गिद्ध भोज
गोविंद ने अपने पास लगी कनात के बाहर झांका तो उसे मेले की तरह टूट पड़ती खूब भीड़ दिखी।
सजे धजे शामियाने, रंगबिरंगी झिलमिलाती रोशनी और चहल-पहल देखकर ऐसा जान पड़ता था कि-कोई मेला लगा है। विवाह पाण्डाल की साज सज्जा और रईसी ठाट-बाट देखते ही बनते थे। कुछ लोग अपनी-अपनी गाड़ियाँ ठीक स्थान देखकर खड़ी करके मुख्य द्वार की ओर जा रहे थे, तो कुछ ग्रामीण लोग ठट्ठ के ठट्ठ पांण्डाल में घुसे चले जा रहे थे। एक बड़े क्रिकेट मैदान से भी बड़ा था वह पाण्डाल जिसमंे एक ही समय में दस हजार से ज्यादा लोग हाजिर थे और कोई हांच पोंच नहीं दिख रही थी।
शहर के जाने माने रईस तथा राजनीति के चर्चित नेता दद्दा जी के यहाँ लड़की का विवाह था। शहर से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है जो पैतृक होने के साथ-साथ उनका चुनावी क्षेत्र भी है। चुनाव क्षेत्र के अण्डी बच्चे से लेकर बृद्धजन तक को सर्वसमभाव के साथ न्यौते भेजे गये थे और लोग बड़े उत्साह के साथ आये थे। शहर की क्रीम भी वहाँ मौजूद थी। यहाँ ग्राम्य व शहरी सभ्यता का अजीब संगम दिखाई दे रहा था।
पाण्डाल के भीतर चारों ओर थोड़ी-थोड़ी जगह छोड़कर स्टॉल लगे हुए हैं। स्टॉल के ऊपर तख्तियाँँ भी हैं जिनपर खाद्य सामग्री के नाम भी लिखे हैं। चाट, मसाला डोसा, पनीर-चीला, चाऊमीन, दाल-रोटी, सूप, पॉपकार्न, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम, जूस, मिठाई.........आदि। मैदान के बीचों-बीच पानी का फव्वारा चल रहा था जिस पर रंग-बिरंगी लाइट जल रही थी।
ठेकेदार ने गोविन्द को आज गुलाब जामुन के स्टॉल पर खड़ा किया है। प्लास्टिक की कटोरियों में एक-एक गुलाब-जामुन डालकर कटोरियाँ तैयार रखना है। मालिक के सख्त निर्देश हैं कि बर्बादी न हो साथ ही यह भी कि एक मेहमान गुलाबजामुन की दो कटोरियों से ज्यादा न ले, विशेषकर गाँव वाले। शहरबासी तो एक-एक गुलाब जामुन ही लेंगे। उनमें से भी कई लोग तो शक्कर के मरीज होंगे। गोविन्द तभी से पसोपेस में है कि कैसे किसी को मना कर पाएगा वह बार-बार लेने से।
उम्र में गोविन्द अभी सोलह के आसपास का ही है। घर में माँ बाप व दो छोटे भाई-बहिन हैं। पिता मजदूरी करते हैं। गोविन्द शादी या किसी पार्टी में काम करने आता है तो घर लौटते वक्त ठेकेदार उसे कुछ खाना बांध देता है, घर पर छोटे भाई-बहन बढ़िया भोजन की आस लगाये रहते हैं। पार्टियों में काम करते-करते उस जैसे तमाम वेटर लोगों का एक गु्रप बन गया है। ठेकेदार शादियों का ठेका लेता और इन सबको काम पर लगा देता। उसके अपने कॉन्ट्रेक्ट होते। उनमें हलबाई, छोलेवाला, चाऊमीन वाला, पूड़ी बेलने वाली बाईयाँ, आइसक्रीम पार्लर वाला, पॉपकॉर्न वाला.....यहाँ तक कि उस जैसे भोजन सर्व करने वाले बेटर भी होते।
गोविन्द स्टॉल पर खड़ा सबको देख रहा था और हरेक के चेहरे पढ़ने की कोशिश कर रहा था। उसमें हमेशा जिज्ञासा रहती कि क्या चीज ऐसी है जो मुझे इन लोगों से अलग किये हुए है। लेकिन वह खोज नहीं पाता वह चीज। उसका ध्यान भीड़ के कोलाहल पर गया।
किसी भी दावत में आठ-साढ़े आठ बजे से भीड़ आती है सुनामी लहरों की तरह। फिर ग्यारह बजते बजते सब खत्म। बारह बजे से टेन्ट वाले उस स्थान को उजाड़कर बम विस्फोट के बाद उजड़ गये हिरोशिमा नागासाकी शहरों की तरह कर देते हैं। लेकिन यहाँ तो शाम सात बजे से ही लोगों का तांता लग गया। ठट्ठ के ठट्ठ देहाती कुर्ता-धोती पहने पंचा गले में डाले ठसक से आ रहे थे और हर सामान खूब मात्रा में प्लेटें भर-भर के ले जा रहे थे। उन लोगों की प्लेटंे देखकर गोविन्द भौंचक्का रह गया। खाद्य सामग्रीं से लबालब भरी प्लेंटै और सामग्री आपस में गड्ड-मड्ड । न ही सब्जी का स्वरूप समझ में आ रहा था औ ना ही उसकी सीमा। दही बड़े का दही ऐसे वह रहा था जैसे पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करता चला जा रहा है।
गोविन्द समझ नहीं पा रहा था कि वे लोग इन सबको मिलाकर अन्नकूट बनाकर खायेंगे या अलग-अलग। उसे याद आया गांव में पंगतें होती थीं। जमीन पर बैठा कर दोना पŸालों में एक एक व्यंजन परोसा जाता और मनुहार करके खिलाया जाता, खाना खाने में खूब मजा आता। कुल्हड़ का पानी और भी स्वादिष्ट लगता जिसमें मिट्टी की सोंधी खुशबू आती। पर अब मिट्टी से जुडे़ लोग भी मिट्टी मे पाँव रखने से कतराते हैं। गनीमत है मृत्युभोज और भण्डारों में तो आज-भी पंगत ही जिमायी जाती है।
गोविंद को लगा कि महानगरों की नकल पर आज के कस्बों की संस्कृति दिखावे पर ज्यादा जोर दे रही है।
घर के लोग हों या मेहमान सब सूटेड-बूटेड रहना चाहते हैं। पŸालों में खाना परोसने का काम कौन करे ? इसीलिये वफे का प्रचलन बढ़ गया। आगंतुकों का हाथ जोड़कर स्वागत करो और खाने तरफ धकेल दो। कि जाओ भैया इस समर में, अपने हाथ परोसो और जो जी में आये खाओ जितना अच्छा लगे। इस प्रथा से घराती भी परेशान नहीं । हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आ जाय। खाने वाला भी टिप-टॉप और खिलाने वाला भी टिप-टॉप।
वफे में खाने वाले लोग सलीकेदार नहीं हों तो जरूर बर्बादी होती है। जिसको जो चीज खाना है वो वह चीज उसी मात्रा में ले सकता है जितना उसके पेट में गुंजाइश है। पर लोग इस प्रत्याशा में कि फिर मिले या न मिले अपनी प्लेट में सभी वस्तुयंे एक साथ परोस लेते हैं। गोविन्द को याद आया आज सुबह दद्दाजी और उनके बडे़ बेटे प्रकाश में खूब बहस हुयी। दद्दाजी पंगत करवाना चाहते थे उनका कहना था कि निमंत्रण में आधे से ज्यादा लोग गाँव के आयेंगे। वे वफे का सिस्टम नहीं समझ पायेंगे, उनका पेट भी नहीं भरेगा और बर्बादी होगी सो अलग। चंूकि शहरवासी प्रकाश का उठना बैठना पूँजी पुत्रों के साथ है। वह अपनी शान में भद्द नहीं होने देना चाहता। उसकी जिद से ही वफे रखा गया है इस बार। वह तो दद्दा से सूट पहनने को भी कह रहा था, लेकिन दद्दा को तो अपने खादी के कुर्ता धोती से ही लगाव है। कुर्ता धोती यानी सारी की सारी गंवई चीजें।
गोविन्द ने देखा धोती कुर्ता पहने एक साहब कोने में एक ओर फर्श पर बैठकर नीची आंखे किये प्लेट में दस बारह गुलाब जामुन रखे प्रेम से खाने में मस्त हैं। उन्हें लोक लाज की परवाह नहीं थी जैसे बिल्ली दूध पीते समय अपनी आँखे बंद कर लेती है कि उसे कोई नहीं देख रहा।
ग्राम्य बहुएँ घूंघट डाले खड़े खड़े भोजन कर रही थीं। कुछ महिलाएँ जो सिर पर पल्ला धारण कर वफे का आनंद ले रही थीं वे एक हाथ में प्लेट पकड़े हुए थीं और दूसरे हाथ से खाना खा रही थीं। बीच-बीच में उसी हाथ से पल्ले को भी संभाल रही थीं। इस प्रक्रिया में पल्ला भी थोड़ा भोजन ग्रहण कर चुका था।
होटल के बिल क्लर्क या मैनेजर की तरह बाहरी दरवाजे के पास दो व्यक्ति टेबिल डालकर रजिस्टर और पेन के साथ बैठे हुए थे। होटल में खाना खाने के बाद बिल का भुगतान किया जाता है , लेकिन शादी हाने से व्यवहार के तौर पर यहाँ पहले ही लोग भुगतान कर रहे थे। उसने सुना कोई कह रहा था- ’’लेना साहब! दो लोगों के पैसे काटना जी’’,
सुनकर वहाँ खड़े लोगों ने ठहाके लगा दिये।
अचानक वातावरण में तेजी आ गयी। कई सारे शरीर चपल हो गये। दद्दा ने भी तेजी से अन्दर की ओर रूख किया। थोड़ी ही देर में एक स्थान पर आठ-दस कुर्सियाँ लग गयी, एक छोटी टेबिल भी। फोटो ग्राफर तैनात हो गया। थोड़ी ही देर बाद पुलिस का सायरन बजाती जीप आकर रूकी उसके पीछे सफेद फिएट कार। झकाझक सफेद कुर्ता पाजामा और खाकी की जाकेट पहने एक व्यक्ति आगे और पीछे भीड़ का जमावड़ा लिये अन्दर प्रविष्ट हुआ।
खाना खाते लोगों के बीच बातचीत का विशय बदल गया। पता चला इस क्षेत्र के मंत्री जी आ गये हैं। संग चलने वालों की निगाहें फोटो ग्राफर को ढूँढ रही हैं मंत्री जी के संग चलते-चलते एक फोटो खिंच जाये तो वारे न्यारे हो जायें। उनके बैठते ही उनके चहेतों में होड़ लग गयी उनके साथ फोटो ख्ंिाचवाने की। मलाल ये था कि माला का इन्तजाम नहीं हो पाया। किसी के दिमाग में आया- जयमाल वाली माला ले आते हैं। बारात आने में अभी समय है वो इन्तजाम फिर हो जायेगा। सचमुच मंत्री जी को वही माला पहना दी गयी, फ्लैश चमके। उनके लिये खाना लाया गया। गोविन्द ने एक प्लेट में आठ-दस गुलाब जामुन रख दिये। पता चला कि मंत्री जी शुगर पेशेन्ट थे मिठाई को हाथ तक नहीं लगाया, बस सब्जी और सलाच चखा। ड्राय फ्रूट्स की प्लेट से एक काजू लिया बस। दद्दाजी का रूतवा बढ़ा सो बढ़ा ही प्रकाश के सीने की चौड़ाई गर्व से दुगुनी हो गयी। आखिर उनके घर एक मंत्री आया।
गोविन्द ने देखा कत्थई सूट पहने अठारह-उन्नीस वर्षीय एक युवक तेजी से वहाँ आया। वह इधर-उधर देखने लगा जैसे किसी को ढंूढ रहा हो। अपनी हड़बड़ाहट में वह बार-बार टाई की नॉट ठीक कर रहा है। बादामी सूट वाला उसका हम उम्र दिखा तो उसकी हड़बड़ाहट कुछ कम हुयी। अपने माथे पर हल्की पसीने की बूंदों को उसने रूमाल से पोंछा।
कत्थई सूट वाला बोला, ‘‘अब तो वफे के स्थान पर गिद्ध भोज शुरू हो गया । भोज तो प्रतिष्ठा के प्रश्न से जुड़ा रहता है। यह भोज वैवाहिक भोज कम राजनीतिक भोज ज्यादा लग रहा है जिसमें चुनाव की पूर्व तैयारी के नग्मे गुनगुनाये जा रहे हैंे। सब वोटन बुलाये गये हैं ताकि क्षेत्र के लोगों की रगों मे दद्दा का नमक घुला रहे और वे नमक का कर्ज अदा करें उन्हें जिता कर।’’
बादामी सूट वाला बोला,‘‘ अब तो सहभोज की नीलामी तक होने लगी है- फिल्मी सितारों के साथ का सहभोज हो या खिलाड़ियों के साथ का। माइकल जैक्शन के साथ भोज के लिये जिसने सबसेे अधिक रूपयों की बोली लगायी उसने ही उसके साथ भोज पाया। मृत्यु भोज भी होता है, महाभोज भी होता है पर यहाँ तो गिद्ध भोज लग रहा है। गिद्ध अपने शिकार पर निगाहें जमाए रखता है वह कोई भी मौका नहीं देना चाहता उसे बचने का। लाश पर जिस तरह गिद्ध, चील कौएं टूटते हैं अपनी-अपनी भूख मिटाने को वैसे ही यहाँ लोग टूट रहे हैं चीजें पाने के लिए। छीना झपटी शुरू हो गयी है जैसे मृत शरीर की लूट खसोट गिद्ध करता है और अपने इस भोज में चील व कौवों को भी सम्मिलित कर लेता है। ’’
गोविन्द असमंजस में था कि गिद्ध कौन है समझ नहीं आ रहा वफे के समर में कूदे हुए शहर के लोग, गाँव की जनता या भोजन का आयोजक....। पढ़े-लिखे व शहरी लोगों की सभ्यता न जाने कहाँ लुप्त हो गयी थी।
गोविन्द ने अपने विचारों को डस्टबिन में डाला। उसने देखा कि दावत में से पहले पेपर नेपकिन गायव हुआ जो प्लेट के साथ रहता है। चम्मचें तो फिएट कार के साथ ही गायब हो गयी थीं। अब प्लेटें अपने स्थान से नदारद थीं। जैसे ही साफ होकर प्लेटें आतीं वैसे ही हथिया ली जातीं। प्लेटें पाना अपने आप में मुश्किल काम हो गया। जिसने प्लेट पाली उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान दौड़ गयी और जो वंचित रह गया उसके चेहरे को व्यंग्य मिश्रित मुस्कान के साथ देखा जा रहा था।
कत्थई सूट वाले को जैसे-तैसे एक प्लेट प्राप्त हुई तो देखा वह पूरी तरह साफ नहीं थी। गोविन्द को एक टी.वी. का विज्ञापन याद आ गया जिसमें प्लेट में चौपड़ा साहब का चेहरा दिखाई देता है। उसे प्लेट में कई सारे ग्रामीण व सभ्य कहे जाने वाले शहरी चेहरे दिखाई देने लेगे। कत्थई सूट वाले ने अपना रूमाल निकालकर प्लेेट साफ की।
बादामी सूटवाले ने उसे कोहनी मारकर कहा-चल जल्दी कर यार सब खल्लास हो रहा है। दोनों एए ही प्लेट में शेयर कर लेंगे ऐसा लग रहा था उनके पेट में चूहे एथलेटिक करने लगे थे। जेल में बंद कैदियों के हाथ में जिस तरह थाली थमा दी जाती है उसी समान अपनी प्लेट पर एकाधिकार जमाये वे आगे बढ़े तभी एक बृद्ध महिला को धक्का लगा। जैसे ही वह पलटी कत्थई सूट वाला अकबका गया। उसे लगा ये अभी चिल्लाना शुरू करती हैं, तुरंत बादामी सूट वाले ने दोनों हाथ जोड़कर उसे अभिवादन किया-’’नमस्ते आंटीजी’’।
उसे देखकर कत्थई सूट वाला भी अभिवादन करने लगा आज वह दोनों हाथों से अभिवादन नहीं कर पा रहा था उसे डर था कि फतह किया गया किला ’’प्लेट’’ कहीं हाथ से न छूट जाए। वह महिला उन्हें पहचानने की कोशिश करने लगी-’’मैंने तुम्हें पहचानो नईयें’’।
बादामी सूट वाले ने बात बदलकर कहा- ’’आंटीजी भोजन हो गये?’’
बह वुरा सा मुँह बनाकर बोली- ’’जा गिद्धभोज में का खानो हैं। सब बेई हाथन से खा रयेयैं और उनई हाथन से लै रयेयैं। देख तो सई कैसे प्लेट भर-भर के ल्या रयेयैं। नई खवो तो फैंक रयेयैं। भइया ऐसी बरबादी वो देखतई नई बनतै।’’
कत्थई सूट वाला भी उससे पीछा छुड़ाकर जल्दी ही विजयी सेना में शामिल होना चाहता था। इसलिए बोला - ’’अच्छा आण्टीजी फिर मिलते हैं।’’ वह आगे गया और बादामी सूट वाले से बोला बच गये यार। बह बोला-’’कौन थी’’?
उसने मुँह बनाते हुए कहा-’’मुझे क्या पता यार? बो तो बुढ़िया को धक्का लग गया था इसलिये बात बना दी। नहीं तो अभी बखेड़ा खड़ा कर देती।’’
गोविन्द ने सुना लोग खाते हुए चर्चाओं में मशगूल थे-
’’............. कुछ भी कहो यों खड़े होकर खाने से पेट नहीं भरता है’’
’’...............और क्या पहले इधर लेने जाओ फिर उधर लेने जाऔ’’
’’............. हर बार लाइन में खड़े रहो और इन्तजार करो कि कैदियों की
तरह कब उसकी प्लेट में भोजन मिले’’
................हाँ जब तक अपनी प्लेट में सामान मिलता है तब तक भूख गायब हो जाती है।
गोविन्द ने फिर से दृष्टि डाली तो पाया कि सब तरफ काफी भीड़ है। सब तरफ यानी कि प्लेट वाली जगह, सब्जी के डोंगों के पास, पूड़ी वाले डोंगे क ेपास और मिठाई वाले यानी कि गोविंद के सामने भी। उसे बैष्णोदेवी के दर्शन की याद आ गयी। पहले चरण पादुका पर भीड़ मिली। जैसे-तैसे दर्शन करके निकलेे फिर अर्ध्यकुमारी पर लाइन लगाना पड़ी। फिर जगह-जगह टोकन की लाइन, तब माता के दर्शन हो पाये। इतनी बड़ी तपस्या के बाद कुछ सेकेण्ड के लिए ही दर्शन कर पाये कि पुजारी ने कहा जल्दी करो। अपनी इच्छा माँ को बता भी नहीं पाये थे कि आगे बड़ा दिया गया। इसके बाद भैंरो बाबा पर भी भीड़ थी।
किसी ने आकर कहा- ’’अरे प्लेट में चार गुलाबजामुन रखना’’ तो वह चौंक गया। उसने दो कटोरी उनकी ओर बढ़ादी। वे सज्जन मुँह वनाकर चले गये। उसने देखा कत्थई सूट वाला तथा बादामी सूट वाला अब तक एल. ओ. सी. के निकट पहुँच चुके थे। खाने के स्टॉल लाइफ ऑफ कन्ट्रोल ही तो थे। खाना न मिलने पर जीवन अनियंत्रित हो जाता है।
गोविन्द को याद आया ये दोनों लड़के एक बार रतन चन्द सेठ के कार्यक्रम में दिखे थे। सेठजी के पिताजी का देहान्त हो गया था अपने पीछे नाती, सन्ती, पन्ती छोड़ गए थे.......... साथ ही ढेर सारी धन सम्पŸिा। सेठजी ने धूमधाम से उनका गंगभोज किया था। बढ़िया सजावट टेन्ट व रोशनी का इन्तजाम देखकर लग ही नहीं रहा था कि यहाँ गंगभोज चल रहा है। तभी सूट पहने दो लड़के वहाँ प्रविष्ट हुए उनके कपड़ों से इत्र की महक फूट रही थी। रतनचंद जी उन्हें देखकर कुछ सशंकित हुए- ’’उन्होंने पूछा बेटा मैंने तुम्हें पहचाना नहीं?’’
वे तपाक से बोले- ’’हम लड़के वालों के यहाँ से हैं।’’
रतनचंद जी उन्हें एक तरफ ले गये गोविन्द से कहा था इन्हें पेट भरकर खाना खिलवा दो। एक अलग कमरे में दोनों को गोविन्द ने खाना खिलाया। जब वे खाना खा चुके तब सेठजी उनके पास आये और बोले- ’’तुम लोग जा सकते हो आज मेरे पिताजी का गंगभोज है।’’
यह सुनकर उनके चेेहरे देखने लायक थे। वे लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोले थे- ’’सेठ जी माफ कर दो, दरअसल हम लोग होस्टल में रहते हैं। वहाँ का खाना खाते-खाते ऊब गये थे। सॉरी गलती हो गयी।’’ कहते हुए वे वहाँ से तेजी से खिसके थे।
डी जे पर गाना चल रहा था- ’’ढीमरा कीने में फेंको जाल फंस गई जल मछली................लोग नाच रहे थे जो घँूघट किए थी महिलाएं नाचते वक्त उनका पल्ला सिर से उतरकर कन्धों की शरण ले चुका था। गोविन्द सोच रहा था कैसा अजीव नाचना हो गया है आजकल। पहले भाव भंगिमायें होतीं थीं और पल्लू डालकर ही नाचा जाता था। पर अब सिर खोलकर बहुएं नाचती हैं कूल्हे और कन्धे मटकाने से ही नाचना तय हो जाता है। लड़कियों के तो कन्धों के साथ सीना न हिले तो नाचने का मजा ही क्या?
गोंविंद ने देखा कि खाने का सामान भी कृष्णपक्ष के चंद्र की तरह अल्परूप दिखाता जा रहा था। डोसा बनाने का एक ही स्टॉल लगा था। वहाँ सबसे ज्यादा भीड़ थी। सब कैफे जैसा आनन्द लेना चाहते थे। डोसे वाला तवे पर पानी छिड़कता तो पास खड़े लोगों पर भी पानी आ जाता। गैस की गर्म लौ सहते लोग डोसे के इन्तज़ार में खड़े थे। कुछ लोग तो प्लेट मंे पूड़ी सब्जी खाते हुए डोसा मिलने के लिये कतार बद्ध थे। ऐसा लग रहा था सब डोसा बनाने की प्रक्रिया सीख रहे हैं। डोसे वाला कटोरी में घोल भरकर तबे पर डालता, उसे अण्डाकार रूप देता। छः डोसे बिछाने के बाद उनके चारों तरफ कल्छी से तेल डालता और मिले हुए डोसों की सीमा का विभाजन करता। मुट्ठी में आलू का मसाला ले थोड़ा-थोड़ा डोसेनुमा चीलों को स्पर्श कराता जाता। वह उन्हंे रोल करके जैसे ही उठाता तीनों तरफ से प्लेटें आगे आ जातीं। आवाजें आने लगतीं.........हमें देना.............अरे हम बहुत देर से खड़े हैं..... अरे इस बच्चे को दे देना...........महिलाएँ भी पल्लू का पर्दा छोड़ आगे खड़ी नजर आ रही थीं।
आइसक्रीम पहले ही खत्म हो गयी थी। अब तक गुलाब जामुन के स्टॉल पर भीड़ लगना शुरू हो गयी। इधर भीड़ बढ़ती जा रही थी उधर गुलाब जामुन की संख्या कम होती जा रही थी। थोड़ी ही देर में गुलाब जामुन की कढ़ाई खाली हो गयी। एक सज्जन गोविन्द से बोले जाओ गुलाब जामुन लेकर आओ। गोविन्द अन्दर गया तो उसे आदेश मिला-स्टॉल बंद करो, पाण्डाल खाली करना है। बारात आने का समय हो गया, उनके लिए अलग खाना लगेगा उसके लिये साफ-सफाई भी करना है। हलवाई और प्रकाश में बहस चल रही थी। हलवाई कह रहा था-’’साब आदमी बढ़ गये हैं......
प्रकाश झल्लाकर बोला-तुम जानो, मुझें नहीं पता...... बारात का स्वागत अच्छा होना है। तुम्हारे कहे मुताबिक सामान मँगवाया था। आखिर कहाँ गया?
हलवाई भी क्रोध में आ गया लेकिन अपनी आवाज में गर्मी नहीं आने दी वह बोला-दो हजार आदमी की बात तय थी, तीन हजार आदमी खा गयें हैं। ऊपर से बारात अलग। खाना कम पड़ रहा है हम कहाँ से पूर करें।
प्रकाश तिलमिला गया था यह सब सुनकर।
अंदर की यह स्थिति देख गोविन्द वापस आ गया। उसको खाली हाथ लौटा देख वे सज्जन अपना अपमान समझ बैठे और जोर-जोर से गोविन्द पर चिल्लाने लगे। आवाज सुनकर बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी। घर के लोग भी आ गये। तीव्र आवाज में इतना वजन होता है कि पहले सब उसी की बात सुनते हैं। वे महाशय कह रहे थे- इसने मेरा अपमान किया है मैं इतनी देर से खड़ा हूँ। ये गुलाब जामुन नहीं ला रहा है, मैं बाजार से खरीद कर नहीं खा सकता क्या? अरे इतना ही था तो हमें बुलाया ही क्यों था?.........अच्छा उसूल है घर में नइयें दाने अम्माँ चली भुनाने.........।
भीड़ में से आवाज आ रही थी..........ठीक ही तो है यदि भर पेट भोजन नहीं कराना था तो बुलाया ही क्यों था?
...........अरे इनके यहाँ तो पूर नहीं पड़ी
..........हाँ भई जल्दी-जल्दी सबको भगाने लगे ऐसे थोड़े ही होता है। ..........गुलाब जामुन की कढ़ाही के पास खड़ा गोविन्द अपनी सफाई दे रहा था- ’’भाई साहब इसमें मेरी गलती नहीं है। मुझे क्या करना था मना करके। बो तो घराती का आडर आया था कि पाण्डाल खाली करना है इसलिए सामान यहाँ से कम कर दिया’’
उस लड़के की बात सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था उसकी आवाज संसद के हंगामे में स्पीकर की आवाज की तरह दबकर रह गयी।
तब तक प्रकाश भी वहाँ आ गया। उसे लगा घर की बात बाहर निकलकर जा रही है। यदि सबको ये बात मालूम पड़ जायेगी तो और अधिक बदनामी होगी। हलवाई से बहस होने के कारण वे पहले ही क्रोध में थे। उन्होंने आव देखा न ताव गोविन्द का कॉलर पकड़कर उसे खींच लिया और हड़काते हुए उसके गाल पर तमाचे मारना शुरू कर दिए।
गोविन्द का पिटना देखकर उन सज्जन के अपमान पर मरहम लग गया। वे वहाँ से चल दिए। बारात दरवाजे के पास आ गयी थी। धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी। अब गोविंद ने भी चिल्लाना शुरू कर दिया- ’’देखिए भाई साहब मारने की जरूरत नहीं है। एक तो खुद कहते हैं कि मिठाई कम बची है। स्टॉल में कम रखना शुरू कर दो, ऊपर से हमें पीटते हैं। खुद का खाना कम पड़ रहा है और गुस्सा हम पर दिखाते हैं।’’
वह क्रोध में बोले जा रहा था। थोड़ा चुप रहकर वह फिर बोला- ’’ऐसे-ऐसे भट्टे लोगों को बुलाया था पन्द्रह-पन्द्रह गुलाब जामुन डकार गये। खाने का सलीका नहीं है और वफे करवाने चले हैं। आये बड़े इज्जतदार लोग। दो हजार लोगों की बात हुयी थी अब तक तीन हजार खा गये। कंजूस कहीं के।
संगीत का तीव्र स्वर उसकी क्रोध भरी आवाज पर रंग रोगन चढ़ा रहा था। लोग स्तब्ध खड़े उसके शब्दों को सुन रहे थे। अब तक अन्य स्टॉल के वेटर लोग तथा उनका ठेकेदार भी आ गया था। सबके अन्दर क्रोध उफान पर था शायद किसी निर्णय की स्थिति थी। वे सब मिलकर दद्दा साहब के पास जाने की तैयारी करने लगे।
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