सीमा पार के कैदी 9
बाल उपन्यास
राजनारायण बोहरे
दतिया (म0प्र0
9
सुबह जब अजय और अभय दोनों उठे तो उन्होंने पाया कि विक्रांत टेबल पर उनके लिए कागज की एक पर्ची लगाकर चला गया था। पर्ची उठा कर अजय गौर से पढने लगा- एक्स व वाय मुझे ज्ञात हो गया है कि तुम दोनों अपने काम में सफल हो गये हो। तुम्हारा काम अब समाप्त। तुरंत प्रस्थान करो। मैं नहीं चल पाऊँगा। आशा है, अपनी सुरक्षा का ध्यान रखोगें।
दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा।
यानि अब भारत लौटना था, और वह भी अकेले ही।
सोचना क्या था, अधिक देर करने से हानि की संभावना थी। अभय ने पूंछा- अजय तुमने फाइल तो पूरी पढ ली है न ?
-’’इतना समय ही कहाँ था।
-’’अरे यार, यह तो देखों कि गिरफ्तार लोग कहाँ किस जेल में बंद हैं ? इस बारे में कोई जानकारी है या नहीं।
-’’ आल राइट, यह तो भूल ही गया था’’ कहते हुये अजय ने फाइल के पन्ने उलटे। और तुम दो-तीन पृष्ठों में उन जेलों और नगरों के नाम थे जहाँ भारतीय गिरफ्तार थे। उसे देखकर दोनों भाई प्रसन्न हो उठे।
भारत से चलते समय ही विक्रांत ने उन्हें काफी विदेशी रूपये दिये थे, जरूरत पढ़ने पर खर्च करने के लिये। मगर उनमें से कुछ भी खर्च नहीं हुआ था। अपना सामान इक्ट्ठा कर दोनों ने बिल चुकाया और होटल छोड़ दिया।
बाहर निकल कर उन्होंने एक टैक्सी की और रेलवेस्टेशन की ओर बढ़ गये। लगता था अभी तक किसी को रिकॉर्ड रूम की चोरी का पता नहीं था, इसलिये स्टेशन और बाजार में मौजूद पुलिस में कोई अफरा-तफरी नहीं फैली थी। वे जल्दी से जल्दी यह नगर छोड़ देना चाहते थे।
स्टेशन पर बाथरूम में जाकर वे फिर ग्रामीण बालक बन चुके थे, और उनके हाथों में अटैचियों के स्थान पर पोटलियाँ आ गई थी। थोड़ी देर बाद ही उन्हें सीमा की ओर जाने वाली एक ट्रेन मिल गई, और जिसमें बैठकर वे वहाँ से विदा हुये।
ट्रेन से प्रांतीय मुख्यालय उतरने के बाद उन्होंने बस पकड़ी और उसी कस्बे में पहुंचे जहां सबसे पहले आकर रूके थे। वहां से से सीमा वाली उस ढाणी की तरफ चलने को हुए तो सामने ही ऊँटो का एक काफिला जाता दिखा।
वे काफिले के पास पहुंचे औेर अजय ने काफिले के मुखिया को बताया कि वे दोनों सीमा के पास की एक ढाणी के रहने वाले बच्चे हैं, पिता के साथ रिश्तेदारी में गये थे, जहाँ से पिता व्यापार के सिलसिले में राजधानी चले गये। वेघर लौट रहे हैं। उन्होंने काफिला के मालिक की सहानुभूति प्राप्त करली, और अनुमति मिलते ही वे काफिले के साथ चल दिये। काफिला एक गांव में जाकर रूका तो जय बोला कि अब वे अकेले जा सकते हैं, मुखिया ने अनुमति दे दी तो वे उसे शुक्रिया कह कर आगे चल पड़े।
दोनों ने अपना सफर शुरू किया। उनके हाथों में एक-एक पोटली थी, और कंधे पर पानी की बोतल लटकी थी।
आते समय जो सफर इन्हें सरल लगा था, अब वही सफर बड़ा कठिन लग रहा था। पिंडलियों तक रेत में धंस जाते पांव, चारों ओर की गर्मी और कटींली झाड़ियों में उलझ जाते कपड़ो से थक कर उनका बदन दर्द करने लगा था। संभल-संभल कर चलते हुये उन्होंने किसी एक ढाणी की मंजिल प्राप्त की। वहाँ के मुखिया से इन्होने फिर वही कहानी सुनाई कि उनके पिता अपने साथ एक ब्याह मेकं ले गये थे और खुद तो दूसरी जगह चले गये उन्हे अकेला घर के लिए रवाना कर दिया है। मुख्यिा ने उनकी हालत देख कर उन्हे आराम करने को कहा। उस ढाणी में दो दिन आराम कर ये फिर आगे बढ़े।
इसी तरह से और चलते ये आखिरी वाली ढाणी के पास पहुँचे। जहाँ के पटैल के घर ये आते समय रूके थे। पटेल ने रूककर आराम करने को कहा। अभी तक इनको विदेश और वह भी दुश्मन के देश की इस यात्रा में उन्हे कोई सरकारी बाधा नही आई थी, अतः सीमा पार करने के बारे में वे निश्चिंत थे।
लेकिन यहीं एक दुर्घटना घटी।
ये दोनों पटैल के यहाँ आराम कर रहे थे, कि अचानक शोर गूँजा। ढाणी के सभी लोग शोर देखने बाहर निकले। ये दोनों भी बाहर आ गये।
बाहर का दृश्य देखकर दोनों सन्न रह गये।
लगभग बीस-पच्चीस भारतीय लोग रस्सियों से जकड़े हुये पैदल नंगे पांव जे जायेे जा रहे थे, जिनके साथ लगभग इतने ही विदेशी सैनिक घोड़ों पर चले जा रहे थे। उन्हें देखते ही अजय और अभय का खून खौल उठा। मगर फिल-हाल वे चुप ही रहे।
जब वह झुंड वहाँ से निकल गया तो दोनों की फुस-फुसाहट में चर्चा हुई। अजय बोला- देखा अभय, किस्मत के मारे ये फिर फंस गये।’’
-’’हम इनका कुछ कर सकते हैं भइया ?’’ अभय बोला।
-’’क्या कर सकते हैं, तुम्हीं बताओ न ?’’
-’’रात होने वाली जाहिर है कि कहीं न कहीं तो यह काफिला रात गुजारेगा ही क्यों न कुछ कर गुजरा जाये। इस फाइल के व्याज में इतने भारतीय और छीन लिये जायें।
-कैसे ? अजय की आंखों में प्रश्न था।
अभय ने अपनी योजना अजय को समझाई। जिस पर काम करने के लिये ये लोग रात का इंतजार करने लगे।
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