मानस के राम
भाग 9
अयोध्या वासियों का राम के साथ जाना
राम के वन गमन की बात जब अयोध्या वासियों को मालूम हुई तो चारों ओर शोक का वातावरण छा गया। सभी तरफ लोग अफ़सोस कर रहे थे। कैकेई के प्रति लोगों में गुस्सा था। स्त्रियां उसे कोस रही थीं। लोग आपस में बात कर रहे थे कि कैसे दोनों राजकुमार और जानकी वन के कष्टों को सह पाएंगे। वो बात कर रहे थे कि राम के बिना अयोध्या सूनी हो जाएगी। उन्होंने तय किया कि वे सभी राम को रोक लेंगे। जब सुमंत तीनों को रथ में बैठा कर ले जा रहे थे तो लोगों ने रथ को रोक कर राम से वन ना जाने का आग्रह किया।
अयोध्या के लोगों का प्यार देखकर राम अभिभूत हो गए। उन्होंने अयोध्या वासियों को समझाते हुए कहा,
"आप लोगों के इस प्रेम को देखकर मैं बहुत खुश हूँ। पर मेरे लिए अयोध्या में रहना संभव नहीं है। मुझे अपने वचन के पालन के लिए चौदह वर्ष वन में बिताने होंगे। मेरी आप अयोध्या वासियों से प्रार्थना है कि आप लोग मेरे अनुज भरत को अपना राजा मान कर राज्य के सही संचालन में उसके सहायक बनें।"
किंतु अयोध्या वासी नहीं माने। उन्होंने कहा जहाँ हमारे राम और सीता होंगे वही स्थान उनके लिए अयोध्या है। अतः वह सभी उनके साथ जाएंगे। सभी अयोध्यावासी राम के साथ आगे बढ़ गए।
चलते हुए वह सभी तमसा नदी के तट पर पहुँचे। संध्या का समय हो रहा था। कुछ ही समय में सूर्यास्त होने वाला था। सुमंत ने सुझाव दिया,
"हमारे अश्व भी थक चुके होंगे। आज रात्रि हम सब पवित्र तमसा नदी के किनारे पड़ाव डालते हैं। कल प्रातः काल आगे की यात्रा आरंभ करेंगे।"
उन लोगों ने अपना पड़ाव तमसा नदी के तट पर डाला। अश्वों को चरने के लिए छोड़ दिया गया। साथ आए अयोध्या वासी भी नदी के जल से हाथ पांव धोकर विश्राम करने लगे। राम तथा लक्ष्मण ने भी संध्याकाल की आराधना की। राम ने लक्ष्मण से कहा,
"हमारे वनवासी जीवन का आरंभ हो रहा है। मुझे वन के कष्टों की कोई चिंता नहीं है। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि प्रकृति हमें अपनी गोद में लेने के लिए बाहें फैलाए खड़ी है। मुझे तो केवल अपने पिता और माताओं की चिंता है। हमारे वन गमन से वह बहुत ही परेशान होंगे। इस समय तो भरत और शत्रुघ्न भी उन्हें सांत्वना देने के लिए नहीं होंगे। ईश्वर उन्हें दुख सहने की शक्ति दें। आज हम उपवास रखेंगे।"
लक्ष्मण ने राम तथा सीता के लिए घास और पत्तियों का बिछौना तैयार किया। राम और सीता ने रात्रि में विश्राम किया। साथ आये अयोध्या वासी भी नदी के तट पर सो गए।
लक्ष्मण ने अपने लिए कोई भी बिछौना तैयार नहीं किया था। जब वह अपनी माता सुमित्रा के पास वन जाने की आज्ञा लेने के लिए गए थे तो उन्होंने कहा था कि अपने बड़े भाई की सेवा करना। वन में जीव जंतु ने कोई नुकसान ना पहुंँचा सकें इसके लिए रात्रि में पहरा देना।
भोर होने से बहुत पहले ही राम उठ गए। उन्होंने गहरी निद्रा में सोते हुए अयोध्या वासियों को देखा। उन्होंने सुमंत से कहा,
"अभी सभी लोग गहरी निद्रा में हैं। यही समय है हमें आगे बढ़ जाना चाहिए। इन लोगों के मेरे प्रति प्रेम से मैं द्रवित हूँ किंतु इनका प्रेम मेरे कर्तव्य में बाधा बने मैं यह नहीं चाहता हूँ।"
अयोध्या वासियों को सोता छोड़ तीनों को रथ में बैठा कर सुमंत नदी के उस पार ले गए। वहाँ जाकर राम ने कहा कि वह रथ को अयोध्या की तरफ कुछ दूर तक ले जाकर दूसरे रस्ते से वापस ले आएं। जब आयोध्या वासी जागेंगे तो पहियों के चिन्ह देख कर उन्हें लगेगा कि हम अयोध्या लौट गए हैं और वह हमारे पीछे आना छोड़ कर अयोध्या वापस चले जाएंगे।
सुमंत ने वैसा ही किया। जब अयोध्या वासी जागे तो रथ के पहियों के निशान देख कर उन्हें लगा कि राम उनकी बात मान कर लौट गए है। अतः वह सभी वापस अयोध्या चले गए। वहाँ पहुँच कर जब उन्होंने देखा कि राम वहाँ नहीं हैं तो इसे विधि का विधान मान कर शांत होकर राम के वन से लौटने की प्रतीक्षा करने लगे।
निषादराज गुह से भेंट
सुमंत रथ को लेकर आगे बढे। कई मनोरम स्थानों को पार करते हुए वह लोग राज्य की दक्षिणी सीमा तक आ गए। अयोध्या की दिशा में मुख कर राम ने शीश झुका कर प्रणाम किया। आगे बढ़ते हुए वह लोग गंगा के किनारे पहुँचे। साँझ ढल रही थी। अस्त होते सूर्य के कारण गंगा का जल सुनहरा प्रतीत हो रहा था। उस सुंदर दृश्य को देख कर राम ने निर्णय किया कि आज रात गंगा तट पर बिताएंगे।
सभी वहीँ रुक कर आराम करने लगे। थके हुए अश्वों ने गंगा का पानी पिया और घास चरने लगे।
निषादराज गुह को जब राम का अपनी पत्नी और अनुज लक्ष्मण के साथ आगमन का समाचार मिला तो वह उनसे भेंट करने पहुँचे। राम उनसे बड़े प्रेम के साथ मिले और उन्हें गले से लगा लिया। गुह गंगा तट पर बसे निषाद जाति के लोगों के मुखिया थे। उन्होंने हाथ जोड़ कर विनीत भाव से कहा,
"आपके इस क्षेत्र में आगमन से हम धन्य हो गए। आप हमारा आतिथ्य स्वीकार करें। अपने वनवास की चौदह वर्षों की अवधि आप यहीं रह कर व्यतीत करें। यहाँ आपको सारी सुविधाएँ मिलेंगी। इसे अपनी अयोध्या ही समझें। "
निषादराज के इस अनुनय को सुन कर राम अभिभूत हो गए। गुह को अपने पास प्रेमपूर्वक बैठा कर बोले,
"मित्र आपके इस निस्वार्थ प्रेम को देख कर मेरा ह्रदय आपके प्रति आदर भाव से भर गया। किंतु मैंने वचन दिया है कि चौदह वर्ष मैं साधारण वनवासी की भांति ही व्यतीत करूँगा। एक तपस्वी की तरह केवल कंद मूल तथा अन्य फलों जो वन में उपलब्ध होंगे ही मेरा भोजन होंगे। मैं केवल भूमि पर ही सोऊंगा। अतः मैं आपके इस स्नेह भरे निमंत्रण को स्वीकार नहीं कर सकता हूँ। हमें केवल आज रात यहाँ बिताने की अनुमति दें। हम वृक्ष के नीचे ही विश्राम करेंगे।"
राम की बात सुन निषादराज दुखी हुए। परंतु उन्होंने इच्छा का सम्मान किया। राम की आज्ञा के अनुसार ही उनके विश्राम की व्यवस्था कर दी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि वह भी विश्राम कर लें। आज रात उनके सैनिक पहरा देंगे। किंतु लक्ष्मण नहीं माने। वह गुह से बोले,
"जब सुकुमारी जनक नंदिनी इस कठोर भूमि पर विश्राम कर रही हैं। मेरे अग्रज इतना कष्ट सह रहे हों तो मुझे विश्राम कहाँ मिलेगा।"
रात भर वह निषादराज गुह से बात करते रहे। भोर होने पर राम ने सुमंत को बुला कर कहा,
"मंत्री महोदय अब आप अयोध्या वापस चले जाएं। आप सदैव ही मेरे पिता के शुभचिंतक रहे हैं। आप जाकर उनका ध्यान रखिये। मेरी ओर से उन्हें यह सन्देश भी दे दीजियेगा कि वह अपने ह्रदय में कोई चिंता न पालें। हमें वनवास में कोई कष्ट नहीं है। चौदह वर्ष व्यतीत कर हम उनके पास आ जाएंगे। यह चौदह वर्ष मुझे भावी जीवन के लिए तैयार करेंगे। अतः वह बिना किसी आत्मग्लानी के हमारे लौटने की प्रतीक्षा करें।"
उसके पश्चात राम ने निषादराज को बुला कर अनुरोध किया कि वह उनके लिए एक नौका का प्रबंध कर दें जिसमें बैठ कर वह अपने भाई और पत्नी के साथ गंगा के पार जा सकें। नाव का प्रबंध हो जाने पर उन्होंने सुमंत से विदा ली। राम के आदेश पर सुमंत लौट गए।
नाव में बैठकर तीनों गंगा पार आए। उन्होंने केवट को नदी पार करने के दाम चुकाने के लिए सीता की एक अंगूठी दी। केवट ने उनके पैर छूकर कहा,
"आप अपनी कृपा दृष्टि मुझ पर बनाए रखिए जिससे मैं भवसागर से पार हो जाऊँ।"
फिर राम ने निषादराज को धन्यवाद देकर वापस भेज दिया।
सुमंत की अयोध्या वापसी
राम लक्ष्मण तथा सीता के चले जाने के बाद सुमंत खाली रथ के साथ अयोध्या वापस आ गए। प्रजा ने जब खाली रथ देखा तो सुमंत से पूँछने लगे कि वह राम सीता और लक्ष्मण को कहाँ छोड़ आए। सुमंत किसी के भी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके। महल में पहुँच कर वह महाराज दशरथ के सम्मुख उपस्थित हुए। कौशल्या ने जब सुमंत को अकेले वापस आया हुआ देखा तो विलाप करने लगीं। महाराज दशरथ को उलाहना देते हुए बोलीं,
"महाराज आपके आज्ञाकारी मंत्री आपके आदेश की पूर्ती कर लौट आये हैं। राम लक्ष्मण और मेरी पुत्रवधु सीता वन में भटक रहे होंगे। एक रानी को दिए वचन के लिए आपने निर्दोष राम को वन भेज दिया। अब मैं उसके वियोग में कैसे रहूँगी।"
कौशल्या के इस प्रकार के वचन सुन कर महाराज दशरथ विकल हो गए। जब से राम वन गए थे दशरथ पछतावे में जी रहे थे। कौशल्या से बोले,
"ऐसे वचन मत बोलो। तुम तो सभी के प्रति दयालु हो फिर मेरे प्रति भी कुछ दया दिखाओ। मैं पश्चाताप की अग्नि में जल रहा हूँ। मुझे और लज्जित मत करो।"
कौशल्या ने आवेश में कटु वचन बोल तो दिए किंतु उन्हें तुरंत ही इस बात का पछतावा हुआ। सुमित्रा ने उन्हें समझाया कि जो हुआ उस पर किसी का वश नहीं था। इसे विधि का विधान मान कर सह लेने में ही समझदारी है। कौशल्या महाराज दशरथ के पास गईं और उनसे क्षमा मांगने लगीं। महाराज दशरथ बोले,
"हम सभी भाग्य के इस क्रूर खेल का शिकार हैं। हम तो कठपुतली हैं जैसा विधि नचाएगी वैसे नाचेंगे।"
सुमंत हाथ जोड़ कर बोले,
"महाराज धैर्य रखें। राम अपनी पत्नी और लक्ष्मण के साथ वन में कुशल से हैं। उन्होंने संदेश भेजा है कि आप किसी प्रकार की चिंता ना करें। कठिन समय में धैर्य ही सबसे अच्छा मित्र है। अतः उसका साथ ना छोड़ें। यह कठिन समय राम को आने वाले जीवन के लिए तैयार करेगा। अतः आप धैर्यपूर्वक राम के लौटने की प्रतीक्षा करें।"
सुमंत के समझने पर भी महाराज दशरथ का दुख कम नहीं हुआ और वे 'हाय राम ' करके विलाप करने लगे।