Ek Samundar mere andar - 22 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 22

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इक समंदर मेरे अंदर - 22

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(22)

वह न मायके जायेगी और न ससुराल जायेगी। जिसको यहां आना हो, आ जाये। उसके घर के पास ही प्राइवेट अस्पताल था। वहां उसने अपना नाम लिखवा दिया था। उन दिनों उसे मालाड स्‍टेशन से ट्रेन से जाना अंधेरी जाना पड़ता था और वहां से ऑफिस की बस मिलती थी।

जैसे जैसे महीने चढ़ते जा रहे थे, कामना के शरीर में बदलाव भी आता जा रहा था। सोम के माता पिता का मन था कि कामना की डिलीवरी दिल्‍ली में करवाई जाये और सरकारी अस्पताल में करवाई जाये।

उसी दौरान ससुर का दिल्‍ली में एक्‍सीडेंट हो गया था। बड़ी विकट परिस्थिति थी। कामना ने अम्मां को नहीं बुलाया था। सास आने वाली थीं और अब उनका आना खटाई में पड़ता दिख रहा था।

उसने आने वाले शिशु के लिये मलमल के झबले, लंगोट सिलवा लिये थे। वह भी दस-बीस नहीं, पूरे चालीस और ऊपर से डोरी बांधे जाने वाले झबले सिलवाये थे। इसके लिये वह ज्‍य़ादा पैसे नहीं खर्चती थी।

वह मलमल का कपड़ा लेने क्राफर्ड मार्केट गई थी जो पाकिस्तानी गली कहलाती थी। वहां पाकिस्‍तान से आये चमकदार कपड़े ज्‍य़ादा मिलते थे और सूती कपड़े नाममात्र को। एक जगह मलमल का कपड़ा दिखा था तो उसने नौ मीटर कटवा लिया था।

इस पर उस फुटपाथी दुकानदार ने एहसान जताते हुए कहा था – ‘अल्‍लाह के फज़ल से आपको मलमल मिल गया, हम तो ये माल बेचते ही नहीं।‘ इस पर उसने कहा था – ‘जिस देश की मिट्टी पर जन्मे हो और जिस देश का खा रहे हो, उसकी तो शर्म करो। ....एक काम करो, बाकी चार मीटर मलमल भी दे दो।

....मैं अपने लिये कुरते सिला लूंगी।‘ उसने खिसियानी हंसी हंसते हुए कपड़ा नापकर दे दिया था। शादी के बाद शुरुआती दिनों में उसने अपनी ससुराल वालों की खुशी की ख़ातिर ये चिकने और चमकते कपड़े खूब पहने थे।

ये कपड़े सस्‍ते भी होते थे और रंग भी नहीं उतरता था। सच कहे तो उसे वे कपड़े बिल्‍कुल अच्‍छे नहीं लगते थे और अपना हाथ संवरते ही वह उन कपड़ों को तिलांजलि देती गई थी। साथ ही ससुराल में सबको समर कूल कपड़े देती गई थी, जो महंगे होते थे।

उसके ससुर हंसकर कहते थे – ‘सूती कपड़े तो ग़रीब पहनते हैं।‘ यह बात दीगर थी कि कालान्‍तर में वे लोग भी सूती कपड़े पहनने लगे थे। उन लोगों ने इस बात को स्‍वीकार कर लिया था –

‘कामना, सूती कपड़े मेंटेन करना महंगा पड़ता है। सिंथेटिक कपड़े एक यूनिट बिजली में घर में प्रेस हो जाते हैं। यह सुनकर वह हंसकर रह गई थी। सोम से जब मुंबई में मुलाक़ात हुई थी तब वे ज़ोडियाक की और डबल बुल की शर्ट और पतलून पहना करते थे।‘

वह उनके जन्मदिन पर उसी कंपनी की शर्ट पतलून, मोजे और रूमाल दिया करती थी। वह देखती थी कि लोग खाली शर्टपीस दिया करते थे गिफ्ट में। अब ऐसे लोगों से पूछे कि क्‍या बंदा खाली शर्ट पहनकर नौकरी पर जायेगा?

यह सोचकर और उसकी कल्‍पना करके खुद ही खूब हंसी थी। उसने अपने हाथ से अपने लिये गोंद के लड्डू बनाये थे, सूखे मेवों की बर्फी बनाई थी। हरीरा बनाने के लिये खसखस और सारे सूखे मेवे लेकर आई थी।

उसे पोस्‍त का हलवा बहुत पसंद था। उसने अपनी डिलीवरी की खुद तैयारी की थी। उन दिनों उसे तेल वाली सूखी आलू की सब्जी और ब्रेड बहुत पसंद थी। रोटी तो उसने पूरे नौ महीने तक नहीं खाई थी। बस, सैंडविच, पानीपूरी, भेलपूरी और कुल्‍फी पर ही निर्भर थी।

उसने अपने ऑफिस में नमकीन के डिब्‍बे भरकर रखे थे और छात्रों के मेस का मैनेजर उसके लिये शाम को गरम नाश्‍ता भेज देता था, जो छात्रों के लिये बनता था और पैसे भी नहीं लेता था। उसका कहना था - मैडम, आपको नाश्‍ता देकर हम बच्‍चे का पेट भर रहे हैं। मेहरबानी नहीं कर रहे।‘

इसका वह क्‍या उत्तर देती? इतना सब होने पर भी वह शाम को सोम के लिये खाना बनाती थी। महीने-दर-महीने चढ़ते जा रहे थे और पेट का आकार भी बढ़ता जा रहा था। पैरों में सूजन हो जाती थी। फिर भी वह पूरे नौ महीने तक ऑफिस गई थी। जब वह मालाड उतरती, तो एक सैंडविच खाती थी और एक पैक करवा लेती थी।

ऑटो से जाना कम कर दिया था क्‍योंकि वे ब्रेक इतनी ज़ोर से मारते थे कि कहीं ऑटो में ही डिलीवरी न हो जाये। इसलिये वह खाते हुए और गन्‍ने का जूस पीते हुए पैदल घर पहुंचती थी। अब बच्‍चा पेट में हिलने-डुलने लगा था और रात को तेज़ी से घूमता था।

कई बार रह-रहकर दर्द उठता था और फिर बैठ जाता था। नौ महीने होने आ रहे थे और दर्द उठने का नाम नहीं ले रहे थे। डॉक्‍टर के पास जाती तो वह चेक करती और कहती, ‘अभी पानी की थैली नहीं फूटी है।.....जब वह फूटे तब आना।‘

कामना जब फाइनल चेकअप के लिये गई तो डॉक्‍टर ने कहा – ‘तुम्‍हें आयरन की कमी हो गई है। डिलीवरी से पहले दस इंजेक्‍शन लेने पड़ेंगे।‘ कामना ने कमर के नीचे बायीं ओर वे इंजेक्‍शन लगवाये थे। हाथ में लगवाती तो हाथ दर्द करता और काम करने में दिक्कत होती।

सोम की मां का आना तय नहीं था। तो उसने अपनी अम्मां को बुलवा लिया था कि न जाने कब उसे अस्पताल जाना पड़ जाये। कोई तो होना चाहिये घर में और अम्मां आ गई थीं। उन्‍होंने कहा – ‘बेटा, तुमाई सास आय जायेंगी तौ हम चले जायेंगे। अच्‍छौ नाय लगत।‘

इस पर कामना ने कहा था – ‘तुम ऐसी बातें मत किया करो। तुमने पैदा किया है। शादी के बाद बिटियन पै सैं हक़ खतम थोड़ेंई है जातेंगे। जब बे आयेंगी, तब की तब देखेंगे। अभैं तुम हमें रामलीला के आलू की चाट बनाकर देऔ। आलू उबले रखे हैं।‘

अम्मां ने उन आलुओं को छीलकर तवे पर कम तेल डालकर हल्के ब्राउन होने तक तले थे और ऊपर से नमक, लाल मिर्च और अमचूर डालकर दिया था, साथ में माचिस की तीली भी खुरस दी थी। उन दिनों ये तीलियां ही कांटे का काम करती थीं।

बच्‍चा धीरे धीरे नीचे सरकने लगा था और एक दिन जब वह घर पहुंची तो अचानक पेट के अंदर पानी की थैली फूट गई और पानी बहने लगा था। वह रुआंसी हो गई थी। रात के आठ बजे थे और सोम घर पहुंचे ही थे।

कामना की यह हालत देखकर उसे जल्‍दी से अस्पताल ले गये थे। अस्पताल में उसे भर्ती कर लिया गया था। हालत नाज़ुक थी। डॉक्‍टर ने कहा – ‘अभी टाइम है। नौ महीने पूरे तो हो गये हैं, फिर भी एक-दो दिन देखते हैं। कामना हिम्‍मतवाली है। वो खुद को संभाल लेगी।‘

यह सुनकर कामना के चेहरे पर दर्दीली हंसी आ गई थी और बोली थी – ‘क्‍या डॉक्‍टर, आप भी मेरी फिरकी लेती हैं।‘ उसी शाम को सोम अपनी मां को लेकर अस्पताल आये थे। वे दिल्‍ली से गाजर का हलवाई बनाकर लाई थीं। उन्‍होंने कहा – ‘ले कामना, तेरे लिये ख़ास बनाकर लाई हूं। तेरे डैडी की हालत ठीक नहीं थी। आने में देरी हो गई। तेरी अम्‍मां आ गईं, यह देखकर मुझे तसल्‍ली हो गई थी।‘

सात बजे वे लोग वापिस चले थे यह कहकर कि रात को आयेंगे एक बार और। इधर दर्द उठने का नाम नहीं ले रहे थे। डॉक्‍टर ने एक बार फिर चेक किया। उस समय रात के नौ बजे थे। उन्‍होंने नर्स को आदेश दिया –

‘नर्स, कामना को एक बड़ा एनीमा दो और पेट साफ होने दो। उसके बाद ऑपरेशन थियेटर में ले जाओ और मैं खाना खाकर दस मिनट में आती हूं।‘ यह कहकर वे कामना का गाल थपथपाकर चली गई थीं।

अब शिशु के बाहर आने में कुछ ही समय बाकी था। कामना को ऑपरेशन थियेटर में ले जाकर कपड़े बदलने के लिये कहा और उसे अस्पताल का एक गाउन दिया। फिर उसके पेट को डेटॉल से धोया।

तब तक सोम, अम्मां और सास तीनों आ गये थे। दूसरी ओर कामना का ब्‍लड प्रेशर नापा गया...बिल्‍कुल नार्मल था। मतलब कि ऑपरेशन करने में परेशानी नहीं होगी। हां, केस थोड़ा उलझ गया था।

पता चला था कि अम्‍मां की जिस नाल से बच्‍चा पोषित होता है, उसे बच्‍चे ने अपने गले में लपेट लिया था और सिजेरियन करना ज़रूरी था। चूंकि नौ महीने से ज्‍यादा दिन हो गये थे तो इंतज़ार करना खतरे से खाली नहीं था।

जहां डॉक्‍टर दो घंटे पहले कामना को दिलासा दे रही थी – ‘चिंता मत करो। हम नार्मल डिलीवरी की पूरी कोशिश करेंगे, वही डॉक्‍टर अब सिजेरियन की तैयारी कर रही थीं। उनके चेहरे पर सहज मुस्कान थी।

कामना हंसकर बोली – ‘मुझे पता था, यही होना था। जब दर्द ही नहीं उठ रहे तो काहे की नार्मल डिलीवरी?’ उत्तर में उन्‍होंने हंस कर कहा था – ‘आइ लाइक ब्रेव लेडी लाइक यू। अब अपने आपको अपर मिरर में देखती जाओ।‘

रात के ठीक 10 बजकर 35 मिनट पर एक नये प्राणी का जन्‍म हुआ। शिशु के मुंह में उंगली थी और आँखें खुली थीं और होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी। कैसा तो रुई का फ़ाहा सा था। वह रोया नहीं तो कामना ने इशारा किया।

डॉक्‍टर ने शिशु के पिछवाड़े को ज़ोर से थपथपा दिया तो वह ज़ोर से रोने लगा था। कामना को तसल्‍ली हो गई थी...साथ ही अपने सारे दर्द भूल गई थी। नर्स बच्‍चे को लेकर बाहर चली गई थी सोम के साथ आयी अम्मां और सास को दिखाने के लिये, साथ ही अपना नेग भी लेना था उसे।

नर्स को अच्‍छा नेग दिया गया और तब तक कामना बेहोशी के आग़ोश में जा चुकी थी। कामना पांच दिन तक अस्पताल में रही थी। उसकी सहेली प्रसूति अवकाश का पत्र टाइप करके लाई थी। कामना को सिर्फ़ हस्ताक्षर करने थे ताकि तीन महीने की मैटरनिटी लीव मंजूर हो जाये।

यह देखकर कामना हैरान थी। किसी ऑफिस के लोग इतने अच्‍छे भी हो सकते हैं, उसने सोचा तक न था। वह अस्पताल का ही खाना खा रही थी। डिलीवरी के दूसरे ही दिन उसे बुखार हो गया था और उतर नहीं रहा था।

उसके लिये उसे दिन में चार इंजेक्‍शन लगाये जाते थे और दर्द कम करने के इंजेक्‍शन अलग से थे। उसको पांच दिन में साठ इंजेक्‍शन लगाये गये थे और उसका सबूत था कि कमर के नीचे के दोनों हिस्‍सों पर गहरे काले दाग पड़ गये थे, जिन्‍हें मिटने में काफी समय लगा था।

पांच दिन बाद वह घर आ गई थी। सब कुछ ठीक ठाक था। अम्मां वसई वापिस चली गई थीं। सोम को खेलने के लिये खिलौना मिल गया था। उसके ऑफिस के लोग बारी बारी से घर मिलने आते रहे। वह उन सबके लिये नई थी, पर उन्‍होंने कभी यह महसूस नहीं होने दिया था।

सास खाना बनातीं थीं और कांदा डालतीं थीं। जबकि उन्‍हें पता था कि वह कांदा नहीं खाती थी। पन्द्रहवें दिन से उसने रसोई संभाल ली थी और सोम से कह दिया था – ‘यदि आपकी अम्‍मां दिल्‍ली वापिस जाना चाहें तो जा सकती हैं। आपके पिताजी की भी तबीयत ठीक नहीं है।‘

सोम ने कहा – ‘मैं तुम्‍हारी तरह मुंहफट नहीं हूं। मम्‍मी को कैसे कह दूं?’ इस पर उसने कहा – ‘ठीक है, तुम मत कहो। तुम्‍हारे सामने मैं ही उनकी इच्‍छा पूछ लूंगी। वे दो बार मुझसे कह चुकी हैं।‘

बात साफ होते कितनी देर लगती है? दूसरे दिन सास ने खुद ही सोम से कह दिया – ‘पुत्तर, अब मैं वापिस जाना चाहती हूं। तेरे बाऊजी को भी तो देखना है। अगले सप्ताह की टिकट करवा दे.......हिक काम करना, वाया झांसी करवा देना। छोटे पुत्‍तरनूं मिलके जावांगी।‘

अब सोम के पास कुछ कहने के लिये नहीं बचा था और अपनी मम्‍मी की टिकट बुक करवा दी थी। रविवार आते कितनी देर लगती है और वह आ भी गया था। अब वह अपने हिसाब से बिना कांदे का खाना बनायेगी और परहेज़ भी करेगी।

एक बार वह फिर अकेली थी और इस बार बच्‍चा भी साथ था, जिसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रखना था। आखिर वे दोनों कमा रहे थे तो किसलिये कमा रहे थे? बेटे की मालिश के लिये अस्पताल की बाई आती थी।

वह तिल के तेल से मालिश करती, गरम पानी से नहलाती थी और फिर एक बर्तन में नारियल की खोपड़ी को जलाकर, उसमें अजवाइन और धूप डालकर बच्‍चे को दोनों हाथों में लेकर और ऊपर उठाकर सेक देती थी।

बाद में कपड़े पहनाकर और कपड़े में बांधकर चली जाती थी। कामना ने इस बचचे का घर में बुलाने का नाम रखा चिंकू। चिंकू नहाकर गहरी नींद में सो जाता और वह भी जल्‍दी से नहाकर सो जाती थी, ताकि रात की अधूरी नींद पूरी कर सके। उसका भी तो सोना ज़रूरी था।

प्रसूति अवकाश के तीन महीने ख़त्‍म होने आ रहे थे। चिंकू भी खेलने लगा था। वह रात के एक बजे तक खेलता था। ‘उक्‍कूं उक्‍कूं’ शब्‍द बोलने लगा था। उसके सोने के बाद ही कामना सोने जाती थी।

अब बालवाड़ी का इंतज़ाम करना था, जहां चिंकू को छोड़ा जा सके। कामना की टाइपिस्ट बहुत ही अच्‍छे दिल की थी। उसे वेतन की अथॉरिटी दे रखी थी। वह हर महीने उसका वेतन देने मालाड आती थी और खुशी खुशी आती थी। बहुत हंसमुख थी।

इस ऑफिस में मराठियों का वर्चस्व था। मैनेजमेंट में अधिकतर दक्षिण भारतीय थे। वह अकेली एक कर्मचारी थी जो यूपी की थी और पंजाबी थी। उन लोगों ने उसे स्वीकारने में एक लंबा समय लगाया था। स्वाभाविक भी था। यह प्रक्रिया हर नये इंसान के साथ होती है, चाहे देश हो या विदेश।

कामना ऑफिस में सभी से मिल-जुलकर रहने की कोशिश करती थी। उसने सोचा कि स्थानीय लोगों के दिल तक पहुंचने के लिये मराठी आना बहुत ज़रूरी था। वैसे तो उसे कामचलाऊ मराठी आती थी।

दसवीं तक पढ़ी थी। श्रीमती कानिटकर पढ़ाती थीं। बहुत प्‍यार से समझाती थीं। उसने मराठी पिकअप भी कर ली थी। प्‍यार और स्‍नेह का असर ही दूसरा होता है।

फिर पारिवारिक हालात व पढ़ाई के चक्‍कर में, नौकरियां बदलने के चक्‍कर में मराठी कहीं हाशिये पर छूट गई थी। इस संस्थान में उसे फिर मराठियों का साथ मिला था और उसने तय कर लिया था कि वह मराठी सीखकर रहेगी।

शुरू शुरू में तो वह उनके साथ ग़लत सलत मराठी बोलने लगी थी। जब उन लोगों इस बात को भांप लिया कि वह तो सच में मुंबईकर है तो वे उसकी गलती सुधारने लगे थे।पहले वह मराठी समझती तो पूरी थी, पर बोल नहीं पाती थी। अब वह धड़लले से बोलने लगी थी।

वह उनसे हमेशा कहती थी – ‘अरे मेल्‍यानो, मी यू पी ची कुठे राहिली? इकडे आमी सैटल झालो न...म्‍हणजे मुंबईकर ..माझी मुलं पण इकड़े जन्‍माला आले ....।‘ तब जाकर वे सब अच्‍छी तरह बात करने लगे थे।

सोम ने शादी से पहले ही कह दिया था – ‘देखो कामना, मेरे जॉब के साथ ट्रांसफर एक आवश्यक शर्त है। एक ही स्‍टेशन पर तीन से पांच साल काम करना होता है। यदि प्रमोशन होता है तो ट्रांसफर तय है। इस बात को समझ लेना होगा। तुम पेंशन का विकल्प मत चुनना।

....यदि मेरे ट्रांसफर के समय नौकरी छोड़नी पड़ती है तो कुछ नहीं मिलेगा। पेंशन के लिये बीस साल नौकरी करना ज़रूरी है। सीपीएफ का विकल्प लेना, ताकि जब भी नौकरी छोड़ोगी, घाटा नहीं होगा।‘ उसने भी इस बात को मान लिया था।

सच भी था। सोम ऊंचे पद पर थे और वेतन अच्‍छा था। उनके संस्थान की ओर से बच्‍चों की पढ़ाई और उच्च शिक्षा के लिये कम दर पर लोन उपलब्‍ध थे। लेकिन उसकी अपनी भी सरकारी नौकरी थी।