Ghar hai kahan in Hindi Short Stories by Archana Singh books and stories PDF | घर है कहाॅं ?

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घर है कहाॅं ?

घर है कहाॅं ?

माघ का महीना सुबह की धूप, मैं अकेली छत पर बैठी न जाने किस सोच में डूबती जा रही थी? मेरी बिटिया ने पिछले ही वर्ष बी ए में दाखिला लिया था और बेटा सातवीं में था। हल्का कोहरा सा छाया था, तभी दूर किसी के घर से लोगों के रोने की आवाज़ व संगीत का स्वर कानों में पड़ी, इतना तो स्पष्ट था कि किसी बेटी की विदाई हो रही थी। शीत मेें चलती हुई पवन रोओं में सिहरन उत्पन्न कर, जैसे मुझे अपनी विदाई की याद दिलाते हुए झकझोर कर रख दिया हो। सच आज फिर एक लड़की का स्थानांनतरण हो रहा है और वह सोच रही थी कि उसे एक नया घर मिल रहा है। मैं गहरे चिंतन में लीन होने लगी क्या एक लड़की का अस्तित्व केले के उस व्क्ष की तरह है जिसका अस्तित्व फल देने के पश्चात् समाप्त होता दिखता है। पर केले का वृक्ष पुजनीय तो है एक स्त्री तो घर परिवार में अपना अस्तित्व गवाॅं कर भी यही सुनती है कि तुमने किया क्या? उसके अस्तित्व को नकारा जाता है उसे इंसान ही समझ लिया जाए तो यही बहुत है।
मैं सोनाली, वैसे मुझे बचपन में सभी प्यार से सोनी पुकारते थे। बचपन में मैंने भी रंगीन चश्मे से दुनिया देखनी शुरु की जैसा कि हर बालिका करती है, सब कुछ बस सुंदर ही सुंदर दिख रहा था। मैं भी गुड्डे गुड़ियों के ब्याह रचा कर अपने सपनों को पर देती थी। मुझे कहाॅं ज्ञात था कि स्वप्न व वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर होता है। माता-पिता का स्नेह अपार मिल रहा था। दो भाई भी थे जिन्हें कभी कभी लगता था कि माॅं बाबूजी मुझे ज्यादा मानते हैं। यह सच तो था पर जो स्वतंत्रता दोनों भाइयों को थी वो बात मेरे साथ नहीं थी। कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से मेरे पैरों में बेड़ियाॅं तो थीं, जो मैं महसूस भी करती थी। हाॅं यह भी सच था कि मैंने कभी विरोध नहींे जताया। शायद कहीं न कहीं माॅं का ही स्वभाव मुझमें भी घर कर गया था। पिता हर निर्णय को माॅं के ऊपर थोपा करते थे, माॅं ने भी धीरे-धीरे अपने विचार व्यक्त करना ही छोड़ दिया। वक्त गुजरता गया दोनों भाइयों को पढ़ने व ऊॅंची शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण अनुमति थी। मैं अभी नवीं कक्षा में ही थी कि घर में कभी कबार मेरे विवाह की बात मेरे कानों में पड़ती थी। पिताजी माॅं से कहा करते थे, ‘बेटों की परवरिश व शिक्षा में इतना खर्च हो जा रहा है। दो वर्ष के पश्चात् सोनी की शादी भी करनी है। इतना पैसा कहाॅं से आएगा कि इसे पढ़ाएॅ भी और दहेज भी दें।’ माॅं सिर्फ सुना करती थी पिताजी के हाॅं में हाॅं मिलाती। मैं अगर कभी काॅलेज जाने की बात करती तो पिताजी कहते, अब पराए घर जाने की तैयारी करो और माॅ से कुछ कामकाज सीख लो।’ फिर क्या था, माॅ भी हाॅ में हाॅ मिलाकर मुझे समझा देती कि बेटी पराई होती है, अपने घर जाना तो खुद के मन की कर लेना। मैं भी कहीं न कहीं उनकी बातों में आकर अपना मन बना कर बैठ गई कि मैं ससुराल में अपनी इच्छाओं को उडान दूॅगी।
मैं अभी जीवन के कुछ सच्चाइयों से अनजान थी, मुझे ये छोटी सी बात तक नहीं समझ में आ रही थी कि जहाॅं जन्म लिया है, जो लोग अपने हैं, अगर वो ही मेरी इच्छाओं को मारने की सीख मुझे दे रहे हैं तो वे लोग जो मुझे जानते ही नहीं हैं वो मेरी हर बात से कैसे सहमत हांेगे? वक्त का पहिया घूम रहा था आखिरकार वो दिन भी आ ही गया जब मेरी बारात दरवाजे तक आ गई, मेरे अंतर्मन में न जाने कितनी फुलझड़ियाॅ छूटने लगीं। मैं अपने सपनों की पोटली समेट ससुराल के लिए विदा हो गई। मेरे साथ एक अजनबी हमसफर जो आज सबसे करीब बैठा था। उसके हाथों में अब मेरे जीवन की डोर थी इस बात का एहसास मुझे उस वक्त बिलकुल ही नहीं था कि मैं एक पतंग की भाॅंति उसके इजाज़त के बगैर कोई उडान नहीं भर सकूॅगी। ससुराल में एक ननद भी ब्याह करने की उम्र में थी। ससुर जी को लड़कियों के शिक्षित होने में कोई आपत्ति नहीं थी किन्तु किसी भी विषय में ज्यादा बोलना या निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं थी। यानि यहाॅं भी पुरुषों की बातों को प्राथमिकता दी जाती थी बेटी या बहुओं का स्थान बाद में आता था। मेरी ननद ने काॅलेज जाना आरम्भ ही किया था तो मैंने भी हिम्मत जुटाते हुए सास से काॅलेज जाने की बात कही। उन्होंने कहा,‘ ठीक है अगर तुम्हें भी पढ़ना पसंद है, तो मैं अवसर देख सभी के समक्ष बात रखूॅगी।’ बस फिर क्या था मैं सपनों को पिरोने लगी, स्वप्न रुपी डोर को ऊॅंचे गगन में ढील देने लगी। रंगीन मन रुपी पतंग बादलों को छूने को आतुर हो चली। तभी कानों में रितेश जी की आवाज़ पड़ी,‘सुन रही हो जरा पानी लाना पिताजी को दवा खिलानी है, और मुझे एक कप चाय भी बना देना।’ रात के सात बज रहे थे, मैं रसोईघर में चाय बनाने के लिए गई तभी सासू माॅं पानी का गिलास लेकर स्वयं ही कमरे में जाकर दे आईं। उनका सहयोग मुझे समय समय पर मिलता रहता था। इस तरह मुझे माॅ की कमी कम महसूस होती थी। ससुर जी की नौकरी के एक साल ही बचे थे इसलिए ननद की शादी की चिंता भी घर वालों को थी। मुझे साड़ी पहनना ठीक से नहीं आता था ननद से कभी कबार मदद ले लेती थी क्योंकि रितेश जी ने कह रखा था कि माॅ बाबुजी के सामने साड़ी में ही जाना वरना पिताजी को बुरा लग सकता है।
रितेश जी के साथ भी कहीं निकलना होता था तो माॅ से पहले बताकर ताकि वो बाबुजी से अनुमति ले लें। मैं गंभीर चिंतन में पड़ गई कि अब तो मेरा विवाह हो चुका है तो फिर ये बंदिशें क्यों? माॅं तो सदा यही कहा करती थी कि अपनी इच्छा ससुराल में जाकर पूरी कर लेना,पर यहाॅं तो ऐसा कुछ नहीं है। बल्कि वो बचपना अब धीरे धीरे समझदारी में तबदील हो रही थी। घर की जिम्मेदारी को समझने में मैं पूर्ण रुप से जुट गई ताकि सबका दिल जीत सकूॅं। सास के साथ समय व्यतीत करने लगी और रश्मि मेरी ननद भी मेरी अच्छी सहेली बन गई थी।
अगले दिन पिताजी दफतर के बाद शाम के वक्त जब घर में घुसे तो माॅं और रश्मि को आवाज़ देते हुए ड्ाइंग रूम में ही बैठ गए। मैं एक गिलास पानी लाकर दी और दरवाजे से सटकर खड़ी हो गई। पिताजी ने माॅं से कहा, कल से नीतू काॅलेज नहीं जाएगी। ये सुनते ही नीतू ने पूछ दिया, पर क्यों पिताजी? बस मैंने कह दिया न, पिताजी ने ऊॅची आवाज़ में कहा। नीतू रोते हुए वहाॅं से उठकर अपने कमरे में चली गई। माॅं ने पूछा क्या बात है? मुझे कुछ बताईए भी तो। पिताजी ने कहा, ‘मैंने नीतू की शादी की बात जहाॅं चलाई थी लगभग तय होती लग रही है, कल वे लोग बेटी देखने आने वाले हैं। काॅलेज के पीछे वाली सड़क के पास ही उसका होने वाला ससुराल है।’ ये सुनते ही मैं बोल पड़ी, ‘ये तो अच्छी बात है पिताजी। लेकिन उसे काॅलेज जाने या शिक्षा को बीच में रोकने का निर्णय क्यों?’ बस फिर क्या था पिताजी ने अपने क्रोध पर काबू पाते हुए कहा,‘मीता, बहू से कह दो अपने विचार अपने साथ ही रखे, उसके अपने घर में उसके विचार चलते होंगे, इस घर में नहीं।’ मैं स्तब्ध सी रह गई। मन मस्तिष्क में कई प्रश्न हिचकोले खाने लगे। माॅं की सिखाई बातें याद आने लगीं कि बेटियों को कम बोलना चाहिए, धीरे बोलना चाहिए, हर बात पर नहीं बोलना चाहिए,ऐसे उठना-बैठना चाहिए वगैरह वगैरह.....। बेटियाॅं क्या काठ की हैं जो उचित व अनुचित नहीं समझतीं या उनकी नसों में लहू नहीं है या उनकी भावनाओं का कोई अर्थ नहीं।
सुबह ही रितेश दफ्तर के काम से बाहर गए थे,उनके घर लौटने पर उन्हंे भी सारी बातें बताई गईं। उन्होंने भी पिताजी की हाॅं में हांॅ मिलाकर ननद को समझाने की कोशिश की। बहन से उन्हें प्यार तो था पर विचार व्यक्त की स्वतंत्रता नहीं दी थी। ननद ने भी कई बार भाई के समक्ष अपने तर्क रखें, किंतु रितेश तो जैसे पुरुष के अहम् से बाहर निकलने को तैयार ही न हो। अंततः ननद मुझसे मदद माॅंगने आई। मैंने रितेश से कहा, ‘रश्मि अगर काॅलेज जाने के लिए इच्छुक है तो जाने दो ना, साथ ही काॅलेज में उसका वाद विवाद प्रतियोगिता भी है। लड़के वालों को भी तो पता ही है कि वह बी ए कर रही है। हो सकता है इसी वजह से लड़के ने शादी के लिए हामी भरी हो। ‘तुमसे मैंने राय माॅंगी है क्या? तुम से जब राय पूछी जाए तभी देना, अभी इस परिवार का हिस्सा बनने में वक्त लगेगा’- रितेश ने कहा। मेरी आॅंखें नम हो गई, आखिर कितना वक्त लगेगा या जबतक वक्त आएगा तबतक मेरी भावनाएॅं व इच्छाएॅं जम चुकी होंगी, धूमिल पड़ चुकी होंगी। आज मुझे यह बात समझ में आने लगी कि माॅं को आखिरकार मन को मारने की आदत कैंसे पड़ी होगी। मायके के बाद जब ससुराल में भी हमें अपनी बात रखने की स्वतंत्रता न हो तो हमारा घर है कहाॅं? जहाॅं पर हमारी इच्छाओं को भी, पर दिए जाते होंगे। हमारी भावनाओं को भी जगह मिलती होगी। हमसे भी कहा जाएगा कि तुम्हें क्या पसंद है आज वही बनाओ। हमारे अस्तित्व को स्वीकारा जाएगा घर परिवार के विचारों,निर्णयों में शामिल किया जाएगा चाहे मायका हो या ससुराल। इसकी शुरुआत मायके से ही होनी चाहिए।
आखिरकार जब लड़के वाले रश्मि को देखने घर पर आए। नाश्ता,चाय पानी के साथ इधर उधर की बातें होने लगीं। तभी दामाद जी ने रश्मि की पढ़ाई की बात को सराहते हुए कह ही दिया कि वह अपनी पढ़ाई शादी के बाद भी पूरी कर सकती है। रश्मि और मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, सभी ने सिर झुकाते हुए उनकी बातों में हाॅं में हाॅं मिला ही दिया। ससुर जी ने कहा, ‘दामाद जी की जो इच्छा।’ दामाद जी ने कहा,‘ नहीं पापा जी, सिर्फ मेरी इच्छा की बात नहीं है रश्मि भी तो यही चाहती है। ये तो अच्छी बात है।’ ससुर जी को यह बात कुछ हज़म नहीें हुई, रितेश भी भौंचक्के से रह गए। दामाद जी ने मुझे देखा और मुस्कुराते हुए हाथ जोड़ दिए। रितेश को बात समझ में आ गई कि ननद भाभी ने मिलकर गुल खिलाएॅं हैं। मैं अंदर ही अंदर डर भी रही थी पर खुश भी थी, तभी सास के साथ सभी की खातिरदारी में व्यस्त हो गई। मैं सभी का मुॅंह मीठा कराने लगी। मैंने सही किया या नहीं ये तो पता नहीं पर मैं इस घर को अपना घर परिवार समझकर ही हिम्मत जुटा पाई, अंजाम की परवाह किए बगैर। रितेश मुझसे नाराज़ भी हो गए, पिताजी ने कुछ कहा तो नहीं पर माॅं ने समझाया, ‘बेटी जिस काम से पति नाराज़ हो नहीं करना चाहिए। पर मेरा सवाल अब भी वहीं था कि मैंने क्या गलत किया? मैं कब ,कहाॅं पर बोलूॅं ये कौन मुझे बताएगा? मायका उसका नहीं ,ससुराल उसका नहीं आखिरकार उसका घर है कहाॅं?

........................ अर्चना सिेंह जया