budh vachan - osho vani in Hindi Spiritual Stories by Sonu dholiya books and stories PDF | बुघ्घ वचन - ओशो वाणी

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बुघ्घ वचन - ओशो वाणी

प्रवचनमाला-- मरौ है जोगी मरौ
प्रवचन नं---1
भाग----8...


बुद्ध के पास एक आदमी आया। उसने कहा. जो नहीं कहा जा सकता, वही सुनने आया हूं। बुद्ध ने आंखें बंद कर लीं। बुद्ध को आंखें बंद किये देख वह आदमी भी आंख बंद करके बैठ गया। आनंद पास ही बैठा था—बुद्ध का अनुचर, सदा का सेवक—सजग हो गया कि मामला क्या है? झपकी खा रहा होगा, बैठा—बैठा करेगा क्या। जम्हाई ले रहा होगा। देखा कि मामला क्या है? इस आदमी ने कहा, जो नहीं कहा जा सकता वही सुनने आया हूं। और बुद्ध आंख बंद करके चुप भी हो गये और यह भी आंख बंद करके बैठ गया। दोनों किसी मस्ती में खो गये। कहीं दूर… शून्य में दोनों का जैसे मिलन होने लगा। आनंद देख रहा है, कुछ हो जरूर रहा है; मगर शब्द नहीं कहे जा रहे है—न इधर से न उधर से। न ओंठ से बन रहे हैं शब्द, न कान तक जा रहे हैं शब्द; मगर कुछ हो जरूर रहा है! कुछ अदृश्य उपस्थिति उसे अनुभव हुई। जैसे किसी एक ही आभामंडल में दोनों डूब गये। और वह आदमी आधी घड़ी बाद उठा। उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे थे। झुका बुद्ध के चरणों में, प्रणाम किये और कहा : धन्यभाग मेरे! बस ऐसे ही आदमी की तलाश में था जो बिना कहे कह दे। और आपने खूब सुंदरता से कह दिया! मैं तृप्त होकर जा रहा हूं।

वह आदमी रोता आनंदमग्न, बुद्ध से विदा हुआ। उसके विदा होते ही आनंद ने पूछा कि मामला क्या है? हुआ क्या? न आप कुछ बोले न उसने कुछ सुना। और जब वह जाने लगा और उसने आपके पैर छुए तो आपने इतनी गहनता से उसे आशीष दिया, उसके सिर पर हाथ रखा, जैसा आप शायद ही कभी किसी के सिर पर हाथ रखते हों! बात क्या है, इसकी गुणवत्ता क्या थी?

बुद्ध ने कहा : आनंद! तू जानता है, जब तू जवान था, हम सब जवान थे—सगे भाई थे, चचेरे भाई थे बुद्ध और आनंद, एक ही राजघर में पले थे, एक ही साथ बड़े हुए थे—तो तुझे घोड़ों से बहुत प्रेम था। तू जानता है न, कुछ घोड़े होते हैं कि उनको मारो तो भी ठिठक जाते हैं, मारते जाओ तो भी नहीं हटते। बड़े जिद्दी होते हैं! फिर कुछ घोड़े होते हैं, उनको जरा चोट करो कि चल पड़ते हैं। फिर कुछ घोड़े होते हैं, उनको चोट नहीं करनी पड़ती, सिर्फ कोड़ा फटकारों, आवाज कर दो, मारो मत और चल पड़ते हैं। और भी कुछ घोड़े होते हैं, तू जानता है भलीभांति, जिनको कोड़े की आवाज करना भी अपमानजनक मालूम होगा, जो सिर्फ कोड़े की छाया देखकर चलते हैं। यह उन्हीं घोड़ों में से एक था। कोड़े की छाया। मैंने इससे कुछ कहा नहीं, मैं सिर्फ अपनी शून्यता में लीन हो गया। इसे बस मेरी छाया दिख गयी, सत्संग हो गया। इसका नाम सत्संग।

और ऐसा नहीं है कि बुद्ध बोलते नहीं हैं। जो बोलना ही समझ सकते हैं, उनसे बोलते हैं। जो धीरे—धीरे न बोलने को समझने लगते हैं, उनसे नहीं भी बोलते हैं। बोलना ‘नहीं—बोलने’ की तैयारी है।

सत्संग के दो रूप हैं। एक—जब गुरु बोलता है, क्योंकि अभी तुम बोलना ही समझ सकोगे, बोलना भी समझ जाओ तो बहुत। फिर दूसरी घड़ी आती है—परम घड़ी—जब बोलने का कोई सवाल नहीं रह जाता; जब गुरु बैठता है, तुम पास बैठे होते हो। इस घड़ी को पुराने दिनों में उपनिषद कहते थे—गुरु के पास बैठना! इसी पास बैठने में हमारे उपनिषद पैदा हुए हैं; उनका नाम भी उपनिषद पड़ गया! गुरु के पास बैठ—बैठकर शून्य में जो संगीत सुना गया था, उसको ही संग्रहीत किया गया है, उन्हीं से उपनिषद बने। उपनिषद का मतलब होता है : पास बैठना, सत्संग!

नहीं; जे जानति ते कहति नहिं, कहत ते जानति नाहिं। इसलिये जो कहता हो कि मैं तुम्हें ईश्वर जना दूंगा, सावधान हो जाना। तुम्हें धोखा दिया जायेगा। तुम्हें शब्द पकड़ा दिये जायेंगे। जो कहता हो कि मैंने जान लिया है उसे, उसका दावा घातक सिद्ध होगा। उसे जाना नहीं जाता। जो उसे जानता है वही हो जाता है। जो उसे जानता है उसमें और जो जाना जाता है उसमें, भेद नहीं रह जाता। वहां ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय ऐसे खंड नहीं होते। वहां ज्ञाता ज्ञेय में लीन हो जाता है। वहा ज्ञेय ज्ञाता में लीन हो जाता है। इसलिये उसे अगम्य कहते हैं। उसकी फिर थाह नहीं मिलती, थाह लेनेवाला ही खो गया। हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराइ!

बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा

गगन सिषर महि बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा

और जब कोई इस अगम्य को झेलने को राजी हो जाए, जब कोई इस अगम्य में उतरने का साहस जुटा लेता है, वही साहस का नाम है

मरौ वे जोगी मरौ मरौ मरण है मीठा।

तिस मरणी मरौ जिस मरणी गोरख मरि दीठा।।

मिट जाओ, मर जाओ, तो दिखाई पड़े, तो मिलन हो। खो जाओ तो खोज पूरी हो जाये। तो उसके भीतर मस्तिष्क की एक नयी अभिव्यंजना होती है।

गगन सिषर महि बालक बोले…

उसके सहस्रार में, उसके मस्तिष्क में शून्य पैदा हो जाता है। जब सब विचार विदा हो जाते हैं; जब अहंकार विदा हो जाता है, जब मैं हूं ऐसा भाव ही नहीं रह जाता; जब वहा सिर्फ होता है—मौन, शांत, शून्य—इसको समाधि कहते हैं। जब समाधि फल जाती है! जब तुम जागरूक होते हो; मगर कोई चित्त में विचार की धारा नहीं बहती। विचार का मार्ग शून्य हो गया, शात हो गया, कोई यात्री नहीं चलते—निर्विचार, निर्विषय चित्त हो गया। तुम सिर्फ शुद्ध दर्पण रह गये, जिसमें अब कोई छाया नहीं बनती, कोई प्रतिबिंब नहीं बनता। इस अवस्था में तुम्हारे भीतर का कमल खिलता है, तुम्हारे मस्तिष्क में शून्य का जन्म होता है। वहां कोई चीज भरनेवाली नहीं रह जाती। तुम सिर्फ एक खाली, पवित्र रिक्तता मात्र रह जाते हो।

गगन सिषर महि बालक बोले…।

और तब उसकी निर्दोष आवाज, जैसे छोटे बच्चे की किलकारी! जैसे अभी— अभी पैदा हुए बच्चे की आवाज! नई—नई, ताजी—ताजी, सद्य:स्नात, नहाई—नहाई कुंवारी आवाज सुनाई पड़ती है। उसका नाद अनुभव होता है।

ऐसी ही अवस्था में मुहम्मद ने कुरान को सुना। ऐसी ही अवस्था में ऋषियों ने वेद सुने। ऐसी ही अवस्था में जगत के सारे महत्वपूर्ण शास्त्रों का जन्म हुआ है। वे सभी अपौरुषेय हैं—पुरुष ने उनका निर्माण नहीं किया है; आदमी के हाथ उनमें नहीं लगे हैं। परमात्मा बहा है; आदमी तो सिर्फ मार्ग बना है। गगन सिषर महि बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा।

और वह निर्दोष स्वर जब भीतर उठता है तो उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। वह अनाम है। उसे कोई विशेषण भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि सब विशेषण सीमा बांध देंगे; और वह असीम है, वह अनंत है। बिंदु सिंधु हो गया। बूंद उड़ गयी, आकाश हो गयी; अब कौन बोले, क्या बोले? वहा से जब कोई लौटता है तो गूंगा, बिलकुल गूंगा हो जाता है। बोलता है बहुत, और—और बातें बोलता है। कैसे वहां तक पहुंचो, यह बोलता है; किस मार्ग से पहुंची, यह बोलता है; किस विधि—विधान से पहुंचोगे, यह बोलता है। लेकिन वहां क्या हुआ, इस संबंध में बिलकुल चुप रह जाता है। कहता है तुम्हीं चलो, तुम्हीं देखो। झरोखा कैसे खोलोगे, यह विधि बता देता हूं। ताली कौन—सी चलाओगे जिससे ताला खुल जाये, यह बता देता हूं। मगर जो दर्शन होगा, वह तो तुम जाओगे तभी होगा! उस दर्शन को उधार कोई किसी को दे नहीं सकता।


ओशो