न हुआ जब उसी दरवाजे में से लतेश को आते हुये देखा।
अब पूछने की क्या आवश्यकता, मेरा शक सच निकला? परन्तु पूछ कर पुष्टि और कर ली जाये।
दूर से ही उसकी उलझन चेहरे पर साफ नज़र आ रही है। सुनहरा चमकता चेहरा मलिन है। उसकी बिखरी और उलझी जुल्फें हवा से चहेरे पर फड़फडा रही है, जो दिमागी ताने-बाने का संकेत कर रही हैं। जिन्हें वह अपने सलोने हाथों की खूबसूरत उंगलियों के द्वारा बार-बार कानों के पीछे करती है। स्वच्छ काली ऑंखें धूमिल हो गई हैं। लाली से भरपूर रसीले होंठ सफेद पड़ गये हैं।
ज्यों-ज्यों वह निकट आती गई मुझे कुछ अजीब सा रोमान्च घेरता गया। मैं अपने आपको दोषी मेहसूस करने लगा। काश! मैं भी वहॉं रूक गया होता या वह मेरी बात मान लेती।
‘’ओह! राजेन्द्र बड़ी देर कर दी।‘’ वह निकट आ गई, मगर मैं उससे निगाह नहीं मिला पा रहा हूँ, हालांकि तीव्र इच्छा है कि पूछ लॅूं.....मैंने उसे हल्की नज़र से देखा, ‘’क्यों कोई खास......?’’
‘’हॉं बाबा के पैर का ऑप्रेशन होना है, आज। पुरूष वार्ड में उनके साथ मेरा रात रहना मना है, इसलिये तुम्हें....’’
‘’लेकिन तुम तो इधर से आ रही हो!’’ स्पष्ट पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
‘’तुम्हारे बहुत इन्तजार के बाद मुझे अपनी सहेली को ढूँढ़ने इधर जाना पड़ा, क्योंकि कुछ पैसे का भी इन्तजाम करना है।‘’ उसने साड़ी का पल्लू सम्हालते हुये कहा, ‘’अभाव ग्रस्त जीवन में, बाबा की बीमारी से मैं बहुत मायूस और उदास हो गई हूँ। रात दिन वही चिन्ता।‘’
‘’तुम वहॉं से कब लौटीं? मैं वहॉं का मामला जल्दी ही जान लेना चाहता था।
‘’उसी दिन शाम को।‘’ उसने पुन: पल्लू सम्हाला और नीचे ताकने लगी, ‘’मुझे मेहसूस हुआ तुम सही कह रहे हो और तुम मुझसे बेहद नाराज हो गये हो। मुझे ऐसी तरंग आई, ऐसी हूँक सी उठी कि तुमसे कब मिलूँ, लेकिन यहॉं बाबा की बीमारी में उलझ कर रह गई।‘’
‘’तुम सही सलामत लौट आईं लतेश, अन्यथा मैं अपने आप को कभी माफ नहीं करता?’’
♥♥ इति ♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2-जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:--1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति---स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
न्न्न्न्न्न्