गूगल बॉय
(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)
मधुकांत
खण्ड - 16
आख़िर वह दिन भी आ ही गया जब गोपाल जी के जन्मोत्सव पर विशाल रक्तदान शिविर आयोजित हुआ। एक ओर सभी आगंतुकों के लिये प्रसाद तैयार किया जा रहा था। मन्दिर परिसर में अलग-अलग स्थानों पर तीन टीमों द्वारा रक्त एकत्रित किया जा रहा था। मुख्य मन्दिर के सामने अतिथियों को तथा रक्तदाताओं को सम्मानित किया जा रहा था। अनेक नये लोग प्रथम बार रक्तदान करने आये। बीच-बीच में बाँके बिहारी जी का जय-जयकार किया जा रहा था। मन्दिर के दोनों पुजारी तो भाग-भाग कर काम कर रहे थे। जो भी अतिथि आता, वह दान-पेटी की ओर हाथ अवश्य खोलता था। मन्दिर की कमेटी के लोग देख रहे थे कि आज तो दान-पेटी भी और रक्त-पात्र भी लबालब भर जायेगा।
महिलाओं के रक्तदान का काम अरुणा ने सँभाल रखा था। तीन दिन से निरन्तर वह अपनी माँ के साथ मन्दिर में आकर भजन मंडली की औरतों को रक्तदान के विषय में समझा रही थी। कई पढ़ी-लिखी महिलाओं ने आश्वासन दिया था कि वे अपने बेटे-बहू दोनों को लेकर आएँगीं।
अधिकांश महिलाओं को विश्वास था कि गूगल जब से रक्तदान सेवा करने लगा है, तब से बाँके बिहारी जी की उसपर कृपा हो गयी है और वह दिन-प्रतिदिन तरक़्क़ी करता जा रहा है।
जब से महामण्डलेश्वर स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी महाराज द्वारा श्री रक्तनारायण भगवान की कथा का आयोजन हुआ था, तब से महिलाओं में रक्तदान के प्रति नयी जागृति आ गयी थी।
आज के रक्तदान शिविर में अरुणा सुबह ही आ गयी थी। ठाकुर द्वारे की ओर न जाकर वह पहले हॉल में गयी, जहाँ गूगल अपने साथियों के साथ बैनर लगवा रहा था।
‘जय रक्तदाता गूगल’, कहकर अरुणा गूगल के सामने आ गयी। गुलाबी रंग का परिधान, माथे पर चंदन की बिन्दी, गले में मोतियों की माला और कण्ठ से रसपूर्ण स्वर....अरुणा का यह रूप देखकर एक क्षण के लिये तो गूगल पर नशा छा गया।
वह तो आज ‘जय रक्तदाता’ बोलना भी भूल गया। ‘आओ अरुणा, ईश्वर के दरबार में आपका स्वागत है’, कहते हुए गूगल की आँखों की चमक बढ़ गयी।
‘मैं तो पहले आपके दरबार में उपस्थित हुई हूँ .... आज तो आप भी रक्तदान करेंगे?’
‘अवश्य, ..... मेरा कैम्प और मैं ही रक्तदान न करूँ तो क्या संदेश जायेगा?..... आपका क्या विचार है?’
‘गूगल, आपको तो मालूम ही है, पिछली बार डॉक्टर ने मुझमें खून की कमी बताकर खून लेने से मना कर दिया था, लेकिन आज तो मैं दृढ़ निश्चय करके आयी हूँ कि डॉक्टरों से आग्रह करके भी रक्तदान करूँगी। मुझे तो पूर्ण विश्वास है, जो व्यक्ति ईश्वर कै दरबार में लगने वाले शिविर में रक्तदान करेगा, प्रभु उसकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे।’
‘अच्छा तो यह बताओ, आज रक्तदान करते हुए प्रभु से क्या माँग करोगी?’
अरुणा ने आसपास नज़र घुमाकर देखा... लज्जा व संकोच से उसका चेहरा लाल हो गया और गर्दन नीचे को झुक गयी..... शब्द गुलाबी होंठों पर आकर अटक गये - ‘आपको सब मालूम है’, शब्दों की दिशा बदल गयी।
‘मुझे कैसे मालूम हो सकता है कि आप प्रभु से क्या माँगोगी? प्लीज़ बताओ ना!’ गूगल ने आग्रह किया।
‘जब रक्तदान करूँगी, तब मेरे पास आकर पूछना, बता दूँगी।’
‘ठीक है, वायदा रहा और जब मैं रक्तदान करूँ, तब आप मेरे पास आ जाना’, गूगल ने निवेदन किया।
‘ईश्वर ने चाहा तो कभी मिलकर साथ-साथ रक्तदान करेंगे..।’
‘यह ठीक है... मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करूँगा कि मुझे आपके साथ रक्तदान करने का अवसर प्रदान करें।’
‘तथास्तु.....’, कहकर खिलखिला कर हँसती हुई अरुणा ठाकुर द्वारे की ओर बढ़ गयी।
गूगल स्टोर से हेलमेट निकलवाने के लिये आया तो अरुणा भी उधर ही आ गयी। ‘गूगल जी, कितने यूनिट ब्लड आ गया अब तक?’
‘आरम्भ में दो सौ हेलमेट रखवाये थे। लगभग सारे लग गये हैं। अत: दो सौ यूनिट तो एकत्रित हो ही गया होगा।’
‘महिलाओं द्वारा तो अभी तक केवल बाईस यूनिट रक्त ही एकत्रित हुआ है।’
‘फिर तो आपने हमसे अधिक रक्त एकत्रित कर लिया।’
‘क्यों मज़ाक़ करते हो गूगल जी?’
‘मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा। देखो, सच तो यह है कि प्रकृति ने महिलाओं में दान करने के लिये खून की कमी रखी है। इसलिये एक महिला द्वारा किया गया रक्तदान मैं दस पुरुषों के बराबर मानता हूँ। अब पुरुषों के तो हुए लगभग दो सौ यूनिट और महिलाओं के हुए बाईस गुना दस - दो सौ बीस यूनिट। तो बताओ, किसके अधिक हुए?’ हँसते हुए गूगल ने कहा।
‘गूगल जी, मुझे आपकी यह बात बहुत अच्छी लगती है कि आप प्रत्येक काम में महिलाओं को बहुत सम्मान देते हो।’
‘अरुणा, स्त्री सदैव सम्मान पाने की अधिकारी रही है। वह सदैव पुरुष की प्रेरणा रही है। अब रक्तदान की बात ही ले लो। मैं आपको रक्तदान करते हुए देखकर ही प्रेरित हुआ। रक्तनारायण कथा करवा कर आपने महिलाओं में स्वैच्छिक रक्तदान की क्रान्ति ला दी है।’
‘गूगल जी, आपके हेलमेट अभियान ने भी युवाओं में जोश भर दिया है.... परन्तु मैं आज तक समझ नहीं पायी कि इन हेलमेटों का खर्चा कौन करता है?’
गूगल ने तपाक से उत्तर दिया - ‘बाँके बिहारी जी करते हैं। देखती नहीं, बिहारी जी का कुठियार हेलमेटों से भरा पड़ा है। इसमें से जितने निकलते हैं, बिहारी जी तुरन्त इसको भर देते हैं, क्योंकि बाँके बिहारी जी को रक्तदान करना और कराना बहुत पसन्द है।’
‘फिर तो उनकी राधा रानी को भी पसन्द हो.....’, अरुणा की बात बीच में ही रह गयी, क्योंकि तभी गूगल के साथी हेलमेट उठाने के लिये आ गये। गूगल और अरुणा की बातों का सुखद तारतम्य टूट गया।
इस कैम्प में एक विशेष बात देखने में आ रही थी। महिलाएँ भी उत्साह से रक्तदान में भाग ले रही थीं। अधिकांश महिलाओं में खून की कमी होने पर भी उनके रक्तदान करने के लिये दो बेड अलग से निर्धारित किये गये थे। महिलाओं को रक्तदान करते हुए देखकर युवक अधिक उत्साह के साथ रक्तदान करने के लिये आगे आ रहे थे।
साँझ होते-होते चार सौ अस्सी यूनिट रक्त एकत्रित हो गया। गूगल बहुत खुश था। बाँके बिहारी जी की कृपा से पापा का जन्मदिन यादगार बन गया था।
रक्तदान शिविर से फारिग होने पर जैसे ही गूगल ने दुकान को खोला तो एक व्यापारी उसकी दुकान पर आया। सामने पड़ी सोफ़ा-कुर्सी को ध्यान से देखने लगा। यह वही कुर्सी थी जिसे गूगल एक दिन कबाड़ी से ख़रीद कर लाया था। इस कुर्सी को गूगल ने साफ़-सुथरी करके वार्निश आदि करके चमका दिया था और यह नयी जैसी लग रही थी। व्यापारी को अत्यधिक बारीकी से कुर्सी को देखते हुए देखकर गूगल समझ गया कि कुर्सी उसके मन को भा गयी है।
‘लाला जी, यह कुर्सी कितने की है?’ लापरवाही का अभिनय करते हुए कुशल व्यापारी ने पूछा।
‘नहीं भाई, यह बेचने के लिये नहीं है...यह तो हमारे ग्राहकों के बैठने के लिये है’, गूगल ने भी कुर्सी का अच्छा मूल्य वसूलने के लिये बहाना बनाया।
‘अरे लाला जी, आपका तो घर का काम है। बैठने के लिये दूसरी बना लेना। बताओ, कितने की देनी है?’ व्यापारी ने आग्रह किया।
गूगल ताड़ गया कि इस व्यक्ति की नज़र में यह कुर्सी चढ़ गयी है। अतः बोला - ‘आपके लिये दूसरी बनवा दूँगा।’
‘क्या बात करते हो लाला जी, साँझ के समय ग्राहक को इंकार नहीं करना चाहिए...बोलो, कितने पैसे दे दूँ?’ व्यापारी जेब से रुपये निकालने लगा।
‘बीस हज़ार की है यह कुर्सी। लकड़ी पर ऐसी कलाकारी आपने कभी देखी नहीं होगी।’
‘बीस हज़ार...एक कुर्सी की क़ीमत बीस हज़ार! कहीं आप पगला तो नहीं गये लाला जी.....लो, चार हज़ार रुपये रखो और कुर्सी मुझे ले जाने दो।’
‘नहीं भाई, हमको नहीं बेचनी।’
‘तो एक बात सुन लो। आख़िरी भाव बता रहा हूँ, .. आठ हज़ार लेने हैं तो ले लो वरना मैं चला...’ कहकर उसने जाने का नाटक किया। उसे लगा कि दुकानदार उसे रोक लेगा, परन्तु गूगल ने ऐसा नहीं किया और अपने काम में लग गया जैसे कि उसे इस ग्राहक के जाने से कोई फ़र्क़ न पड़ा हो।
पाँच मिनट बाद व्यापारी लौट आया और बोला - ‘भई, आप तो बहुत अड़ियल दिखायी देते हो। मेरे पास तो ये बारह हज़ार हैं, और एक पैसा नहीं है। मैं तुम्हें सारे देता हूँ, अब ना नहीं करना।’ गूगल अभी भी नहीं पसीजा और अपने काम में लगा रहा।
निराश होकर व्यापारी याचक-सा बन गया। उसने कहा - ‘लाला जी देखो, मैं आपके पिता की उम्र का हूँ। यदि आप ठीक समझते हैं तो ये बारह हज़ार रख लो। कल मैं तीन हज़ार और दे जाऊँगा और यह सोफ़ा-कुर्सी उठा ले जाऊँगा।’
पिता जी वाली बात सुनकर गूगल द्रवित हो गया। बारह हज़ार लेकर उसने कहा - ‘आप कुर्सी अभी ले जाओ और अपना पता लिखकर दे दो। दो-तीन दिन में मैं शहर आऊँगा तो आपसे तीन हज़ार ले लूँगा।’
‘वाह लाला जी, वाह! आप सचमुच नेक इंसान हो जो एक अजनबी पर इतना विश्वास करते हो। यह लो मेरा कार्ड। जब भी शहर आओ तो मुझे फ़ोन कर लेना।’ कहते हुए व्यापारी ने रिक्शा बुलायी और कुर्सी रखकर चल दिया।
द्वार की ओट से माँ सब सुन रही थी। ‘चार सौ रुपये की कुर्सी....पन्द्रह हज़ार में बेच दी...सचमुच गूगल पारखी है, पारखी। ... हे बाँके बिहारी जी, इसको लम्बी आयु देना’, सोचते हुए माँ की आँखों से आँसू चू पड़े।
कुर्सी पाकर व्यापारी बहुत खुश व उत्साहित था तथा मन-ही-मन विचार कर रहा था - बिलकुल एनटीक पीस है। भगवान ने चाहा तो कम-से-कम पचास हज़ार तो आराम से मिल जायेंगे। लड़का होशियार तो बहुत है परन्तु अनुभव की कमी है।....खैर, भगवान उसका भला करें। है तो बहुत ईमानदार।
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