Baat bus itni si thi - 23 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 23

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बात बस इतनी सी थी - 23

बात बस इतनी सी थी

23.

इस बार केस जल्दी नंबर पर आ गया था और तारीख भी जल्दी-जल्दी लगने लगी थी । छः-सात तारीखों के बाद ही बहस शुरू हो गई थी । मंजरी ने इस केस में मेरी माता जी को कटघरे में खड़ा करने की पूरी योजना बनायी हुई थी । उसके पास सबूत के रूप में जो वीडियो था, उस वीडियो में मेरी माता जी मंजरी के पापा से दहेज में अस्सी लाख रुपये लेते हुए दिखायी पड़ रही थी, इसलिए मंजरी मेरी माता जी को भी कोर्ट में घसीटना चाहती थी ।

वह सोचती थी कि मैं और मेरी माता जी तंग आकर उसके आगे समर्पण कर देंगे । लेकिन मैं मेरी माता जी को कोर्ट की कार्यवाही से बचाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार था । इसलिए मंजरी को अस्सी लाख रुपये देने की सजा भुगतने के लिए मैंने अपनी गाड़ी और अपना फ्लैट बेच दिये थे और कुछ रुपयों की कमी रहने पर उतनी रकम पूरी करने के लिए अपने एक दोस्त की सहायता लेकर समय से पहले ही पूरी रकम की व्यवस्था कर ली थी ।

जिस दिन और जिस समय कोर्ट का निर्णय आया और जितनी रकम जमा करने का कोर्ट ने आदेश दिया, मैंने उतनी ही रकम उसी समय कोर्ट में जमा कर दी । उस समय मैं खुश था कि मैंने अस्सी लाख रुपयों में एक अबूझ जंजाल से मुक्ति और जिंदगी का सुख-चैन पा लिया था, लेकिन मंजरी खुश नहीं दिखाई दे रही थी । शायद मंजरी ने ऐसी आशा नहीं की थी कि मैं अस्सी लाख रुपये समय पर जमा करा दूँगा।

मंजरी का अनुमान था कि यदि मैंने अस्सी लाख रुपयों की बड़ी धनराशि जुटाने की किसी तरह हिम्मत कर भी ली, तो कम-से-कम कुछ समय की मोहलत तो मैं कोर्ट से जरूर मांगूँगा । जब ऐसा नहीं हुआ और उसी समय कोर्ट के आदेश अनुसार देय धनराशि जमा कर दी गई, तो मंजरी को एक झटका लगा । उस समय मंजरी के चेहरे पर उदासी और निराशा साफ-साफ देखी जा सकती थी । उसकी गर्दन झुकी हुई और आँखें गीली हो गई थी ।

मंजरी के चेहरे पर उदासी की रेखाएँ देखकर न जाने मेरी खुशी कहाँ और क्यों गायब हो गई थी ? कोर्ट से निकलकर रास्ते में चलते हुए भी मैं अपनी उस खुशी को वापस लौटाकर नहीं ला पा रहा था, जो मेरे मन में मंजरी को उदास देखने से पहले थी । अपनी इस दशा पर मैं यह सोचने के लिए मजबूर हो गया था -

"कहीं मेरा निर्णय गलत तो नहीं है था ? एक ओर मै अस्सी लाख रुपये जुटाने के लिए अपने पिता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई से खरीदा हुआ फ्लैट ओने-पौने दामों में बेचकर खुद घर से बेघर हो गया हूँ ! दूसरी ओर न मंजरी खुश है और न ही अब उसको उदास देखकर मैं खुश हूँ ! जिस सुख-चैन को पाने के लिए मैं आज बेघर हूँ, क्या वह सुख-चैन मुझे मयस्सर हो सकेगा ?"

यह सोचते हुए मैं निरुद्देश्य सड़क पर भटकता फिरता चल रहा था । जिस दिशा में मेरे कदम अनायास ही मुझे लिए जा रहे थे, वह रास्ता मुजफ्फरपुर की ओर जाता था, जहाँ आजकल मेरे पैतृक घर में मेरी माता जी रह रही थी ।

अगले दिन मैं रात के दस बजे घर पहुँचा था । मैंने दरवाजा खटखटाया, माता जी घबराते हुए दरवाजा खोलने आई, क्योंकि मैंने उन्हें अपने आने की पहले से कोई सूचना नहीं दी थी । मुझे देखते ही उन्होंने मुझसे पहला सवाल यह किया -

" बेटा, तू पैदल आया है ? गाड़ी कहाँ है तेरी ?"

मैंने माता जी के सवाल का कोई जवाब नहीं दिया । माता जी अचंभित-सी टकटकी लगाए मेरी ओर देखती रही थी, तो मैंने कहा -

"अंदर चले ? अंदर चलकर बात करें ?"

माता जी ने मुझे अंदर जाने के लिए रास्ता दे दिया और खुद दरवाजा बंद करने लगी । कुछ क्षणों के बाद मेरे पीछे-पीछे अंदर पहुँचकर उन्होंने कहा -

"वहाँ से चलने से पहले फोन कर दिया होता, तो तेरे लिए खाना बनाकर तैयार रखती ! क्यों नहीं किया चलने से पहले फोन ?"

"अब माँ के पास आने के लिए भी पहले से सूचना देनी पड़ेगी क्या ? और हाँ, खाना खाने के लिए मुझे कुछ खास भूख नहीं है ! अभी एक घंटा पहले रास्ते में खा लिया था !"

सच तो यह था कि मुझे बहुत तेज भूख लगी थी । शायद माता जी को यह आभास हो गया था कि उनका बेटा रात में माँ को कष्ट नहीं देना चाहता, इसलिए वह अपनी भूख को माँ से छुपा रहा है । वह बोली -

"ऐसे कैसे भूख नहीं है !" यह कहकर माता जी रसोई में खाना बनाने के लिए चली गई ।

माता जी ने खाना बनाकर मेरे लिए प्लेट में परोस दिया । बाहर का खाना खाते खाते मैं ऊब चुका था, इसलिए खाने की प्लेट सामने आते ही मैं जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा, जैसेकि पिछले कई दिन से मुझे खाना नहीं मिला हो । आज बहुत दिनों बाद माता जी के हाथ का बना हुआ घर का खाना मिल रहा था । इस खानें में प्यार भी था और स्वाद भी, इसलिए आज खाना बहुत ही स्पेशल लग रहा था । ऐसा लग रहा था कि इसके लिए मैं सदियों से तरस रहा था । माता जी मुझे इस तरह जल्दी-जल्दी खाना खाते हुए देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थी । मैं खाना खा चुका, तो माता जी ने एक बार फिर पूछा -

"पैदल क्यों आया है ? गाड़ी कहाँ है तेरी ?"

"माता जी, रुपयों की जरूरत में बेच दी है !"

"बेटा, रुपयों की जरूरत में गाड़ी क्यों बेच दी ? हमसे कह दिए होते ! हम रुपयों की व्यवस्था कर देते !"

"माता जी, कुछ ज्यादा रुपयों की जरूरत थी ! इसलिए हम आपसे नहीं कहे ! वैसे भी, वह गाड़ी पुरानी हो चली थी । कुछ दिन में हम नई गाड़ी खरीद लेंगे, आप चिंता न करो !"

मैं माता जी को समझाने में सफल रहा था, किंतु मुझे खुद को समझ में नहीं आ रहा था कि अब आगे क्या ? और कैसे होगा ? न मेरे पास गाड़ी थी, न ही घर था और न ही इतने रुपए थे कि मैं गाड़ी और घर खरीद सकूँ ! माता जी को यह बताने का भी मुझमें साहस नहीं रह गया था कि मैंने रुपयों की जरूरत में केवल अपनी गाड़ी ही नहीं बेची है, वह फ्लैट भी बेच दिया है, जिसको मेरे पापा जी ने अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई से खरीदा था और जिसको माता जी ने अपने तन-मन-धन और लगन से घर बनाया था और जिसमें मेरे पिता जी के साथ माता जी की आत्मा बसती है ।

मेरी माता जी से यह सच छिपाना मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था, किंतु सच बताने में डर लगता था कि यदि माता जी इस सच को सहन नहीं कर पायी, तो क्या होगा ? वह तो गाड़ी बेचने की बात सुनकर ही इतनी विचलित हो गई थी । यही सब सोचते-सोचते मैं माता जी की गोद में सिर रख कर लेट गया । उन्होंने मेरे ललाट पर अपना ममतामयी हाथ फिराकर मेरे बालों में अपनी उंगलियों का कंघा करते हुए पूछा -

"मंजरी कैसी है ? कहाँ है अब वह ?"

माता जी के इस प्रश्न को सुनकर मेरी हालत कुछ अजीब-सी हो गई । अपने आप को संभालने की बहुत कोशिश करते हुए मैंने उन्हें बताया -

"मंजरी से कल मेरा पिंड सदा के लिए छूट गया है ! अब वह कभी भी आपको या मुझे परेशान नहीं कर पाएगी !'

यह कहकर मेरा चेहरा विकृत हो गया और आँखों में आँसू छलक आए । हालांकि मैंने अपनी मनोदशा को माता जी से छिपाने का प्रयास किया था, लेकिन मैं छिपाने में सफल नहीं हो सका और माता जी ने मेरी कमजोरी को पकड़ लिया । उन्होंने अपनी ममतामयी कोमल वाणी में मेरे मन की टोह लेते हुए कहा -

"रह पाएगा उसके बिना ?"

"पता नहीं ! पर उसके साथ रहना भी तो मुमकिन नहीं था !"

यह कहकर मैं माता जी की गोद में सिर रखे हुए छोटे बच्चों की तरह खूब रोया । माता जी अपना हाथ कभी मेरे ललाट पर और कभी अपनी उंगलियाँ मेरे बालों में डालकर अपना वात्सल्य उड़ेलती रही । शायद ऐसा करके वे मेरी उस पीड़ा को कम करने का असफल प्रयास कर रही थी, जो मंजरी के वियोग की वजह से मैं झेल रहा था । उस रात मैं किसी छोटे-से बच्चे की तरह माता जी की गोद में ही सिर रखे-रखे सो गया था ।

सुबह जब मेरी नींद टूटी, तो मेरे सामने वर्तमान और भविष्य की चिंताओं का बड़ा पहाड़ था, जिसको फतह करने के लिए मुझे साधन और साहस दोनों की जरूरत थी । मेरी मुखमुद्रा देखकर शायद माता जी ने मेरी मानसिक दशा का अनुमान लगा लिया था । इसलिए माता जी ने अपनी पूरी सामर्थ्य से मेरी चिंता की वजह के बारे में जानने की कोशिश की । लेकिन मेरे पास उन्हें बताने के लिए कुछ नहीं था । मेरी सबसे बड़ी चिंता तो यही थी कि माता जी को पता लगने से पहले मैं एक ऐसा फ्लैट खरीद लूँ, जो मेरी माता जी की उस पीड़ा को कुछ कम कर सकें, जो पीड़ा उन्हें यह जानने के बाद होने वाली थी कि मंजरी को अस्सी लाख रुपए देने के लिए मैंने अपने पापा जी के खरीदे हुए फ्लैट को बेच दिया है ।

अपनी पहाड़-सी चिन्ता को चित्त में लिये हुए जल्दी ही मुझे ऑफिस के लिए भी निकलना था । माता जी के हाथ का बनाया हुआ नाश्ता खाने के बाद मैंने ऑफिस जाने के लिए माता जी से अनुमति माँगी और उनका आशीर्वाद लेने के लिए मैं जैसे ही उनके चरणों की ओर झुका, माता जी ने मुझे अपनी बाँहों में उठाकर पाँच लाख रुपये का एक चेक मेरे हाथ में देते हुए कहा -

"ले बेटा ! अपने लिए एक गाड़ी खरीद लेना !"

"माता जी ! इसकी जरूरत नहीं है ! मुझे बस आपका आशीर्वाद चाहिए ! आपका आशीर्वाद ही मेरे लिए संजीवनी है ।"

जितना सच यह था कि उस समय मुझे गाड़ी की बहुत सख्त जरूरत थी, उतना ही एक सच यह भी था कि मैं माता जी से रुपए नहीं लेना चाहता था । लेकिन उस दिन मैंने माता जी की आँखों में पहली बार ऐसा कुछ देखा था, जिसने उनके दिल में वर्षों तक मेरे दूर रहने की वजह से धीरे-धीरे अपनी जगह बनायी होगी । यह कुछ ही उन्हें अकेलेपन की त्रासदी से रूबरू कराते हुए उस निराशा के गर्त में न ढकेल दे, जहाँ चाहे-अनचाहे उनकी यह धारणा बन जाए कि उनका इकलौता बेटा, जिसे उन्होंने अपने बुढ़ापे की लाठी माना था, उनकी पहुँच से बहुत दूर चला गया है ! यह सोचकर मैंने उनके हाथ से पाँच लाख रुपये का वह चेक ले लिया और "थैंक्यू ! माता जी !" कहकर उनके सीने से लग गया ।

"माँ को थैंक्यू कहेगा !" कहते हुए माता जी ने मुझे अपने सीने से हटाकर मेरे गाल पर एक हलकी-सी चपत लगायी और बोली -

"चल, जा ! अब ऑफिस को देर मत कर !"

मैं एक बार फिर माता जी के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लेकर घर से निकल गया । लेकिन उस दिन मैं ऑफिस नहीं गया । घर से निकलकर मैं सीधा मारुति सुजुकी के शोरूम गया और शाम को एक स्विफ्ट डिजायर गाड़ी खरीदकर घर ले आया । मैंने घर पहुँचकर दरवाजा खटखटाया, तो माता जी दरवाजा खोलने के लिए आयी और मुझे देखते ही घबराकर बोली -

"तू ऑफिस नहीं गया ?"

"नहीं ! ऑफिस कहाँ जा पाया ! सूबह आपने गाड़ी खरीदने के लिए कहा था न, इसलिए मैं पहले मारुति सुजुकी के शोरूम चला गया था और यह गाड़ी ले आया हूँ !"

मैंने घर के बाहर खड़ी गाड़ी की तरफ संकेत करते हुए कहा, तो नई गाड़ी देखते ही माता जी के चेहरे पर चमक आ गयी । वे बोली -

"अरे ! मेरा बिटवा ले भी आया नई गाड़ी, इतनी जल्दी ! मैं अभी आती हूँ ! तू तब तक बाहर ही रहना !"

कुछ क्षणों में माता जी अंदर से एक थाली में रोली और नारियल लेकर बाहर आ पहुँची । बड़े उत्साह से उन्होंने गाड़ी पर रोली से शुभ स्वास्तिक बनाया और नारियल फोड़कर गाड़ी का गृह प्रवेश कराया । गाड़ी घर के अंदर पहुँचते ही माता जी ने मुझसे फिर कहा -

"तो आज ऑफिस नहीं गया !"

"नहीं !"

"सुबह तो कहे रहे कि ऑफिस में बहुत जरूरी काम है ! जल्दी पहुँचना है !"

"हाँ, ऑफिस में बहुत जरूरी काम था और इसलिए जल्दी पहुँचना था ! पर तब, जबकि मेरी माता जी का मेरे लिए कोई और आदेश नहीं था ! जब माता जी ने गाड़ी लाने का आदेश दे दिया, तो पहले माँ की आज्ञा का पालन, उसके बाद कुछ और !"

"बयालीस साल का हो गया है, पर शैतानी वही छोटे बच्चों जैसी करता है ! जैसा अपने बचपन में था, आज भी वैसा ही है ! बिल्कुल भी नहीं बदला !"

कहकर माता जी ने बड़े लाड़ से मेरे सिर पर हाथ फेरा और ढेर सारे आशीर्वाद दे डाले ।

क्रमश..