Manas Ke Ram - 7 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मानस के राम (रामकथा) - 7

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मानस के राम (रामकथा) - 7






मानस के राम
भाग 7



मंथरा द्वारा कैकेई को भड़काना


सारी अयोध्या में दीपोत्सव मनाया जा रहा था। अयोध्यावासी राम के राज्याभिषेक की तैयारी करने में जुटे थे। सभी तरफ हर्षोल्लास था। जिसे भी देखो वह राम के राजा बनने की ही बातें कर रहा था। इन सबके बीच मंथरा मन ही मन कुढ़ रही थी।
जब वह राजमहल में आई तो वहाँ भी हर तरफ राम के राजा बनाने के तैयारी चल रही थी। वह बड़बड़ाती हुई कैकेई के भवन की तरफ चल दी। जब वह कैकेई के पास पहुँची तो उसने पाया कि वह भी राम के राजा बनने पर दिल खोलकर दान करने के लिए बहूमूल्य रत्न, मोती, स्वर्ण आदि निकाल रही है। उसने कैकेई से कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप एक कोने में खड़ी हो गई।
मंथरा कुबड़ी थी। जब कैकई विवाह के बाद अयोध्या आई थी तो वह भी उसके साथ अपना सब कुछ छोड़कर अयोध्या आ गई। यहाँ के माहौल में कुबड़ी मंथरा के लिए अपनी जगह बनाना कठिन था। उसके लिए कुछ अच्छा था तो यह कि कैकेई उसे सम्मान देती थी। कैकेई महाराज दशरथ की सबसे प्रिय रानी थी। उसका प्रभाव महल में अधिक था।‌ कैकेई की मुंह लगी दासी होने के कारण मंथरा का भी महल की दासियों पर प्रभाव था।
मंथरा को लग रहा था कि अभी तक तो कैकेई महाराज को सबसे प्रिय रानी थी। उन पर कैकेई का प्रभाव था। किंतु यदि राम राजा बन गए तो कौशल्या राजमाता बन जाएंगी और कैकेई का महत्व कम हो जाएगा। जब उसकी स्वामिनी का मान नहीं होगा तो उसे कौन पूंँछेगा।
मंथरा को कोने में चुपचाप खड़ा देखकर कैकेई बोली,
"मंथरा सारी अयोध्या में उत्सव का माहौल है। तुम उत्सव मनाने की जगह इस प्रकार चुपचाप क्यों हो ?"
मंथरा कुटिलता से मुस्कुराई। उसकी वह कुटिल मुस्कान कैकेई को अच्छी नहीं लगी। वह बोली,
"तुम इस तरह से क्यों मुस्कुरा रही हो। मैंने क्या कोई गलत बात की है। इस शुभ अवसर पर तुम्हारा इस तरह मुंह लटका कर रहना अशुभ का कारण हो सकता है।"
मंथरा ने कहा,
"यही बात तो है रानी। जब अनर्थ हो रहा है तो कोई प्रसन्न कैसे रह सकता है ?"
कैकेई को यह बात और बुरी लगी। वह क्रोध से बोली,
"क्या अनर्गल बात कर रही हो ? कैसा अनर्थ हो रहा है ?"
मंथरा क्रोध में बोली।
'अनर्थ तो हो रहा है। पर तुम इतनी भोली हो कि कुछ समझ नहीं पा रही हो। तुम्हारा अधिकार छिन रहा है और तुम निश्चिन्त हो। उठो कुछ करो नहीं तो पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा। "
मंथरा की बात सुन कैकेई परेशान हो गई। वह जानती थी कि मंथरा सदा उसके हित की बात करती है। वह उसके पास जाकर बोली,
"खुल कर बताओ मंथरा क्या हुआ ? मेरा ह्रदय बैठा जा रहा है।"
मंथरा कुटिलता से बोली,
"महाराज ने राम का राज्याभिषेक करने की घोषणा की है। राम राजगद्दी पर बैठेगा और कौशल्या राजमाता बनेगी। तुम और तुम्हारा पुत्र भरत उनके दास बन कर रह जाएंगे। "
उसकी बात सुनते ही कैकेई को गुस्सा आ गया। उसे झिड़कते हुए बोली,
"यह क्या कह रही हो मंथरा। राम कभी भी ऐसा नहीं करेगा। वह कौशल्या से भी अधिक मुझे प्रेम करता है। आज इस मंगल अवसर पर कैसी अशुभ बातें कर रही हो तुम। यह समाचर सुन कर मैं बहुत खुश हूँ।"
कैकई के क्रोध को देख कर मंथरा ने बहुत चतुराई के साथ पासा फेंका।
"तुम्हें यह लगता है तो ठीक है। तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं अपने स्वार्थ के लिए कह रही हूँ। राजा चाहे राम हो या भरत। मेरी दशा तो यही रहेगी। मैं कौन सा दासी से महारानी बन जाऊँगी। किन्तु तुम्हारे साथ सदा से रही हूँ। मैंने तो सदैव तुम्हारे सुख में अपना सुख और दुख में अपना दुख जाना है। किंतु तुम तो कुछ समझने को तैयार ही नहीं हो।"
कैकेई कान की कच्ची थी। जल्द ही दूसरों की बात में आ जाती थी। फिर मंथरा तो प्रारम्भ से उसके साथ रही थी। उसकी सबसे चहेती दासी जो उसके साथ विदा होकर महल में आई थी। उसकी बातों का उस पर असर होने लगा। इसे भांप कर मंथरा ने बात आगे बढ़ाई।
"राज मद को शायद तुम नहीं समझती हो। आज जो राम तुम्हें प्रेम करता है। तुम्हारा आदर करता है। कल वही राम तुम्हारे साथ एक साधारण दासी की तरह व्यवहार करेगा। भरत जीवन भर उसके नियंत्रण में रहेगा।"
मंथरा की बातों का कैकेई पर अब पूरा असर हो चुका था। मंथरा ने कहा,
"कौशल्या ने बड़ी चालाकी से अपने मोहरे चले हैं। तुम्हें कुछ भी पता नहीं चलने दिया। अंदर ही अंदर महाराज दशरथ को अपनी तरफ मिला कर उसने राम के राज्याभिषेक के लिए मना लिया। देखो तो उसने क्या सही समय चुना है। भरत अपने ननिहाल में है। उसकी पीठ के पीछे राम राजा बन जाएगा। जब भरत लौटकर आएगा तो उसका दास बन चुका होगा।"
कैकेई को अब मंथरा की हर एक बात सही लग रही थी। जिस परिस्तिथि के बारे में मंथरा बता रही थी उसके बारे में सोंचकर वह कांप उठी। वह महाराज की चहेती थी। उन पर उसका पूरा प्रभाव था। अतः वह जो चाहती थी आसानी से हो जाता था। किंतु राम के राजा बनते ही कौशल्या का प्रभाव बढ़ जायेगा। वह ऐसा नहीं होने देना चाहती थी। अतः उसने मंथरा से कहा,
"मंथरा तुमने सदा मेरा भला चाहा है। आज भी वही कर रही हो। किंतु मैं क्या कर सकती हूँ ? परंपरा अनुसार तो ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता है। राम ज्येष्ठ है। अतः राजगद्दी पर उसका ही अधिकार है।"
मंथरा समझाते हुए बोली।
"यदि तुम चाहो तो बहुत कुछ कर सकती हो। तुम्हें याद है एक बार युद्धभूमि में महाराज घायल हो गए थे। तब तुम बड़ी चतुराई और साहस से उनका रथ युद्धभूमि से निकल का लाई थीं। तुम्हारी सेवा से महाराज के प्राण बचे थे। अतः उन्होंने प्रसन्न होकर तुम से दो वरदान मांगने को कहा था। तब तुमने कहा था कि सही अवसर आने पर मांग लूँगी। महाराज ने वचन दिया था कि जब भी तुम मांगोगी वह तुम्हें मनोवांछित दोनों वरदान अवश्य देंगे।"
कैकेई की तरफ देख कर वह कुटिल अंदाज़ में बोली,
"यही सही अवसर है वरदान मांगने का। तुम महाराज से दो वरदान मांगो एक भरत का राज्याभिषेक दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास।"
मंथरा की बात अब कैकेई के मस्तिष्क में पूरा असर कर चुकी थी। अतः उसने निश्चय किया कि वह महाराज से दोनों वरदान मांग लेगी। उसने अपने सारे आभूषण उतार दिए। केश खोल दिए और बहुत साधारण वस्त्र पहन कर फर्श पर लेट गई।


कैकेई का कोप

महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न थे। वह जल्द से जल्द कैकेई के पास जाकर राम के राजा बनने की खुशी मनाना चाहते थे। उन्हें विश्वास था कि राम के राज्याभिषेक का समाचार सुन कर कैकेई प्रसन्नता से नाच उठी होगी। अतः राज काज से छुट्टी पाते ही वह कैकेई के महल में आये। किंतु वहाँ का वातावरण देख कर दंग रह गए। चिंतित स्वर में कैकेई से बोले।
"तुम्हारा स्वास्थ ठीक नहीं है क्या ? मैं अभी राजवैद्य को बुलाता हूँ।"
कैकेई ने रुष्ट स्वर में कहा,
"उसकी कोई ज़रुरत नहीं है। मेरा स्वास्थ ठीक है।"
"फिर क्या बात है तुम इस तरह भूमि पर क्यों लेटी हो। क्या मुझसे कोई भूल हुई है जिसके कारण तुम्हें ठेस पहुँची है। यदि ऐसा है तो मैं क्षमा चाहता हूँ।"
महाराज दशरथ दुखी होकर बोले। किंतु कैकेई ने कोई जवाब नहीं दिया। वह वैसे ही निश्चल पड़ी रही। महाराज दशरथ अधीर होकर बोले,
"कुछ तो कहो। मेरा दिल बैठा जा रहा है। यदि तुम्हें कुछ चाहिए तो बताओ। मैं तुम्हारी हर मांग पूरी करूँगा। किंतु इस प्रकार रुष्ट ना हो।"
महाराज दशरथ की बात सुन कर कैकेई उठ कर बैठ गई। तिरछे नेत्रों से उन्हें देखते हुए बोली,
"यदि आपको स्मरण हो तो वर्षों पहले मेरी सेवा से प्रसन्न होकर आपने मुझे दो वरदान देने का वचन दिया था। आज मुझे मेरे वो दो वरदान चाहिए। मुझे वचन दीजिये कि मैं जो मांगूंगी आप मुझे देंगे।"
महाराज दशरथ ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा,
"मुझे मेरा वचन अच्छी तरह से याद है। रघुकुल की परंपरा है कि किसी भी स्तिथि में दिए हुए वचन का पालन किया जाए। अतः मैं भी अपने दिए हुए वचन से नहीं फिरूँगा। तुम मांगो जो तुम चाहती हो।"
कैकेई के चहरे पर एक कुटिल भाव आ गया। दृढ स्वर में बोली,
"महाराज मैं चाहती हूँ कि राम के स्थान पर मेरे पुत्र भरत का राज्याभिषेक हो और राम को चौदह वर्षों का वनवास मिले।"
महाराज दशरथ स्तब्ध रह गए। उन्हें कैकई से इस बात की उम्मीद नहीं थी। कुछ देर तक उसी प्रकार चुप बैठे रहे। फिर स्वयं पर नियंत्रण कर बोले,
"यह क्या कह रही हो तुम। ऐसा नहीं हो सकता। इतनी निष्ठुर मत बनो। कुछ और मांग लो।"
"किंतु आप ने मुझे वचन दिया है महाराज।"
"मुझे अपना वचन याद है। किंतु सोंचो राम तुम्हें कौशल्या की तरह सम्मान देता है। तुम उसके लिए इस प्रकार कैसे सोंच सकती हो। राम ज्येष्ठ पुत्र है और सर्वथा योग्य है। फिर उसके स्थान पर भरत को किस प्रकार राजा बनाया जा सकता है। लोग उपहास करेंगे कि सर्वथा योग्य ज्येष्ठ पुत्र के होते हुए उसके अनुज का राज्याभिषेक कर दिया। राम सभी को प्रिय है। उसने कभी भूल से भी किसी को चोट नहीं पहुँचाई। कभी कोई अवांछनीय कार्य नहीं किया। फिर कैसे बिना दोष के उसे वन में भेंज दूँ। इन बातों पर विचार करो।"
महाराज दशरथ ने अनुनय की। कैकेई पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। वह अप्रभावित बैठी रही। उसे इस प्रकार अचल देख कर महाराज दशरथ ने आगे समझाया,
"तुम्हें लगता है कि भरत इस बात से प्रसन्न होगा कि राम के स्थान पर उसे राजा बनाया जाये। वह राम का बहुत सम्मान करता है। निर्दोष राम को वनवास मिले वह कभी इस अनुचित व्यवहार को स्वीकार नहीं करेगा। तुम्हारे लिए उसके ह्रदय में निरादर का भाव उत्पन्न होगा। अतः अपना निर्णय बदल लो। इसके अतिरिक्त यदि तुम मेरे प्राण भी मांगोगी तो ख़ुशी ख़ुशी दे दूँगा।"
एक कुटिल हंसी हंसते हुए कैकेई ने कटाक्ष किया,
"अभी आप रघुकुल की परंपरा का बखान कर रहे थे अब स्वयं ही उसे कलंकित करना चाहते हैं। मेरा निश्चय अटल है। मुझे मेरे वही दो वरदान चाहिए।"
कैकेई के इस हठी व्यवहार से महराज दशरथ को बहुत ठेस पहुँची। आहत होकर बोले,
"हे दुष्ट स्त्री तुझे तनिक भी लज्जा नहीं है। मैंने सदैव तुझे सब रानियों से अधिक प्रेम किया। तेरी हर इच्छा का मान रखा। तू इसका यह बदला दे रही है। तेरे इस सुंदर रूप के पीछे छिपी विषैली नागिन को मैं पहचान नहीं पाया। आज अवसर मिलते ही तूने मुझे डस लिया।"
उसकी तरफ आग्नेय नेत्रों से देख कर बोले,
"तुझे पता है की राम मुझे कितना प्रिय है। उसके साथ यह अन्याय कर मैं जीवित नहीं रहूँगा। विधवा होकर तू राजसुख भोगना चाहती है। आज और इसी समय से मैं तेरे संग सारे संबंधों को तोड़ रहा हूँ। अब तू अकेली इस राज्य की स्वामिनी बन कर सुख भोग।"
अपनी विवशता को दर्शाते हुए बोले,
"मैं वचन से बंधा हूँ किंतु मैं राम को यह अशुभ समाचार नहीं सुना सकता।"
यह कह कर महाराज दशरथ भूमि पर गिर गए और एक आहत पंछी की भांति तड़पने लगे।