30 शेड्स ऑफ बेला
(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)
Day 26 by Gayatri Rai गायत्री राय
दर्द धुआं धुआं
आशा ने धीरे से क़दम बढ़ाया। दबे पांव बेला को सोते देख लौट ही जाना चाहती थी कि बेला ने आवाज़ दी, मां...
आशा चुपचाप बेला के पास आकर बैठ गई। शाम का सन्नाटा पूरे कमरे में बिखरा था। कोई आवाज़ नहीं, बस लॉन से आती मोंगरे की भीनी-भीनी ख़ुशबू चारों ओर तैर रही थी। बेला आशा की गोद में सिर रखकर उसका हाथ पकड़ आंखें बंद किए बिल्कुल मुर्दा सी पड़ी थी। दोनों का दर्द बिना कुछ कहे एक-दूसरे तक पहुंच रहा था।
आशा को चिंता थी, क्या होगा उसकी बेटियों का। एक थकी-हारी सी उसकी गोद में पड़ी थी और दूसरी मीलों दूर अपने जीवन से लड़ रही थी। और ख़ुद आशा? नियति को लौटा देख बेला के चेहरे पर जो ख़ुशी आई थी, उसने आशा को सुख तो दिया था पर एक अनजाना सा डर भी उसके मन में घर कर गया था। कुछ ही दिन तो हुए थे जब उसने पुष्पेंद्र के जीवन में अपना स्थायित्व महसूस किया था, जब उसे लगा था कि जीवन सरिता अब एक लय में बहने लगे शायद। पर आशा भूल गई थी कि इतना सरल जीवन तो नहीं दिया था उसे ईश्वर ने कि एक किनारे जाकर लग जाए। “मां” बेला की आवाज़ ने आशा के दौड़ते दिमाग़ को थाम लिया।
''मां, बहुत थकान लग रही है। कमज़ोरी भी बहुत है। मां, आज फिर वही ठंडा दूध ला दो न, रूह अफ़्ज़ा डालकर जिसे लेकर दादी बचपन में मेरे पीछे-पीछे दौड़ती थीं और मैं कभी नहीं पीती थी, पर पापा तारीफ़ करते नहीं थकते थे। आज तुम्हारे हाथों से उसे पीकर अपना बचपन फिर से जीना चाहती हूं।''
''हां, मेरी बच्ची, अभी लाई।'' आशा उठकर रसोई की तरफ बढ़ गई। बेला शांत नज़रों से मां को जाते देखती रही। क्या उसकी ज़िंदगी भी मां जैसी होकर रह जाएगी जिसे कभी वो न मिला जो उसने चाहा था? क्या उसे भी चुपचाप ज़िंदगी के बहाव में बह जाना होगा? समीर क्या कभी उसके प्यार पर पूरी तरह भरोसा कर पाएगा?लेकिन क्या उसे ख़ुद भी यक़ीन है अपने प्यार के बारे में... उफ़, कब ये चिंताएं बेला के दामन से दूर जाएंगी?
आशा दूध में रूह अफ़्ज़ा मिला ही रही थी कि नियति आ गई। ''आशा, मैं तुम्हें ही ढूंढ़ रही थी। तुमसे कुछ बात करनी हैं, पुष्पेंद्र के बारे में, अपने परिवार के बारे में...''
''अपने परिवार के बारे में,'' ये शब्द आशा के कानों में पिघले सीसे की तरह उतर गए... उसका सब कुछ था, पर फिर भी कुछ नहीं था...
''बस ज़रा बेला को दूध देकर अभी आई। तुम लॉन में बैठो।'' बोलते-बोलते आशा ने नियति की तरफ देखा। असीम शांति थी नियति के चेहरे पर। आशा कुछ समझ नहीं पाई आख़िर क्या बात करनी है नियति को?
बेला को दूध देकर जब आशा लॉन में पहुंची, तो नियति आंखें बंद किए चुपचाप आरामकुर्सी पर पड़ी थी।
''नियति, कुछ कहना चाहती थीं?''
नियति ने आंखें खोलीं। ''आशा, कहना नहीं चाहती, मांगना चाहती हूं और वादा करो तुम मना नहीं करोगी। बोलो, मना तो नहीं करोगी न? तुमने हमेशा मुझे दिया ही तो है, आज भी दोगी ना?''
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छोटी थी आशा नियति से और छोटे होने का दंड उसने हमेशा भुगता। जो चाहा वो किसी और को मिल गया। जीवन का आधार हमेशा खोता रहा था, वो भी बिना आशा की मर्ज़ी के। और दूसरी तरफ नियति जिसे जीवन ने मौक़ा दिया अपने बहाव में अपनी मर्ज़ी से बहने का। जाने कैसे ऐसी ही बातों में आशा का मन डूब गया था। नियति की आवाज़ जैसे उस तक पहुंच ही नहीं रही थी। लेकिन तभी आशा के चोर मन ने उससे चुपके से कहा, “तुमने भी तो धोखा दिया था अपनी बहन को! और पद्मा इसका जीता-जागता सुबूत है! और अभी नियति ने पद्मा के बारे में कोई जवाब मांग लिया तो क्या जवाब दे सकेगी आशा...”
आख़िर क्या मांगना चाहती है नियति? क्या है उसका आशा के पास? क्या वो लौट आना चाहती है वापस पुष्पेंद्र के जीवन में?
कभी आशा की इसी बहन में उसके प्राण बसते थे। बचपन से ही बेहद शांत थी नियति। रंगों में खोई रहने वाली किसी शांत चुपचाप बहने वाली नदी की तरह। लेकिन जब ज़िद्दी और मनमौज़ी आशा उसका हाथ पकडकर बोलती, “नियति दी, मेरे लिए एक बार प्लीज...” तो नियति भी आशा की ही तरह अल्हड़ बन जाती। आशा को आज भी याद है जब उसने पहली बार सिगरेट के धुएं का स्वाद चखा था। कितना मनाया था नियति को! “दी, बस एक बार प्लीज़। चलो न सिगरेट लेते हैं।”
“पागल लडकी, दुकानवाले ने किसी से शिकायत कर दी तो? मोहल्ले के किसी पहचानवाले ने देख लिया तो? घर में रुई की तरह धुनाई हो जाएगी।”
“अरे, हम थोड़े न कहेंगे कि हमें सिगरेट चाहिए! दुकान पर चलेंगे, एक चॉकलेट लेंगे, फिर मैं बोलूंगी, ‘अरे दीदी,पापा ने कौन सी सिगरेट मंगाई थी?’ तुम बोलना,‘कैप्स्टन!’” नियति ने पूछा था, “अच्छा, कैप्स्टन ही क्यों?तूने पहले भी पी है क्या?” “अरे नहीं!” आशा बोल उठी। “बस, वही एक ब्रांड पता है। इंडिया टुडे के आख़िरी पन्ने पर एड नहीं देखा! कितना सुंदर होता है!”
“अच्छा चल, शैतान की ख़ाला! ख़ुद तो मरेगी ही किसी दिन और मुझे भी मरवाएगी।”
आशा की अनगिनत शैतानी योजनाएं और आशा की ख़ुशी के लिए उनमें शामिल हो जाने वाली नियति के क़िस्सों से भरा पड़ा था बचपन। पर बचपन ही तो जीवन का सच नहीं होता! अपनी नियति दी के जिस शांत स्वभाव से अगाध प्रेम था आशा को, उसी ने तो उसके जीवन का सर्वस्व हर लिया था। आशा को क्या पता था कि एक दिन नियति दी ही उसके जीवन का सबसे बड़ा कांटा बन जाएगी! फिर नियति दी को प्यार भी तो नहीं था पुष्पेंद्र से! बचपन से ही आशा का बेहद ख़्याल रखने वाली नियति ने क्यों नहीं समझा कि पुष्पेंद्र आशा के लिए क्या है? क्या वो कभी नहीं देख सकी आशा की आंखों से पुष्पेंद्र के लिए जो अनुराग छलकता था? क्यों हां की थी नियति दी ने पुष्पेंद्र से शादी के लिए?
“आशा, आशा, तुम मुझे सुन रही हो ना?” नियति ने आशा के कंधे पकड़कर झकझोर दिया।