इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(20)
सोम बंबई में अकेले थे पर उसका तो पूरा परिवार था। मुंबई का अकेलापन अच्छों अच्छों को तोड़ देता है। यहां बात करने वाला नहीं मिलता। इस बात को वह अच्छी तरह समझती थी। इसलिये वह सोम को थोड़ा समय दिया करती थी।
एमए के फाइनल पेपर का समय नज़दीक आता जा रहा था ये तो अच्छा था कि वह फीस भर चुकी थी और ट्यूशन छोड़ देने के बाद एक बार फिर बेकार थी। सोम एक कॉर्पोरेशन का काम अतिरिक्त समय में कर दिया करते थे। उनको वहां सभी जानते थे।
कामना के लिये बात की कि यदि जगह खाली हो तो उसे नौकरी पर रख लें। उस कॉर्पोरेशन के सेक्शनहेड सिंह थे। वे सहज ही सहमत हो गये थे। उसे भी तो नौकरी की ज़रूरत थी। भागदौड़ तो होगी, पर ठीक है...मैनेज कर लेगी। चर्चगेट से कॉर्पोरेशन ज्य़ादा दूर नहीं था, पैदल जाया जा सकता था।
वह ऑफिस शाम को पांच बजे छूटता था और वहां से आराम से बस से एलफिन्स्टन कॉलेज पहुंचा जा सकता था। उसकी ज़िंदगी में पुन: आपाधापी शुरू हो गई थी। साथ ही उसने भारत सरकार के एक संस्थान में नौकरी के लिये आवेदन कर दिया था।
पूरा सरकारी अमला था। जब मैनेजमेंट चाहेगा, साक्षात्कार के लिये पत्र भेजेगा। कॉर्पोरेशन में वेतन तय हुआ हज़ार रुपये प्रति माह और नाश्ता फ्री। यह नौकरी कॉन्ट्रेक्ट पर थी और वेतन कन्सोलिडेटेड।
सिंह सर ने यह प्रॉमिस किया था कि जैसे ही स्थायी पद की रिक्ति निकलेगी, वे उसे प्राथमिकता देंगे। उसके काम से कॉर्पोरेशन के लोग बहुत खुश थे और उससे भी ज्य़ादा खुश थे, उसके हंसमुख स्वभाव से।
सिंह साहब क्या कम थे सेक्स के मामले में? एक बार वह उनके केबिन में गई तो उन्होंने उसे सामने वाली कुरसी पर बैठने के लिये कहा और लगातार उसके चेहरे की ओर देखने लगे थे। कामना असहज होने लगी थी और उसने पूछ ही लिया था – ‘क्या देख रहे हैं आप’?
इस पर उन्होंने कुटिल हंसी हंसते हुए कहा था – ‘तुम्हारे गाल पर यह लाल निशान कैसा है? इस पर उसने हंसते हुए कहा था - आपके गाल पर घड़ी उकेर सकती हूं। इतना तेज़ काटूंगी कि न तो आप केबिन से निकल पायेंगे न किसी को मुंह दिखा पायेंगे
....रात को यदि यहां से निकल भी गये तो घर पर जवाब नहीं दे सकेंगे...जवाब तो तब देंगे जब आप घर जायेंगे। पता है न...पत्नियां कितनी शक्की होती हैं?’ यह सुनकर वे कटकर रह गये थे और मानो उन पर घड़ों पानी पड़ गया था।
उसके बाद कामना को केबिन में बुलाना बंद कर दिया था। टाइपिस्ट के हाथों पेपर बाहर भेज दिया करते थे। वह अनुवाद करके टाइपिस्ट के हाथों में दे देती थी। केबिन, बेडरूम...ये सब टंटे की जगहें हैं और सारे कांड यहीं होते हैं। उसे इन सबमें कोई दिलचस्पी न थी और न है।
वह तो रात को सब कमरों के दरवाज़े खुले रखती थी और कोई भी किसी के कमरे में सो सकता था। इसलिये सोम के सभी दोस्त सहज महसूस करते थे। एक मित्र ने कहा भी था – ‘कामना जी, आपके घर आना अच्छा लगता है। किसी भी कमरे के दरवाजे बंद नहीं होते
....अन्य घरों में जब दोपहर को पति-पत्नी अपना कमरा बंद कर लेते हैं तो खुद को अपमानित महसूस करता हूं’। यह सुनकर वह हंसकर रह जाती थी। ये मशरूम से फैलते कच्चे रिश्ते, समीकरणों से बनते-बिगड़ते रिश्ते और नित नये दोस्त।
....सब रिश्तों का बंटाधार हो रहा है...जहं जहं पैर पड़े संतन के....तहं तहं बंटाधार। वह देख रही है बदलते ज़माने को। पहले के ज़माने में ऐसा नहीं था...दो या एक दोस्त। पिताजी के दो दोस्त थे जो घर आ सकते थे।
वे इस दुनिया से कूच कर गये तो कोई नहीं आता था और एक दिन पिताजी भी निकल लिये इस दुनिया से... खुले आसमान में मस्ती मार रहे होंगे...और यह सोचकर आंखें छलकते छलकते रह गई थीं। उसने उबारा खुद को और वर्तमान में लौट आई थी।
लेखाधिकारी मिस्टर मांजरेकर जब चेक देने के लिये बुलाते थे, तो हमेशा कहते थे – ‘कामना मैडम, तुम्हीं खूप छान हसतात। मला खूप आवडतात तुम्हीं आणि तुमचा हसरा चेहरा।‘ यह कहते समय उनके चेहरे पर एक सौम्यता और आंखों में बच्चों की सी सरलता होती थी।
उसे इसमें कोई बुराई नहीं लगती थी। वह सिर्फ़ इतना ही कहती थी – ‘अस का सर? मला माहितीच नाय। कॉम्प्लीमेंट बद्दल तुमचा आभार।‘ सोम और कामना की अब अच्छी तरह पटने लगी थी। बीच में एमए में उसके साथ पढने वाली कुछ छात्राएं टांग ज़रूर अड़ाने लगी थीं।
एक छात्रा तो सोम को बीयर पिलाने ले जाती थी। वह उस समय वह ऑफिस में होती थी। जब उसे इस बात का पता चला तो उसने उस लड़की को यूनिवर्सिटी के लॉन में अकेले में बुलाकर कहा – ‘देखो, यदि तुम सोम से शादी करने की इच्छुक हो तो मैं रास्ते से हट जाती हूं,
....लेकिन यदि सिर्फ़ टाइम पास करने के लिये या अपने इन पान खाये ख़राब दांतों से मुझे नीचा दिखाना चाहती हो, तो अपनी लिमिट में रहो।‘ उसे ज़िंदगी में कुछ भी तो आसानी से नहीं मिला था....हर बात के लिये संघर्ष. संघर्ष और अनवरत संघर्ष।
एक बार शाम को जब सोम और वह बातें कर रहे थे तो मौका पाकर वह बोली थी…बोली ही नहीं, सीधे प्रस्ताव रख दिया था एक तरह से। पहल तो किसी न किसी को करना ही था। ‘देखिये सोम, यदि आप इस दोस्ती को स्थायी संबंध में बदलना चाहते हैं तो स्पष्ट रूप से कह दीजिये।
....हमेशा रेस्तरां, जुहू और लॉन में मिलना ठीक नहीं है। यदि यह संबंध मटीरियलाइज होता है तो ठीक है, वरना उस रिश्ते के लिये हां कह दूंगी जो मेरे पिताजी देख रहे हैं। उनका कलकत्ता में कांच का कारख़ाना है। वक्त बहुत कम है मेरे पास।
....यदि आप जल्दी निर्णय नहीं लेंगे तो हमारे रास्ते जल्दी ही अलग हो जायेंगे।‘ यह सुनते ही सोम बोले थे – ‘आपने तो मेरे सिर पर बोझ की गठरी रख दी है। अपना टेंशन कम करके मेरे सिर का दर्द बढ़ा दिया है।‘ इस बात को भी वह पी गई थी। निर्णय तो कामना को ही लेना था।
कारण साफ था कि बाहर के शहरों से आने वाले लोग मुंबई की लड़कियों को टाइम पास का साधन समझते थे और शादी अपने शहर में अपने माता-पिता की पसंद से करते थे। कामना अपनी ज़िंदगी से ऐसा खिलवाड़ कैसे होने दे सकती थी?
वह अपने साथ ऐसा बिल्कुल नहीं होने देगी। यह उसने शुरू से ही सोच रखा था। मुंबई की लड़कियां और वह भी मराठी लड़कियां शादी के बाद सबसे पहले अपना घर बनाने की तमन्ना रखती हैं, भले ही एक छोटा सा घर हो, एक अदद नौकरी...ताकि अपने शौक़ पूरे कर सकें।
हर छोटी छोटी बात के लिये पति, ससुराल या मायके पर क्या आश्रित रहना। वह यह जानती थी कि किसी के लेने-देने से पूरा नहीं पड़ता। अंततः: खुद ही मेहनत करना होता है। जो जितना देता है, वह उससे दुगना पाने की इच्छा रखता है।
तीन-चार दिन बाद सोम ने कहा – ‘आप अपनी फोटो खिंचवाकर दे दीजिये। माता-पिता को भेजना है।‘ उस दिन कामना ने सिल्क की प्रिंटेड काली साड़ी पहनी थी। कानों में फिर भी कुछ नहीं पहना था।
उसने उसी समय फुटपाथ से पांच रुपये के काले बटन खरीदे थे और उन्हें पहनकर फोटो खिंचवाने चली गई थी। सोम के घरवालों ने फोटो देखकर उसे पसंद कर लिया था। सोम के पिताजी ने पिताजी और उसे दो दिनों के लिये अपने शहर आमंत्रित किया था।
सोम का परिवार बड़ा था, इसलिये वे सब मुंबई तो नहीं आ सकते थे। वह अपने पिताजी के साथ उनसे मिलने गयी थी। स्टेशन पर सोम के पिताजी लेने आये थे। खूब हंसकर स्वागत किया था। वे टैक्सी से घर ले गये थे। सभी ने घर पर कामना का स्वागत किया था और सभी आये भी थे उसे देखने।
सोम का परिवार ही इतना बड़ा था कि सौ लोग तो होंगे ही कुल मिलाकर। वह सोच रही थी कि शादी में यदि मेहमानों को न बुलाया जाये तो भी चलेगा। कामना ने पनीर पहली बार वहीं खाया था। उस दिन उसने सूती साड़ी पहनी थी। काला, सफेद और लाल रंग का कम्बीनेशन था।
उस पर तिरछे स्ट्राइप्स थे और उन दिनों इस तरह की साड़ियों का चलन शुरू ही हुआ था। काला रंग तो उसके व्यक्तित्व का हिस्सा था। उस रंग के बिना तो वह साड़ी खरीद ही नहीं पाती। उसका वश चलता तो शादी की साड़ी भी काले और राख के रंग के कम्बीनेशन की खरीदती।
वे लोग हैरान थे कि लंच के बाद वह इस साड़ी में दो घंटे सोई थी और उसके बाद भी उसकी सूती साड़ी में एक भी सिलवट नहीं पड़ी थी। उसने हंसते हुए कहा था – ‘मेरी परमिशन के बिना न तो साड़ी हिल सकती हैं और न सिर के बाल।‘ यह सुनकर वे लोग खुश हुए या नहीं, पता नहीं. यह एक अलग मुद्दा था।
वह वहां दो दिन रहकर पिताजी के साथ आगरा चली गई थी अपने ननिहाल। सगाई के लिये वे लोग मुंबई आये थे। जनवरी का महीना था। सोम का परिवार एलटीसी पर निकला था और बंबई वे इसी मकसद से रुक गये थे। यह सब इतना अचानक हुआ था कि पिताजी ज्य़ादा कुछ इंतज़ाम कर ही नहीं पाये थे।
वे लोग मई में ही शादी चाहते थे। इस पर पिताजी तो कुछ नहीं बोले थे, पर वह बोली थी – ‘मई में मेरे फाइनल ईयर के पेपर हैं। शादी के लिये मई ठीक नहीं है।‘ इस पर सोम के पिताजी का स्वर थोड़ा बदला था ....और कहा था, ‘पेपर शादी के बाद भी दिये जा सकते हैं। हम पढ़ने से थोड़े ही रोक रहे हैं।‘
अब कामना और पिताजी एक स्वर में बोले थे – ‘शादी के बाद पढ़ाई करने में मुश्किल होती है। शादी तो पेपरों के बाद ही होगी। एक ही महीने की तो बात है।‘ इस पर सब चुप हो गये थे और बोले थे। ‘दिल्ली पहुंचकर सबसे बात करके शादी की तारीख तय कर लेंगे।‘ तीन-चार दिनों के बाद सोम और उसकी मुलाक़ात यूनिवर्सिटी के लॉन में हुई थी। शादी किस तरह होगी, इस पर विस्तृत चर्चा हुई थी। सोम ने बताया था कि शादी दिल्ली में होगी और आर्य समाजी पद्धति से होगी। दोनों ने तय किया कि वह न तो अपने मायके से कुछ दहेज लायेगी और न ससुराल पक्ष से कुछ लेगी।
उसने अपनी बहन की शादी में दिये गये दहेज का हश्र देख लिया था। अपनी मेहनत से वे अपना घर बनायेंगे। एक एक चम्मच अपने पैसे से खरीदेंगे। इस मामले में सोम समझदार थे और दोनों की बातें पिताजी ने सहर्ष मान ली थीं।
शादी के लिए कामना के परिवार का रहने का का इंतज़ाम सोम ने अपने संगठन की कॉलोनी में करवा दिया था। दिन में सिंपल शादी। शाम को सिर्फ रिसेप्शन।
मेहंदी की रस्म के समय सोम की मां का कहना था – ‘हमारे यहां मेहदी नहीं लगाते।‘
इस पर अम्मां बोली थीं – ‘हमारे यहां से कामना कोरे हाथ नहीं जायेगी। हम तो मेंहदी लगवाकर ही शादी और विदा करेंगे। शादी के बाद आपके शगुन-अपशकुन माने जायेंगे।‘
कामना को मेंहदी का बहुत शौक था किसी ज़माने में। उन दिनों हाथों पर मुठिया और दूसरे हाथ पर बीच में बड़ा गोला और चार किनारों पर छोटे छोटे टिपके...क्या तो सुर्ख़ रचती थी मेंहदी और सहेलियां कहती थीं – ‘कामना, तेरा पति तुझे बहुत प्यार करेगा।‘
अम्मां हंसकर कहती थीं - तुमकों म्हैंदी घोरकें प्याय देंगे। पेट तक लाल है जायैगौ।‘ ये कैसा अपशकुन था कि ससुराल में मेंहदी नहीं लगा सकती थी। क्या क्या छोड़ना पड़ेगा शादी के बाद...पता नहीं और वह खुद को मानसिक रूप से तैयार करने लगी थी।
अम्मां की बात के बाद कोई कुछ नहीं कह सका था और इस तरह कामना के हाथों में मेंहदी लगी थी और चूड़ा ससुराल पक्ष से था। कामना की ननद ने कामना का मेकअप किया था और गायत्री ने यह देखकर कहा – क्या रामलीला के पात्रों की तरह सज और सजा रहे हैं। जल्दी करो।
यह सुनकर कामना की ननद को बुरा लगा था पर वह हंसकर टाल गई थी। वैसे भी ससुरालिया बुरा जल्दी मानते हैं। रामलीला शब्द सुनकर कामना को जोगेश्वरी के वे पुराने दिन याद आ गये जब वे सारी सहेलियां मिलकर नाले पार बसे मथुरा वाले परिवारों के घर में दोपहर को रामलीला खेला करते थे और वह लक्ष्मण की भूमिका किया करती थी।
उसके बाल घुंघराले और लंबे थे और वह उन बालों को डबल करके चिमटियों से यू शेप देती थी और ऊपर से चुटीले लगा लेती थी, जो फुदनियों का काम करते थे।
उसे यह डायलॉग बोलने में बहुत मज़ा आता था – ‘ऐ रावण, तू धमकी दिखाता किसे....तेरी धमकी का डर तो मुझे है नहीं।‘ यह सोचकर वह आज भी खूब हंसती है अकेले ही अकेले। क्या दिन थे, पैसा बेशक कम था, पर मनोरंजन के अपने तरीके थे।
मुकुट बनाये जाते थे और उसके लिये अपनी कॉपियों के गत्ते उखाड़े जाते थे। राम और रावण के मुकुट बड़े और उस पर सुनहरे सेल्फ डिज़ाइन किये हुए काग़ज़ लेई, जो मैदे से बनाई जाती थी, उससे चिपकाये जाते थे और छोटे राजाओं के मुकुटों पर सिगरेट के पैकेट की सिल्वर रंग की पन्नी चिपकाई जाती थी।
सींकवाली झाडू की सींकों से धनुष बाण और गत्ते को ही हल्का सा एल शेप देकर, उस पर सिल्वर रंग की पन्नी लगाकर तलवार बना लेते थे, जो लड़ते समय बीच में ही टूटकर गिर जाती थी और सैनिक गिर जाता था, यानी मर गया समझ लिया जाता था।
जो बड़ी रामलीला होती थी, वह महाराज भवन बिल्डिंग के सामने वाले बड़े मैदान में होती थी। मैदान के पीछे राणे प्रसूतिगृह था, जहां अम्मां ने एक बेटे को जन्म दिया था और वह ढाई साल की उम्र में ही मर गया था। बहुत खूबसूरत था, वह, पर फोटो कोई नहीं थी उसकी।
उस समय फोटो का चलन ही नहीं था। कामना और पिताजी से बहुत हिला हुआ था। उसका नाम पंकज था। आज कामना ने अपना अतीत याद किया तो उसे अपना छोटा भाई पंकज भी याद आ गया था। उसी मैदान के बायीं ओर चाल के सामने से निकलकर अपने म्युनिसपैलिटी के स्कूल जाना होता था।
महाराज भवन के सामने वाले मैदान में रात को नौ बजे रामलीला शुरू होती थी, पर लोग आठ बजे से आकर जगह घेरना शुरू कर देते थे। कोई चटाई लाता था तो कोई टाट का टुकड़ा तो कोई पूजा का आसन लाता था।
ठीक नौ बजे राम की आरती के साथ रामलीला शुरू कर देते थे। एक दिन जब लक्ष्मण मूर्छित हुए और हनुमान संजीवनी लेने गये तो वापिस ही नहीं लौटे। तंग होकर रात के एक बजे मूर्छित लक्ष्मण खड़ा हो गया और बोला –
‘कितने बजे तक लेटा रहूं? भूख और प्यास दोनों लग रही हैं’। दर्शकों की हंसी के फव्वारों के बीच स्टेज का पर्दा गिर गया था। कामना रामलीला के ग्रुप से हिली-मिली थी और वानर सेना में हिस्सा लेती थी।
दूसरे दिन हनुमान बनने वाले आदमी ने बताया – ‘पर्वत लाना था न, तो सोचा कि घर से खाना खाकर जायेंगे और खाना खिलाने के बाद पत्नी ने घर से निकलने ही नहीं दिया’ और कहा – ‘कोई ज़रूरत नहीं है रात को जाने की।