Manas Ke Ram - 8 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मानस के राम (रामकथा) - 8

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मानस के राम (रामकथा) - 8







मानस के राम
भाग 8



राम को वनवास


कैकेई ने सुमंत को संदेशा भेजा कि वह राम से कहें कि वह उसके महल में आकर महाराज से मिलें। संदेश सुन कर राम तुरंत कैकेई के महल में पहुँचे। अपने पिता को भूमि पर पड़े तड़पते देख कर वह विचलित हो गए। उन्होंने कैकेई से पूंँछा,
"क्या हुआ माता ? पिता जी इस प्रकार भूमि पर क्यों लेटे हैं ? राजवैद्य को क्यों नहीं बुलाया, मैं अभी राजवैद्य को लेकर आता हूँ।"
यह कह कर वो महल से जाने लगे। तभी कैकेई ने उन्हें रोक कर कहा,
"इसकी आवश्यकता नहीं है। महाराज अस्वस्थ नहीं हैं। महाराज ने मुझे दो वरदान देने का वचन दिया था। आज जब मैंने दोनों वर मांगे तो रघुकुल भूषण अपने वचन से फिर रहे हैं। यहाँ तक कि उनके विषय में तुमसे बात भी नहीं करना चाहते हैं।"
कैकेई की बात सुन कर राम बोले,
"माता, पिता जी कभी अपने वचन से नहीं मुकरते हैं। किंतु यदि ऐसा है भी तो मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते मैं उनके दिए वचन की पूर्ति करूँगा। चाहें मुझे कुछ भी करना पड़े किंतु उनका दिया वचन व्यर्थ नहीं जाने दूँगा।"
हाथ जोड़ कर बोले,
"आदेश दें माता मैं क्या करूँ ?"
कैकेई ने राम को देखा फिर गंभीर किंतु दृढ स्वर में बोली,
"तुम्हारे जैसे पुत्र से मुझे यही अपेक्षा थी कि तुम अपने पिता का दिया वचन अवश्य पूरा करोगे। महाराज से मैंने दो वरदान मांगे थे। एक तुम्हारे स्थान पर भरत को राजगद्दी पर बैठाया जाए और तुम चौदह वर्षों के लिए वन में जाकर निवास करो।"
कैकेई की बात सुन कर राम बोले,
"माता आपकी दोनों इच्छाएं अवश्य पूरी होंगी। मुझे राज्य का लोभ नहीं है। मैं तो केवल पिता के आदेश का पालन एवं परंपरा के निर्वहन के लिए राज्याभिषेक के लिए तैयार हुआ था। पिता के वचन का मान रखने के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूँ। चौदह वर्ष का वनवास तो कुछ भी नहीं है। "
हाथ जोड़ कर विनीत भाव से बोले,
"मैं माता कौशल्या और सुमित्रा को सूचित कर वन गमन की तैयारी करता हूँ।"
राम का निश्चय सुन कर महाराज दशरथ 'हाय राम' करके विलाप करने लगे। राम उन्हें सांत्वना देने लगे। किंतु दशरथ तो तड़प रहे थे। करुण स्वर में राम से बोले,
"पुत्र मुझे क्षमा कर दो। मेरे कारण ही तुम्हें निर्दोष होते हुए भी वन जाना पड़ रहा है। मेरे वचन का मान रखने के लिए तुम इतने कष्ट उठाने को तैयार हो। तुम्हारे जैसा पुत्र पाकर मैं धन्य हो गया।"
राम ने उन्हें तसल्ली दी कि वे अपने ह्रदय में कोई भार ना रखें। अपने पिता के मान की रक्षा के लिए वह अपना सबकुछ न्यौछावर कर सकते हैं। उनके चरण छूकर वह माता कौशल्या को नई परिस्थितियों के बारे में बताने के लिए उनके पास गए।
कौशल्या बहुत प्रसन्न थीं। उनके पुत्र राम का राज्याभिषेक होने वाला था। अतः वह उत्सव की तैयारी में लगी थीं। राम को देख कर बहुत हर्षित हुईं। राम ने चरण छुए तो आशीष देने लगीं।
"दिग्विजयी हो। तीनों लोकों में तुम्हारा यशगान हो।"
"माता एक वनवासी को दिग्विजय की क्या आवश्यकता है।"
राम की यह बात सुनकर कौशल्या को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा,
"यह कैसी बात कर रहे हो राम ?"
राम ने अपनी माता को पूरा वृतांत सुनाया। सारी घटना सुन कर कौशल्या गहरे शोक में डूब गईं। राम को वक्ष से लगा कर रोने लगीं।
"हे ईश्वर मैं यह दुख कैसे सहूँगी। जिस पुत्र को राजा बने हुए देखने का स्वप्न देख रही थी उसे वन में जाते कैसे देखूँगी।"
फिर राम का माथा चूम कर बोलीं,
"मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊँगी। मुझे भी अपने साथ वन ले चलो।"
राम ने उन्हें समझाते हुए कहा,
"नहीं माता वनवास मुझे मिला है। अतः मैं वन जाऊँगा। आप यहांँ रह कर पिता जी का ध्यान रखिए। वह बहुत दुखी हैं। उन्हें संभालने की आवश्यकता है।"
राम के वनवास की सूचना महल में फ़ैल गई। लक्ष्मण ने जब यह सुना तो अत्यंत क्रोधित हुए। राम के पास जाकर बोले।
"वृद्धावस्था के कारण महाराज उचित अनुचित की समझ खो बैठे हैं। तभी तो उस दुष्ट स्त्री की बातों में आकर यह अनुचित कार्य कर रहे हैं।"
आवेश में भर कर आगे बोले,
"भ्राताश्री आप आदेश दें जो भी आपके राज्याभिषेक में बाधा पहुँचाएगा उसे मैं उचित दंड दूँगा।"
राम ने प्रेम से उनके कंधे पर हाथ रखा और उन्हें शांत करते हुए बोले,
*इस प्रकार आवेश में आना उचित नहीं है। अपने क्रोध पर नियंत्रण रखो।"
लक्ष्मण इस बात को सह नहीं पा रहे थे कि राम की जगह भरत को राजगद्दी मिले। राम को चौदह वर्ष के लिए वन में रहना पड़े। उन्होंने रोष में कहा,
"कैसे नियंत्रण करूँ स्वयं पर। आपके प्रति होने वाले इस अन्याय को देख मेरा रोम रोम जल रहा है। उस धूर्त पाखंडिनी स्त्री ने अपनी माया फैला कर महाराज को भ्रमित कर दिया। अपने पुत्र को राजा बनाने के लिए उसने आपके साथ इतना बड़ा अन्याय कर दिया। पिता ने उसकी इस अनुचित मांग को मान भी लिया।"
राम अपने अनुज लक्ष्मण के मन का हाल समझ रहे थे। राम ने लक्ष्मण को ह्रदय से लगा कर कहा,
"मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम को मैं भली भांति समझता हूँ। किंतु प्रिय अनुज अपने मन में किसी प्रकार का बैर भाव मत लाओ। पिता जी की विवशता को समझो। वह मुझे कितना प्रेम करते हैं। यदि वचनबद्ध ना होते तो कदापि ऐसा ना करते।"
उन्होंने लक्ष्मण को आसन पर बिठाया और उनके सम्मुख बैठ कर बड़े प्यार से उनका हाथ पकड़ कर बोले,
"पिता जी के वचन का मान रखने हेतु मैंने स्वयं ही वन जाने का फैसला किया है। अब तक तुमने हर स्तिथि में मेरा साथ निभाया है। अतः मेरे इस निर्णय में भी मेरा साथ दो। मेरे जाने के बाद माता कौशल्या और सुमित्रा का ध्यान रखना। मुझे पूर्ण विश्वास है कि भरत एक अच्छा राजा बनेगा। उसके प्रति मन में कोई मैल ना लाना और राज्य संचालन में उसकी सहायता करना।"
लक्ष्मण ने राम के दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर कहा,
"मैं तो सदैव आपके साथ रहा हूँ। अतः इस विपत्ति में मैं कैसे आपका साथ छोड़ सकता हूँ। आपके साथ मैं भी वन जाऊँगा।"
राम ने लक्ष्मण को समझाने का प्रयास किया कि उन्हें साथ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है किंतु लक्ष्मण किसी भी प्रकार ना माने। अतः राम उन्हें साथ ले जाने को राज़ी हो गए।


राम सीता और लक्ष्मण का वन गमन

अपने महल में सीता व्याकुलता से राम की प्रतीक्षा कर रहीं थीं। सुमंत का संदेश सुनते ही राम महाराज से मिलने चले गए। अब तो बहुत विलम्ब हो गया। ना जाने क्या बात होगी। किसी अनहोनी की आशंका से उनका ह्रदय काँप रहा था। वह द्वार की तरफ ही दृष्टि जमाए हुए थीं। तभी राम आते हुए दिखाई दिए। सीता भाग कर उनके पास गईं और पूंँछा,
"इतना विलम्ब क्यों हुआ ? सब ठीक तो है ना ?"
राम ने उनके सर पर हाथ फेरते हुए कहा,
"तुमने सदैव एक आदर्श पत्नी की भांति मेरी सभी बातें मानी हैं। अपने सारे उत्तरदाइत्वों को सही प्रकार निभाया है। अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है। पिताजी ने माता कैकई को दो वरदान देने का वचन दिया था। माता कैकेई की इच्छा है कि भ्राता भरत को राजगद्दी मिले और मैं चौदह वर्षों के लिए वन में निवास करूँ। अतः अब तुम यहाँ रह कर माता कौशल्या और सुमित्रा की देख भाल करो। मैं वन में रहने के लिए जा रहा हूँ।"
उनकी बात सुन कर सीता के नेत्र सजल हो गए। हाथ जोड़ कर बोलीं,
"स्वामी पिता के घर में मेरी माता ने मुझे सीख दी थी कि तुम्हारा सबसे बड़ा कर्तव्य हर परिस्तिथि में पति का साथ देना है। मेरा निवेदन है कि मुझे मेरा पत्नी धर्म निभाने दें। मुझे अपने साथ वन में आने की अनुमति दें।"
सीता की बात सुनकर राम चिंतित हो गए। उन्होंने समझाया,
"नहीं सीता वन में जीवन अत्यंत कष्टप्रद होगा। सर्दी, गर्मी, बरसात झेलने पड़ेंगे। पथरीले और कटीले पथों पर चलना होगा। तुम्हारा कोमल शरीर यह सब नहीं सह पायेगा। अतः तुम यहीं रहो।"
"आर्य श्रेष्ठ मेरे लिए तो आपका साथ ही सबसे सुखदाई है। आपके बिना महलों का आराम भी मेरे लिए दुख है किंतु आपके साथ कांटों भरा पथ भी उपवन प्रतीत होगा। स्त्री का शरीर कोमल होता है किंतु उसकी सहनशक्ति की कोई सीमा नहीं होती। मेरा निश्चय है कि मैं आपके साथ वन के सभी कष्ट हंस कर सहूँगी।"
सीता ने अपनी बात दृढ निश्चय के साथ कही थी। राम ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया। पर वह बार बार अपने तर्कों से उन्हें निरुत्तर करती रहीं। सीता के संकल्प को देखकर राम ने उन्हें भी अपने साथ वन गमन की स्वीकृति दे दी। राम सीता और लक्ष्मण ने राजसी वस्त्र आभूषण त्याग कर वल्कल वस्त्र { तपस्वियों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र } पहन लिए। माता कौशल्या और सुमित्रा से विदा लेकर तीनों महाराज दशरथ के पास गए। उन्हें तपस्वी रूप में देख महाराज दशरथ का ह्रदय इस प्रकार दुखने लगा जैसे किसी ने ह्रदय पर तीर चला दिया हो। वह हाय राम, हे सीता कह कर विलाप करने लगे। फिर स्वयं को संभाल कर सुमंत से बोले,
"हे सुमंत तुम गाड़ियों में आवश्यक सामग्रियाँ लाद कर तीनों के साथ जाओ। वन के कष्टों को जनक नंदिनी किस प्रकार सहेगी। क्या इसी दिन के लिए उसे पुत्रवधु बनाया था। ध्यान रहे वन में निवास करते हुए इन्हें कोई कष्ट ना हो।"
राम आगे बढ़ कर विनीत भाव से बोले,
"पिता जी हम साधारण वनवासियों की भांति वन में रहने जा रहे हैं। वहाँ हम तपस्वियों की तरह रहेंगे। अतः किसी भी प्रकार की सामग्री की आवश्यकता नहीं है।"
तब दशरथ ने सुमंत से कहा कि वह तीनों को रथ में बैठा कर राज्य की सीमा के बाहर तक छोड़ आएं।