shambuk - 20 in Hindi Mythological Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | शम्बूक - 20

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शम्बूक - 20

उपन्यास : शम्बूक 20

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707 Email-tiwari ramgopal 5@gmai.com

13 शम्बूक के आश्रम में- भाग 2

यदि आज इस प्रणाली पर प्रतिबन्ध न लगाया गया तो किसी दिन यह प्रणाली हमारे समाज के लिये नासूर बन जावेगी। लोग श्रम से जी चुराने लगेंगे। हम श्रम जीवी व्यवस्था के पक्षधर हैं। हमें उसी ओर चलने का प्रयास करना चाहिए।

जन सामान्य में चेतना भरने के लिये राजा को स्वयम् हल चलाकर कृषि कार्य का शुभारम्भ करना होता था। राजा जनक ने इसी परम्परा का निर्वाह किया। सीता जी की धरती से उत्पति दर्शाना कृषि कार्य को सम्मपन्नता प्रदान करना ही है। हम हल के बनाव में क्या परिवर्तन लाये जायें कि वह और अधिक उपयोगी हो जाये।

ऐसे सपनों को संजोकर शम्बूक ने कृषि की उन्नति करने के लिये नये- नये उपकरणों का निर्माण शुरूकर दिया। उसी की देख रेख में जोतने के लिये हल की आकृति में स्थाई परिवर्तन ला दिया। हल कैसा हो कि बैलों पर अधिक मेहनत भी न पड़े और जमीन बीज बोने के लिये पर्याप्त गहरी जुत जाये। उसमें आगे लोहे का नुकीला फार बनाकर लगा दिया गया। इसे युग की नई का्रन्ति के रूप में देखा जाने लगा।

अधिक जल्दी जोत कारने के लिये बखर नामके यन्त्र का निर्माण भी कर लिया। अभी तक पुराने लकड़ी के वने उपकरण ही काम में लिये जाते थे। इससे गाय और बैलों का महत्व बढ़ गया। अधिक फसले लेने के लिये गोबर की खाद का उपयोग किया जाने लगा है।

शम्बूक ने एक कार्य और कर डाला अपने बगीचे में एक पेड़ की टहनी को तिरक्षा काटकर उसे दूसरे पेड़ से समन्वय करने का प्रयास जारी कर दिया। कुछ ही दिनों में उनमें कोपले निकल आई। इस तरह नये- नये बीजों की खोज का काम भी प्रारम्भ हो गया। कुछ ही दिनों में उसका आश्रम चर्चा का विषय बन गया। उसने कपड़ों के निर्माण का कार्य भी शुरू कर दिया। बुनकरों का एक संध बन गया। सूत कातना, उससे कपड़ा बुनना शुरू हो गया। पेड़ों की जडों को कूटकर नये- नये रेशे मिलने लगे। इससे नये-नये तरीके के वस्त्रों का निर्माण शुरू हो गया। कपड़ा बुनने के लिये नये यन्त्र का अविष्कार किया गया। इससे कपड़ा बुनने में आसानी रहने लगी।

आश्रम के निकट बसे एक गाँव में दो भाई साथ-साथ रहते थे। उनमें से बड़ा प्रबल बुनकर का कार्य सीखने के दृष्टि से आश्रम में आने लगा था। उसे वह कार्य सीखते हुये तीन माह व्यतीत हो गये थे। वह मन लगाकर कार्य सीख रहा था। शम्बूक ऋषि उसके कार्य से बहुत प्रसन्न थे। एक दिन वह अपने भाई सुबल को साथ लेकर आया। सुबल के हाथों में पिंजरे में बन्द शुक था। प्रबल ने शम्बूक ऋषि से निवेदन किया-‘ गुरुदेव, हम दोनों भाई कार्य प्रणाली की बजह से अपने ही गाँव में प्रथक- प्रथक रहने लगे हैं। हमने आपस में घर की सभी बस्तुओं का बटवारा कर लिया है। हमारे पास एक शुक है। हम दोनों भाई उससे वहुत प्यार करते हैं। हम दोनों ही चाहते हैं कि वह शुक हमें मिले।’

कुछ लोग शम्बूक ऋषि के आश्रम के मध्य में स्थित बटवृक्ष के नीचे बैठे थे। वे सभी गुरुदेव की न्याय व्यवस्था देखने की दृष्टि से उनके पास आकर खड़े हो गये। दोनों भाइयों ने न्याय पाने की दृष्टि से वह पिजरे में बन्द शुक महाराज जी के हाथों में सौप दिया। वे उस शुक की ओर बड़ी देर तक करुणा भरी दृष्टि से देखते रहे बोले-‘ आप दोनों में से कारागार में रहना कौन पसन्द करता है?

‘बड़ी देर तक उत्तर की प्रतीक्षा में सन्नाटा छाया रहा।’

उनके इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था। जब दोनों में से किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो वे पुनः बोले-‘ आप दोनों भाई कारागार में रहना पसन्द नहीं करते। स्वतंत्र रहना प्राणी मात्र की प्रवृति है। फिर वेचारे इस तोते को कैद खाने में क्यों रखा है। मैं जानता हूँ आप लोग इसकी अच्छी तरह देखभाल करते हैं। इसके खाने व पीने का ख्याल रखते हैं लेकिन इसे रखे तो आप लोग कैद खाने में ही हैं। जब आप लोग में से कोई कैदखाने में रहना नहीं चाहता फिर इसे कैदखाने में क्यों रखे हैं।’ यह कह कर उन्होंने वह पिंजरा बड़े प्यार से खोला और उसमें से उस शुक को निकाल कर उड़ा दिया। वह फुर्र से उड़कर पेड़ पर जा बैठा और बोलने लगा। शम्बूक ऋषि बोले-‘ आप लोग सुन रहे हैं यह हम सब को मुक्त करने के लिये धन्यबाद दे रहा है। अब आप लोग जाकर अपने- अपने काम में लग जायें।’

आश्रम दिन प्रतिदिन विस्तार लेता जा रहा था। एक छोटे से गाँव के रूप में दिखाई देने लगा था। सरिता के किनारे कृषि कार्य विस्तार पा रहा था। आश्रम के पास वह रही सरिता से चमड़े के पराहा द्वारा जल निकालने का कार्य किया जा रहा था। पहले पराह को कुए से बल को संतुलित करके दो आदमियों के बल से खीचा जाता था। अब पराहा दो बैलों के सहयोग से ऊपर खीचा जा रहा था। इससे खेतों में शीघ्रता से सिंचाई की जा रही थी।

फसल से आश्रम के अन्न की पूर्ति होने लगी थी। दूसरे किसान भी इसकी देखा देखी सिंचाई के लिये पराहा का उपयोग करने लगे। आस पास के गाँव के किसान यहाँ नई- नई बातें सीखने के लिये आने लगे थे।

आश्रम के एक ओर मरे हुये प्राणियों के चमड़े से उपानह बनाने का काम किया जा रहा था। सुशील चर्मकार ने इस कार्य को सँभाल लिया था। अनेक युवा लोग मोची का कार्य मन लगााकर सीख रहे थे। नये-नये तरीके के सजावटदार उपानह वनाये जा रहे थे। कुछ ब्रह्मचारी उन्हें गाँव- गाँव विक्री के लिये ले जाने लगे। नये- नये आकार की खडाऊँ बनाई जाने लगीं। उन्हें भी विक्री के लिये वे ले जाने लगे। वे सस्ती होने से उनकी विक्री भारी मात्रा में बढ़ गई थी। इन दिनों खडाऊँ पहनने का चलन सा चल पड़ा था। इससे आश्रम की अच्छी आमदानी होने लगी। आश्रम की सम्पन्नता बढ़ने लगी।

इन दिनों एक घटना घटी। एक आश्रम वासी को किसी वृश्चिक ने सता दिया। उसे वृश्चिक का जहर ऐसा चढ़ गया कि सारी रात्री उसके उपचार में सभी परेशान रहे। मुश्किल से बैद्य की दवा से उसकी जान बच पाई। इस समय शम्बूक को याद आने लगी-जब मेधनाथ ने लक्ष्मण को शक्ति प्रहार किया था। वे वेहोश होकर भूमि पर गिर पड़े। हनुमान जी लंका के सुखेन बैद्य को खोजकर ले आये थे। लोग हैं कि सुखेन के उपचार की प्रशंशा करते नहीं थकते। अरे! वह रावण जैसे शक्ति शाली राजा का बहुत ही चतुर चालाक राजबैद्य था। वह संजीवनी बूटी के सम्बन्ध में अच्छी तरह परिचित था। निश्चय ही उस वूटी का उसने कभी प्रयोग किया होगा, तभी इतने विश्वास के साथ उसके बारे में वह कह सका। इसका अर्थ निकलता है ऐसी बूटी निश्चय ही उसके दवाखाने में मौजूद रही होगी किन्तु उसने बूटी को इतनी दूर से लाने के लिये इसलिये कहा कि वहाँ से रात भर में उस वूटी को लाना सम्भव ही नहीं है। वह बैद्य की मर्यादा भी बनाये रखे और राजद्रोही भी न बनना पड़े इसीलिये उसने इस संजीवनी बूटी को अपने औषधालय से न देकर हिमालय से वूटी लाने के लिये कह दिया। साथ ही सर्त लगा दी कि दिन उगने से पहले वह औषधि आना चाहिये। इस कठिन कार्य के लिये श्री राम जी की हनुमान पर दृष्टि गई। हनुमान बैद्य के बतलाये अनुमान अनुसार वूटी लेने चल दिये। रास्ते में अनेक व्यवधान आये। उन्हें पार करते हुये वे हिमालय पर जा पहुँचे। वहाँ वे उस वूटी को नहीं पहिचान पाये।

अरे! सुखेन बैद्य को वूटी की खोज में स्वयम् हनुमान जी के साथ हिमालय जाना चाहिये था। वह तो हनुमान की बुद्धि ने सही निर्णय लिया और उस पर्वत खण्ड को ही उखड़ कर ले आये। सुखेन कों मजबूरी में लक्ष्मणजी का इलाज करना पड़ा।

आजकल ये बैद्य लोग मरीज से धन एठने के लिये कह देते हैं-‘आज मेरे पास यह दवा उपलब्ध नहीं है। कल आना, आज तो मुझे दवा खोजने के लिये जंगल की खाक छानना पड़ेगी।’ इस बहाने से वे अपना महत्व प्रदर्शित करने में सफल रहते हैं। मरीज के पास कोई और विकल्प भी नहीं होता, वेचारा बीमार आदमी मन मसोस कर तड़पता रह जाता है।

उस समय बैद्य लोग घन्वन्तरि के आधार पर इलाज करते थे। इसके लिये उन्हें ऐसे जानकारों की जरूरत पड़ने लगी जो जड़ी-बूटियों का जानकार हो और जंगल से जड़ी बूटियाँ खोज कर ला सके। हुनुमान जैसा जंगल का प्राणी हिमालय पर जाकर संजीवनी बूटी को नहीं पहचान पाये। उन्हें पूरा पर्वत खण्ड ही उठाकर लाना पड़ा। इस तरह वे लक्ष्मण जी के प्राण बचाने में सफल रहे।

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